Thursday, August 24, 2017

श्रीशिवपुराण (सार )- 4: जानिए दान का फल, शिव नैवेद्य भक्षण का नियम और रुद्राक्ष धारण के मन्त्र

श्री गणेशाय नमः

रुद्राक्ष धारण के मन्त्र

श्री सूतजी ने आन्दपूर्वक कथा को आगे बढ़ाते हुए कहा- ऋषिवर ! स्वयं भगवान भोलेनाथ ने जगतजननी पार्वती को चौदहों प्रकार के रुद्राक्षों के निम्न मन्त्र बताये- 1. ॐ ह्रीं नमः ,2. ॐ नमः , 3. ॐ क्लीं नमः, 4. ॐ ह्रीं नमः ,5 . ॐ ह्रीं नमः , 6. ॐ ह्रीं हुं नमः , 7. ॐ हुं नमः ,
8. ॐ हुं नमः , 9. ॐ ह्रीं हुं नमः , 10. ॐ ह्रीं नमः , 11. ॐ ह्रीं हुं नमः ,12. ॐ क्रौं क्षौन् नमः , 13. ॐ ह्रीं नमः , 14. ॐ नमः ।
इन मन्त्रों से चौदहों प्रकार के रुद्राक्षों को क्रमशः एक से चौदह को धारण करना चाहिए । रुद्राक्षधारक मनुष्य को देखकर शिवजी के साथ- साथ अन्य देवता तो प्रशन्न होते ही हैं, भूत, प्रेत आदि भी भाग जाते हैं। उसपर जादू – टोन का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।

दान का फल

भोलेनाथ की पूजा के बाद सामर्थ्यानुसार दान भी अवश्य ही करना चाहिए, क्योंकि कलियुग में दान की बड़ी महत्ता है। दान सुपात्र को ही देना चाहिए।
1. गायदान – त्रिपापों का निवारण।
2. भूमिदान – दोनों लोकों में प्रतिष्ठा।
3. तिलदान – बलबर्द्धक एवं अकालमृत्यु निवारक।
4. सोनादान – पाचनशक्ति और वीर्यबर्द्धक।
5. धन्यदान – अन्नबर्द्धक।
6. गुड़ दान – मधुर भोजन दायक।
7. चाँदीदान – वीर्यबर्द्धक।
8. नमकदान- सुभोजन दायक।
9. कुष्माण्डदान – पुष्टिकारक।
10. कन्यादान – दोनों लोकों में भोगदायक।

शिव नैवेद्य भक्षण का नियम

यह गलत है कि शिवजी का नैवेद्य अभक्ष्य है। जिसने शिवजी की दीक्षा ली है उसके लिए तो यह महान खाद्य है ही, जिसने अन्य किसी देवता की दीक्षा ली हो उसको भी इस प्रकार के नैवेद्य को ग्रहण करना चाहिए-

1. जिस स्थान से शालीग्रामशिला की उत्पत्ति हुयी हो वहां से प्राप्त लिङ्ग,

2. रस (पारद) शिवलिङ्,

3.पाषाण, सुवर्ण या चाँदी से निर्मित लिङ्ग,

4. देवताओं या सिद्धपुरुषों द्वारा स्थापित लिङ्ग,

5. केसर निर्मित लिङ्ग,

6. स्फटिक निर्मित लिङ्ग,

7. रत्ननिर्मित लिङ्ग और

8. ज्योतिर्लिङ्ग।

इन शिवलिंगों से भी नैवेद्य को स्पर्श नहीं करना चाहिए।

वैसे, जिस नैवेद्य को शालिग्राम से स्पर्श करा दिया गया हो वह ग्रहणीय हो जाता है। शिवमूर्ति पर अर्पित किया गया प्रसाद भी खाद्य है।

