Tuesday, January 22, 2019

16 सोलह श्रृंगार सजने के प्राचीन भारतीय के

भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार) की यह प्राचीन परंपरा रही हैं। आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकाओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं।

अंगशुची, मंजन, वसन, माँग, महावर, केश।तिलक भाल, तिल चिबुक में, भूषण मेंहदी वेश।।मिस्सी काजल अरगजा, वीरी और सुगंध।

अर्थात् अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी़ पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना।

स्नान के पहले उबटन का बहुत प्रचार था। इसका दूसरा नाम अंगराग है। अनेक प्रकार के चंदन, कालीयक, अगरु और सुगंध मिलाकर इसे बनाते थे। जाड़े और गर्मी में प्रयोग के हेतु यह अलग अलग प्रकार का बनाया जाता था। सुगंध और शीतलता के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इसका प्रयोग करते थे।

स्नान के अनेक प्रकार काव्यों में वर्णित मिलते हैं पर इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय जलविहार या जलक्रीड़ा था। अधिकांशत: स्नान के जल को पुष्पों से सुरभित कर लिया जाता था जैसे आजकल "बाथसाल्ट" का प्रयत्न किया जाता है। एक प्रकार के साबुन का भी प्रयोग होता था जो "फेनक" कहलाता था और जिसमें से झाग भी निकलते थे।

वसन वे स्वच्छ वस्त्र थे जो नहाने के बाद नर नारी धारण करते थे। पुरुष एक उत्तरीय और अधोवस्त्र पहनते थे और स्त्रियाँ चोली और घाघरा। यद्यपि वस्त्र रंगीन भी पहने जाते थे तथापि प्राचीन नर-नारी श्वेत उज्जवल वस्त्र अधिक पसंद करते थे। इनपर सोने, चाँदी और रत्नों के काम कर और भी सुंदर बनाने की अनेक विधियाँ थीं।

स्नान के उपरांत सभी सुहागवती स्त्रिययाँ सिंदूर से माँग भरती थीं। वस्तुत: वारवनिताओं को छोड़कर अधिकतर विवाहित स्त्रियों के शृंगार प्रसाधनों का उल्लेख मिलता है, कन्याओं का नहीं। सिंदूर के स्थान पर कभी कभी फूलों और मोतियों से भी माँग सजाने की प्रथा थी।

बाल सँवारने के तो तरीके हर समय के अपने थे। स्नान के बाद केशों से जल निचोड़ लिया जाता था। ऐसे अनेक दृश्य पत्थर पर उत्कीर्ण मिलते हैं। सूखे बालों को धूप और चंदन के धुँए से सुगंधित कर अपने समय के अनुसार अनेक प्रकार की वेणियों, अलकों और जूड़ों से सजाया जाता था। बालों में मोती और फूल गूँथने का आम रिवाज था। विरहिणियाँ और परित्यक्ता वधुएँ सूखे अलकों वाली ही काव्यों में वर्णित की गई हैं; वे प्रसाधन नहीं करती थीं।

महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक "लिपिस्टिक" का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर लोध्रचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था।

मुँह का प्रसाधन तो नारियों को विशेष रूप से प्रिय था। इसके "पत्ररचना", विशेषक, पत्रलेखन और भक्ति आदि अनेक नाम थे। लाल और श्वेत चंदन के लेप से गालों, मस्तक और भवों के आस पास अनेक प्रकार के फूल पत्ते और छोटी बड़ी बिंदियाँ बनाई जाती थीं। इसमें गीली या सूखी केसर या कुमकुम का भी प्रयोग होता था। बाद में इसका स्थान बिंदी ने ले लिया जो आज भी इस देश की स्त्रियों का प्रिय प्रसाधन है। कभी केवल काजल की अकेली बिंदी भी लगाने की रीति थी। आजकल की भाँति ही बीच ठोढ़ी पर दो छोटे छोटे काजल के तिल लगाकर सौंदर्य को आकर्षक बनाने का चलन था।

