Monday, May 22, 2023

हस्तलिखित पाण्डुलिपियां

 

हस्तलिखित पाण्डुलिपियां

हस्तलिखित पाण्डुलिपियां धर्म, दर्शन, इतिहास, साहित्य, संस्कृति के सर्वाधिक प्रामाणिक स्रोत माने जाते हैं। इसलिए ज्ञान-विज्ञान की इस अमूल्य धरोहर का संरक्षण राष्ट्रीय दायित्व बन जाता है। भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा पाण्डुलिपि संग्रह है। लगभग एक करोड़ से भी अधिक पाण्डुलिपियां भारत के विभिन्न संस्थानों, पुस्तकालयों तथा व्यक्तिगत संग्रहालयों में विद्यमान हैं। समुचित रख-रखाव तथा अपेक्षित मूल्याङ्कन के अभाव के कारण भारत की यह समृद्ध पाण्डुलिपि सम्पदा नष्ट होने के खतरे का सामना कर रही है। चिन्ता सबसे बड़ी यह है कि इन प्राचीन पाण्डुलिपियों में अधिकांश संस्कृत की कृतियाँ हैं। इसलिए संस्कृत के विद्वानों द्वारा ज्ञान विज्ञान की इस राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा करना मुख्य दायित्व हो जाता है।पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए आज आधुनिक विधियों को अपनाने की जरूरत है।जैसा कि भंडारकर शोध संस्थान, पुणे जैसी संस्थाओं में इन विधियों को अपनाया जा रहा है। इन्हें न केवल संरक्षित करने की जरूरत है,अपितु इनके विषय-वस्तु का अत्याधुनिक विधियों द्वारा स्कैन करना भी जरूरी है ताकि इन्हें जरा भी क्षति पहुँचाए बगैर इनकी सामग्री सुरक्षित रखी जा सके।दरअसल, जब भारत में मैकाले शिक्षा पद्धति लागू की गई थी तो एक षड्यंत्र के तहत केवल यूरोपीय पद्धति पर आधारित शिक्षा को भारत में लागू किया गया। इसके पीछे एक मकसद यह भी था लोगों के मन में संस्कृत भाषा के प्रति हीनभावना भरना।उस समय जब आधुनिक शिक्षा पद्धति पर प्राच्यविदों और उपयोगितावादियोंमें बहस छिड़ी तब एक बीच का रास्ता निकाला जा सकता थाजिसमें आधुनिक ज्ञान भी शामिल होता और पांडुलिपियों के माध्यम से 4000 से भी अधिक साल का संचित ज्ञान भी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संस्कृत केवल धर्म-कर्म की भाषा बन कर रह गई और अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बन गई। यही वजह है कि नई पीढ़ी के जो बच्चे हैरी पॉटर श्रृंखला के प्रति अपनी खास रुचि दिखाते हैं किन्तु पंचतंत्र जैसी रचनाओं के बारे में उदासीनऔर अनजान बने रहते हैं। जबकि पंचतंत्र की एक सुंदर कहानी के पीछे एक संदेश भी निहित था जो भारतीय शिक्षा पद्धति का सार था।पांडुलिपि संरक्षण के संबंध में हमारी लापरवाही का नतीजा ही था कि भारत में सबसे पहली बार संस्कृत सीखने वाले प्राच्यविदविलियम जोन्स को 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की केवल एक पांडुलिपि ही मिली और वह भी बांग्ला लिपि में। जब विलियम जोन्स ने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' पढ़ना शुरू किया तो अध्ययन के मध्य ही उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा कि मैं दो हजार वर्ष पुराने एक संस्कृत नाटक का अध्ययन कर रहा हूँ, इसका लेखन हमारे महान लेखक शेक्सपीयर के इतना निकट है कि ऐसा भ्रम होने लगता है कि शेक्सपीयर ने कहीं शाकुन्तलम् का अध्ययन तो नहीं किया। जोन्स का यह पत्र उस समय प्रकाशित नहीं हुआ अन्यथा यूरोप में बड़ी खलबली मच जाती। यहाँ हमें समझना होगा कि संस्कृत की महान धरोहर की उपेक्षा कर, हम 4000 साल से अधिक पुराने समयके संचित ज्ञान को खो देते हैं।ज्ञानविज्ञान की धरोहर स्वरूप ये पाण्डुलिपियां ताड़पत्र, भूर्जपत्र, कागज, कपड़ा,लकड़ी,चमड़े,पत्थर, मिट्टी, सोने, चाँदी, पीतल, ताम्बे, लोहे, संगमरमर, हाथीदाँत, सीप, शंख आदि पर लिखी गई होती हैं।