॥स्वधर्म से पलायन करना मृत्यु
से भी बढ़कर कष्टकारी होता है॥
॥सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥
*गीता का कालजयी चिंतन-8
महाभारत के युद्ध में अपने हथियार डाल चुके मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान् कृष्ण ने कहा है कि –"जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तो मैं धर्म की स्थापना के लिए हर युग में अवतार लेता हूं”-
“धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे” (गीता‚ 4.8)
गीता के परिप्रेक्ष्य में ‘धर्म’ की स्थापना से तात्पर्य यहां समाज व्यवस्था को युगानुसारी मानवीय मूल्यों की दृष्टि से पुनर्स्थापित करना है। उसमें जो अंधरूढ़ियां, पाखंड, आडम्बर और विसंगतियां आ गई हैं उनका विखण्डन करना है । भारत में ‘धर्म’ शब्द कभी भी ‘मजहब’ या ‘रिलीजन’ का पर्यायवाची नहीं रहा अपितु समूची समाज व्यवस्था का वाचक शब्द है।
कृष्ण द्वारा स्थापित भागवत धर्म मानवमात्र का शाश्वत धर्म है । इसे सनातन धर्म कहने का तात्पर्य भी यही है कि यह धर्म किसी विशेष मतवाद, उपासना पद्धति अथवा आचार निष्ठा का नाम नहीं प्रत्युत जगत् के अधिष्ठाता परमात्मा द्वारा लोकयात्रा को सहज बनाने की आचार व्यवस्था है। व्यक्ति सापेक्ष, काल सापेक्ष तथा देश सापेक्ष धर्मों में जो विसंगतियां और मतभेद उत्पन्न होते हैं, भागवत धर्म की प्रवृत्तियों ने उनका विखण्डन किया है। भगवान कृष्ण ने वैदिक धर्म के तटस्थ मूल्यों के साथ छेड़छाड़ किए बिना ही धर्म को एक ऐसे नवनीत के रूप में प्रस्तुत किया जिससे वह ज्यादा से ज्यादा लोकप्रिय हो सका। कृष्ण द्वारा आविष्कृत नए भागवत धर्म के अनुसार धर्म की साधना के लिए न तो अत्यन्त श्रमसाध्य वाजपेय और राजसूय जैसे खर्चीले यज्ञों के अनुष्ठान की आवश्यकता है और न ही क्लेशकाय द्वारा कठोर तपस्या की जरूरत है, बल्कि मन और इन्द्रिय संयम के शुभ संकल्प द्वारा फल, पत्र और पुष्प के समर्पण मात्र से ही ईश्वर और धर्म की सरल रूप से आराधना की जा सकती है-
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ||” -गीता 9.26
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ||” -गीता 9.26
अर्थात् जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मुझे प्रेमपूर्वक अर्पण करता है, मुझ में तल्लीन हुए उस भक्त के द्वारा दी गई भेंट को मैं ग्रहण कर लेता हूँ ।
दरअसल, गीता के अर्जुन विषाद योग की कथा महाभारत के धर्मयुद्ध की परिणति है इसलिए 'धर्म' की गीता विषयक अवधारणा को वेदव्यास रचित महाभारत के संदर्भ में समझने की विशेष आवश्यकता है। महाभारत में 'धर्म' शब्द का जो अनेक स्थानों पर प्रयोग हुआ है उसका तात्पर्य कर्त्तव्य-बोध अथवा तत्कालीन समाज-व्यवस्था से है। शांतिपर्व के उत्तरार्ध में 'मोक्ष-धर्म' का विशिष्ट प्रयोग ‘पारलौकिक कल्याण मार्ग’ के लिए हुआ है । इसी तरह मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र के ग्रंथों में भी ‘धर्म’ शब्द का व्यवहार चारों वर्णों के कर्तव्यों के लिए किया गया है। भगवद्गीता में भी जब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ‘स्वधर्ममपि चाऽवेक्ष्य’ या स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः’ की बात कह रहे हैं तो उनका आशय किसी मजहब विशेष से नहीं अपितु अर्जुन के कर्तव्य बोध से है, समाज व्यवस्था के संदर्भ में उसके द्वारा पालन करने योग्य अपने क्षत्रियोचित स्वधर्म से है। मगर अर्जुन अपने क्षत्रियोचित स्वधर्म से पलायन करता हुआ क्षत्रिय की भांति युद्ध करने के बजाय संन्यासियों की तरह बात कर रहा है। सामने शत्रुओं की सेना खड़ी है और युद्ध का शंखनाद भी हो चुका है ऐसे में अर्जुन ने अपने हथियार जमीन में डाल दिए हैं।
गीता में कृष्ण कह रहे हैं कि क्षत्रिय होने के नाते अपने स्वधर्म का विचार करते हुए तुम्हारे लिए धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर अन्य कोई विकल्प नहीं है | अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है-