आजकल की तरह प्राचीन भारत में भी हथेली और नाखूनों को मेहँदी से लाल करने का आम रिवाज था।

आभूषणों की तो अनंत परंपरा थी जिसे नर नारी दोनों ही धारण करते थे। मध्यकाल में तो आभूषणों का प्रयोग इतना बढ़ा कि शरीर का शायद ही कोई भाग बचा हो जहाँ गहने न पहने जाते हों।

आँखों में काजल या अंजन का प्रयोग व्यापक रूप से होता था। मूर्तिकला में बहुधा शलाका से अंजन लगाती हुई नारी का चित्रण हुआ है।

अरगजा एक प्रकार का लेप है जिसे केसर, चंदन, कपूर आदि मिलाकर बनाते थे। आधुनिक इत्र या सेंट की तरह शरीर को सुगंधित करने के लिए इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता था।

मुँह को सुगंधित करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही तांबूलया पान खाते थे। राजाओं की परिचारिकाओं में तांबूलवाहिनी का अपना विशेष स्थान था।

भारतीय नारी को अपने प्रसाधन में फूलों के प्रति विशेष मोह है। जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मंदार, शिरीष, केसर आदि के फूल और गजरों का प्रयोग करती थीं।

शृंगार का सोलहवाँ अंग है नीला कमल, जिसे स्त्रियाँ पूर्वोक्त पंद्रह शृंगारों से सज्जित हो पूर्ण विकसित पुष्प या कली के दंड सहित धारण करती थीं। नीले कमलों का चित्रण प्राचीन मूर्तिकला में प्रभूत रूप से हुआ है।

प्राचीन संस्कृत साहित्य में षोडश शृंगार की गणना अज्ञात प्रतीत होती है। अनुमानतः यह गणना वल्लभदेव की सुभाषितावली (१५ वीं शती या १२ वीं शती) में प्रथम बार आती है। उनके अनुसार वे इस प्रकार हैं—

आदौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्रांजनं कुडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ।सौगन्ध्य करकंकणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता शृंगारका षोडण।।

अर्थात् (१) मज्जन, (२) चीर, (३) हार, (४) तिलक, (५) अंजन, (६) कुंडल, (७) नासामुक्ता, (८) केशविन्यास, (९) चोली (कंचुक), (१०) नूपुर, (११) अंगराग (सुगंध), (१२) कंकण, (१३) चरणराग, (१४) करधनी, (१५) तांबूल तथा (१६) करदर्पण (आरसो नामक अंगूठी)।

पुनः १६ वीं शती में श्री रूपगोस्वामी के उज्वलनीलमणि में शृंगार की यह सूची इस प्रकार गिनाई गई है—

स्नातानासाग्रजाग्रन्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणिः सोत्त सा चर्चितांगी कुसुमितचिकुरा स्त्रग्विणी पद्महस्ता। :ताभ्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिबुका कज्जलाक्षी सुचित्रा। राधालक्चोज्वलांघ्रिः स्फुरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम्।।

उक्त प्रमाण से शृंगारों की यह सूची बनती है— अर्थात् (१) स्नान, (२) नासा मुक्ता, (३) असित पट, (४) कटि सूत्र (करधनी), (५) वेणीविन्यास, (६) कर्णावतंस, (७) अंगों का चर्चित करना, (८) पुष्पमाल, (९) हाथ में कमल, (१०) केश में फूल खोंसना, (११) तांबूल, (१२) चिबुक का कस्तुरी से चित्रण, (१३) काजल, (१४) शरीर पर पत्रावली, मकरीभंग आदि का चित्रण, (१५) अलक्तक और (१६) तिलक। यहाँ वल्लभदेव के तथा श्रीरूपगोस्वामी के काल तक की शृंगार सूची में विभिन्नता स्पष्ट है।

हिंदी कवियों में जायसी के अनुसार ये शृंगार यों हैं—(१) मज्जन, (२) स्नान (जायसी ने मज्जन, स्नान को अलग रखा है), (३) वस्त्र, (४) पत्रावली, (५) सिंदूर, (६) तिलक, (७) कुंडल, (८) अंजन, (९) अधरों का रंगना, (१०) तांबूल, (११) कुसुमगंध, (१२) कपोलों पर तिल, (१३) हार, (१४) कंचुकी, (१५) छुद्रघंटिका ओर (१६) पायल।

