Tuesday, March 19, 2019

Gayatri Mantra (गायत्री महामंत्र महिमा)

ॐ भूर्भुवः स्वः ।
तत्स॑वि॒तुर्वरेण्यं॒
भर्गो॑ दे॒वस्य॑धीमहि ।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त् ॥
गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 'ॐ भूर्भुवः स्वः' और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रुप मे भी पुजा जाता है।
'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिता के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है:
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)
भावार्थ -
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
ॐ = परब्रह्मा का अभिवाच्य शब्द
भूर = मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला
भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला
स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला
तत = वह
सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल
वरेण्यं = सबसे उत्तम
भर्गो- = कर्मों का उद्धार करने वाला
देवस्य- = प्रभु
धीमहि- = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान)
धियो = बुद्धि
यो = जो
नः = हमारी
प्रचो- दयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना)
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स्रोत - ऋग्वेद मंडल ३ सूक्त ६२ मंत्र १०
यजुर्वेद अध्याय ३ मंत्र ३५ | अध्याय २२ मंत्र ९ | अध्याय ३० मंत्र २ | अध्याय ३६ मंत्र ३
सामवेद उत्तरार्थिक १३.३.३

Monday, February 11, 2019

कारक को समझने का सरल तरीका 】 *संस्कृत_भाषा_में_छः_कारक_होते_हैं--* १) कर्ता २) कर्म ३) करण ४) सम्प्रदान ५) अपादान ६) अधिकरण।

कारक को समझने का सरल तरीका

*कारक_प्रकरण*

सूत्र:- *क्रियान्वयि_कारकं।*
*व्याख्या:-* क्रिया के साथ जिसका प्रत्यक्ष संबंध हो, उसे कारक कहते हैं।
यथा:- राम संस्कृत पढता है ।
      रामः संस्कृतम् पठति । 【यहां राम और संस्कृत कारक है।】
*संस्कृत_भाषा_में_छः_कारक_होते_हैं--*

१) कर्ता २) कर्म ३) करण ४) सम्प्रदान ५) अपादान ६) अधिकरण।

【 *तथ्य:-* *सम्बन्ध और सम्बोधन कारक नहीं है,इसे मात्र विभक्ति माना जाता है।* 】

*विभक्ति:-*
*सूत्र:-* *संख्याकारकबोधयित्री_विभक्ति:।*
*व्याख्या:-* जो कारक और वचन विशेष का बोध कराये ,उसे विभक्ति कहते है।
दूसरे शब्दों में, जिसके द्वारा कारकों और संख्याओं को विभक्त किया जाता है उसे विभक्ति कहते हैं।
*विभक्ति_के_प्रकार :-*
विभक्तियाँ सात हैं - १.प्रथमा  २.द्वितीया ३.तृतीया ४.चतुर्थी ५.पंचमी ६.षष्ठी ७.सप्तमी ।
#कारक_के_नाम      #चिह्न          #विभक्ति
   कर्ता              ने            प्रथमा
   कर्म              को।          द्वितीया
   करण            से,【द्वारा】     तृतीया
  सम्प्रदान          को, के लिए      चतुर्थी
  अपादान          से ,【अलग】    पंचमी
  सम्बन्ध          का,के,की,रा,रे,री    षष्ठी
अधिकरण           में ,पर          सप्तमी।

*कर्ता_कारक_【Nominative_Case】*
*१.सूत्र:- क्रियासम्पादकः_कर्ता।*
व्याख्या:- क्रिया का सम्पादन करने वाले को कर्ता कारक कहते हैं। कर्ता कारक का चिह्न  "0,ने " है।
यथा:-  *वह *  किताब पढता है।  *सः* पुस्तकम् पठति।
         *राधा* गीत गाती है । *राधा* गीतं गायति।
यहाँ *सः* और *राधा* कर्ता कारक है ।

*२.सूत्र:- कर्तरि_प्रथमा ।*
व्याख्या:- कर्ता कारक में प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा:- *राम* स्कूल जाता है। *रामः* विद्यालयम् गच्छति।
यहाँ रामः में प्रथमा विभक्ति है ,क्योंकि *राम*कर्ता कारक है ।

