Wednesday, August 21, 2024

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना ।

2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो गते किं खलु सेतुबन्धनम्।

3. अंधों में काना राजा - निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते।

4. अधजल गगरी छलकत जाए - अर्धोघटो घोषमुपैति शब्दम् ।

5. एक पंथ दो काज - एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा।

6. आंख का अंधा नाम नयनसुख - भिक्षार्थं भ्रमते नित्यं नाम किन्तु धनेश्वरः।

7. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब - श्वः कर्तव्यानि कार्याणि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्।

8. जैसी करनी वैसी भरनी - यो यद् वपति बीजं लभते तादृशं फलम्।

9. पर उपदेश कुशल बहुतेरे - परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् ।

10. मुंह में राम बगल में छुरी - विषकुम्भं पयोमुखम्।

11. भूखा क्या नहीं करता - बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।

Saturday, June 8, 2024

हलायुध (समय लगभग १० वीं० शताब्दी ई०) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद्, गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे। उन्होने मृतसंजीवनी नामक ग्रन्थ की रचना

 हलायुध (समय लगभग १० वीं० शताब्दी ई०) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद्, गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे। उन्होने मृतसंजीवनी नामक ग्रन्थ की रचना की जो पिंगल के छन्दशास्त्र का भाष्य है। इसमें पास्कल त्रिभुज (मेरु प्रस्तार) का स्पष्ट वर्णन मिलता है।


परे पूर्णमिति। उपरिष्टादेकं चतुरस्रकोष्ठं लिखित्वा तस्याधस्तात् उभयतोर्धनिष्क्रान्तं कोष्ठद्वयं लिखेत्। तस्याप्यधस्तात् त्रयं तस्याप्यधस्तात् चतुष्टयं यावदभिमतं स्थानमिति मेरुप्रस्तारः। तस्य प्रथमे कोष्ठे एकसंख्यां व्यवस्थाप्य लक्षणमिदं प्रवर्तयेत्। तत्र परे कोष्ठे यत् वृत्तसंख्याजातं तत् पूर्वकोष्ठयोः पूर्णं निवेशयेत्।
हलायुध द्वारा रचित कोश का नाम अभिधानरत्नमाला है, पर यह हलायुधकोश नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं। प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्यय शब्द संगृहीत है। इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है। रूपभेद से लिंग-बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है। ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है।

कविरहस्य भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है।
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Thursday, April 18, 2024

महापुराण के नाम और उनका महत्त्व-महापुराण के नाम याद एक श्लोक के माध्यम से हो जाएंगे।​​मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् ।​​अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते ॥

१८ महापुराण के नाम और उनका महत्त्व-

महापुराण के नाम याद एक श्लोक के माध्यम से हो जाएंगे।

​​मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् ।
​​अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते ॥

म-2, भ-2, ब्र-3, व-4 ।​
अ-1,ना-1, प-1, लिं-1, ग-1, कू-1, स्क-1 ॥

विष्णु पुराण के अनुसार उनके नाम ये हैं—विष्णु, पद्म, ब्रह्म, वायु(शिव), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्मांड और भविष्य।

ब्रह्म पुराण
पद्म पुराण
विष्णु पुराण
वायु पुराण -- (शिव पुराण)
भागवत पुराण -- (देवीभागवत पुराण)
नारद पुराण
मार्कण्डेय पुराण
अग्नि पुराण
भविष्य पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण
लिङ्ग पुराण
वाराह पुराण
स्कन्द पुराण
वामन पुराण
कूर्म पुराण
मत्स्य पुराण
गरुड़ पुराण

ब्रह्माण्ड पुराण

पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रत्येक पुराण में अठारहो पुराणों के नाम और उनकीश्लोकसंख्या है। नाम और श्लोकसंख्या प्रायः सबकी मिलती है, कहीं कहीं भेद है। जैसे कूर्म पुराण में अग्नि के स्थान में वायुपुराण; मार्कंडेय पुराण में लिंगपुराण के स्थान में नृसिंहपुराण; देवीभागवत में शिव पुराण के स्थान में नारद पुराण और मत्स्य में वायुपुराण है। भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैं—एक श्रीमद्भागवत, दूसरा देवीभागवत। कौन वास्तव में पुराण है इसपर झगड़ा रहा है। रामाश्रम स्वामी ने 'दुर्जनमुखचपेटिका' में सिद्ध किया है कि श्रीमद्भागवत ही पुराण है। इसपर काशीनाथ भट्ट ने 'दुर्जनमुखमहाचपेटिका' तथा एक और पंडित ने 'दुर्जनमुखपद्यपादुका' देवीभागवत के पक्ष में लिखी थी।

पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं।
महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः  पुराण समर्पित किये गये हैं। आइए जानते है 18 पुराणों के बारे में।

१) ब्रह्मपुराणः—इसे “आदिपुराण” भी का जाता है। प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है। इसमें श्लोकों की संख्या अलग- २ प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। १०,०००…१२.००० और १३,७८७ ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल २४५ अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।
1.ब्रह्म पुराण (Brhma Purana)–
ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय  तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
(२) पद्मपुराणः—-इसमें कुल ६४१ अध्याय और ४८,००० श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें ५५,००० और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें ५९,००० श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं—(क) सृष्टिखण्डः—५ पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड।
इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इसका विकास ५ वीं शताब्दी माना जाता है।
2.पद्म पुराण (Padma Purana)-
पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह ग्रंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।

(३) विष्णुपुराणः—-पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं। इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, १२६ अध्याय, श्लोक २३,००० या २४,००० या ६,००० हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।

3.विष्णु पुराण (Vishnu Purana)-
विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
(४) वायुपुराणः—इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें ११२ अध्याय, ११,००० श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग हैः—(क) प्रक्रियापादः– (अध्याय—१-६), (ख) उपोद्घातः— (अध्याय-७ –६४ ), (ग) अनुषङ्गपादः–(अध्याय—६५–९९), (घ) उपसंहारपादः–(अध्याय—१००-११२)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगो, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है। इसमें भी पुराण के पञ्चलक्षण मिलते हैं।
4.शिव पुराण (Shiva Purana)–
शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलाश पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं

(५) भागवतपुराणः—यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है।
इसमें कुल १२ स्कन्ध, ३३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। कुछ विद्वान् इसे “देवीभागवतपुराण” भी कहते हैं, क्योंकि इसमें देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं। इसका रचनाकाल ६ वी शताब्दी माना जाता है।

5.भागवत पुराण (Bhagwata Purana)–
भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, द्वारिका नगरी के जलमग्न होने और यदु वंशियों के नाश तक का विवरण भी दिया गया है।
(६) नारद (बृहन्नारदीय) पुराणः—इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें पुराण के ५ लक्षण घटित नहीं होते हैं। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें २ खण्ड हैः—(क) पूर्व खणअ्ड में १२५ अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में ८२ अध्याय हैं। इसमें १८,००० श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।

6.नारद पुराण (Narad Purana)-
नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध एवं कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थ्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।
(७) मार्कण्डयपुराणः—इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें १३८ अध्याय और ७,००० श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनुसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।

7.मार्कण्डेय पुराण (Markandeya Purana)–
अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।
(८) अग्निपुराणः—इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय ३८३ अध्याय, ११,५०० श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।
8.अग्नि पुराण (Agni Purana)–
अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है
(९) भविष्यपुराणः—इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः–(क) पूर्वार्धः–(अध्याय—४१) तथा (ख) उत्तरार्धः–(अध्याय़—१७१) । इसमें कुल १५,००० श्लोक हैं । इसमें कुल ५ पर्व हैः–(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है। इसका रचनाकाल ५०० ई. से १२०० ई. माना जाता है।
9.भविष्य पुराण (Bhavishya Purana)–
भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले  नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है। ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है।
(१०) ब्रह्मवैवर्तपुराणः—यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल १८,००० श्लोक है और चार खण्ड हैः—(क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।
10.ब्रह्म वैवर्त पुराण (Brahma Vaivarta Purana)–
ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
(११) लिङ्गपुराणः—-इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के २८ अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें ११,००० श्लोक और १६३ अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है। इसका रचनाकाल आठवीं-नवीं शताब्दी माना जाता है। यह पुराण भी पुराण के लक्षणों पर खरा नहीं उतरता है।
11.लिंग पुराण (Linga Purana)–
लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
(१२) वराहपुराणः—इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें २४,००० श्लोक सम्प्रति केवल ११,००० और २१७ अध्याय हैं।