नारद मोह

एकबार मुनिश्रेष्ठ नारदजी को तपस्या में विघ्न डालने हेतु इंद्रदेव ने कामदेव को भेजा, किन्तु नारदजी विचलित नहीं हुए। इससे मुनि को घमंड हो गया। वे अहंकार से ग्रसित हो शिव, ब्रम्हा और विष्णु भगवानों को अपनी विजयगाथा बतायी। श्री विष्णु ने उनकी प्रसंशा तो कि किन्तु अपने परम् भक्त के इस मोह को दूर करने की सोची। उन्होंने एक अति भव्य मायानगरी बनायीं। उसके राजा की सुन्दर पुत्री का नाम श्रीमती था। दैवयोग से नारदजी वहाँ पहुँचे और राजा से प्रतिष्ठित हो उनकी पुत्री को देखा। उनके मन में काम आ गया। उससे विवाह करने हेतु श्री विष्णु से उनका मनोहर मुख को उन्होंने माँगा। भगवान् ने उन्हें बंदर का मुँह दे दिया जिसे वे नहीं जाने। वे उसी रूप में श्रीमती के स्वयंवर में पहुँचे, किन्तु कन्या ने इन पर तनिक ध्यान भी न दिया और राजारूप में वहाँ आये विष्णु भगवान के गले में उसने माला डाल दी।

जब नारदजी को वहाँ उपस्थित शिवगणों से अपने रूप की जानकारी हुयी तो वे अत्यन्त क्रोधित हो भगवान् के पास आकर उन्हें बहुत ही भला बुरा कहा। भगवान् ने हँसकर उन्हें अपनी माया के बारे में बता दिया, जिससे उनका अहंकार दूर हो गया। उन्होंने कातर हो कर क्षमा माँगी और अपने उद्धार का मार्ग पूछा। भगवान् ने उन्हें शिवजी का आश्रय लेने का निर्देश दिया। अब नारदजी शिव तीर्थों में घूम-घूम कर शिवमहिमा का गायन करने लगे और पापमुक्त हो गए।

शिवजी द्वारा जगतजननी अम्बिका आदि का प्रादुर्भाव

परम् शिवभक्त सूतजी ने आगे बतायाकि श्रीशंकर ने आपने अंग से ही अपना आधा भाग स्वरूप शक्ति अम्बिकाजी का प्रादुर्भाव किया फिर उन्होंने जगतपालक श्री विष्णु, जिनके नाभिकमल से सृष्टिकर्ता श्री ब्रम्हा जी उत्पन्न हुए, को स्वरूप दिया। तत्पश्चात्, भोलेनाथ ने शिवलोक आनंदभवन, जो काशी के नाम से विख्यात है, नामक मोक्षदायक, परमानन्दस्वरूप और अविमुक्त (जसका प्रलयकाल में भी लय नहीं होता) क्षेत्र बनाया। यह पावन नगरी श्रीगौरीशंकर को अति प्रिय है, जहाँ मनुष्य की मृत्यु होने पर सद्यः मोक्ष हो जाता है। सभी शिवभक्तों को अवश्य ही इस पवित्रतम् तीर्थ में आकर जीवन सार्थक करना चाहिए।
(क्रमशः)