*३.सूत्र:- प्रातिपदिकार्थमात्रे_प्रथमा।*
व्याख्या:- किसी भी शब्द का अर्थ-मात्र प्रकट करने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
यथा :- *जनः* (आदमी), *लोकः* (संसार), *फलम्* (फल), *काकः* (कौआ) *आदि।*

*४.सूत्र :- उक्ते_कर्तरि_प्रथमा ।*
व्याख्या :- कर्तृवाच्य (Active Voice)में जंहाँ कर्ता पद "कहा गया" रहता है वहाँ उसमे प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा:- *राम* घर जाता है । *रामः* गृहम् गच्छति।

*५.सूत्र:- सम्बोधने_च ।*
व्याख्या :- सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा :- *हे_राम ! यहाँ आओ। हे_राम!* अत्र आगच्छ ।

*६.सूत्र:-अव्यययोगे_प्रथमा ।*
व्याख्या :- अव्यय के योग में प्रथमा विभक्ति होती है ।
यथा :- *मोहन*  कहाँ  है? *मोहनः* कुत्र अस्ति?
यहाँ मोहन कर्ता नहीं है फिर भी कुत्र अव्यय होने के कारण मोहन में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ ।

*७.सूत्र:-उक्ते_कर्मणि_प्रथमा।*
व्याख्या:- कर्मवाच्य (Passive Voice) में जहाँ कर्ता पद "कहा गया" रहता है , वहाँ उसमे प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा :- (क)राम के द्वारा घर जाया जाता है। रामेण *गृहम्* गम्यते।(ख)तुझसे साधु की सेवा की जाती है। त्वया #साधुः सेव्यते। आदि।

*कर्म_कारक 【Objective_Case】*

*१.सूत्र:- कर्तुरीप्सिततमम्_कर्मः।*
व्याख्या:- कर्ता की अत्यंत इच्छा जिस काम को करने में हो उसे कर्म कारक कहते हैं।
          या, क्रिया का फल जिस पर पड़े, उसे कर्म कारक कहते हैं।
                *कर्म कारक का चिह्न "o, को" है।*
यथा :- रमेश फल खाता है । रमेशः *फलम्* खादति।
           मोहन दूध पिता है । मोहनः *दुग्धं*पिबति।
यहाँ फलम् और दुग्धं  कर्म कारक है क्योंकि फल भी इसीपर पर रहा है और कर्ता की भी अत्यन्त इच्छा भी इसी काम को करने में है।

*२.सूत्र:- कर्मणि_द्वितीया।*
व्याख्या :- कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है।
यथा:- गीता चन्द्रमा को देखती है। गीता *चंद्रम्*पश्यति।
          मदन चिट्ठी लिखता था । मदनः *पत्रं*लिखति।
यहाँ चंद्रम् और पत्रं में द्वितीया विभक्ति है,क्योंकि ये दोनों कर्म कारक हैं।

*३.सूत्र:-क्रियाविशेषणे_द्वितीया।*
व्याख्या:- क्रिया की विशेषता बताने वाले  अर्थात् क्रियाविशेषण (Adverb) में द्वितिया विभक्ति होती है।
      【 *क्रियाविशेषण- तीव्रम् , मन्दम् ,मधुरं आदि।* 】
यथा:- (क) बादल धीरे-धीरे गरजते है। मेघा: *मन्दम्-मन्दम्* गर्जन्ति। (ख) प्रकाश मधुर गाता है। प्रकाशः *मधुरं* गायति।(ग)वह जल्दी जाता है। सः *शीघ्रं* गच्छति।आदि

*४.सूत्र:-अभितः_परितः_सर्वतः_समया_निकषा_प्रति_संयोगेऽपि_द्वितिया।*
व्याख्या :-उभयतः,अभितः(दोनों ओर), परितः (चारों ओर), सर्वतः (सभी ओर), समया( समीप), निकषा (निकट), प्रति (की ओर) के योग में द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा:-(क) गाँव के दोनों ओर पर्वत हैं। *ग्रामं* अभितः पर्वताः सन्ति ।(ख) विद्यालय के चारों ओर नदी है। *विद्यालयम्* परितः नदी अस्ति। (ग) घर के सब ओर वृक्ष हैं। *गृहम्* सर्वतः वृक्षाः सन्ति। (घ) तुम्हारे घर के समीप  मंदिर है। *गृहम्* समया मन्दिरं अस्ति। (ङ) मंदिर की ओर चलो। *मन्दिरं* प्रति गच्छ। आदि