रीतिकाव्य के आचार्य केशवदास ने भी सोलह शृंगार की गणना इस प्रकार की है—

प्रथम सकल सुचि, मंजन अमल बास, जावक, सुदेस किस पास कौ सम्हारिबो।अंगराग, भूषन, विविध मुखबास-राग, कज्जल ललित लोल लोचन निहारिबो।बोलन, हँसन, मृदुचलन, चितौनि चारु, पल पल पतिब्रत प्रन प्रतिपालिबो।'केसौदास' सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरहै सिंगारन सिंगारिबो।

उक्त छंद की टीका करते हुए सरदार कवि ने ये शृंगार यों गिने हैं—(१) उबटन, (२) स्नान, (३) अमल पट्ट, (४) जावक, (५) वेणी गूँथना, (६) माँग में सिंदूर, (७) ललाट में खौर, (८) कपोलों में तिल, (९) अंग में केसर लेपन, (१०) मेंहदी, (११) पुष्पाभूषण, (१२) स्वर्णाभूषण, (१३) मुखवास (१४) दंत मंजन, (१५) तांबूल और (१६) काजल। यहाँ स्पष्ट है कि टीकाकार ने कई उपकरण अपनी ओर से जोड़े हैं।

नगेंद्रनाथ वसु ने हिंदी विश्वकोश में इन शृंगारों को गणना निम्नलिखित दी है— (१) उबटन, (२) स्नान, (३) वस्त्रधारण, (४) केश प्रसाधन, (५) काजल, (६) सिंदूर से माँग भरना, (७) महावर, (८) तिलक, (९) चिबुक पर तिल, (१०) मेंहदी, (११) सुगंध लगाना, (१२) आभूषण, (१३) पुष्पमाल, (१४) मिस्सी लगाना, (१५) तांबूल और (१६) अधरों को रंगना।

उक्त विभिन्न सूचियों से पता चलता है कि षोडश शृंगार को कोई निश्चित परिभाषा या सूची नहीं रही है। देश और काल के अनुसार उसमें भिन्नता होती रही।

Wednesday, January 9, 2019

शुल्वसूत्र की सारी जानकारी संस्कृत का श्लोक अर्थ बोधायन

शुल्वसूत्र
शुल्बसूत्रों में बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय८०० ईसा पूर्व  गया है।
अपने एक सूत्र में बौधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है।
दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जुः पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच |
यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति ||

"चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥"

ये भी कोई पूजा का मंत्र ही लगता है लेकिन ये किसी गोले के व्यास व परिध का अनुपात है। जब पाश्चात्य जगत से ये आया तो संक्षिप्त रुप लेकर आया ऐसा π जिसे 22/7 के रुप में डिकोड किया जाता है।
उक्त श्लोक को डिकोड करेंगे अंकों में तो कुछ इस तरह होगा-
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६

ऋगवेद में π का मान ३२ अंक तक शुद्ध है।

गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः |
खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः ||

इस श्लोक को डीकोड करने पर ३२ अंको तक π का मान 3.1415926535897932384626433832792… आता है।