12.वराह पुराण (Varaha Purana)–
वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।
(१३) स्कन्दपुराणः—यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल ८१,००० श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैं—सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने “तात्पर्य-दीपिका” नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं—-ब्रह्मगीता (अध्याय—१२) और सूतगीताः–(अध्याय ८)।
इस पुराण में सात खण्ड हैं—(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में “गंगासहस्रनाम” स्तोत्र भी है। इसका रचनाकाल ७ वीं शताब्दी है। इसमें भी पुराण के ५ लक्षण का निर्देश नहीं मिलता है।
13.स्कन्द पुराण (Skanda Purana)–
स्कन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। स्कन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है
(१४) वामनपुराणः—इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें ९५ अध्याय और १०,००० श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं—-(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी । इसका रचनाकाल ९ वीं से १० वीं शताब्दी माना जाता है।
14.वामन पुराण (Vamana Purana)-
वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उपलब्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
(१५) कूर्मपुराणः—इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें ६,००० श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें ५१ और ४४ अध्याय हैं। इसमें पुराण के पाँचों लक्षण मिलते हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है। इसका रचनाकाल छठी शताब्दी माना गया है।
15.कुर्मा पुराण (Kurma Purana)–
कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा  विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।
(१६) मत्स्यपुराणः—इसमें पुराण के पाँचों लक्षण घटित होते हैं। इसमें २९१ अध्याय और १४,००० श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में १९,००० श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है। इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है।
16.मतस्य पुराण(Matsya Purana)–
मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है
(१७) गरुडपुराणः—यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में २२९ और उत्तरखण्ड में ३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।

17.गरुड़ पुराण (Garuda Purana)–
गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्योंकि इस ग्रंथ को किसी परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त यूरोप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी।

(१८) ब्रह्माण्डपुराणः—इसमें १०९ अध्याय तथा १२,००० श्लोक है। इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार । इसकी रचना ४०० ई.- ६०० ई. मानी जाती है।
18.ब्रह्माण्ड पुराण (Brahmanda Purana)-
ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक पृथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

#संस्कृतकाउदय

Wednesday, March 20, 2024

आमलकी एकादशी

 हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। आमलकी यानी आंवला को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।

स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलता पूर्वक पूरा हो इसके लिए श्री हरि मुझे अपनी शरण में रखें। संकल्प के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान की पूजा करें।

भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमत्रित करें। कलश में सुगन्धी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश के कण्ठ में श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुराम जी की पूजा करें। रात्रि में भगवत कथा व भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें।

द्वादशी के दिन प्रात: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें। पश्चिमी राजस्थान में आंवला वृक्ष नहीं होने पर औरते खेजड़ी वृक्ष की पुजा करती हैं

Thursday, February 1, 2024

सनातन धर्म में आचरण के नियम

 

सनातन धर्म में आचरण के नियम

 

सनातन धर्म में आचरण के नियम जिनका प्रतिदिन जीवन में पालन करना चाहिए। इसमें यम और नियम हैं। यह सनातन धर्म का अनुशासन है। इसका पालन करने वाला जीवन में हमेशा सुखी और शक्तिशाली बना रहता है।

       यम-

1.अहिंसा- किसी भी जीवित प्राणी को मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। जैसे हम स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें दूसरों को भी प्रेम और आदर देना चाहिए।

लाभ- किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से सकारात्मक का भाव हमारे अन्दर बनता है, यदि प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंसा का भाव सबके प्रति रखेंगे तो सबका कल्याण होगा।

2.सत्य- मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ रहना,हमेशा सत्य का पालन करना।

लाभ- सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा बनी रहती है। सत्य बोलने से व्यक्ति का आत्म विश्वास बढ़ता है। और वो किसी भी प्रकार की समस्या में नहीं उलझता हैं ।

 

3.अस्तेय- चोरी नहीं करना। किसी भी विचार और वस्तु की चोरी नहीं करना ही अस्तेय है। किसी के समान या वस्तु की चोरी किसी भी किमत पर नहीं करनी चाहिए  । गलत तरीकों से स्वयं का लाभ न करें।

लाभ- आप और आपका स्वभाव सिर्फ आपका है। व्यक्ति जितना परिश्रमी बनेगा उतना ही उसका व्यक्तित्व अच्छा और शुद्ध बनेगा।

4.ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य के दो अर्थ है- ईश्वर का ध्यान और यौन ऊर्जा का संरक्षण। ब्रह्मचर्य में रहकर व्यक्ति को विवाह से पहले अपनी पूरी शक्ति अध्ययन एवं प्रशिक्षण में लगाना चाहिए।  ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है- जैसे अभद्र वार्ता एवं मजाक, अश्लील चित्र एवं चलचित्र के देखने पर प्रतिबंध। स्त्री और पुरुष को आपस में बातचीत करते समय मर्यादित ढंग से रहना चाहिए। इसी से ब्रह्मचर्य बना रहता है।