अतः इनके परिरक्षण के उपाय भी विविध प्रकार से किए जाते हैं। क्षेत्रीय जलवायु और मौसम का प्रभाव भी पाण्डुलिपियों पर पड़ता है। दक्षिण की अधिक ऊष्ण हवा में ताड़पत्र में लिखी पुस्तकें अधिक दिनों तक सुरक्षित नहीं रह सकती हैं। किन्तु नेपाल आदि शीत प्रदेशों में दीर्घकाल तक ताड़पत्र मेंलिखी पाण्डुलिपियां संरक्षित रह सकती हैं। नेपाल में ताड़पत्रीय पुस्तकों की खोज की गई तो 11वीं शती के पूर्वकालीन हस्तलिखित ग्रन्थ आज भी संरक्षित हैं, जिनमें, सातवीं शताब्दी ईस्वी का ‘स्कन्दपुराण’, नवीं शताब्दी ई. का ‘परमेश्वरतंत्र’तथा दसवीं शताब्दी का बौद्ध ग्रंथ ‘लंकावतार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार भोजपत्र पर लिखी पुस्तकों के संरक्षण की दृष्टि से कश्मीर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना ‘धम्मपद’, चौथीशताब्दी का संस्कृत में लिखा ‘संयुक्तागमसूत्र’ एवं आठवीं शताब्दी में रचित ‘अंकगणित’ आदि पाण्डुलिपियां खोतान एवं बख्शाली से प्राप्त हुई हैं। बौद्ध पुस्तकें प्रायः स्तूपों की भीतर रहने तथा पत्थरों के बीच गढ़े रहने से बहुत दीर्घकाल तक सुरक्षित रह पाई हैं। परन्तु खुले वातावरण में रहने वाले भूर्जपत्र में लिखे ग्रन्थ 15वीं शताब्दी ई. से पूर्व के नहीं मिलते। कागज में लिखे ग्रन्थ भी प्रायः ज्यादा समय तक टिकाऊ नहीं होते किन्तु यदि उनके संरक्षण के प्रति यदि विशेष सावधानी रखी जाए तो ये ग्रन्थ भी दीर्घजीवी हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि बेबर को पांचवीं शताब्दी ई. मेंलिखे भारतीय गुप्तलिपि में लिखे चार ग्रन्थ मध्य एशिया में यारकंद से 60 मील दक्षिण में स्थित ‘कुगिअर’ नामक स्थान सेजमीन में गढ़े मिले तथा एक संस्कृत ग्रन्थ ‘कासगर’ से प्राप्त हुआ। इन सभी उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि ताड़पत्र, भूर्जपत्र और कागज की यद्यपि लम्बी आयु नहीं रहती किन्तु ग्रंथ संरक्षण के प्रति विशेष सावधानी रखी जाए तो इन्हें भी दीर्घजीवी बनाया जा सकता है।भारत के प्राचीन ग्रन्थ लेखक पाण्डुलिपि संरक्षण दृष्टि से भी विशेष जागरूक रहे थे। प्राचीन काल में पांडुलिपि संरक्षण की अनेक विधियां प्रचलित थी। उन्हीं विधियों के प्रयोग से ऋग्वेद की कुछ ऐसी पांडुलिपियाँ भी संरक्षित रहीं जो हजारों साल पहले लिखी गई थी। इसलिए बहुत से हस्तलिखित ग्रन्थों के अन्त में निम्नलिखित संस्कृत के श्लोक लिखे मिलते हैं जिनका पाण्डुलिपि संरक्षण की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व है-"जलाद् रक्षेत् स्थलाद् रक्षेत् ,रक्षेत् शिथिलबंधनात्।मूर्खहस्ते न दातव्या,एवं वदति पुस्तिका।।""उदकानिल चौरेभ्योमूषकेभ्यो हुताशनात्।कष्टेन लिखितं शास्त्रंयत्नेन परिपालयेत् ।।"-अर्थात् जल से ग्रन्थ की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि जल कागज पत्र को गला देता है, स्याही को फैला देता है या धो देता है।स्थल यानी खुले स्थान पर धूल, मिट्टी ग्रन्थ को भ्रष्ट कर देती है। दीमक, कीड़े-मकोड़े आदि ग्रन्थ को चटकर जाते हैं। नमी और आग से भी ग्रन्थ को हानि पहुँचती है। चूहों तथा चोरों से भी मूल्यवान ग्रन्थ की रक्षा की जानी चाहिए। इस प्रकार लेखक द्वारा जीवन भर साधना करने के बाद लिखा गया शास्त्र-ग्रन्थ मूर्खतावश अथवा लापरवाही के कारण पल भर में नष्ट हो जाता है।सन् 2003 में भारत सरकार द्वारा स्थापित ‘राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन’ के अस्तित्व में आने से अब पाण्डुलिपियों के संरक्षण का कार्य अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया जाने लगा है।आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी के नवीनातिनवीन तकनीकों से पाण्डुलिपियों की रक्षा करना तथा उनकी उपयोगिता को जन सामान्य तक पहुँचाना अब पहले की अपेक्षा सरल और सहजहो गया है। मिशनने इस संबंध में द्विमुखी योजना को प्रारम्भ किया है-1- मूल पाण्डुलिपियों का निवारणात्मक एवं उपचारात्मक संरक्षण तथा2- सांख्यिकीकरण की आधुनिक प्रक्रिया द्वारा पाण्डुलिपियों का संरक्षण।सन् 2011 में पाण्डुलिपि मिशन ने अपने नई दिल्ली स्थित मुख्यालय में प्रायः निष्क्रिय संरक्षण प्रयोगशाला को सुप्रशिक्षित संरक्षकों की सहायता से पुनः सक्रिय किया है तथा संरक्षण से सम्बन्धित आधुनिक तकनीक के प्रयोग को लोकप्रिय एवं व्यावहारिक रूप देने के लिए अपनी वेबसाइट पर ‘अभिलेखीय सामग्री के सांख्यिकीकरण हेतु दिशा निर्देश’ भी जारी किये हैंजिनका मुख्य उद्देश्य है भविष्य के लिए पाण्डुलिपि संरक्षण हेतु जनमानस को जागरूक करना तथा नई सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से पाण्डुलिपियों का संरक्षण एवं परिरक्षण करना। मिशन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए चार प्रयोगात्मक माध्यम निर्धारित किए हैं-