Monday, January 7, 2019

राजा भर्तहरि की कथा : जब एक फल ने राजा को बैरागी बना दिया

राजा भर्तहरि की कथा : जब एक फल ने राजा को बैरागी बना दिया 
यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है।
एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है,
जितना जीव उससे करता है। बस हमीं उसे सच्चा प्रेम
नहीं करते ।
भृतहरि जी की एक कथा बहुत प्रसिद्ध है जो बताती है कि वे कैसे सन्यासी बने। वह कथा नीचे दी गयी है किन्तु भर्तृहरि के नीतिशतक के आरम्भिक श्लोक में इसी को संकेत रूप में कहा गया है-
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यम् इच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिद् अन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥
( अर्थ - मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह (पिंगला) मेरे प्रति उदासीन है। वह (पिंगला) भी जिसको चाहती है वह (अश्वपाल) तो कोई दूसरी ही स्त्री (राजनर्तकी) में आसक्त है। वह (राजनर्तकी) मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस (पिंगला) को धिक्कार है ! उस अश्वपाल को धिक्कार है ! उस (राजनर्तकी) को धिक्कार है ! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !)
इनके एक और रानी अनंगसेना थी जिसको राजा बहुत प्यार करते थे। उसका राजा के घोड़े के चरवाहे चंद्रचूड़ से भी प्यार था और सेनापति से भी था। उस सेनापति का नगरवधू रूपलेखा के घर भी आना जाना था।राजा भी उस रूपलेखा के यहाँ चंद्रचूड़ कोचवान के साथ बग्घी में बैठकर जाते थे। इस तरह चंद्रचूड़ और सेनापति दोनों का ही रानी अनंगसेना और रूपलेखा से प्यार का सम्बन्ध था।यह बात योगी गोरखनाथ जी को पता चली तो उन्होंने ही किसी ब्राह्मण के साथ अमरफल भेजा।
 प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा हुए। राजा भर्तहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित थे और वे उस पर अत्यंत विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भर्तहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।
यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।
राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहांं से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गए कि रानी पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भर्तहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। उस गुफा में भर्तहरि ने 12  वर्षों तक तपस्या की थी। उज्जैन में आज भी राजा भर्तहरि की गुफा दर्शनीय स्थल के रूप में स्थित है।
राजा भर्तहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। राजा भर्तहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।

भर्तृहरि की कहानी वैराग्य

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं।

भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने
अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।
देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए
कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।
ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं,
मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया।

राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन
सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह
ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके
साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह
मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं
भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे
दिया।

लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे। फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन
लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है,
उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने
किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।

राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है।
एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है,
जितना जीव उससे करता है। बस हमीं उसे सच्चा प्रेम
नहीं करते ।

Thursday, January 3, 2019

 क्या हैं कामसूत्र की 64 कलाएं

 क्या हैं कामसूत्र की 64 कलाएं
कामसूत्र का जब नाम आता है तो लोग केवल काम यानि(वासना) की तरफ लोगों का ध्यान जाता है ,परन्तु कामसूत्र में अलग-अलग तरह की कलाएं है,जिनके बारे में सबको जानना चाहिए।
 क्या हैं कामसूत्र की 64 कलाएं,

गीत, वाद्य, नृत्‍य, चित्र बनाना, बिंदी व तिलक लगाना सीखना, रंगोली बनाना, घरों को फूलों से सजाना, दांतों, वस्‍त्रों, केश, नख आदि को सलीके से रखना, घर के फर्श को साफ रखना, बिस्‍तर बिछाना, जलतरंग बजाना, जलक्रीड़ा करना, नए सीखने के लिए हमेशा उत्‍साहित रहना। 
माला गूंथना सीखना, सिर के ऊपर से नीचे की ओर मालाएं लटकाना व सिर के चारों ओर माला धारण करना, समय एवं स्‍थान आदि के अनुरूप शरीर को वस्‍त्रादि से सजाना, शंख, अभ्रक आदि से वस्‍त्रों को सजाना, सुगंधित पदार्थ का उचित प्रयोग, गहने बनाना, चमत्‍कारी व्‍यक्तित्‍व, सुंदरता बढ़ाने के नुस्‍खे अपनाना,
बेहतरीन ढंग से काम करना, स्‍वादिष्‍ट भोजन बनाना, खाने के बाद की सामग्री जैसे पान, सोंठ, गीला चूर्ण आदि बनाना, सीना, बुनना और कढाई, चीणा व डमरू बजाना, धागों की सहायता से चित्रकारी बनाना, पहेलियां पूछना और हल करना, अंत्‍याक्षरी करना, ऐसी बातें जो शब्‍द व अर्ध की दृष्टि से दोहराने में कठिन हो, पुस्‍तक पढना, नाटक व कहानियों का ज्ञान, काव्‍य का ज्ञान, लकड़ी के चौखटे, कुर्सी आदि की बुनाई, विभिन्‍न धातुओं की आकृतियां बनाना, काष्‍ठ कला, भवन निर्माण कला। 
मूल्‍यवान वस्‍तुओं व रत्‍नों की पहचान, धातुओं का ज्ञान, मणियों व रंगों का ज्ञान, उद्यान लगाना, बटेर लडाने की विधि का ज्ञान, तोता मैना से बोलना व गाना सिखाना, पैरों से शरीर की मालिश, गुप्‍त अक्षरों का ज्ञान, गुप्त भाषा में बात करना, कई भाषाओं का ज्ञान, फूलों की गाडी बनाना, शुभ अशुभ शकुनों का फल बताना, यंत्र बनाना, सुनी हुई बात, पुस्‍तक आदि को स्‍मरण करना, मिलकर पढना, गूढ कविता को स्‍पष्‍ट करना, शब्‍दकोश का ज्ञान, छंद का ज्ञान, काव्‍य रचना, नकली रूप धरना, ढंग से वस्‍त्र पहनना, विशेष प्रकार के जुए, बच्‍चों के खिलौने बनाना,व्‍यवहार ज्ञान, विजयी होने का ज्ञान, व्‍यायाम संबंधी विद्या।

