18 पुराणों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय 18 mahapurans all maha purans hindi.shrimad bhagwatall maha purans hindi.shrimad bhagwat.all sanskrit ki jankari , sabhi sanskrit
Saturday, October 28, 2023
शरद पूर्णिमा,शरद पूर्णिमा का महत्व, तिथि, शुभ मुहूर्त और पूजा विधि
शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा व रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। ज्योतिष के अनुसार, पूरे वर्ष में केवल इसी दिन चन्द्रमाँ सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं
शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पृथ्वी के अति निकट होता है। कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा से निकलने वाली किरणें अमृत के समान होती हैं, इसलिए इस दिन लोग खीर बना कर रात में चंद्रमा की रोशनी में रखते हैं और फिर प्रसाद के रूप में इसे खाते हैं। शरद पूर्णिमा का दिन मां लक्ष्मी को समर्पित होता है। ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात मां लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करती हैं और अपने भक्तों को आशीर्वाद देती हैं। इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने से घर हमेशा धन-धान्य से भरा रहता है।
शरद पूर्णिमा पूजा विधि
- शरद पूर्णिमा के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर किसी पवित्र नदी में स्नान करें।
- यदि किसी नदी में स्नान नहीं कर सकते हैं तो घर पर ही पानी में गंगाजल डालकर स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- फिर एक लकड़ी की चौकी या पाटे पर लाल कपड़ा बिछाएं और गंगाजल से शुद्ध करें।
- चौकी के ऊपर मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करें और लाल चुनरी पहनाएं।
- इसके बाद लाल फूल, इत्र, नैवेद्य, धूप-दीप, सुपारी आदि से मां लक्ष्मी का विधिवत पूजन करें। मां लक्ष्मी के समक्ष लक्ष्मी चालीसा का पाठ करें।
- पूजा संपन्न होने के बाद आरती करें। फिर शाम के समय पुनः मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा करें और चंद्रमा को अर्घ्य दें।
- चावल और गाय के दूध की खीर बनाकर चंद्रमा की रोशनी में रखें।
- मध्य रात्रि में मां लक्ष्मी को खीर का भोग लगाएं और प्रसाद के रूप में परिवार के सभी सदस्यों को खिला दें।
Sunday, October 15, 2023
देवीभागवतपुराण के अनुसार शरद ऋतु में नवरात्र में विधि
Thursday, October 12, 2023
महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् - अयि गिरिनन्दिनि (Mahishasura Mardini Stotram - Aigiri Nandini)
महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् - अयि गिरिनन्दिनि
(Mahishasura Mardini Stotram - Aigiri Nandini)
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि
नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि
हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥
अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥
अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥
अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥
अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥
धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥
सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥
जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥
सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥
कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥
शैलपुत्री • ब्रह्मचारिणी • चन्द्रघंटा • कुष्मांडा • स्कंधमाता • कात्यायिनी • कालरात्रि • महागौरी • सिद्धिदात्री नवार्ण मंत्र:॥ॐ एं ह्रीं क्लीं चामुडायै विच्चे॥
शैलपुत्री • ब्रह्मचारिणी • चन्द्रघंटा • कुष्मांडा • स्कंधमाता • कात्यायिनी • कालरात्रि • महागौरी • सिद्धिदात्री
नवार्ण
मंत्र:॥ॐ
एं ह्रीं क्लीं चामुडायै विच्चे॥