लाभ- यौन शक्ति ही शरीर की उर्जा होती है। इस शक्ति का जितना संचय (संरक्षण) होता है व्यक्ति उतना शारीरिक ,मानसिक और अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली और ऊर्जावान हो जाता है। 

5.क्षमा- हम दूसरों के प्रति धैर्य एवं करुणा रखे एवं उन्हें समझने की कोशिश करें। सबके प्रति सहनशील रहें, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परिस्‍थिति के समस्या के कारण व्यवहार करता है।

लाभ- परिवार, समाज में आपका सम्मान बढ़ेगा। लोगों को आप समझने का समय देंगे तो लोग भी आपको समझने लगेंगे।

 

6.धृति - स्थिरता, चरित्र की दृढ़ता एवं ताकत। जीवन में जो भी क्षेत्र हम चुनते हैं, उसमें उन्नति एवं विकास के लिए यह जरूरी है कि निरंतर कोशिश करते रहें एवं स्थिर रहें। जीवन में लक्ष्य होना जरूरी है तभी स्थिरता आती है। जिसके पास लक्ष्य नहीं वो व्यक्ति जीवन समाप्त कर देता है।

लाभ- चरित्र की दृढ़ता से शरीर और मन में स्थि‍रता आती है। कोई भी दृढ़ व्यक्ति लक्ष्य को भेदने में सक्षम रहता है। इस स्थिरता से जीवन के सभी संकटों से मुक्त हुआ जा सकता हैं.   

7.दया- इसे करुणा भी कहते है। जो लोग यह कहते हैं कि दया ही दुख का कारण है वे दया के अर्थ और महत्व को नहीं समझते। जीवन में आध्यात्मिक विकास के लिए ये अति आवश्यक गुण है। 

लाभ- जिस व्यक्ति में सभी प्राणियों के प्रति दया भाव है वह स्वयं के प्रति भी दया से भरा हुआ है। इसी गुण से भगवान प्रसन्न होते हैं।  

8.आर्जव- सरलता - दूसरों को  धोखा (छलना) नहीं देना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदार बनके रहना चाहिए।

लाभ- छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है।

9.मिताहार- भोजन का संयम अर्थात सही रूप से लेना ही मिताहार है। हम जीने के लिए खाएं न कि खाने के लिए जिएं। सभी तरह का व्यसन त्यागकर एक स्वच्छ भोजन का चयन कर उचित समय पर खाना खाएं। स्वस्थ रहकर लंबी उम्र पाना चाहते हैं तो मिताहार को अपनाएं।

लाभ- अच्छा आहार हमारे शरीर को स्वस्थ बनाकर ऊर्जा और स्फूति प्रदान करता है। अन्न ही अमृत है।

10.शौच- आंतरिक एवं बाहरी पवित्रता और स्वच्छता। हम अपने शरीर एवं उसके वातावरण को पूर्ण रूप से स्वच्छ रखें।

लाभ- वातावरण, शरीर और मन की स्वच्छता एवं व्यवस्था का हमारे अंतर्मन पर सात्विक प्रभाव पड़ता है। इससे स्वच्छता सकारात्मक और दिव्यता आती है। 

 

नियम

1.ह्री- पश्चात्ताप, अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप होना जरूरी है। यदि आप में पश्चाताप की भावना नहीं है तो आप अपनी बुराइयों को बढ़ा रहे हैं। विनम्र रहना एवं अपने द्वारा की गई गलती और भूल अव्यवहार के प्रति पश्चाताप करना जरूरी है,

लाभ- पश्चाताप हमें अवसाद और तनाव से बचाता है तथा हमें फिर से सही बल प्रदान करता है। जिसका नुकसान किया है उसके सामने और मंदिर, माता-पिता या स्वयं के समक्ष खड़े होकर भूल को स्वीकारने से मन और शरीर हल्का हो जाता है।

 

2.संतोष- संतोष रखना और कृतज्ञता से जीवन जीना ही संतोष है। जो आपके पास है उसका सदुपयोग और जो अपके पास नहीं है, उसका शोक नहीं करना ही संतोष है। अर्थात जो है उसी से संतुष्ट और सुखी रहकर उसका आनंद लेना।

लाभ- यदि आप दूसरों के पास जो है उसे देखर और उसके पाने की लालसा में रहेंगे तो सदा दुखी ही रहेगें बल्कि होना यह चाहिए कि हमारे पास जो है उसके होने का आनंद कैसे मनाएं या उसका सदुपयोग कैसे करें।