*५.सूत्र:- कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे_द्वितिया।*
व्याख्या :- कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में यदि क्रिया का अतिशय लगाव या व्याप्ति हो तो द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा :- कोस भर नदी टेढ़ी है। *क्रोशम्* कुटिला नदी ।
        मैं महीने भर  व्याकरण पढ़ा। अहम् *मासं* व्याकरणं अपठम्।

*६. सूत्र:- विना_योगे_द्वितिया ।*
व्याख्या:- "विना" के योग में द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा :-(क) परिश्रम के बिना विद्या नहीं होती ।
                *परिश्रमम्* विना विद्या न भवति ।
          (ख) धन के बिना लाभ नहीं होता।
                 *धनम्* विना लाभं न भवति । आदि।
                              

*करण_कारक* l *(Instrumental_Case):-*

*१.सूत्र:-साधकतमं_करणं।*
व्याख्या:- क्रिया को करने में जो अत्यंत सहायक हो, उसे करण कारक कहते हैं।
            *करण कारक का चिह्न "से (द्वारा)" है।*
यथा:- (क.)राम ने रावण को तीर से मारे।
          रामः रावणं *वाणेन*  हतवान्।
          (ख).वह मुख से बोलता है। सः *मुखेन* वदति।
यहाँ मारने में "तीर" और बोलने में "मुख" सहायक है, इसलिए दोनों में करण कारक होगा।

*२.सूत्र:- करणे_तृतीया।*
व्याख्या:- करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:-(अ). मैं कलम से लिखता हूँ। अहम् *कलमेन* लिखामि।
         (ब.) राजा रथ से आते हैं । राजा *रथेन* आगच्छति।
यहाँ "कलमेन" और "रथेन" करण कारक है इसलिए दोनों में तृतीया विभक्ति होई।

*३.सूत्र:- सहार्थे_तृतीया।*
व्याख्या:- "सह (साथ)" शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। (सह, साकम्, सार्धम् समम्=साथ)
यथा:- (a.)राम के साथ सीता वन गई।
         *रामेण* सह सीता वनम् अगच्छत।
         (b.) रमेश मित्र के साथ खेलता है ।
          रमेशः मित्रेन् सह क्रीडति।
        (c.)मैं सीता के साथ जाता हूँ।
         अहम् *सीतया* सार्धम् गच्छामि। आदि

*४.सूत्र:- अपवर्गे_तृतीया।*
व्याख्या:- अपवर्ग अर्थात् कार्य समाप्ति या फल प्राप्ति के अर्थ में कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- (अ)वह एक वर्ष में व्याकरण पढ़ लिया।
          सः *वर्षेण* व्याकरणं अपठत्। (कालवाचक)
          (ब)मैंने तीन कोस में कहानी कह दी।
             अहम् क्रोशत्रयेण कथां अकथयम्।

*५.सूत्र:-हेतौ_तृतीया।*
व्याख्या:- हेतु या कारण का अर्थ होने पर तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- वह कष्ट से रोता है। सः *कष्टेन* रोदिति।
        लड़का हर्ष से हँसता है। बालकः *हर्षेण* हसति।

*६.सूत्र:-ऊनवारणप्रायोजनार्तेषु_तृतीया।*
व्याख्या:- ऊन(हीन) ,वारण (निषेध) और प्रयोजनार्थक  शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- 1. एक कम - *एकेन* हीनः।
         2. कलह मत करो- *कलहेन* अलम्।
         3. राम के समान - *रामेण* तुल्यः।
         4. कृष्ण के समान - *कृष्णेन* सदृशः। आदि

*७.सूत्र:-येनाङ्गविकारः।*
व्याख्या:-जिस अंगवाचक शब्दों से विकार का ज्ञान प्राप्त हो , उस विकार रूपी अंग में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- मोहन पैर से लाँगड़ा है। मोहनः *पादेन* खञ्जः।
       सीता पीठ से कुबड़ी है । सीता *पृष्ठेन* कुब्जा ।
       वह आँख से अँधा है। सः *नयनाभ्याम्* अंधः।
       सुरेश कान से बहरा है। सुरेशः *कर्णाभ्याम्* बधिरः।