#हर_हर_महादेव
#जय_शिव_शक्ती
#शिवोहम

सूर्य व हनुमानजी के गुरु व शिष्य के बारे मे वाल्मीकि रामायण मे उल्लेख है की एकबार हनुमानजी को बड़ी भूख लगी उस समय अंजना माता घर पर नही थीं कुछ खाने की वस्तु न मिलने पर उदीयमान सूर्य को लालफल समझकर निगल लिया उस दिन सूर्यग्रहण होने वाला था राहु हनुमानजी को सूर्य के पास देखकर देवराज इन्द्र के पास गया यह कहने की उसका भाक्ष्य किसी और को दे दिया।इंद्रदेव वहां पंहुचे।राहु को दोबारा देखकर हनुमानजी उसे पकड़ने दौड़े और वह इन्द्र को पुकारता हुआ भागा इंद्रदेव आगे बढ़े तो ऐरावत हनुमानजी से डरकर भागा फिर इन्द्र ने बज्र का प्रहार हनुमानजी पर कर दिया जिससे हनुमानजी मुर्क्षित हो गए।इधर पवनदेव यह सब देखकर दुखी हो गए और उन्होंने पूरी सृष्टि से प्राणवायु खींच लिया जिससे सभी के प्राण संकट मे पद गए तब सभी देवता ब्रम्हाजी के पास जाते है और सब मिलकर पवनदेव की स्तुति करते हैं फिर सभी देवता मिलकर अपना अपना अस्त्र व वरदान देते हैं हनुमानजी को सूर्यदेव ने भी अपने तेज का शतांश देते है और विद्या देकर अद्वितीय विद्वान बना दिया
इससे संकेत मिलता है की हनुमानजी सूर्यदेव से विद्या प्राप्ति के लिए गए थे।उनके भाव की शुद्धता का प्रमाण यह भी है की सूर्यदेव ने उन्हें निर्दोष समझ कर जलाया नही वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड मे इस प्रकार लिखा है।
शिशुरेश त्वदोसग्य इति मत्वा दिवाकरह कार्य चास्मिन समायत्वमितएवम न ददाहश।
अर्थात यह बालक दोष को जानता ही नही है और भविष्य मे इससे बड़ा कार्य होगा यही सोचकर सूर्यदेव ने जलाया नही।
सम्पाती भी सूर्यदेव के समीप उड़कर अभिमान पूर्वक गया था जिसका परिणाम यह हुआ की उसका पंख जल गया जबकि वह सूर्यदेव तक नही पहुंच पाया था।
मै अभिमानी रवि निअरावा।
जरे पंख अति तेज अपारा।।
कुल मिलाकर हनुमानजी को भूख ज्ञान की लगी थी वही ज्ञान प्राप्त करने के लिए गए थे।
भाव त्रुटि हेतु क्षमा 
‬: प्राकृतिक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या

• प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से फेफड़ो में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना। इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्ति मान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहने वालो का जीवन निस्तेज हो जाता है।
• प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान कर लेना चाहिए। सुबह 7 के बाद जो मल–त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।
• प्रातः 7 से 9 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपयुक्त है। इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं।
• प्रातः 11 से 1 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है। दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न–संध्या (आराम ) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसीलिए भोजन वर्जित है। इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। जैसे मट्ठा पी सकते है। दही खा सकते है।
• दोपहर 1 से 3 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए। इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है।
• दोपहर 3 से 5 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है । 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।
• शाम 5 से 7 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है। इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए। शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है। देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभव गम्य है।
• रात्रि 7 से 9 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है। इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है। अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है। आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टि हुई है।
• रात्रि 9 से 11 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरुरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है। इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है। यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।
• रात्रि 11 से 1 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है। इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा, नेत्र रोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है। इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।
• रात्रि 1 से 3 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है। अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है। इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।
नोट :-- ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए बुफे डिनर से बचना चाहिए।
पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।
शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं।
[8/1, 9:30 AM] ‪+91 94313 38183‬: प्राकृतिक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या

• प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से फेफड़ो में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना। इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्ति मान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहने वालो का जीवन निस्तेज हो जाता है।
• प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान कर लेना चाहिए। सुबह 7 के बाद जो मल–त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।
• प्रातः 7 से 9 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपयुक्त है। इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं।
• प्रातः 11 से 1 – इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है। दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न–संध्या (आराम ) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसीलिए भोजन वर्जित है। इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। जैसे मट्ठा पी सकते है। दही खा सकते है।
• दोपहर 1 से 3 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए। इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है।
• दोपहर 3 से 5 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है । 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।
• शाम 5 से 7 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है। इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए। शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है। देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभव गम्य है।
• रात्रि 7 से 9 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है। इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है। अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है। आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टि हुई है।
• रात्रि 9 से 11 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरुरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है। इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है। यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।
• रात्रि 11 से 1 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है। इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा, नेत्र रोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है। इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।
• रात्रि 1 से 3 - इस समय जीवनी शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है। अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है। इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।
नोट :-- ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए बुफे डिनर से बचना चाहिए।
पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।
शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं।
 कुलदेवता/कुलदेवी की पूजा क्यूं
          करनी चाहिये ।
  