“स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो न्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते |”-गीता 2.31
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो न्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते |”-गीता 2.31
अर्जुन की पूरी अंतरात्मा क्षत्रिय की है। वह एक लड़ाका ‘फाइटर' भी है। किंतु बातें वह संन्यासी की तरह करने लगा है। इतिहास में ऐसा सैनिक भगोड़ा ही कहलाता, योद्धा नहीं। वह ‘स्वधर्म' से च्युत हो रहा है। इसीलिए तो कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू लड़ाका है, तू भगोड़ा या ‘एस्केपिस्ट' नहीं है। तू बातें करता है कि सामने शत्रुओं की तरह खड़े ये मेरे संबंधी मर जाएंगे या मैं मर जाऊंगा। एक क्षत्रिय भला मरने-मारने के भय से पलायनवादी की तरह हरकतें कब से करने लगा है? तूने कहीं किसी और का धर्म तो नहीं ओढ़ लिया है? जो इस तरह से बहकी बहकी बातें करते हुए अपने कर्तव्यपथ से भटक गया है।
अगर अर्जुन क्षत्रिय के अलावा ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र होता तो कृष्ण उसे कभी नहीं कहते कि तू युद्ध लड़। तब कृष्ण कहेंगे, अगर तू ब्राह्मण या कोई संन्यासी है तो जा अहिंसा अथवा प्राणिमैत्री की भावना से मानवता की सेवा कर क्योंकि यही तेरा स्वधर्म है। मगर अर्जुन के पास इतना सामर्थ्य नहीं कि वह कृष्ण से कह सके कि वह ब्राह्मण है। उसके सारे व्यक्तित्व की धार और पहचान धनुर्धारी क्षत्रिय योद्धा की है। उसके हाथ में गांडीव धनुष हो तो ही वह निखरेगा। युद्ध के गहरे क्षण में ही वह अपनी आत्मा के स्वत्व को खोज पाएगा। उसे अपनी आत्मा के स्वत्व का आनंद और कहीं परधर्मी ब्राह्मण या कोई संन्यासी की तरह माला जपने से मिलने वाला नहीं है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अपने धर्म में मर जाना भी बेहतर है। तू क्षत्रिय होकर लड़ और मर जा, लेकिन लड़ने से मत भाग। क्योंकि उससे भागकर तू जिएगा जरूर, लेकिन वह मरा हुआ जीना होगा, वह "डेड लाइफ' होगी और आत्म स्वाभिमानी किसी भी व्यक्ति के लिए "डेड लाइफ' से "लिविंग डेथ' बेहतर होती है।
गीता के दूसरे अध्याय में कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं- हे पृथानन्दन ! अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्ग का दरवाजा भी है। वे क्षत्रिय बड़े भाग्यशाली हैं, जिनको ऐसा दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति से वंचित रह कर पाप का ही भागी बनेगा। समस्त लोग भी तेरी सदा निन्दा करते रहेंगे। और याद रख वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्यु से भी बढ़कर दु:खदायी होती है। महारथी लोग, जिन की नज़र में तू बहुमान्य हो चुका है उनकी दृष्टि में भी तू डर के मारे युद्ध से भागा हुआ मानकर लघुता को प्राप्त हो जाएगा। तेरे शत्रु लोग तेरी वीरता की मज़ाक उड़ाते हुए बहुत से न कहने योग्य बातें कहेंगे। भला इससे बढ़कर दु:खकी बात और क्या होगी -
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्॥
-गीता 2.32-36
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्॥
-गीता 2.32-36
भारतीय सेना में आज भी अनेक जवान हैं जो महाभारत से प्रेरणा लेकर रणभूमि में वीरतापूर्ण युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हैं तथा गीता के द्वारा दिए गए सन्देश "हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्" (गीता, 2-37) की भावना से देश और राष्ट्र की रक्षा के लिए हंसते हंसते अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। देशभक्ति से ओतप्रोत होकर अपने राष्ट्रीय दायित्व का स्वधर्म निभाने में महाभारत और गीता से जो हमें प्रेरणा मिलती है वह किसी अन्य ग्रन्थ से मिलनी कठिन ही है।
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