4.दान- आपके पास जो भी है वह ईश्वर की देन है। यदि आप यह समझते हैं कि यह तो मेरे प्रयासों से हुआ है तो आप में घमंड का संचार होगा। ईश्वर की देन और परिश्रम के फल के हिस्से को व्यर्थ न जाने दें। इसे आप मंदिर, धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं में दान कर सकते हैं

लाभ- दान किसे करें और दान का महत्व क्या है यह जरूर जानें। दान पुण्य करने से मन में संतोष, सुख और संतुलन का संचार होता है।

4.आस्तिकता- वेदों में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। माता-पिता, गुरु और ईश्वर में निष्ठा एवं विश्वास रखना भी आस्तिकता है।

लाभ- आस्तिकता से मन और मस्तिष्क में जहां समारात्मकता बढ़ती हैं वहीं हमारी हर तरह की मांग की पूर्ति भी होती है। अस्तित्व या ईश्वर से जो भी मांगा जाता है वह तुरंत ही मिलता है।

5.ईश्वर प्रार्थना- बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन सनातन धर्म में ईश्वर या देवी-देवता के लिए संध्यावंदन करने का निर्देश है। संध्यावंदन में प्रार्थना, स्तुति या ध्यान किया जाता है।

लाभ- आंख बंद कर ईश्वर या देवी देवता का ध्यान करने से व्यक्ति उस शक्ति से जुड़ जाता है।

6.सिद्धांत श्रवण- निरंतर वेद, उपनिषद या गीता का श्रवण करना। वेद का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा समारात्मक बनाने के लिए साधु-संतों एवं ज्ञानीजनों की संगत में वेदों का अध्ययन एक शक्तिशाली माध्यम है।

 

लाभ- जिस तरह शरीर के लिए पौ‍ष्टिक आहार की जरूरत होती है उसी तरह दिमाग के लिए समारात्मक बात, किताब और दृष्य की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक वातावरण से हमें यह सब प्राप्त होता है। 

7.मति- हमारे धर्मग्रंथ और धर्म गुरुओं द्वारा सिखाई गई नित्य साधना का पालन करना। एक प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन से पुरुषार्थ करके अपनी इच्छा शक्ति एवं बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना।

लाभ- संसार में रहें या संन्यास में निरंतर अच्छी बातों का अनुसरण करना जरूरी है

8.व्रत- अतिभोजन, मांस एवं नशीली पदार्थों का सेवन नहीं करना, अवैध यौन संबंध, जुए आदि से बचकर रहना। इसका गंभीरता से पालन करना चाहिए अन्यथा एक दिन सारी आध्यात्मिक या सांसारिक कमाई समाप्त हो जाएगी । 

लाभ- व्रत से नैतिक बल मिलता है तो आत्मविश्वास तथा दृढ़ता बढ़ती है। जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए व्रतवान बनना जरूरी है। व्रत से शरीर स्वस्थ रहता है, मन और बुद्धि भी शक्तिशाली बने रहते हैं।

9.जप- जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इसको दूर किया जा सकता है। इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। अर्थात प्रार्थना करना या ध्यान करना भी जप है।

लाभ- मंत्र ही निरंतर जपने से हजारों विचार धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं। जप से मन  शुद्ध हो जाता है। 

10.तप- कष्टों को सहना तप है। सही कार्यों को करते हुए जो समस्या आये उसको सह कर आगे बढ़ते रहना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है।

लाभ- जीवन में कैसी भी परिस्थिति आपके सामने हो, तब आप संतुलन नहीं खोते, तप  से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्रा‍प्त किया जा सकता हैं।

 

जो व्यक्ति यम और नियम का पालन करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। इसलिए सभी को इनका पालन करना चाहिए ।

कृष्ण यजुर्वेद

 

कृष्ण यजुर्वेद

कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपनिषदों में है। इस उपनिषद के रचयिता कठ नाम के तपस्वी आचार्य थे। वे मुनि वैशम्पायन के शिष्य तथा यजुर्वेद की कठशाखा के प्रवृर्त्तक थे। इसमें दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। भर्तु प्रपंच ने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी भाष्य रचना की थी।