एक सुन्दर संकलित लेख आपके अवलोकनार्थ
                      *******
हिन्दू पारिवारिक आराध्य व्यवस्था में कुल देवता/कुलदेवी का स्थान सदैव से रहा है ,,प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं जिनसे उनके गोत्र का पता चलता है ,बाद में कर्मानुसार इनका विभाजन वर्णों में हो गया विभिन्न कर्म करने के लिए ,जो बाद में उनकी विशिष्टता बन गया और जाति कहा जाने लगा । हर जाति वर्ग , किसी न किसी ऋषि की संतान है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव / कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं । पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों/ऊर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहें |

समय क्रम में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने ,धर्म परिवर्तन करने ,आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने ,जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने ,संस्कारों के क्षय होने ,विजातीयता पनपने ,इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता /देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा की उनके कुल देवता /देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है ,इनमें पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं ,कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्त्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इन पर ध्यान नहीं दिया |

कुल देवता /देवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई ख़ास अंतर नहीं समझ में आता ,किन्तु उसके बाद जब सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में दुर्घटनाओं ,नकारात्मक ऊर्जा ,वायव्य बाधाओं का बेरोक-टोक प्रवेश शुरू हो जाता है ,उन्नति रुकने लगती है ,पीढ़िया अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाती ,संस्कारों का क्षय ,नैतिक पतन ,कलह, उपद्रव ,अशांति शुरू हो जाती हैं ,व्यक्ति कारण खोजने का प्रयास करता है, कारण जल्दी नहीं पता चलता क्योकि व्यक्ति की ग्रह स्थितियों
से इनका बहुत मतलब नहीं होता है ,अतः ज्योतिष आदि से इन्हें पकड़ना मुश्किल होता है ,भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है|

कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो
किसी भी बाहरी बाधा ,नकारात्मक ऊर्जा के परिवार
में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं ,यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी समय समय पर सचेत करते रहते हैं ,यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को ईष्ट तक पहुचाते हैं ,,यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी हो सकते हैं और निर्लिप्त भी हो सकते हैं ,,ऐसे में आप किसी भी ईष्ट की आराधना करे वह उस ईष्ट तक नहीं पहुँचता ,क्योकि सेतु कार्य करना बंद कर देता है ,,बाहरी बाधाये ,अभिचार आदि ,नकारात्मक ऊर्जा बिना बाधा व्यक्ति तक पहुचने लगती है ,,कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही ईष्ट की पूजा कोई अन्य बाहरी वायव्य शक्ति लेने लगती है ,अर्थात पूजा न ईष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है|

ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम
             शशक्त होने से होता है ।

कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति ,उलटफेर ,विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं ,सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है ,यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है ,,शादी-विवाह-संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं ,,,यदि यह सब बंद हो जाए तो या तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण के पारलौकिक शक्तियों के लिए खुल जाता है ,परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं ,,अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे ।


कौन सी धातु के बर्तन में भोजन करने से क्या क्या लाभ और हानि होती है

                         *सोना*

सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।

                        *चाँदी*

चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है  इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।

                           *कांसा*

काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में  शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल ३ प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

                         *तांबा*

तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है. तांबे के बर्तन में दूध नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।

                        *पीतल*

पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल ७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

                         *लोहा*

लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से  शरीर  की  शक्ति बढती है, लोहतत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और  पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है. लेकिन लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।

                         *स्टील*

स्टील के बर्तन नुक्सान दायक नहीं होते क्योंकि ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसलिए नुक्सान नहीं होता है. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा नहीं पहुँचता तो नुक्सान भी  नहीं पहुँचता।

                      *एलुमिनियम*

एल्युमिनिय बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुक्सान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम के प्रेशर कूकर से खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।

                           *मिट्टी*

मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते हैं । इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त हैं मिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे १०० प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।
|| सर्वेसंतुसुखिनः सर्वेभवन्तुनिरामयः कल्याणमस्तु ||