*८.सूत्र:-इत्थंभूत_लक्षणे_तृतीया।*
व्याख्या:- जिस लक्षण विशेष से कोई वस्तु या व्यक्ति पहचानी जाती हो , उस लक्षणविशेष वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:-     1.वह जटाओं से तपस्वी मालुम पड़ता है।
             सः *जटाभिः* तापसः प्रतीयते।
             2.सोहन चन्दन से ब्राह्माण मालुम पड़ता है।
             सोहनः *चंदनेन* ब्राह्मणः प्रतीयते।

*९.सूत्र:-अनुक्ते_कर्तरि_तृतीया।*
व्याख्या:- कर्मवाच्य और भाववाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:-(अ) राम के द्वारा रावण मारा गया।
          रामेण रावणः हतः।
        ( ब) मेरे द्वारा हंसा गया।
            मया हस्यते।
                       

*सम्प्रदान_कारक* *( Dative_Case ):-*

*१.सूत्र:- कर्मणा_यमभिप्रैती_स_सम्प्रदानं।*
व्याख्या:- जिसके लिए कोई क्रिया (काम )की जाती है, उसे सम्प्रदान कारक कहते है।
*दूसरे_शब्दों_में-* जिसके लिए कुछ किया जाय या जिसको कुछ दिया जाय, इसका बोध कराने वाले शब्द के रूप को सम्प्रदान कारक कहते है।
          इसकी विभक्ति चिह्न'को' और 'के लिए' है।
यथा:- (क).माता बालक को लड्डू देती है।
                माता बालकाय मोदकम् ददाति ।
          (ख).राजा ब्राह्मण को वस्त्र देते हैं।
                  राजा  विप्राय वस्त्रं ददाति।

*२. सूत्र:-सम्प्रदाने_चतुर्थी ।*
व्याख्या:- सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- वह गरीबों को अन्न देता है।
         सः *निर्धनेभ्यः* अन्नम् ददाति ।
यहाँ गरीब के लिए क्रिया की जाती है और साथ हीं गरीब को अन्न भी दिया जा रहा है इसलिए यह सम्प्रदान कारक है और सम्प्रदान कारक होने के कारण "गरीब" में चतुर्थी विभक्ति हुआ ।

*३.सूत्र:- रुच्यार्थानां_प्रीयमाणः।*
व्याख्या:-  "रुच्" (अच्छा लगना) धातु के योग में जिस व्यक्ति को कोई चीज अच्छी लगती हो , उस अच्छी लगने वाले वास्तु में चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- मुझे मिठाई अच्छी लगती है।
       *मह्यम्* मिष्ठानं रोचते ।
          गणेश को लड्डू पसंद है।
         *गणेशाय* मोदकम् रोचते ।
          हरि को भक्ति अच्छी लगती है।
       *हरये* भक्तिः रोचते।

*४.सूत्र:- नमः_स्वस्तिस्वाहास्वधाsलंवषट्_योगाच्च।*
व्याख्या:- नमः(प्रणाम), स्वस्ति (कल्याण हो), स्वाहा ,स्वधा (समर्पित), अलम् (पर्याप्त), आदि के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- सरस्वती को प्रणाम । *सरस्वत्यै* नमः।
          शिव को नमस्कार । *शिवाय* नमः।
         लोगों का कल्याण हो । *जनेभ्यः* स्वस्ति।
         गणेश को समर्पित । *गणेशाय* स्वाहा ।
         पितरों को समर्पित । *पितरेभ्यः* स्वस्ति।
राम रावण के लिए पर्याप्त हैं। रामः *रावणाय* अलम्।

*५.सूत्र:-  क्रुधद्रुहेर्ष्यासूयार्थानां_यं_प्रति_कोपः।*
व्याख्या:- क्रुध्, द्रुह्, ईर्ष्या,असूया अर्थवाची क्रियाओं के योग में जो इनका विषय होता है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.मालिक नौकर पर क्रोध करता है।
         स्वामी *भृत्याय* क्रुध्यति।
       2.  वेलोग रमेश से द्रोह करता है।
         ते *रमेशाय* द्रुह्यन्ति/ आसूयन्ति/ इर्ष्यन्ति।