प्रथम अध्याय

इस अध्याय में नचिकेत अपने पिता द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर यम के यहाँ पहुंचता है और यम की अनुपस्थिति में तीन दिन तक भूखा-प्यास यम के द्वार पर बैठा रहता है। तीन दिन बाद जब यम लौटकर आते हैं, तब उनकी पत्नी उन्हें ब्राह्मण बालक अतिथि के विषय में बताती है। यमराज बालक के पास पहुंचकर अपनी अनुपस्थिति के लिए नचिकेता से क्षमा मांगते हैं और उसे इसके लिए तीन वरदान देने की बात कहते हैं। वे उसे उचित सम्मान देकर व भोजन आदि कराके भी सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। तदुपरान्त नचिकेता द्वारा वरदान मांगने पर 'अध्यात्म' के विषय में उसकी जिज्ञासा शान्त करते हैं।
प्रथम वल्ली
कथा इस प्रकार है कि किसी समय वाजश्रवा ऋषि के पुत्र वाजश्रवस उद्दालक मुनि ने विश्वजित यज्ञ करके अपना सम्पूर्ण धन और गौएं दान कर दीं। जिस समय ऋत्विजों द्वारा दक्षिणा में प्राप्त वे गौएं ले जाई जा रही थीं, तब उन्हें देखकर वाजश्रवस उद्दालक मुनि का पुत्र नचिकेता सोच में पड़ गया; क्योंकि वे गौएं अत्यधिक जर्जर हो चुकी थीं। वे न तो दूध देने योग्य थीं, न प्रजनन के लिए उपयुक्त थीं। उसने सोचा कि इस प्रकार की गौओं को दान करना दूसरों पर भार लादना है। इससे तो पाप ही लगेगा।
ऐसा विचार कर नचिकेता ने अपने पिता से कहा-'हे तात! इससे अच्छा तो था कि आप मुझे ही दान कर देते।'
बार-बार ऐसा कहने पर पिता ने क्रोधित होकर कह दिया-'मैं तुझे मृत्यु को देता हूं।'
पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए नचिकेता यम के द्वार पर जा पहुंचा और तीन दिन तक भूखा-प्यासा पड़ा रहा। जब यम ने उसे वरदान देने की बात कही, तो उसने पहला वरदान मांगा।

पहला वरदान

'हे मृत्युदेव! जब मैं आपके पास से लौटकर घर जाऊं, तो मेरे पिता क्रोध छोड़, शान्त चित्त होकर, मुझसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करें और अपनी शेष आयु में उन्हें कोई चिन्ता न सताये तथा वे सुख से सो सकें।' यमराज ने 'तथास्तु, 'अर्थात् 'ऐसा ही हो' कहकर पहला वरदान दिया।

दूसरा वरदान

'हे मृत्युदेव! आप मुझे स्वर्ग के साधनभूत उस 'अग्निज्ञान' को प्रदान करें, जिसके द्वारा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए पुरुष अमरत्व को प्राप्त करते हैं।' यमराज ने नचिकेता को उपदेश देते हुए कहा-'हे नचिकेता! तुम इस 'अग्निविद्या' को एकाग्र मन से सुनो। स्वर्गलोक को प्राप्त कराने वाली यह विद्या अत्यन्त गोपनीय है।' तदुपरान्त यमराज ने नचिकेता को समझाया कि ऐसा यज्ञ करने के लिए कितनी ईंटों की वेदी बनानी चाहिए और यज्ञ किस विधि से किया जाये तथा कौन-कौन से मन्त्र उसमें बोले जायें। अन्त में नचिकेता की परीक्षा लेने के लिए यमराज ने उससे अपने द्वारा बताये यज्ञ का विवरण पूछा, तो बालक नचिकेता ने अक्षरश: उस विधि को दोहरा दिया। उसे सुनकर यमराज बालक की स्मरणशक्ति और प्रतिभा को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-'हे नचिकेता! तेरे मांगे गये तीन वरदानों के अतिरिक्त मैं तुम्हें एक वरदान अपनी ओर से यह देता हूं कि मेरे द्वारा कही गयी यह 'अग्निविद्या' आज से तुम्हारे नाम से जानी जायेगी। तुम इस अनेक रूपों वाली, ज्ञान-तत्त्वमयी माला को स्वाकर करो।'


