शैलपुत्री • ब्रह्मचारिणी • चन्द्रघंटा • कुष्मांडा • स्कंधमाता • कात्यायिनी • कालरात्रि • महागौरी • सिद्धिदात्री
नवार्ण
मंत्र:॥ॐ
एं ह्रीं क्लीं चामुडायै विच्चे॥
1. शैलपुत्री- सम्पूर्ण जड़ पदार्थ अथवा अपरा प्रकृति से उत्पन्न
यह भगवती का पहला स्वरूप हैं। मिट्टी(पत्थर), जल, वायु, अग्नि व आकाश इन पंच तत्वों पर ही निर्भर रहने वाले जीव शैल पुत्री का
प्रथम रूप हैं। इस पूजन का अर्थ है प्रत्येक जड़ पदार्थ अर्थात कण-कण में परमात्मा
के प्रकटीकरण का अनुभव करना। योनि चक्र के तहत घास, शैवाल, काई, पौधे इत्यादि शैलपुत्री हैं।
2. ब्रह्मचारिणी- जड़(अपरा) में ज्ञान(परा) का प्रस्फुरण के पश्चात चेतना का
वृहत संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। यह जड़ चेतन का जटिल संयोग है।
प्रत्येक वृक्ष में इसे देख सकते हैं। सैंकड़ों वर्षों तक पीपल और बरगद जैसे अनेक
बड़े वृक्ष ब्रह्मचर्य धारण करने के स्वरूप में ही स्थित होते है।
3. चन्द्रघण्टा- भगवती का तीसरा रूप है यहाँ जीव में आवाज (वाणी) तथा दृश्य
ग्रहण व प्रकट करने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है। जिसकी अंतिम परिणिति मनुष्य
में बैखरी (वाणी) है।
4. कूष्माण्डा- अर्थात अण्डे को धारण करने वाली; स्त्री और पुरुष की गर्भधारण, गर्भाधान
शक्ति है। मनुष्य योनि में स्त्री और पुरुष के मध्य इक्षण के समय मंद
हंसी(कूष्माण्डा देवी का स्व भाव) के परिणाम स्वरूप जो आकर्षण और प्रेम का भाव
उठता है वो भगवती की ही शक्ति है। इनके प्रभाव को समस्त प्राणीमात्र में देखा जा
सकता है।
5. स्कन्दमाता- पुत्रवती माता-पिता का स्वरूप है अथवा प्रत्येक पुत्रवान
माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं।
6. कात्यायनी- के रूप में वही भगवती माता-पिता की कन्या हैं। यह देवी का छठा
स्वरुप है।
7. कालरात्रि- देवी भगवती का सातवां रूप है जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को
प्राप्त होते हैं, अपरा और परा विभक्त हो जातें है। मन
की मृत्यु के समय सब प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है। भगवती के इन सात
स्वरूपों के दर्शन सबको प्रत्यक्ष सुलभ होते हैं परन्तु आठवां ओर नौवां स्वरूप परा
प्रकृति होने के कारण सुलभ नहीं है।
8. महागौरी- भगवती का आठवाँ स्वरूप महागौरी जगत की कालिख वृति न रहने के कारण
गौर वर्ण का परम शुद्ध व परम पवित्र है।
9. सिद्धिदात्री- भगवती का नौंवा रूप सिद्धिदात्री है। यह ज्ञान अथवा बोध का
प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मान्तर की साधना से
पाया जा सकता है। इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। इसलिए इसे
सिद्धिदात्री कहा है। इसमें शक्ति स्वयं शिव हो जाती है, पार्वती स्वयं शंकर हो जाती है और राधा स्वयं कृष्ण हो जाती है। आत्मा
अर्थात जीवात्मा अपने परम स्थिति में परमात्मा हो जाती है। शक्ति, पार्वती, राधा व जीवात्मा
एक है। शिव, शंकर, कृष्ण व परमात्मा एक है। भगवान अर्धनारीश्वर है। सब उनमें ही ओत-प्रोत है,
सबकुछ वो है, अलग कोई
नही।
नवदुर्गा आयुर्वेद
एक मत यह
कहता है कि ब्रह्माजी के दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में
हैं।[14]
(1) प्रथम शैलपुत्री (हरड़) : कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती है जो
देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है।
(2) ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) : ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर, रक्तविकारों
को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।
(3) चन्द्रघण्टा (चन्दुसूर) : यह एक ऐसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करने में
लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं।
(4) कूष्माण्डा (पेठा) : इस औषधि
से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं
जो रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत
समान है।
(5) स्कन्दमाता (अलसी) : देवी
स्कन्दमाता औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है।
(6) कात्यायनी (मोइया) : देवी
कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका। इसके अलावा इन्हें मोइया भी कहते हैं।
यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती
है।
(7) कालरात्रि (नागदौन) : यह देवी
नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं। यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी और मन
एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है।
(8) महागौरी (तुलसी) : तुलसी सात प्रकार
की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये रक्त को साफ कर
ह्वदय रोगों का नाश करती है।
(9) सिद्धिदात्री (शतावरी) : दुर्गा का नौवाँ रूप सिद्धिदात्री है जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं। यह बल,
बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।
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