*अपादान_कारक ( Ablative Case):-*

*१.सूत्र:- ध्रुवमपायेऽपादानम्।*
व्याख्या:- जिस निश्चित स्थान से कोई वस्तु या व्यक्ति अलग होती है, उस निश्चित स्थान को अपादान कारक कहते हैं।
        *अपादान कारक का विभक्ति चिह्न  "से ( अलग)" होता है।*
यथा :- 1.वह घर से आता है।  सः *गृहात्* आगच्छति ।
2.पेड़ से पत्ते गिरते हैं। *वृक्षात्* पत्राणि पतन्ति।
यहाँ "गृहात्"और "वृक्षात्" अपादान कारक है ,क्योंकि ये दोनों निश्चित स्थान है जिससे क्रमशः व्यक्ति और वस्तु अलग हो रही है।

*२.सूत्र:- अपादाने_पंचमी।*
व्याख्या:- अपादान कारक में पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- क्षेत्रपाल खेत से गाय हाँकता है।
क्षेत्रपालः *क्षेत्रात्* गाः वारयति।

*३.सूत्र:-बहिर्योगे_पंचमी ।*
व्याख्या:- बहिः (बाहर) अव्यय के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।
यथा:-1. *गृहात्* बहिः वाटिका अस्ति ।घर के बहार बगीचा है। ,
2.सः *गृहात्* बहिर् गतः।
वह घर से बाहर गया। आदि।

*४.सूत्र:- ऋते_योगे_पंचमी।*
व्याख्या:-  ऋते के योग में भी पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:-
1. *ज्ञानात्* ऋते न मुक्तिः । ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं।
2.कृष्णात् ऋते न सुखम् । कृष्ण के बिना सुख नहीं।

*५.सूत्र:- भित्रार्थानां_भयहेतुः।*
व्याख्या:- भी( डरना) और त्रा (बचाना) धातु के योग में जिससे भय या रक्षा की जाए ,उसमे पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.मोहन साँप से डरता है। मोहनः *सर्पात्* विभेति।
2.गुरु शिष्य को पाप से बचाते हैं। गुरु शिष्यं *पापात्* त्रायते।

*६. सूत्र:-अख्यातोपयोगे_पंचमी।*
व्याख्या:- जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाती है , उसमे पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:-1. वह मुझसे व्याकरण पढता है। सः मत् व्याकरणं अधीते।
2.वह राम से कथा सुनता है। सः रामात् कथां शृणोति।

*७.सूत्र:- भुवः प्रभवः च।*
व्याख्या:- "भू" धातु के योग में जंहाँ से कोई चीज उत्पन्न होती है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- गंगा हिमालय से निकलती है।
गंगा *हिमालयात्* प्रभवति।

*८.सूत्र:- अपेक्षार्थे_पञ्चमी।*
व्याख्या:- तुलना में  जिसे श्रेष्ठ बनाया जाए उसमे  पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
    जननी जन्मभूमिश्च *स्वर्गादपि* गरियसि।
   2.विद्या धन से  बढ़कर है।विद्या *धनात्* गारीयसि।

*९.सूत्र:- पर_पूर्व_योगे_पंचमी।*
व्याख्या:-परः(बाद में होने वाला) तथा पूर्व: (पहले होने वाला) के योग में पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- चैत्रः *वैशाखात्* पूर्व:। वैशाखः *चैत्रात्* परः। आदि।

*अधिकरण_कारक  *( Locative_Case):-*

*१.सुत्र:-आधारोऽधिकरणः -*
व्याख्या:- क्रिया का जो आधार  हो उसे अधिकरण कारक कहते हैं।
यथा:- 3.वह भूमि पर सोता है। सः #भूमौ शेते।
         2.लड़के विद्यालय में पढ़ते हैं।
            बालकाः #विद्यालये पठन्ति ।
         3. मैं नदी में तैरता हूँ । अहम् #नद्याम् तरामि।

*२. सूत्र:- अधिकरणे_सप्तमी।*
व्याख्या:- अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा:-1. वेलोग गांव में रहते हैं। ते #ग्रामे वसन्ति।
         2.सिंह वन में घूमता है। सिंहः #वने भ्रमति ।
         3. मैं 10 बजे स्कुल जाता हूँ ।
             अहम् #दशवादने विद्यालयं गच्छामि।
       4. राम सुबह मे 5 बजे उठता है।
           रामः #प्रातःकाले #पंचवादने उतिष्ठति।