नचिकेता को दिव्य 'अग्निविद्या' प्राप्त हुई। इसलिए उस विद्या का नाम 'नचिकेताग्नि' (लिप्त न होने वाले की विद्या) पड़ा। इस प्रकार की त्रिविध 'नचिकेत' विद्या का ज्ञाता, तीन सन्धियों को प्राप्त कर, तीन कर्म सम्पन्न करके जन्म-मृत्यु से पार हो जाता है और परम शान्ति प्राप्त करता है। आचार्यों ने नचिकेत विद्या को 'प्राप्ति,' 'अध्यायन' और 'अनुष्ठान' तीन विधियों से युक्त कहा है। साधक को इन तीनों के साथ आत्म-चेतना की सन्धि करनी पड़ती है, अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को इस विद्या से अनुप्राणित करना पड़ता है। इस प्रक्रिया को 'त्रिसन्धि' प्राप्ति कहा जाता है। कुछ आचार्य माता-पिता और गुरु से युक्त होने को त्रिसन्धि' कहते हैं। इन सभी को दिव्याग्नि के अनुरूप ढालते हुए साधक जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। अब उसने यमराज से तीसरा वर मांगा।

तीसरा वरदान

'हे मृत्युदेव! मनुष्य के मृत हो जाने पर आत्मा का अस्तित्त्व रहता है, ऐसा ज्ञानियों का कथन है, परन्तु कुछ की मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व नहीं रहता। आप मुझे इस सन्देह से मुक्त करके बतायें कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा का क्या होता है?' नचिकेता के तीसरे वरदान को सुनकर यमराज ने उसे समझाया कि यह विषय अत्यन्त गूढ़ हैं इसके बदले वे उसे समस्त विश्व की सम्पदा और साम्राज्य तक दे सकते हैं, किन्तु वह यह न पूछे कि मृत्यु के बाद आत्मा का क्या होता है; क्योंकि इसे जानना और समझना अत्यन्त अगम्य है, परन्तु नचिकेता किसी भी रूप में यमराज के प्रलोभन में नहीं आया और अपने मांगे हुए वरदान पर ही अड़ा रहा।
द्वितीय वल्ली

·         यमराज ने नचिकेता के हठ हो देखा, तो कहा-'हे नचिकेता!'कल्याण' और 'सांसारिक भोग्य पदार्थों' का मार्ग अलग-अलग है। ये दोनों ही मार्ग मनुष्य के सम्मुख उपस्थित होते हैं, किन्तु बुद्धिमान जन दोनों को भली-भांति समझकर उनमें से एक अपने लिए चुन लेते हैं। जो अज्ञानी होते हैं, वे भोग-विलास का मार्ग चुनते हैं और जो ज्ञानी होते हैं, वे कल्याण का मार्ग चुनते हैं। प्रिय नचिकेता! श्रेष्ठ आत्मज्ञान को जानने का सुअवसर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। इसे शुष्क तर्कवितर्क से नहीं जाना जा सकता।'

·         यमराज ने बताया-'प्रिय नचिकेता! '' ही वह परमपद है। '' ही अक्षरब्रह्म है। इस अक्षरब्रह्म को जानना ही 'आत्माज्ञान' है। साधक अपनी आत्मा से साक्षात्कार करके ही इसे जान पाता है; क्योंकि आत्मा ही 'ब्रह्म' को जानने का प्रमुख आधार है। एक साधक मानव-शरीर में स्थित इस आत्मा को ही जानने का प्रयत्न करता है।'

'न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥' 1/2/18॥ अर्थात् यह नित्य ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो उत्पन्न होता है और न मृत्यु को ही प्राप्त होता है। यह आत्मा न तो किसी अन्य के द्वारा जन्म लेता है और न कोई इससे उत्पन्न होता है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत औ क्षय तथा वृद्धि से रहित है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह विनष्ट नहीं होता।

·         'हे नचिकेता! परमात्मा इस जीवात्मा के हृदय-रूपी गुफ़ा में अणु से भी अतिसूक्ष्म और महान् से भी अतिमहान रूप में विराजमान हैं। निष्काम कर्म करने वाला तथा शोक-रहित कोई विरला साधक ही, परमात्मा को कृपा से उसे देख पाता है। दुष्कर्मों से युक्त, इन्द्रियासक्त और सांसारिक मोह में फंसा ज्ञानी व्यक्ति भी आत्मतत्त्व को नहीं जान सकता।'

तृतीय वल्ली

·         'हे नचिकेता! जो विवेकशील है, जिसने मन सहित अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो सदैव पवित्र भावों को धारण करने वाला है, वही उस आत्म-तत्त्व को जान पाता है; क्योंकि—

'एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रय्या बुद्धिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥' 1/3/12॥ अर्थात् समस्त प्राणियों में छिपा हुआ यह आत्मतत्त्व प्रकाशित नहीं होता, वरन् यह सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले तत्त्वदर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि से दिखाई देता है।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में परमेश्वर की प्राप्ति में जो बाधाएं आती हैं, उनके निवारण और हृदय में उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। परमात्मा की सर्वव्यापकता और संसार-रूपी उलटे पीपल के वृक्ष का विवेचन, योग-साधना, ईश्वर-विश्वास और मोक्षादि का वर्णन है। अन्त में ब्रह्मविद्या के प्रभाव से नचिकेता को ब्रह्म-प्राप्ति का उल्लेख है।
प्रथम वल्ली

·         परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।

·         यमराज नचिकेता को बताते हैं-'हे नचिकेता! शुद्ध जल को जिस पात्र में भी डालो, वह उसी के अनुसार रूप ग्रहण कर लेता है। पौधों में वह रस, प्राणियों में रक्त और ज्ञानियों में चेतना का रूप धारण कर लेता है। उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह शुद्ध रूप से किसी के साथ भी एकरूप हो जाता हैं जो साधक सभी पदार्थों से अलिप्त होकर परमात्मतत्त्व से लिप्त होने का प्रयास करता है, उस साधक को ही सत्य पथ का पथिक जानकर 'आत्मतत्त्व' का उपदेश दिया जाता है।'

द्वितीय वल्ली

·         'हे नचिकेता! उस चैतन्य और अजन्मा परब्रह्म का नगर ग्यारह द्वारों वाला है- दो नेत्र, दो कान, दो नासिका रन्ध्र, एक मुख, नाभि, गुदा, जननेन्द्रिय और ब्रह्मरन्ध्र। ये सभी द्वार शरीर में स्थित हैं। कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर, जो साधक द्वारों के मोह से सर्वथा अलिप्त रहकर नगर में प्रवेश करता है, वह निश्चय ही परमात्मा तक पहुचता हैं शरीर में स्थित एक देह से दूसरी देह में गमन करने के स्वभाव वाला यह जीवात्मा, जब मृत्यु के उपरान्त दूसरे शरीर में चला जाता है, तब कुछ भी शेष नहीं रहता। यह गमनशील तत्त्व ही ब्रह्म है। यही जीवन का आधार है। प्राण और अपान इसी के आश्रय में रहते हैं। अब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा का क्या होता है, अर्थात् वह कहां चला जाता है।'यमराज ने आगे कहा-

'योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥2/2/7'अर्थात् अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात् वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।

·         'हे नचिकेता! समस्त जीवों के कर्मानुसार उनकी भोग-व्यवस्था करने वाला परमपुरुष परमात्मा, सबके सो जाने के उपरान्त भी जागता रहता है। वही विशुद्ध तत्त्व परब्रह्म अविनाशी कहलाता है, जिसे कोई लांघ नहीं सकता। समस्त लोक उसी का आश्रय ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नितत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्रत्येक आधारभूत वस्तु के अनुरूप हो जाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा(ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है। वही भीतर है और वही बाहर है।

'एकोवशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।'
तृतीय वल्ली

·         इस वल्ली में यमराज ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से करते हैं, जो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है। जिसकी जड़े ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर लटकी हैं या फैली हुई हैं। यह वृक्ष सृष्टि का सनातन वृक्ष है। यह विशुद्ध, अविनाशी और निर्विकल्प ब्रह्म का ही रूप है।

·         यमराज बताते हैं कि यह सम्पूर्ण विश्व उस प्राण-रूप ब्रह्म से ही प्रकट होता है और निरन्तर गतिशील रहता है। जो ऐसे ब्रह्म को जानते हैं, वे ही अमृत्य, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं इस परब्रह्म के भय से ही अग्निदेव तपते हैंसूर्यदेव तपते हैं। इन्द्रवायु और मृत्युदेवता भी इन्हीं के भय से गतिशील रहते हैं।

·         'हे नचिकेता ! मृत्यु से पूर्व, जो व्यक्ति ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह जीव समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है, अन्यथा विभिन्न योनियों में भटकता हुआ अपने कर्मों का फल प्राप्त करता रहता है। यह अन्त:करण विशुद्ध दर्पण के समान है। इसमें ही ब्रह्म के दर्शन किये जा सकते हैं। जब मन के साथ सभी इन्द्रियां आत्मतत्त्व में लीन हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती हे, तब इसे जीव की 'परमगति' कहा जाता है। इन्द्रियों का संयम करके आत्मा में लीन होना ही 'योग' है। हृदय की समस्त ग्रन्थियों के खुल जाने से मरणधर्मा मनुष्य अमृत्व, अर्थात् 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।' ऐसी विद्या को जानकर नचिकेता बन्धनमुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो गया।

 

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...