सरस्वती शब्द तीन शब्दों से निर्मित हैं,

 


सरस्वती शब्द तीन शब्दों से निर्मित हैं

प्रथम 'सर'जिसका अर्थ सार, 'स्वस्वयं तथा 'तीजिसका अर्थ सम्पन्न हैं; जिसका अभिप्राय हैं जो स्वयं ही सम्पूर्ण सम्पन्न हो। ब्रह्माण्ड के निर्माण में सहायता हेतुब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को अपने ही शरीर से उत्पन्न किया था। इन्हीं के ज्ञान से प्रेरित हो ब्रह्मा जी ने समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का निर्माण किया।

वेद के अर्थ समझने के लिए हमारे पास प्राचीन ऋषियों के प्रमाण हैं। निघण्टु में वाणी के 57 नाम हैं, उनमें से एक सरस्वती भी है। अर्थात् सरस्वती का अर्थ वेदवाणी है।  सरस्वती के अर्थ विदुषी, वेगवती नदी, विद्यायुक्त स्त्री, विज्ञानयुक्त वाणी आदि किये हैं। अन्य देशों में सरस्वती

जापान में सरस्वती को 'बेंजाइतेन' कहते हैं। जापान में उनका चित्रन हाथ में एक संगीत वाद्य लिए हुए किया जाता है। जापान में वे ज्ञान, संगीत तथा 'प्रवाहित होने वाली' वस्तुओं की देवी के रूप में पूजित हैं।

दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्डइण्डोनेशियाजापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है।

भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार)

 

भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार)

भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार) की यह प्राचीन परंपरा रही हैं। आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकाओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं।

अंगशुची, मंजन, वसन, माँग, महावर, केश।तिलक भाल, तिल चिबुक में, भूषण मेंहदी वेश।।मिस्सी काजल अरगजा, वीरी और सुगंध।

अर्थात् अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी़ पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना।

स्नान के पहले उबटन का बहुत प्रचार था। इसका दूसरा नाम अंगराग है। अनेक प्रकार के चंदन, कालीयक, अगरु और सुगंध मिलाकर इसे बनाते थे। जाड़े और गर्मी में प्रयोग के हेतु यह अलग अलग प्रकार का बनाया जाता था। सुगंध और शीतलता के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इसका प्रयोग करते थे।

स्नान के अनेक प्रकार काव्यों में वर्णित मिलते हैं पर इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय जलविहार या जलक्रीड़ा था। अधिकांशत: स्नान के जल को पुष्पों से सुरभित कर लिया जाता था जैसे आजकल "बाथसाल्ट" का प्रयत्न किया जाता है। एक प्रकार के साबुन का भी प्रयोग होता था जो "फेनक" कहलाता था और जिसमें से झाग भी निकलते थे।