: कौन से ऋषि का क्या है महत्व-

       महत्वपूर्ण जानकारी
सभी ऋषि महात्माओं को समर्पित

अंगिरा ऋषि ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।

विश्वामित्र ऋषि गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।

वशिष्ठ ऋषि ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।

कश्यप ऋषि मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।

जमदग्नि ऋषि भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।

अत्रि ऋषि सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।

अपाला ऋषि अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।

नर और नारायण ऋषि  ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।

पराशर ऋषि ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।

भारद्वाज ऋषि बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि  ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-

वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।

अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

१. वशिष्ठ राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

२. विश्वामित्र ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

३. कण्व माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

४. भारद्वाज वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

५. अत्रि ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

६. वामदेव वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।

७. शौनक शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है। 


 संस्कृत भाषा की महानता एवं उपयोगिता*

*संस्कृत दिवस : 7 अगस्त*

#संस्कृत में #1700 धातुएं, #70 प्रत्यय और #80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी #संख्या #27 लाख 20 हजार होती है। यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है। #संस्कृत #इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे #प्राचीन भाषा है और सबसे वैज्ञानिक भाषा भी है। इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं। भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।

ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं । किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत दोष दिखते हैं । ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।

 तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा?
शब्दों का आधार ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था ।
उदाहरणार्थ कुछ लोग कहते है कि अग्नि का आविष्कार फलाने समय में हुआ।

तो क्या उससे पहले अग्नि न थी महानुभावों? अग्नि तो धरती के जन्म से ही है किन्तु उसका ज्ञान निश्चित समय पर हुआ। इसी प्रकार शब्द व ध्वनि थे किन्तु उनका ज्ञान न था । तब उन प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती हैं और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती हैं । जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल #108 ध्वनियों पर #संस्कृत की #वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः #प्राचीनतम #आर्य भाषा जो ब्रह्मांडीय संगीत थी उसका नाम “#संस्कृत” पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात श्वासों से निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर-संप्रक से अभिव्यक्त हुयी।

कालांतर में पाणिनी ने नियमित व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया। #पाणिनीय व्याकरण ही #संस्कृत का #प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ #व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठभेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषाविदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।

संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरंभ कराया है और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।
नासा को हमने खड़ा नहीं किया है अपनी तारीफ करवाने के लिए…नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व क्या है पढ़ लो ।

काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे खरपतवार पैदा हो रहे हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष व विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं ।

अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश में हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।

आज दुनिया भर में लगभग #6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन भाषाओं की जननी कौन है?

नहीं?

कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे #पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।
दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है :- #संस्कृत भाषा ।

आइये जाने संस्कृत भाषा का महत्व :
संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-

मूलाधार चक्र – स्वर ‘अ’ एवं क वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
        स्वर ‘इ’ तथा च वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत  करता है।
        स्वर  ‘ऋ’ तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
       स्वर  ‘लृ’ तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
        स्वर ‘उ’ तथा प वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
    ईषत्  स्पृष्ट  वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता  है।
     ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से

सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस प्रकार देवनागरी लिपि के  प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है। 

उदाहरणार्थ जब ‘राम’ शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। ‘कृष्ण’ का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि चक्र को सक्रिय करता है। ‘सोह्म’ का उच्चारण दोनों ‘अनाहत’ एवं ‘मणिपूरक’ चक्रों को सक्रिय करता है।

वैदिक मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।

भारतीय #शास्त्रीय #संगीत के #सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं । प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।

संस्कृत केवल #स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है। ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है। जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।

संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:- 1. अनुस्वार (अं ) और विसर्ग (अ:): संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं -यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं-यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।

विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा । जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- " राम फल खाता है"इसको संस्कृत में बोला जायेगा- " राम: फलं खादति"=राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है। संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना होता है ।