कामसूत्र में वर्णित ६४ कलायें निम्नलिखित हैं-

गीतं (१), वाद्यं (२), नृत्यं (३), आलेख्यं (४), विशेषकच्छेद्यं (५), तण्डुलकुसुमवलि विकाराः (६), पुष्पास्तरणं (७), दशनवसनागरागः (८), मणिभूमिकाकर्म (९), शयनरचनं (१०), उदकवाद्यं (११), उदकाघातः (१२), चित्राश्च योगाः (१३), माल्यग्रथन विकल्पाः (१४), शेखरकापीडयोजनं (१५), नेपथ्यप्रयोगाः (१६), कर्णपत्त्र भङ्गाः (१७), गन्धयुक्तिः (१८), भूषणयोजनं (१९), ऐन्द्रजालाः (२०), कौचुमाराश्च (२१), हस्तलाघवं (२२), विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया (२३),.पानकरसरागासवयोजनं (२४), सूचीवानकर्माणि (२५), सूत्रक्रीडा (२६), वीणाडमरुकवाद्यानि (२७), प्रहेलिका (२८), प्रतिमाला (२९), दुर्वाचकयोगाः (३०), पुस्तकवाचनं (३१), नाटकाख्यायिकादर्शनं (३२), काव्यसमस्यापूरणं (३३), पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः (३४),तक्षकर्माणि (३५), तक्षणं (३६), वास्तुविद्या (३७), रूप्यपरीक्षा (३८), धातुवादः (३९), मणिरागाकरज्ञानं (४०), वृक्षायुर्वेदयोगाः (४१), मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः (४२), शुकसारिकाप्रलापनं (४३), उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलं (४४),अक्षरमुष्तिकाकथनम् (४५), म्लेच्छितविकल्पाः (४६), देशभाषाविज्ञानं (४७), पुष्पशकटिका (४८), निमित्तज्ञानं (४९), यन्त्रमातृका (५०), धारणमातृका (५१), सम्पाठ्यं (५२), मानसी काव्यक्रिया (५३), अभिधानकोशः (५४), छन्दोज्ञानं (५५), क्रियाकल्पः (५६), छलितकयोगाः (५७), वस्त्रगोपनानि (५८), द्यूतविशेषः (५९), आकर्षक्रीडा (६०), बालक्रीडनकानि (६१), वैनयिकीनां (६२), वैजयिकीनां (६३), व्यायामिकीनां च (६४) विद्यानां ज्ञानं इति चतुःषष्टिरङ्गविद्या. कामसूत्रावयविन्यः. ॥कामसूत्र १.३.१५ ।।

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...