1. शैलपुत्री- सम्पूर्ण जड़ पदार्थ अथवा अपरा प्रकृति से उत्पन्न
यह भगवती का पहला स्वरूप हैं। मिट्टी(पत्थर), जल, वायु, अग्नि व आकाश इन पंच तत्वों पर ही निर्भर रहने वाले जीव शैल पुत्री का
प्रथम रूप हैं। इस पूजन का अर्थ है प्रत्येक जड़ पदार्थ अर्थात कण-कण में परमात्मा
के प्रकटीकरण का अनुभव करना। योनि चक्र के तहत घास, शैवाल, काई, पौधे इत्यादि शैलपुत्री हैं।
2. ब्रह्मचारिणी- जड़(अपरा) में ज्ञान(परा) का प्रस्फुरण के पश्चात चेतना का
वृहत संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। यह जड़ चेतन का जटिल संयोग है।
प्रत्येक वृक्ष में इसे देख सकते हैं। सैंकड़ों वर्षों तक पीपल और बरगद जैसे अनेक
बड़े वृक्ष ब्रह्मचर्य धारण करने के स्वरूप में ही स्थित होते है।
3. चन्द्रघण्टा- भगवती का तीसरा रूप है यहाँ जीव में आवाज (वाणी) तथा दृश्य
ग्रहण व प्रकट करने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है। जिसकी अंतिम परिणिति मनुष्य
में बैखरी (वाणी) है।
4. कूष्माण्डा- अर्थात अण्डे को धारण करने वाली; स्त्री और पुरुष की गर्भधारण, गर्भाधान
शक्ति है। मनुष्य योनि में स्त्री और पुरुष के मध्य इक्षण के समय मंद
हंसी(कूष्माण्डा देवी का स्व भाव) के परिणाम स्वरूप जो आकर्षण और प्रेम का भाव
उठता है वो भगवती की ही शक्ति है। इनके प्रभाव को समस्त प्राणीमात्र में देखा जा
सकता है।
5. स्कन्दमाता- पुत्रवती माता-पिता का स्वरूप है अथवा प्रत्येक पुत्रवान
माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं।
6. कात्यायनी- के रूप में वही भगवती माता-पिता की कन्या हैं। यह देवी का छठा
स्वरुप है।
7. कालरात्रि- देवी भगवती का सातवां रूप है जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को
प्राप्त होते हैं, अपरा और परा विभक्त हो जातें है। मन
की मृत्यु के समय सब प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है। भगवती के इन सात
स्वरूपों के दर्शन सबको प्रत्यक्ष सुलभ होते हैं परन्तु आठवां ओर नौवां स्वरूप परा
प्रकृति होने के कारण सुलभ नहीं है।
8. महागौरी- भगवती का आठवाँ स्वरूप महागौरी जगत की कालिख वृति न रहने के कारण
गौर वर्ण का परम शुद्ध व परम पवित्र है।
9. सिद्धिदात्री- भगवती का नौंवा रूप सिद्धिदात्री है। यह ज्ञान अथवा बोध का
प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मान्तर की साधना से
पाया जा सकता है। इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। इसलिए इसे
सिद्धिदात्री कहा है। इसमें शक्ति स्वयं शिव हो जाती है, पार्वती स्वयं शंकर हो जाती है और राधा स्वयं कृष्ण हो जाती है। आत्मा
अर्थात जीवात्मा अपने परम स्थिति में परमात्मा हो जाती है। शक्ति, पार्वती, राधा व जीवात्मा
एक है। शिव, शंकर, कृष्ण व परमात्मा एक है। भगवान अर्धनारीश्वर है। सब उनमें ही ओत-प्रोत है,
सबकुछ वो है, अलग कोई
नही।
नवदुर्गा आयुर्वेद
एक मत यह
कहता है कि ब्रह्माजी के दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में
हैं।[14]
(1) प्रथम शैलपुत्री (हरड़) : कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती है जो
देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है।
(2) ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) : ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर, रक्तविकारों
को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।
(3) चन्द्रघण्टा (चन्दुसूर) : यह एक ऐसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करने में
लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं।
(4) कूष्माण्डा (पेठा) : इस औषधि
से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं
जो रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत
समान है।
(5) स्कन्दमाता (अलसी) : देवी
स्कन्दमाता औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है।
(6) कात्यायनी (मोइया) : देवी
कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका। इसके अलावा इन्हें मोइया भी कहते हैं।
यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती
है।
(7) कालरात्रि (नागदौन) : यह देवी
नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं। यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी और मन
एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है।
(8) महागौरी (तुलसी) : तुलसी सात प्रकार
की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये रक्त को साफ कर
ह्वदय रोगों का नाश करती है।
(9) सिद्धिदात्री (शतावरी) : दुर्गा का नौवाँ रूप सिद्धिदात्री है जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं। यह बल,
बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।
शारदीय नवरात्रि 15 अक्टूबर से, इस शुभ मुहूर्त में करें कलश स्थापना
शारदीय
नवरात्रि 15 अक्टूबर से, इस शुभ मुहूर्त में करें कलश स्थापना
यह नौ दिनों का एक त्योहार है जो मां के शक्तिस्वरूप की आराधना
करते हुए मनाया जाता है। पूरे भारत में नवरात्रि का पहला दिन बड़े उत्साह और उमंग
के साथ मनाया जाता है। शारदीय नवरात्रि या महा नवरात्रि अश्विन महीने में
आती है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार सितंबर या
अक्टूबर के दौरान आती है। यह आश्विन माह की प्रतिपदा (पहले दिन) को शुरू होती
है और आश्विन माह की नवमी को समाप्त होती है। इस वर्ष, शारदीय नवरात्रि 15 अक्टूबर, 2023 को शुरू होगी और 24 अक्टूबर, 2023 को समाप्त होगी।
हिंदू पंचांग के अनुसार दिनांक 15 अक्टूबर को
शारदीय नवरात्रि का पहला दिन है। इस दिन मां दुर्गा के प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री
की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दौरान सर्वप्रथम घटस्थापना की जाती है और फिर
मां दुर्गा का आह्वान,स्थापन और प्राण
प्रतिष्ठा की जाती है। तदोपरांत मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है। आइए जानते हैं
पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा विधि, मंत्र और भोग के बारे में।
विधि
से करें मां शैलपुत्री की पूजा
सबसे
पहले पूजा का संकल्प लें और घटस्थापना करें।
इसके
बाद मां शैलपुत्री की पूजा करें।
मां
को अक्षत, सफेद पुष्प, धूप, दीप, फल, मिठाई चढ़ाएं।
पूजा
के दौरान मंत्रोच्चारण करें और फिर माता शैलपुत्री की पूजा करें।
पूजा
करने के बाद घी के दीपकसे मां शैलपुत्री की पूरी श्रद्धा के साथ आरती करें
पूजा
समाप्त हो जाने के बाद मां शैलपुत्री से क्षमा याचना मांगें।
उसके
बाद मनोकामना पूर्ति के लिए प्रार्थना करें।
9 माताओं का नाम क्या है?दुर्गा सप्तशती ग्रन्थ,सनातन धर्म,आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा
9 माताओं का नाम क्या है
इन नौं दिनों तक भक्त मां दुर्गा के नौं स्वरुपों का पूजन करते हैं। प्रथम दिन मां शै
लपुत्री, द्वितीय मां ब्रह्मचारिणी, चतुर्थ मां चंद्रघंटा, पंचम स्कंद माता, षष्टम मां कात्यायनी, सप्तम मां कालरात्रि, अष्टम मां महागौरी, नवम मां सिद्धिदात्री का पूजन किया जाता है।
नवदुर्गा सनातन धर्म में
भगवती माता दुर्गा जिन्हे आदिशक्ति जगत
जननी जगदम्बा भी कहा जाता है, भगवती के नौ
मुख्य रूप है जिनकी विशेष पूजा व साधना नवरात्रि के
दौरान और वैसे भी विशेष रूप से करी जाती है। इन नवों/नौ दुर्गा देवियों को पापों
की विनाशिनी कहा जाता है, हर देवी के
अलग अलग वाहन हैं, अस्त्र
शस्त्र हैं परन्तु यह सब एक हैं और सभी परम भगवती दुर्गा जी से ही प्रकट होती है।
दुर्गा
सप्तशती ग्रन्थ के अन्तर्गत देवी कवच स्तोत्र में
निम्नाङ्कित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं--
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं
सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि
नामानि ब्रह्मणैव महात्मना
इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।
इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...
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