*३.सूत्र:- निर्धारणेसप्तमी।*
व्याख्या:- अधिक वस्तुओं या व्यक्तियों में किसी एक की विशेषता बताने पर , उस एक में सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1. कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है।
              #कविषु कालिदासः श्रेष्ठः ।
           2.  जीवों में मानवलोग  श्रेष्ठ हैं।
                 #जीवेषु मानवाः श्रेष्ठा: ।
          3.  फूलों में कमल श्रेष्ठ  है।
                  #पुष्पेषु कमलं श्रेष्ठम् ।
          4. ऋषियों में वाल्मीकि श्रेष्ठ हैं ।
              #ऋषिषु वाल्मीकिः श्रेष्ठः।

*४.सूत्र:-कुशलनिपुणप्रविनपण्डितश्च_योगे_सप्तमी।*
  व्याख्या:- जिसमें कार्य में  कोई व्यक्ति कुशल , निपुण ,प्रवीण , पंडित हो उसमें सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.मेरा दोस्त गाड़ी चलाने में कुशल है।
         मम मित्रः #वाहनचालने कुशलः।
         2.कृष्ण वंशी बजाने में प्रवीण हैं ।
         श्रीकृष्णः #वंशीवादने प्रवीणः।
         3. अर्जुन धनुर्विद्या में निपुण है।
          अर्जुनः #धनुर्विद्यायाम् निपुणः।
        4. मेरी पत्नी खाना बनाने में कुशल है।
           मम भार्या भोजनस्य #पाचने  कुशला ।
        5. मोहन शास्त्र का  पंडित है।
          मोहनः #शस्त्रे पण्डितः अस्ति ।

*५.सूत्र:-अभिलाषानुरागस्नेहासक्ति_योगे_सप्तमी।*
व्याख्या:- जिसमें मनुष्य की अभिलाषा ,अनुराग, स्नेह या आसक्ति हो उसमें सप्तमी विभक्ति होती हैं।
यथा:- 1.बालकस्य #आम्रफले अभिलाषः।
          2.मम #संस्कृत आसक्तिः ।
          3.धेनो: #वत्से स्नेहः ।
          4.प्रजानां #राज्ञि अनुरागः। #आदि।
*सम्बन्ध_कारक(Genitive_Case) :-*

*१.सूत्र:-षष्ठी_शेषे ।*
व्याख्या:- कारक और शब्दों को छोड़कर अन्य सम्बन्ध "शेष" कहलाते हैं।
           सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.राजा का महल - नृपस्य भवनं ।
          2. राम का पुत्र - रामस्य पुत्रः ।

*२.सूत्र:- षष्ठी_हेतु_प्रयोगे।*
व्याख्या:- "हेतु" शब्द का प्रयोग होने पर कारणवाची शब्द और "हेतु" शब्द दोनों में ही षष्ठी विभक्ति होती है ।
यथा:-  1.वह अन्न के लिए रहता है। सः अन्नस्य हेतोः वसति।
          2. "अल्पस्यहेतोर्बहु हातुमिच्छन् ,
           विचारमुढ: प्रतिभासि में त्वम्।"
         (छोटी सी चीज के लिए बहुत बड़ा त्याग कर रहे       हो ,मेरी समझ में तुम मुर्ख हो।)

*३.सूत्र:- षष्ठी_चानादरे।*
व्याख्या:- जिसका अनादर करके कोई काम किया जाय उसमें षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति होती  है।
यथा:-  गुरोः पश्यत छात्रः कक्षतः बहिः अगच्छत्।
          रुदतः शिशो: माता बहिः अगच्छत्।

*४.सूत्र:- निर्धारणे_षष्ठी।*
व्याख्या :- अनेक वस्तुओं अथवा व्यक्तियों  में जिसको श्रेष्ठ या विशेष बताया जाए उसमे षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा:- १. बालकों में रवि श्रेष्ठ है । बालकानाम् रवि श्रेष्ठ:।
         २ कवियों में कालिदास श्रेष्ठ हैं ।
             कविषु कालिदासः श्रेष्ठ: ।
          ३.फूलों में कमल श्रेष्ठ है । पुष्पानां श्रेष्ठं कमलं।

