Thursday, January 25, 2024

पांडव की मां कुंती के नाम पर रखा गया-परिजात वृक्ष

 

परिजात वृक्ष

पांडव की मां कुंती के नाम पर रखा गया, किन्तूर गांव, जिला मुख्यालय बाराबंकी से लगभग 38 किलोमीटर पूर्वी दिशा में है। इस जगह के आसपास प्राचीन मंदिर और उनके अवशेष  हैं। यहां कुंती द्वारा स्थापित मंदिर के पास, एक विशेष पेड़ है जिसे ‘परिजात’ कहा जाता है। इस पेड़ के बारे में कई बातें प्रचलित हैं जिनको जनता की स्वीकृति प्राप्त है। जिनमें से  यह है, कि अर्जुन इस पेड़ को स्वर्ग से लाये थे और कुंती इसके फूलों से शिवजी का अभिषेक करती थी। दूसरी बात यह है, कि भगवान कृष्ण अपनी प्यारी रानी सत्यभामा के लिए इस वृक्ष को लाये थे। ऐतिहासिक रूप से, यद्यपि इन बातों को कोई माने या न माने, लेकिन यह सत्य है कि यह वृक्ष एक बहुत प्राचीन पृष्ठभूमि से है। परिजात के बारे में हरिवंश पुराण में  निम्नलिखित कहा गया है। परिजात एक प्रकार का कल्पवृक्ष है, कहा जाता है कि यह केवल स्वर्ग में होता है। जो कोई इस पेड़ के नीचे मनोकामना करता है, वह जरूर पूरी होती है। धार्मिक और प्राचीन साहित्य में, हमें कल्पवृक्ष के कई संदर्भ मिलते हैं, लेकिन केवल किन्तुर (बाराबंकी) को छोड़कर इसके अस्तित्व के  प्रमाण का विवरण विश्व में कहीं और नहीं मिलता। जिससे किन्तूर के इस अनोखे परिजात वृक्ष का विश्व में विशेष स्थान है। वनस्पति विज्ञान के संदर्भ में, परिजात  को ‘ऐडानसोनिया डिजिटाटा’ के नाम से जाना जाता है, तथा इसे एक विशेष श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि यह अपने फल या उसके बीज का उत्पादन नहीं करता है, और न ही इसकी शाखा की कलम से एक दूसरा परिजात वृक्ष पुन: उत्पन्न किया जा सकता है। वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार यह एक यूनिसेक्स पुरुष वृक्ष है, और ऐसा कोई पेड़ और कहीं नहीं मिला है।

निचले हिस्से में इस वृक्ष की पत्तियां, हाथ की उंगलियों की तरह पांच युक्तियां वाली हैं, जबकि वृक्ष के ऊपरी हिस्से पर यह सात युक्तियां वाली होती हैंं। इसका फूल बहुत खूबसूरत और सफेद रंग का होता है, और सूखने पर सोने के रंग का हो जाता है। इसके फूल में पांच पंखुड़ी हैं। इस पेड़ पर बेहद कम बार बहुत कम संख्या में फूल खिलता है, लेकिन जब यह होता है, वह ‘गंगा दशहरा’ के बाद ही होता है, इसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलती है। इस पेड़ की आयु 1000 से 5000 वर्ष तक की मानी जाती है। इस पेड़ के तने की परिधि लगभग 50 फीट और ऊंचाई लगभग 45 फीट है। एक और लोकप्रिय बात जो प्रचलित है कि, इसकी शाखाएं टूटती या सूखती नहीं, किंतु वह मूल तने में सिकुड़ती है और गायब हो जाती हैं। आसपास के लोग इसे अपना संरक्षक और इसका ऋणी मानते हैं, अतः वे इसकी पत्तियों और फूलों की रक्षा हर कीमत पर करते हैं। स्थानीय लोग इसे बहुत उच्च सम्मान देते हैं, इस के अलावा बड़ी संख्या में पर्यटक इस अद्वितीय वृक्ष को देखने के लिए आते हैं।







Saturday, January 20, 2024

संस्कृत नाटक की उत्पत्ति: उद्भव और विकास

 

संस्कृत नाटक की उत्पत्ति: उद्भव और विकास

नाटक की उत्पत्ति: नाटक की उत्पत्ति के विषय में सर्वाधिक प्राचीन मत हमें भरतमुनि के नाट्य –शास्त्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध होता है। इस अध्याय का नाम ’नाट्ययोत्पत्ति’ है। इसके अनुसार नाटक पंचम वेद हैजिसकी सृष्टि ब्रह्मा ने महेन्द्र सहित देवसमूह की प्रार्थना पर की:                                

महेन्द्रप्रमुखैर्देवैरुक्तकिल पितामह:                             

