संस्कृत नाटक की उत्पत्ति: उद्भव और विकास
नाटक की उत्पत्ति: नाटक की उत्पत्ति के विषय में सर्वाधिक प्राचीन मत हमें भरतमुनि के नाट्य –शास्त्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध होता है। इस अध्याय का नाम ’नाट्ययोत्पत्ति’ है। इसके अनुसार नाटक पंचम वेद है, जिसकी सृष्टि ब्रह्मा ने महेन्द्र सहित देवसमूह की प्रार्थना पर की:
महेन्द्रप्रमुखैर्देवैरुक्त: किल पितामह:।
क्रीडनीयकमिच्छामो दृश्यं श्रव्य्चयद्भवेत ॥ १।११
अर्थात इन्द्र जिनका मुखिया था ऐसे देवताओं द्वारा पितामह ब्रह्माजी से कहा गया कि ’हम ऐसा खेल अथवा खिलौना चाहते हैं जो देखने तथा सुनने दोनों के योग्य हो। यह सुनकर ब्रह्मा ने चारों वेदों का ध्यानकर ऋग्वेद से पाठ्यसामग्री, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रसों को ग्रहण करके ’नाट्यवेद’ नामक पंचमवेद की सृष्टि की:
जग्राह पाठ्यं ऋग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयांरसानाथर्वणादपि ॥१।१७
वेदापवेदै: संबद्धो नाव्यवेदो महात्मना ।
एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्ववेदिना ॥१।१८
इस प्रकार सब वेदों के ज्ञाता महात्मा भगवान श्री ब्रह्मा जी के द्वारा वेदों और उपवेदों से सम्बन्ध रखने वाला यह नाट्यवेद रचा गया। उपवेद चार हैं—आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद तथा स्थापत्यवेद। नाट्यवेद को उत्पन्न करके ब्रह्मा जी ने देवराज इन्द्र से कहा कि इसका अभिनय देवताओं से कराओ। जो देवता कार्यकुशल, पण्डित, वाक्पटु, तथा थकान को जीते हुए हों, उनको अभिनय का कार्य सोंपो। अर्थात अभिनेता के ये चार गुण हैं—- कार्य कुशलता, पाण्डित्य, वाक्पटुता तथा थकान को जीतने की शक्ति। इन्द्र द्वारा देवताओं को अभिनय में असमर्थ बताने पर ब्रह्मा ने भरतमुनि के पुत्रों को इसकी शिक्षा देने के लिए कहा। ब्रह्माजी के कथानुसार इन्द्र के ध्वजोत्सव में नाट्यवेद सर्वप्रथम प्रयुक्त हुआ। इस अभिनय में देवों की विजय तथा दैत्यों का अपकर्ष प्रदर्शित हुआ, अत: उन्होंने विघ्न उपस्थित किया। इन विघ्नों से बचे रहने के लिए इन्द्र ने विश्वकर्मा से नाट्यगृह की रचना कराई। इसके उपरान्त ब्रह्मा ने दैत्यों को शान्त करने के लिए कहा कि नाट्यवेद देव और दैत्यों दोनों के लिए हैं तथा इसमें धर्म, क्रीड़ा, हास्य और युद्ध आदि सभी विषय ग्रहीत किये जा सकते हैं।
श्रंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानका: ।
वीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्य रसा: स्मृता:।
नाट्य का प्रयोजन:
दु:खार्त्तानां श्रमार्त्तानां शोकार्त्तानां तपस्विनाम।
विश्रांतिजननं काले नाट्यमेतन्मयाकृतम ॥१।११४
अर्थात ब्रह्मा जी कहते हैं कि मेरे द्वारा रचा हुआ यह नाट्य दु:ख से पीड़ित, थके–माँदे, शोक संतप्त बेचारे लोगों के लिए उचित समय पर विश्राम देने वाला है।
धम्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्द्धनम ।
लोकोपदेश जननं नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ १।११५