*५. सूत्र:- षष्ठ्यतसर्थम्_प्रत्ययेन_षष्ठी।*
व्याख्या :- " तस्" प्रत्यायन्त शब्दों  (पुरतः ,पृष्ठतः, अग्रतः, उपरी, अधः,पूर्वतः, पश्चिमतः , दक्षिणतः ,वामतः ,अंतः  आदि) के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा:- १.भारतस्य दक्षिणतः विवेकानन्दस्मारकः अस्ति।
         २. भारतस्य उत्तरतः हिमालयः विराजते ।
         ३. भूमेः अधः जलं अस्ति ।
         ४. सैनिकस्य वामतः नेता अस्ति।
         ५. पर्वतस्य पुरतः मेघा: गर्जन्ति।
        ६. फलस्य अंतः बिजानि सन्ति ।

*६. सूत्र:- कर्तृ_कर्मणो: कृतिः।*
व्याख्या:- कृदन्त शब्द के योग में कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है।
यथा:- 1.कृष्णस्य कृतिः( कृष्ण का कार्य)
          2.वेदस्य अध्येता ( वेद पढ़नेवाला )।।

Sunday, February 10, 2019

सरस्वती शब्द का अर्थ क्यों पूजा होती है, कैसे करे पूजा,सरस्वती मंत्र , अन्य देशों में सरस्वती, उद्भव , कथा

सरस्वती शब्द का अर्थ क्यों पूजा होती है, कैसे करे पूजा,सरस्वती मंत्र , अन्य देशों में सरस्वती, उद्भव ,
कथा
सरस्वती शब्द तीन शब्दों से निर्मित हैं, प्रथम 'सर'जिसका अर्थ सार, 'स्व' स्वयं तथा 'ती' जिसका अर्थ सम्पन्न हैं; जिसका अभिप्राय हैं जो स्वयं ही सम्पूर्ण सम्पन्न हो। ब्रह्माण्ड के निर्माण में सहायता हेतु, ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को अपने ही शरीर से उत्पन्न किया था। इन्हीं के ज्ञान से प्रेरित हो ब्रह्मा जी ने समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का निर्माण किया। ब्रह्मा जी की देवी सरस्वती के अतिरिक्त दो पत्नियां और भी हैं प्रथम सावित्री तथा द्वितीय गायत्री; तथा सभी रचना-ज्ञान से सम्बद्ध कार्यों से सम्बंधित हैं। देवी सरस्वती का एक नाम ब्राह्मणी भी हैं, जो किसी ब्राह्मण की पत्नी होना दर्शाता हैं।

वेद माता, ब्राह्मणी के नाम से त्रि-भुवन में विख्यात, विद्यार्थी वर्ग कि अधिष्ठात्री देवी सरस्वती।

सरस्वती का मंत्र

पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।

यज्ञं वष्टु धियावसुः ||

चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।.

यज्ञं दुधे सरस्वती ।|

महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।

धियो विश्वा वि राजति ।।

वेद के अर्थ समझने के लिए हमारे पास प्राचीन ऋषियों के प्रमाण हैं। निघण्टु में वाणी के 57 नाम हैं, उनमें से एक सरस्वती भी है। अर्थात् सरस्वती का अर्थ वेदवाणी है। ब्राह्मण ग्रंथ वेद व्याख्या के प्राचीनतम ग्रंथ है। वहाँ सरस्वती के अनेक अर्थ बताए गए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1- वाक् सरस्वती।। वाणी सरस्वती है। (शतपथ 7/5/1/31)

2- वाग् वै सरस्वती पावीरवी।। ( 7/3/39) पावीरवी वाग् सरस्वती है।

3- जिह्वा सरस्वती।। (शतपथ 12/9/1/14) जिह्ना को सरस्वती कहते हैं।

4- सरस्वती हि गौः।। वृषा पूषा। (2/5/1/11) गौ सरस्वती है अर्थात् वाणी, रश्मि, पृथिवी, इन्द्रिय आदि। अमावस्या सरस्वती है। स्त्री, आदित्य आदि का नाम सरस्वती है।

5- अथ यत् अक्ष्योः कृष्णं तत् सारस्वतम्।। (12/9/1/12) आंखों का काला अंश सरस्वती का रूप है।

6- अथ यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति। ऐतरेय 3/4, अग्नि जब जलता हुआ आवाज करता है, वह अग्नि का सारस्वत रूप है।