क्रीडनीयकमिच्छामो दृश्यं श्रव्य्चयद्भवेत  १।११

अर्थात इन्द्र जिनका मुखिया था ऐसे देवताओं द्वारा पितामह ब्रह्माजी से कहा गया कि ’हम ऐसा खेल अथवा खिलौना चाहते हैं जो देखने तथा सुनने दोनों के योग्य हो। यह सुनकर ब्रह्मा ने चारों वेदों का ध्यानकर ऋग्वेद से पाठ्यसामग्रीसामवेद से गीतयजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रसों को ग्रहण करके ’नाट्यवेद’ नामक पंचमवेद की सृष्टि की:

Photo by Dinesh Shenoy

जग्राह पाठ्यं ऋग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च।   

                              यजुर्वेदादभिनयांरसानाथर्वणादपि १।१७                               

 वेदापवेदैसंबद्धो नाव्यवेदो महात्मना 

एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्ववेदिना १।१८

इस प्रकार सब वेदों के ज्ञाता महात्मा भगवान श्री ब्रह्मा जी के द्वारा वेदों और उपवेदों से सम्बन्ध रखने वाला यह नाट्यवेद रचा गया। उपवेद चार हैंआयुर्वेदधनुर्वेदगंधर्ववेद तथा स्थापत्यवेद। नाट्यवेद को उत्पन्न करके ब्रह्मा जी ने देवराज इन्द्र से कहा कि इसका अभिनय देवताओं से कराओ। जो देवता कार्यकुशलपण्डितवाक्पटुतथा थकान को जीते हुए होंउनको अभिनय का कार्य सोंपो। अर्थात अभिनेता के ये चार गुण हैं—- कार्य कुशलतापाण्डित्यवाक्पटुता तथा थकान को जीतने की शक्ति। इन्द्र द्वारा देवताओं को अभिनय में असमर्थ बताने पर ब्रह्मा ने भरतमुनि के पुत्रों को इसकी शिक्षा देने के लिए कहा। ब्रह्माजी के कथानुसार इन्द्र के ध्वजोत्सव में नाट्यवेद सर्वप्रथम प्रयुक्त हुआ। इस अभिनय में देवों की विजय तथा दैत्यों का अपकर्ष प्रदर्शित हुआअतउन्होंने विघ्न उपस्थित किया। इन विघ्नों से बचे रहने के लिए इन्द्र ने विश्वकर्मा से नाट्यगृह की रचना कराई। इसके उपरान्त ब्रह्मा ने दैत्यों को शान्त करने के लिए कहा कि नाट्यवेद देव और दैत्यों दोनों के लिए हैं तथा इसमें धर्मक्रीड़ाहास्य और युद्ध आदि सभी विषय ग्रहीत किये जा सकते हैं।

श्रंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानका                        

वीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्य रसास्मृता:

नाट्य का प्रयोजन:

दु:खार्त्तानां श्रमार्त्तानां शोकार्त्तानां तपस्विनाम।                   

विश्रांतिजननं काले नाट्यमेतन्मयाकृतम १।११४

अर्थात ब्रह्मा जी कहते हैं कि मेरे द्वारा रचा हुआ यह नाट्य दु: से पीड़ितथकेमाँदेशोक संतप्त बेचारे लोगों के लिए उचित समय पर विश्राम देने वाला है।

धम्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्द्धनम 

लोकोपदेश जननं नाट्यमेतद्भविष्यति  १।११५

यह नाटक धर्मयश और आयु बढ़ानेवालाहितकारीबुद्धिवर्धक तथा लोकोपदेश का जन्मदाता होगा। इस नाटक में समस्त शास्त्रशिल्प एवं विविध प्रकार के कर्म एकत्र एवं सन्निविष्ट रहते हैं।

अहो नाट्यमिंद सम्यक त्वया सृष्टं महामते।

यशस्यं  शुभार्थं  पुण्यं बुद्धि विवर्द्धनम 

भरतमुनिनाट्यशास्त्र ४।१२

आचार्य भरतमुनि के अनुरोध पर पितामह ब्रह्म के आदेश से विश्वकर्मा द्वरा निर्मित नाट्यशाला में जब अमृतमन्थन नामक समवकार और त्रिपुरदाह नामक डिम का अभिनय हुआ (नगपति हिमालयकैलाश पर नाट्यशाला थीतो उसमें देवता तथा दानवों ने अपनेअपने भावों एवं कर्मों का स्वाभाविक एवं सजीव प्रदर्शन देखकर हार्दिक उल्लास प्रकट करते हुए कहा—’हे महामतेआपके द्वारा विरचित यह नाट्यरचना अत्यन्त सुन्दरं है। यह यशकल्याणपुण्य तथा बुद्धि का विवर्द्धन करने वाली है।