2.शब्द-रूप:-संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- यथा:- रम् (मूल धातु)-राम: रामौ रामा:;रामं रामौ रामान् ;रामेण रामाभ्यां रामै:; रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: ;रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:; रामस्य रामयो: रामाणां; रामे रामयो: रामेषु ;हे राम ! हेरामौ ! हे रामा : ।ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है। सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं -आत्मा (पुरुष), (अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश।

3.द्विवचन:-संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है। जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।

4. सन्धि:-संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।"इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।

यथा:- 1 इत्यहं जानामि। 2 अहमिति जानामि। 3 जानाम्यहमिति । 4 जानामीत्यहम्। इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है। इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।

#अमरभाषा है संस्कृत
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत #परिमार्जित एवं #वैज्ञानिक है।

#संस्कृत के एक #वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है। इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है। ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है। पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं ।
इस कारण #संस्कृत में #वस्तुओं के नाम उसका #गुण आदि प्रकट करते हैं। जैसे हृदय शब्द। हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।

अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन संस्कृत शब्द इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है। बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।
अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है। हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है। इस सिद्धांत की खोज हार्वे ने 1922 में की थी, जिसे हृदय शब्द स्वयं लाखों वर्षों से उजागर कर रहा था ।

संस्कृत में #संज्ञा, #सर्वनाम,# विशेषण और #क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है, इसलिए इसमें हरेक चिन्ह के लिए एक और केवल एक ही ध्वनि है।

#देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं। #संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि #संस्कारित भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। #संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि #महर्षि पाणिनि, #महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता #महर्षि पतंजलि हैं।

विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि #संस्कृत में #प्रत्येक शब्द के #27 रूप होते हैं। सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। इसे कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि के लिए सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। शोध से ऐसा पाया गया है कि #संस्कृत पढ़ने से #स्मरण शक्ति बढ़ती है। 

संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं।  इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है। वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी #संस्कृत भाषा में #साहित्य की रचना कम से कम #छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है। संस्कृत केवल एक भाषा मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है। #संस्कृत एक #भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक #संस्कृति है और #संस्कार भी है। #संस्कृत में विश्व का #कल्याण है, #शांति है, #सहयोग है और #वसुधैव कुटुंबकम की भावना भी है ।


देवर्षि नारद

दक्ष प्रजापति के शाप के कारण नारद का जन्म उनके पुत्र रुप में हुआ। यह कथा इस प्रकार हैं। दक्ष के हयर्श्र्व नामक पाँच हजार पुत्र थे। विवाह के पूर्व वे सब तपस्या कर रहे थे । तब नारद कश्यप के पुत्र थे । नारदको भय हुआ कि पाच हजार लोगो के विवाह तदन्नतर उनकी सन्तानोत्पत्ति के कारण जनसंख्या बहुत बढ़ जायेगी। वे हयर्श्र्व लोगो के पास गए। उनसे कहा कि वे अभी मात्र बालक ही है और उन्हें आवश्यकता है कि वे पता लगाये कि इस संसार मे उसकी होने वाली सन्तानों के रहने के लिये पर्याप्त स्थान है कि नहीं। हर्यश्र्व गण इतस्ततः सभी दिशाओं मे खोज के लिए निकल पड़े और अनन्त संसार मे जाने के वाद उनका लौटना हुआ नहीं ।
       दक्ष प्रजापति ने शबलश्र्वगण को उतपन्न किया।उनको नारद ने उपरोक्त युक्ति द्वारा खोज के लिए भेज दिया। दक्ष ने पुनः पाच हजार पुत्र उतपन्न किए और नारद ने पुनः उसी युक्ति का उपयोग किया। सबकुछ जानने के वाद दक्ष ने नारद को श्राप दियाकि वे भी उनके पुत्रो की तरह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे निरन्तर विचरते रहे। कहीं कहीं वर्णन आता है कि दक्षने नारद को अपने सन्तान के रुप मे जन्म लेने का शाप दिया। भगवद्गीता मे अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते है 'देवर्षियो मे मैं नारद हूँ।' नारद जी का चरित्र इतना मधुर और प्रसिद्ध है कि धार्मिक ग्रन्थों मे प्रायः उनका उल्लेख प्राप्त होता हैं। यद्यपि इनमे कुछ असम्बद्धता दिखाई देती हो , पर इन कथाओं द्वारा उनके महान गुणों का परिचय प्राप्त होता हैं।