7- सरस्वती पुष्टिः, पुष्टिपत्नी। (तै0 2/5/7/4) सरस्वती पुष्टि है और पुष्टि को बढ़ाने वाली है।

8-एषां वै अपां पृष्ठं यत् सरस्वती। (तै0 1/7/5/5) जल का पृष्ठ सरस्वती है।

9-ऋक्सामे वै सारस्वतौ उत्सौ। ऋक् और साम सरस्वती के स्रोत हैं।

10-सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। (कौ0 12/2) सरस्वती वज्र का दूसरा रूप है।

ऋग्वेद के 6/61 का देवता सरस्वती है। स्वामी दयानन्द ने यहाँ सरस्वती के अर्थ विदुषी, वेगवती नदी, विद्यायुक्त स्त्री, विज्ञानयुक्त वाणी, विज्ञानयुक्ता भार्या आदि किये हैं।

अन्य देशों में सरस्वती

जापान में सरस्वती को 'बेंजाइतेन' कहते हैं। जापान में उनका चित्रन हाथ में एक संगीत वाद्य लिए हुए किया जाता है। जापान में वे ज्ञान, संगीत तथा 'प्रवाहित होने वाली' वस्तुओं की देवी के रूप में पूजित हैं।

दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है।

अन्य भाषाओ/देशों में सरस्वती के नाम-

बर्मा - थुयथदी (သူရဿတီ=सूरस्सती, उच्चारण: [θùja̰ðədì] या [θùɹa̰ðədì])

बर्मा - तिपिटक मेदा Tipitaka Medaw (တိပိဋကမယ်တော်, उच्चारण: [tḭpḭtəka̰ mɛ̀dɔ̀])

चीन - बियानचाइत्यान Biàncáitiān (辯才天)

जापान - बेंजाइतेन Benzaiten (弁才天/弁財天)

थाईलैण्ड - सुरसवदी Surasawadee (สุรัสวดี)

सरस्वती देवी

सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख देवियों में से एक हैं। वे ब्रह्माकी मानसपुत्री हैं जो विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इनका नामांतर 'शतरूपा' भी है। इसके अन्य पर्याय हैं, वाणी, वाग्देवी, भारती, शारदा, वागेश्वरी इत्यादि। ये शुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी को इनकी पूजा की परिपाटी चली आ रही है। देवी भागवत के अनुसार ये ब्रह्मा की स्त्री हैं।

सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का - अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए।

कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव
आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे। इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि-संस्थान को सजग-सक्षम बनाने के लिए वे उपाय-उपचार किए गए जिन्हें 'सरस्वती आराधना' कहा जाता है। उपासना की प्रक्रिया भाव-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है। सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है।

मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निणर्य न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है।

शिक्षा

शिक्षा के प्रति जन-जन के मन-मन में अधिक उत्साह भरने-लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूवर्क समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, मोद मनाने से भी अधिक ध्यान दिया जाय। इस लोकोपयोगी प्रेरणा को गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है और उससे लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है-

सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन मयूर-सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन हंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदऔर माला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं।

सरस्वती वंदना

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥

शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥

 
यह वरदान देने के बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने पहले देवी की पूजा की। सृष्टि निर्माण के लिए मूल प्रकृति के पांच रूपों में से सरस्वती एक है, जो वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी है। वसंत पंचमी का अवसर इस देवी को पूजने के लिए पूरे वर्ष में सबसे उपयुक्त है क्योंकि इस काल में धरती जो रूप धारण करती है, वह सुंदरतम होता है

सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्माजी ने जब धरती को मूक और नीरस देखा तो अपने कमंडल से जल लेकर छिटका दिया। इससे सारी धरा हरियाली से आच्छादित हो गई पर साथ ही देवी सरस्वती का उद्भव हुआ जिसे ब्रह्माजी ने आदेश दिया कि वीणा व पुस्तक से इस सृष्टि को आलोकित करें। 

तभी से देवी सरस्वती के वीणा से झंकृत संगीत में प्रकृति विहंगम नृत्य करने लगती है। देवी के ज्ञान का प्रकाश पूरी धरा को प्रकाशमान करता है। जिस तरह सारे देवों और ईश्वरों में जो स्थान श्रीकृष्ण का है वही स्थान ऋतुओं में वसंत का है। यह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया है।

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

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