यह नाटक धर्म, यश और आयु बढ़ानेवाला, हितकारी, बुद्धिवर्धक तथा लोकोपदेश का जन्मदाता होगा। इस नाटक में समस्त शास्त्र, शिल्प एवं विविध प्रकार के कर्म एकत्र एवं सन्निविष्ट रहते हैं।
अहो नाट्यमिंद सम्यक त्वया सृष्टं महामते।
यशस्यं च शुभार्थं च पुण्यं बुद्धि विवर्द्धनम ॥
भरतमुनि, नाट्यशास्त्र ४।१२
आचार्य भरतमुनि के अनुरोध पर पितामह ब्रह्म के आदेश से विश्वकर्मा द्वरा निर्मित नाट्यशाला में जब अमृतमन्थन नामक समवकार और त्रिपुरदाह नामक डिम का अभिनय हुआ (नगपति हिमालय, कैलाश पर नाट्यशाला थी) तो उसमें देवता तथा दानवों ने अपने–अपने भावों एवं कर्मों का स्वाभाविक एवं सजीव प्रदर्शन देखकर हार्दिक उल्लास प्रकट करते हुए कहा—’हे महामते, आपके द्वारा विरचित यह नाट्य–रचना अत्यन्त सुन्दरं है। यह यश, कल्याण, पुण्य तथा बुद्धि का विवर्द्धन करने वाली है।’
शब्दार्थ
- क्रीड़ा = खेल–कूद
- डिम = चार अंकों का एक रौद्र रस प्रधान रूपक जिस में माया. इन्द्रजाल, लड़ाई तथा पिशाच लीला का चित्रण है। डिम का अर्थ समूह होता है।
- रौद्र = श्रृंगार, वीर, रौद्र तथा वीभत्स रसों में से एक प्रधान रस। इस रस का स्थाई भाव, क्रोध, वर्ण रसक्त और देवता रुद्र हैं।
- विघन = कठिनाई
- विवर्द्धन = वृद्धि
- विश्राम = आराम
- शोक संतप्त = शोक पीड़ित
- समवकार = रूप के दस भेदों में से एक। वीर रस प्रधान है, जिस में प्राय: देवताओं और असुरों के युद्ध का वर्णन होता है।
अभ्यास
मौखिक:
- क्यों नाटक पंचम वेद कहा जाता है?
- नाटक की उत्पत्ति के बारे में आप क्या जानते हैं?
- क्यों ब्रह्मा ने देवताओं को नहीं बल्कि भरत मुनि के पुत्रों को इसकी शिक्षा देने के लिये कहा?
लिखित:
1.“यश”, “सृष्टि”, शब्दों के पर्यायवाची शब्द याद करके लिखिये।
2. नीचे लिखे वाक्यों में रिक्त स्थानों को इन शब्दों में से ठीक शब्द चुनकर भरिये :
विद्यमान, ऋग्वेद, प्रयोग, विद्वानों ने, उद्भव, उपलब्ध, कालान्तर में, सामवेद, उल्लेख, विकास, अभिनय, साधन
- वैदिक ________ वेदों में नाटक के सभी प्रधान अंगों को परिलक्षित किया है।
- वेदों में नाटक के प्रधान अंग–संवाद, संगीत, नृत्य एवं अभिनय ________ थे।
- ________ में यमयमी–संवाद, पुरुरवा–उर्वशी संवाद आदि नाट्य रूप ही है।
- ________ में संगीत तत्व है।
- वैदिक क्रिया–कलापों में ________ का पुट है।
- यही नाटक के अंग ________ विकसित हुए और नाटक के उपजीव्य बने।
- अत: यह बात निश्चित है कि वेदों में नाटक के मूल तत्व विद्यमान हैं और उन्हीं में हम
- संस्कृत नाटकों का ________ मान सकते हैं।
- आगे चलकर रामायण और महाभारत काल में नाट्य शास्त्र एवं नाटकों का ________ हुआ।
- रामायण और महाभारत में हमें नट, नाटक, रंगमंच आदि नाटक के तकनीकी शब्दों का ________ मिलता है।
- “हरिवंश” में तो राम कथा पर आधृत एक नाटक के अभिनीत होने का ________ भी पाया जाता है।
- बौद्धों ने नाटकों को अपने धर्म प्रचार का ________ समझकर अपनाया।
- पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में शिलाली और कृशाश्व नामक दो नटसूत्र पणेताओं का वर्णन किया है, किन्तु उस युग के नाटक आज ________ नहीं हैं।
No comments:
Post a Comment