Wednesday, August 22, 2018

पुत्रदा एकादशी व्रत कथा.

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पुत्रदा एकादशी  व्रत कथा→

नोट:- जब दो दिन एकादशी आती है तो द्वादशी युक्त एकादशी के दिन व्रत रखें |

युधिष्ठिर ने पूछा : मधुसूदन ! श्रावण के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है ? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! प्राचीन काल की बात है । द्वापर युग के प्रारम्भ का समय था । माहिष्मतीपुर में राजा महीजित अपने राज्य का पालन करते थे किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था, इसलिए वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था । अपनी अवस्था अधिक देख राजा को बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने प्रजावर्ग में बैठकर इस प्रकार कहा: ‘प्रजाजनो ! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है । मैंने अपने खजाने में अन्याय से कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है । ब्राह्मणों और देवताओं का धन भी मैंने कभी नहीं लिया है । पुत्रवत् प्रजा का पालन किया है । धर्म से पृथ्वी पर अधिकार जमाया है । दुष्टों को, चाहे वे बन्धु और पुत्रों के समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है । शिष्ट पुरुषों का सदा सम्मान किया है और किसीको द्वेष का पात्र नहीं समझा है । फिर क्या कारण है, जो मेरे घर में आज तक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ?
आप लोग इसका विचार करें ।’


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राजा के ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितों के साथ ब्राह्मणों ने उनके हित का विचार करके गहन वन में प्रवेश किया । राजा का कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर उधर घूमकर ॠषिसेवित आश्रमों की तलाश करने लगे । इतने में उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशजी के दर्शन हुए ।

लोमशजी धर्म के त्तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु और महात्मा हैं । उनका शरीर लोम से भरा हुआ है ।
वे ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हैं । एक एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक एक लोम विशीर्ण होता है,टूटकर गिरता है, इसीलिए उनका नाम लोमश हुआ है । वे महामुनि तीनों कालों की बातें जानते हैं ।

उन्हें देखकर सब लोगों को बड़ा हर्ष हुआ । लोगों को अपने निकट आया देख लोमशजी ने पूछा : ‘तुम सब लोग किसलिए यहाँ आये हो? अपने आगमन का कारण बताओ ।
तुम लोगों के लिए जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करुँगा ।’

प्रजाजनों ने कहा : ब्रह्मन् ! इस समय महीजित नामवाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है । हम लोग उन्हींकी प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्र की भाँति पालन किया है । उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दु:ख से दु:खित हो हम तपस्या करने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ आये है । द्विजोत्तम ! राजा के भाग्य से इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है । महापुरुषों के दर्शन से ही मनुष्यों के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । मुने ! अब हमें उस उपाय का उपदेश कीजिये, जिससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हो ।

उनकी बात सुनकर महर्षि लोमश दो घड़ी के लिए ध्यानमग्न हो गये । तत्पश्चात् राजा के प्राचीन जन्म का वृत्तान्त जानकर उन्होंने कहा : ‘प्रजावृन्द ! सुनो । राजा महीजित पूर्वजन्म में मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था । वह वैश्य गाँव-गाँव घूमकर व्यापार किया करता था । एक दिन ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को, जब दोपहर का सूर्य तप रहा था, वह किसी गाँव की सीमा में एक जलाशय पर पहुँचा । पानी से भरी हुई बावली देखकर वैश्य ने वहाँ जल पीने का विचार किया ।
इतने में वहाँ अपने बछड़े के साथ एक गौ भी आ पहुँची । वह प्यास से व्याकुल और ताप से पीड़ित थी, अत: बावली में जाकर जल पीने लगी । वैश्य ने पानी पीती हुई गाय को हाँककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पीने लगा । उसी पापकर्म के कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए हैं । किसी जन्म के पुण्य से इन्हें निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है ।’

प्रजाजनों ने कहा : मुने ! पुराणों में उल्लेख है कि प्रायश्चितरुप पुण्य से पाप नष्ट होते हैं,
अत: ऐसे पुण्यकर्म का उपदेश कीजिये, जिससे उस पाप का नाश हो जाय ।

लोमशजी बोले : प्रजाजनो ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पुत्रदा’ के नाम से विख्यात है । वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है । तुम लोग उसीका व्रत करो ।

यह सुनकर प्रजाजनों ने मुनि को नमस्कार किया और नगर में आकर विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ के व्रत का अनुष्ठान किया । उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजा को अर्पण कर दिया । तत्पश्चात् रानी ने गर्भधारण किया और प्रसव का समय आने पर बलवान पुत्र को जन्म दिया ।

इसका माहात्म्य सुनकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है तथा इहलोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्गीय गति को प्राप्त होता है ।

चौरासी कोस की यात्रा

चौरासी कोस की यात्रा 

एक समय श्रीशंकर भगवान माता पार्वती के साथ कैलाश पर विराजमान थे | माता पार्वती ने भगवान शिव जी को बहुत देर से चिंतित देख कर शिव जी से पूछ|, भगवन मैं आपको बहुत देर से चिंतित देख रही हूँ , क्या में जान सकती हूँ कि आपकी चिंता का विषय क्या है | तब भगवान शिव जी माता पार्वती जी से बोले कि हे देवी, मेरी चिंता का विषय यह है कि सब लोग अपने-अपने गुरु बनाते हैं | पर आज तक हमने किसी को गुरु नहीं बनाया | क्यों कि कहा गया है कि जीवन में जब तक गुरु नहीं बनाया, तब तक का किया हुआ सभी पुन्य कार्यों का फल नहीं मिलता | हम रात दिन राम - राम जपते हैं पर उसका कोई फल हमें प्राप्त नहीं होता | इस लिये बिचार कर रहा हूँ कि जगत में गुरु बनाये तो किसको |