शब्दार्थ

  • क्रीड़ा = खेलकूद
  • डिम = चार अंकों का एक रौद्र रस प्रधान रूपक जिस में मायाइन्द्रजाललड़ाई तथा पिशाच लीला का चित्रण है। डिम का अर्थ समूह होता है।
  • रौद्र = श्रृंगारवीररौद्र तथा वीभत्स रसों में से एक प्रधान रस। इस रस का स्थाई भावक्रोधवर्ण रसक्त और देवता रुद्र हैं।
  • विघन = कठिनाई
  • विवर्द्धन = वृद्धि
  • विश्राम = आराम
  • शोक संतप्त = शोक पीड़ित
  • समवकार = रूप के दस भेदों में से एक। वीर रस प्रधान हैजिस में प्रायदेवताओं और असुरों के युद्ध का वर्णन होता है।

अभ्यास

मौखिक:  

  1. क्यों नाटक पंचम वेद कहा जाता है?
  2. नाटक की उत्पत्ति के बारे में आप क्या जानते हैं?
  3. क्यों ब्रह्मा ने देवताओं को नहीं बल्कि भरत मुनि के पुत्रों को इसकी शिक्षा देने के लिये कहा?

लिखित:

1.यश”, “सृष्टि”, शब्दों के पर्यायवाची शब्द याद करके लिखिये।

2. नीचे लिखे वाक्यों में रिक्त स्थानों को इन शब्दों में से ठीक शब्द चुनकर भरिये :

विद्यमानऋग्वेदप्रयोग, विद्वानों ने, उद्भव, उपलब्ध, कालान्तर में, सामवेद, उल्लेख, विकासअभिनय, साधन

  •       वैदिक ________ वेदों में नाटक के सभी प्रधान अंगों को परिलक्षित किया है।
  •       वेदों में नाटक के प्रधान अंगसंवादसंगीतनृत्य एवं अभिनय ________  थे।
  • ________ में यमयमीसंवादपुरुरवाउर्वशी संवाद आदि नाट्य रूप ही है।
  •      
  • ________  में संगीत तत्व है।
  •       वैदिक क्रियाकलापों में ________ का पुट है।
  •       यही नाटक के अंग ________ विकसित हुए और नाटक के उपजीव्य बने।
  •       अतयह बात निश्चित है कि वेदों में नाटक के मूल तत्व विद्यमान हैं और उन्हीं में हम
  •       संस्कृत नाटकों का ________ मान सकते हैं।
  •       आगे चलकर रामायण और महाभारत काल में नाट्य शास्त्र एवं नाटकों का ________ हुआ।
  •       रामायण और महाभारत में हमें नटनाटकरंगमंच आदि नाटक के तकनीकी शब्दों का ________ मिलता है।
  •       हरिवंश” में तो राम कथा पर आधृत एक नाटक के अभिनीत होने का ________ भी पाया जाता है।
  •        बौद्धों ने नाटकों को अपने धर्म प्रचार का ________ समझकर अपनाया।
  •        पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में शिलाली और कृशाश्व नामक दो नटसूत्र पणेताओं का वर्णन किया हैकिन्तु उस युग के नाटक आज ________ नहीं हैं।

भगवान राम ने धरती पर 1000 वर्षों से भी ज्यादा समय तक शासन किया।

 पहली कथा के अनुसार जब सीता माता ने अपने दोनों बच्चों लव और कुश को प्रभु श्रीराम को सौंपा और धरती माता में समा गईं। माता सीता के जाने से प्रभु श्रीराम बहुत दुखी हो गए। उन्होंने यमराज से सहमति लेकर सरयू नदी में जल समाधि ली। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान राम ने धरती पर 1000 वर्षों से भी ज्यादा समय तक शासन किया।

Monday, January 8, 2024

एक ऐसा ग्रंथ है, जो सीधा पढ़ें तो श्री राम और उल्टा पढ़ें तो श्री कृष्ण जी के बारे में वर्णन मिलता है ?

एक ऐसा ग्रंथ है, जो सीधा पढ़ें तो श्री राम और उल्टा पढ़ें तो श्री कृष्ण जी के बारे में वर्णन मिलता है ?

कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रंथ 'राघवयादवीयम्' ऐसा ही एक संस्कृत का अद्भुत ग्रंथ है। इस ग्रंथ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रंथ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएं, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा।

इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएं तो बनते हैं 60 श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है 'राघवयादवीयम्'।

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक है:-

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा य: ।

रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ।।1।।

अर्थात : मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जिनके हृदय में सीताजी रहती हैं तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्रि की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापस लौटे।

विलोमम्

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।

यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ।।1।।

अर्थात : मैं रुक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान हैं तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

राघवयादवीयम के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं।

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा य: ।

रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ।।1।।

विलोमम्

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।

यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ।।1।।

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।

पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ।।2।।

विलोमम्

वाराशावासाग्रया साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।

राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ।।2।।

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।

सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ।।3।।

विलोमम्

भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।

कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ।।3।।

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।

नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ।।4।।

विलोमम्

यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।

तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ।।4।।

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।

तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ।।5।।

विलोमम्

तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।

सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ।।5।।

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।

काविरामदलापागोसमावामतरानते ।।6।।

विलोमम्

तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।

तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ।।6।।

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते।

कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ।।7।।

विलोमम्

मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।

तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ।।7।।

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।

साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ।।8।।

विलोमम्

हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।

यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ।।8।।

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।

सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ।।9।।

विलोमम्

सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।

यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ।।9।।

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।

यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ।।10।।

विलोमम्

हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।

सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ।।10।।

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।

भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ।।11।।

विलोमम्

सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।

होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ।।11।।

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।

सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ।।12।।

विलोमम्

भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।

वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ।।12।।

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।

यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ।।13।।

विलोमम्

नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।

हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ।।13।।

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।

सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ।।14।।

विलोमम्

यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।

गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ।।14।।

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।

ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ।।15।।

विलोमम्

नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।

हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ।।15।।

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।

तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ।।16।।

विलोमम्

हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।

जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ।।16।।

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।

न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ।।17।।

विलोमम्

तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।

सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ।।17।।

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।

वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ।।18।।

विलोमम्

केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।

ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ।।18।।

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।

सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ।।19।।

विलोमम्

हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।

यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ।।19।।

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।

राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ।।20।।

विलोमम्

घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।

धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ।।20।।

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ।।21।।

विलोमम्

विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।

ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ।।21।।

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।

चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ।।22।।

विलोमम्

ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।

हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ।।22।।

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।

तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामय: ।।23।।

विलोमम्

योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।

जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ।।23।।

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।

तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ।।24।।

विलोमम्

विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।

तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ।।24।।

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।

राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ।।25।।

विलोमम्

यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।

निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ।।25।।

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।

तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ।।26।।

विलोमम्

जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।

हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ।।26।।

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।

तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ।।27।।

विलोमम्

नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।

सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ।।27।।

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।

चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ।।28।।

विलोमम्

हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।

सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ।।28।।

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।

रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ।।29।।

विलोमम्

नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।

कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ।।29।।

साग्रयतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ।।

निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ।।30।।

विलोमम्

भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।

गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ।।30।।

।।इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री राघव यादवीयं।

जीवन आपका कर्म है – यह आपकी रचना है।

जीवन आपका कर्म है – यह आपकी रचना है।

आप केवल अपनी असफलताओं से मत सीखिए; असफल होना सीखिए। 

आप जिस भी चीज की आकांक्षा करते हैं, वो आपको कैसे मिल सके। वो उसे कैसे संभव हो सकता हैं।

अगर आप अपने मन, शरीर, और भावनाओं को खोल देते हैं तो जीवन बहुत सुंदर हो जाएगा।

फिर नारद भक्ति सूत्र में नारद जी ने लिखा है।

स: तरति सः तरति सः लोकान् तारयति।

अर्थात् - जो स्वय सही मनुष्य बन जाता है, वो दूसरों को भी अच्छा बना देता है।

तरति मतलब तार देना समस्यों से पार हो जाना। दुःखों से मुक्त हो जाना। और फिर दूसरों को भी दुखों से मुक्त कर देना।

इसलिए मनुष्य को भी स्वयं से सही बनने का पर्यंत करना चाहिए। 


#शिक्षा 


Saturday, January 6, 2024

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Gurukul parampara

Gurukul parampara


गुरुकुल में सबको समान सुविधाएं दी जाती थी. मनुस्मृति में मनु महाराज ने कहा है कि हर कोई अपने लड़के लड़की को गुरुकुल में भेजे, किसी को शिक्षा से वंचित न रखें तथा उन्हें घर मे न रखें.

गुरुकुल का अर्थ है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानी परिवार निवास करता है. प्राचीन काल में शिक्षक को ही गुरु या आचार्य मानते थे और वहां शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को उस


का परिवार माना जाता था. आचार्य गुरुकुल में शिक्षा देते थे. ... गुरुकुल में छात्र इकट्ठे होते हैं

प्राचीन भारत में, गुरुकुल के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान की जाती थी. इस पद्धति को गुरु-शिष्य परम्परा भी कहते है. इसका उद्देश्य था:

- विवेकाधिकार और आत्म-संयम

- चरित्र में सुधार

- मित्रता या सामाजिक जागरूकता

- मौलिक व्यक्तित्व और बौद्धिक विकास

- पुण्य का प्रसार

- आध्यात्मिक विकास

- ज्ञान और संस्कृति का संरक्षणaranimanthan अरणी मंथन

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...