वसन वे स्वच्छ वस्त्र थे जो नहाने के बाद नर नारी धारण करते थे। पुरुष एक उत्तरीय और अधोवस्त्र पहनते थे और स्त्रियाँ चोली और घाघरा। यद्यपि वस्त्र रंगीन भी पहने जाते थे तथापि प्राचीन नर-नारी श्वेत उज्जवल वस्त्र अधिक पसंद करते थे। इनपर सोने, चाँदी और रत्नों के काम कर और भी सुंदर बनाने की अनेक विधियाँ थीं।

स्नान के उपरांत सभी सुहागवती स्त्रिययाँ सिंदूर से माँग भरती थीं। वस्तुत: वारवनिताओं को छोड़कर अधिकतर विवाहित स्त्रियों के शृंगार प्रसाधनों का उल्लेख मिलता है, कन्याओं का नहीं। सिंदूर के स्थान पर कभी कभी फूलों और मोतियों से भी माँग सजाने की प्रथा थी।

बाल सँवारने के तो तरीके हर समय के अपने थे। स्नान के बाद केशों से जल निचोड़ लिया जाता था। ऐसे अनेक दृश्य पत्थर पर उत्कीर्ण मिलते हैं। सूखे बालों को धूप और चंदन के धुँए से सुगंधित कर अपने समय के अनुसार अनेक प्रकार की वेणियों, अलकों और जूड़ों से सजाया जाता था। बालों में मोती और फूल गूँथने का आम रिवाज था। विरहिणियाँ और परित्यक्ता वधुएँ सूखे अलकों वाली ही काव्यों में वर्णित की गई हैं; वे प्रसाधन नहीं करती थीं।

महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक "लिपिस्टिक" का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर लोध्रचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था।

मुँह का प्रसाधन तो नारियों को विशेष रूप से प्रिय था। इसके "पत्ररचना", विशेषक, पत्रलेखन और भक्ति आदि अनेक नाम थे। लाल और श्वेत चंदन के लेप से गालों, मस्तक और भवों के आस पास अनेक प्रकार के फूल पत्ते और छोटी बड़ी बिंदियाँ बनाई जाती थीं। इसमें गीली या सूखी केसर या कुमकुम का भी प्रयोग होता था। बाद में इसका स्थान बिंदी ने ले लिया जो आज भी इस देश की स्त्रियों का प्रिय प्रसाधन है। कभी केवल काजल की अकेली बिंदी भी लगाने की रीति थी। आजकल की भाँति ही बीच ठोढ़ी पर दो छोटे छोटे काजल के तिल लगाकर सौंदर्य को आकर्षक बनाने का चलन था।

आजकल की तरह प्राचीन भारत में भी हथेली और नाखूनों को मेहँदी से लाल करने का आम रिवाज था।

आभूषणों की तो अनंत परंपरा थी जिसे नर नारी दोनों ही धारण करते थे। मध्यकाल में तो आभूषणों का प्रयोग इतना बढ़ा कि शरीर का शायद ही कोई भाग बचा हो जहाँ गहने न पहने जाते हों।

आँखों में काजल या अंजन का प्रयोग व्यापक रूप से होता था। मूर्तिकला में बहुधा शलाका से अंजन लगाती हुई नारी का चित्रण हुआ है।

अरगजा एक प्रकार का लेप है जिसे केसर, चंदन, कपूर आदि मिलाकर बनाते थे। आधुनिक इत्र या सेंट की तरह शरीर को सुगंधित करने के लिए इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता था।

मुँह को सुगंधित करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही तांबूलया पान खाते थे। राजाओं की परिचारिकाओं में तांबूलवाहिनी का अपना विशेष स्थान था।

भारतीय नारी को अपने प्रसाधन में फूलों के प्रति विशेष मोह है। जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मंदार, शिरीष, केसर आदि के फूल और गजरों का प्रयोग करती थीं।

शृंगार का सोलहवाँ अंग है नीला कमल, जिसे स्त्रियाँ पूर्वोक्त पंद्रह शृंगारों से सज्जित हो पूर्ण विकसित पुष्प या कली के दंड सहित धारण करती थीं। नीले कमलों का चित्रण प्राचीन मूर्तिकला में प्रभूत रूप से हुआ है।

प्राचीन संस्कृत साहित्य में षोडश शृंगार की गणना अज्ञात प्रतीत होती है। अनुमानतः यह गणना वल्लभदेव की सुभाषितावली (१५ वीं शती या १२ वीं शती) में प्रथम बार आती है। उनके अनुसार वे इस प्रकार हैं—

आदौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्रांजनं कुडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ।सौगन्ध्य करकंकणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता शृंगारका षोडण।।

अर्थात् (१) मज्जन, (२) चीर, (३) हार, (४) तिलक, (५) अंजन, (६) कुंडल, (७) नासामुक्ता, (८) केशविन्यास, (९) चोली (कंचुक), (१०) नूपुर, (११) अंगराग (सुगंध), (१२) कंकण, (१३) चरणराग, (१४) करधनी, (१५) तांबूल तथा (१६) करदर्पण (आरसो नामक अंगूठी)।

पुनः १६ वीं शती में श्री रूपगोस्वामी के उज्वलनीलमणि में शृंगार की यह सूची इस प्रकार गिनाई गई है—

स्नातानासाग्रजाग्रन्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणिः सोत्त सा चर्चितांगी कुसुमितचिकुरा स्त्रग्विणी पद्महस्ता। :ताभ्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिबुका कज्जलाक्षी सुचित्रा। राधालक्चोज्वलांघ्रिः स्फुरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम्।।

उक्त प्रमाण से शृंगारों की यह सूची बनती है— अर्थात् (१) स्नान, (२) नासा मुक्ता, (३) असित पट, (४) कटि सूत्र (करधनी), (५) वेणीविन्यास, (६) कर्णावतंस, (७) अंगों का चर्चित करना, (८) पुष्पमाल, (९) हाथ में कमल, (१०) केश में फूल खोंसना, (११) तांबूल, (१२) चिबुक का कस्तुरी से चित्रण, (१३) काजल, (१४) शरीर पर पत्रावली, मकरीभंग आदि का चित्रण, (१५) अलक्तक और (१६) तिलक। यहाँ वल्लभदेव के तथा श्रीरूपगोस्वामी के काल तक की शृंगार सूची में विभिन्नता स्पष्ट है।

हिंदी कवियों में जायसी के अनुसार ये शृंगार यों हैं—(१) मज्जन, (२) स्नान (जायसी ने मज्जन, स्नान को अलग रखा है), (३) वस्त्र, (४) पत्रावली, (५) सिंदूर, (६) तिलक, (७) कुंडल, (८) अंजन, (९) अधरों का रंगना, (१०) तांबूल, (११) कुसुमगंध, (१२) कपोलों पर तिल, (१३) हार, (१४) कंचुकी, (१५) छुद्रघंटिका ओर (१६) पायल।

रीतिकाव्य के आचार्य केशवदास ने भी सोलह शृंगार की गणना इस प्रकार की है—

प्रथम सकल सुचि, मंजन अमल बास, जावक, सुदेस किस पास कौ सम्हारिबो।अंगराग, भूषन, विविध मुखबास-राग, कज्जल ललित लोल लोचन निहारिबो।बोलन, हँसन, मृदुचलन, चितौनि चारु, पल पल पतिब्रत प्रन प्रतिपालिबो।'केसौदास' सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरहै सिंगारन सिंगारिबो।

उक्त छंद की टीका करते हुए सरदार कवि ने ये शृंगार यों गिने हैं—(१) उबटन, (२) स्नान, (३) अमल पट्ट, (४) जावक, (५) वेणी गूँथना, (६) माँग में सिंदूर, (७) ललाट में खौर, (८) कपोलों में तिल, (९) अंग में केसर लेपन, (१०) मेंहदी, (११) पुष्पाभूषण, (१२) स्वर्णाभूषण, (१३) मुखवास (१४) दंत मंजन, (१५) तांबूल और (१६) काजल। यहाँ स्पष्ट है कि टीकाकार ने कई उपकरण अपनी ओर से जोड़े हैं।

नगेंद्रनाथ वसु ने हिंदी विश्वकोश में इन शृंगारों को गणना निम्नलिखित दी है— (१) उबटन, (२) स्नान, (३) वस्त्रधारण, (४) केश प्रसाधन, (५) काजल, (६) सिंदूर से माँग भरना, (७) महावर, (८) तिलक, (९) चिबुक पर तिल, (१०) मेंहदी, (११) सुगंध लगाना, (१२) आभूषण, (१३) पुष्पमाल, (१४) मिस्सी लगाना, (१५) तांबूल और (१६) अधरों को रंगना।

उक्त विभिन्न सूचियों से पता चलता है कि षोडश शृंगार को कोई निश्चित परिभाषा या सूची नहीं रही है। देश और काल के अनुसार उसमें भिन्नता होती रही।

 

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

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