इस पर माता पार्वती बोली कि आप जिनका रात दिन भजन करते हैं उन्ही को गुरु बना लीजिये | तब भगवान शिव जी बोले कि जिनका में भजन करता हूँ उनको तो पूरा संसार भजता है | इसलिये ये नहीं कुछ नया होना चाहिये | तब माता पार्वती जी भगवान शिव जी से बोलीं कि तब तो एक ही रास्ता है | क्यों ना भगवान विष्णु जी को श्री कृष्ण जी के नये रूप में और श्री लक्ष्मी जी को श्री राधा रानी जी के नये रूप में बना कर उनकी पूजा करके आप उन्हें गुरु बना लीजिये |

भगवान शिव जी माता पार्वती जी की बात सुन कर प्रसन्न हो उठे | और बोले "हे देवी" तब तो मैं आज ही जा कर भगवान श्री विष्णु जी से अपना गुरु बनाने के लिए आग्रह करता हूँ | माता पार्वती बोली "हे नाथ" आपकी आज्ञा हो तो मैं भी आपके साथ श्रीविष्णुलोक चलना चाहती हूँ |

तब भगवान शिव और माता पार्वती श्रीविष्णु लोक के लिए प्रस्थान कर गये | श्रीविष्णु लोक पहुँच कर भगवान शिव जी और माता पार्वती जी भगवान श्रीविष्णु जी से बोले की ऐसे तो हम रात दिन आपका भजन करते ही हैं पर आज तक हमने किसी को गुरु नहीं बनाया इस लिए हमें हमारे भजन का फल नहीं मिलता,

क्यों चढ़ाया जाता है श्रीकृष्ण को 56 भोग ?* तब 7 दिन भूखे रहे थे भगवान, इसलिए अब लगाया जाता है 56 पकवानों का भोग।

क्यों चढ़ाया जाता है  श्रीकृष्ण को 56 भोग ?*

तब 7 दिन भूखे रहे थे भगवान, इसलिए अब लगाया जाता है 56 पकवानों का भोग।

बाल रूप में भगवान कृष्ण दिन में आठ बार (अष्ट पहर) भोजन करते थे। मां यशोदा उन्हें तरह-तरह के पकवान बनाकर खिलाती थीं। यह बात तब कि यह जब इंद्र के प्रकोप से सारे ब्रज को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था, तब लगातार सात दिन तक उन्होंने अन्न जल ग्रहण नहीं किया था।

आठवें दिन जब बारिश थम गई, तब कृष्ण ने सभी ब्रजवासियों को अपने-अपने घर जाने को कहा और गोवर्धन पर्वत को जमीन पर रख दिया। इन सात दिनों तक भगवान कृष्ण भूख रहे थे।

मां यशोदा के साथ ही सभी ब्रजवासियों को यह जरा भी अच्छा नहीं लगा कि दिन में आठ बार भोजन करने वाले हमारा कन्हैया पूरे साथ दिन भूखा रहा।

इसके बाद पूरे गांव वालों ने सातों दिन के आठ प्रहर के हिसाब से पकवान बनाए और भगवान को भोग लगाया। तब से 56 भोग की प्रथा चली आ रही है।

ये हैं वो 56 भोग

1. भक्त (भात)

2. सूप (दाल)

3. प्रलेह (चटनी)

4. सदिका (कढ़ी)

5. दधिशाकजा (दही शाक की कढ़ी)

6. सिखरिणी (सिखरन)

7. अवलेह (शरबत)

8. बालका (बाटी)

9. इक्षु खेरिणी (मुरब्बा)

10. त्रिकोण (शर्करा युक्त)

11. बटक (बड़ा)

12. मधु शीर्षक (मठरी)

13. फेणिका (फेनी)

14. परिष्टïश्च (पूरी)

15. शतपत्र (खजला)

16. सधिद्रक (घेवर)

17. चक्राम (मालपुआ)

18. चिल्डिका (चोला)

19. सुधाकुंडलिका (जलेबी)

20. धृतपूर (मेसू)

21. वायुपूर (रसगुल्ला)

22. चन्द्रकला (पगी हुई)

23. दधि (महारायता)

24. स्थूली (थूली)

25. कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी)

26. खंड मंडल (खुरमा)

27. गोधूम (दलिया)

28. परिखा

29. सुफलाढय़ा (सौंफ युक्त)

30. दधिरूप (बिलसारू)

31. मोदक (लड्डू)

32. शाक (साग)

33. सौधान (अधानौ अचार)

34. मंडका (मोठ)

35. पायस (खीर)

36. दधि (दही)

37. गोघृत

38. हैयंगपीनम (मक्खन)

39. मंडूरी (मलाई)

40. कूपिका (रबड़ी)

41. पर्पट (पापड़)

42. शक्तिका (सीरा)

43. लसिका (लस्सी)

44. सुवत

45. संघाय (मोहन)

46. सुफला (सुपारी)

47. सिता (इलायची)

48. फल

49. तांबूल

50. मोहन भोग

51. लवण

52. कषाय

53. मधुर

54. तिक्त

55. कटु

56. अम्ल

जय हो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

Bharat mein Sanskrit Gurukul kaafi mahatvapurn

Bharat mein Sanskrit Gurukul kaafi mahatvapurn hain, kyunki yeh paramparik Sanskrit shikshan aur Hindu dharmik sanskriti ko sambhalne aur a...