भृगु मुनि के
पुत्र च्यवन महान तपस्वी थे। एक बार वे तप करने बैठे तो तप करते-करते उन्हें
हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में दीमक-मिट्टी चढ़ गई और
लता-पत्तों ने उनके शरीर को ढँक लिया। उन्हीं दिनों राजा शर्याति अपनी चार
हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ इस वन में आये। सुकन्या
अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते
च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र
दिखाई पड़ रहे हैं जो कि वास्तव में च्यवन ऋषि की आँखें थीं। सुकन्या ने कौतूहलवश
उन छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने
लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहाँ से चली गई।
आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो
जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र
रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछा
कि क्या किसी ने च्यवन ऋषि को किसी प्रकार का कष्ट दिया है? उनके इस प्रकार पूछने पर सुकन्या ने सारी
बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने तत्काल च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर
क्षमायाचना की। च्यवन ऋषि बोले कि राजन्! तुम्हारी कन्या ने भयंकर अपराध किया है।
यदि तुम मेरे शाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ
करना होगा। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो गया।
सुकन्या अत्यन्त पतिव्रता थी। अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष
व्यतीत हो गये। हठात् एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दोनों अश्वनीकुमार आ पहुँचे।
सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं।
तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान
कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के
लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी
लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और वे अश्वनी कुमार
जैसे ही युवक बन गये। उनका रूप-रंग, आकृति आदि
बिल्कुल अश्वनीकुमारों जैसा हो गया। उन्होंने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें
से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि
और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज
बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को
आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये।
जब राजा शर्याति को च्यवन
ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त
प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन
ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्वनीकुमारों को भाग दिया जाने
लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की
पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्वनीकुमारों
को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन
ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया।
वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्वनीकुमारों
को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके
इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिला दी।
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