           नारद जी एक बार कीट के रूप मे जन्म लिया। वे जब एक मार्ग पर रेग रहे थे, तो उन्होंने देखा की ऊक रथ तेज गति से उनकी ओर दौड़ता चला आ रहा हैं। भयभीत होकर वे स्वयं को रथ के पहियों से बचाने लगे रथ मे बैठा हुआ राजा उसकी दशा देखकर जोर से हसने लगा कीड़ा सुरक्षित स्थान पर पहुंच कर राजा से कहने लगा , 'मेरी ये चेष्टाएँ उपहास करने योग्य नहीं हैं। प्रत्येक जी को प्रत्येक जन्म मे अपना शरीर अत्यधिक प्रिय लगता है। जैसे आपको अपने शरीर के प्रति मोह हैं।, वैसे मुझे अपने शरीर के प्रति हैं।

         नारद ने ही महाकवि वाल्मीकि को श्रीराम की महानता के बारे मे अवगत कराया और उन्हें अमर महाकाब्य रामायण रचने की प्रेरणा दी। यह ग्रन्थ आज भी सहस्त्रों लोगों के जीवन मे प्रेरणा का संचार कर रहा हैं।

     मानव जाति के महानतम ग्रन्थ महाभारत मे देवर्षि नारद का अमिट वर्णन प्राप्त होता है। नारद जी से सम्बन्धित कथाएं ,उपाख्यान और कार्यो ने सहस्त्रों श्लोक वाले इस अतुलनीय और अद्भुत धर्म ग्रन्थ मे विभिन्न रसो की अभिवृद्धि की है।

         नारद जी और हनुमानजी के बीच एक रोचक प्रसंग प्राप्त होता हैं।दोनों ईश्वर के परम भक्त और संगीत विशारद थे। हनुमानजी ने एक विशिष्ट राग गाया। इसके प्रभाव से आसपास की सारी वस्तु पिघल गई। यहां तक की वह शिला भी पिघल गई, जिस पर नारद जी की वीणा रखी हुई थी। राग समाप्त होते पर शिला अपने मूल ठोस आकार मे परिवर्तित हो गई। नारद जी ने शिला को पिघलाकर अपनी विणा प्राप्त करने के लिये रग गाना आरंभ किया। किन्तु अनेक प्रयासों के बावजूद भी उन्हें सफलता नहीं मिली । हनुमानजी ने पुनः संगीत आरंभ किया और वह शिला पिघल गई।नारद जी इससें प्रसन्न हुए और हनुमानजी को आशीर्वाद दिया।
       सभी शास्त्रों मे मायाके विषय को बड़ा सूक्ष्म और दुष्कर कहा गया है।एक बार नारद ने भगवान श्रीकृष्ण से उनकी माया के विषय मे जिज्ञासा की।
       एक बार भगवान श्रीकृष्णा को प्यास लगी । उन्होंने ने नारद से पानी लाने के लिये कहा वे शिघ्रता पूर्वक पास के एक गांव मे गये। वहाँ उनकी भेट एक सुन्दर युवती से हुई और वे उसपर मोहित हो गये। उन्होंने विवाह किया ,उनकी सन्तानें हुई और इस प्रकार आनंद पूर्वक जीवन बीतने लगा ।एक दिन उस गांव मे भयंकर बाढ़ आ गई । नारद के स्वजन परिवार ,घर-गृहस्थी, सबका उसमे अन्त हो गया । केवल वे ही बचे रहे । वे शोक पूर्वक विलाप करने लगे तभी कृष्णा वहाँ प्रगट हुये और उनसें पानी लाने के बारे मे पूछा , जिसके लिये मात्र आधा घंटा पूर्व निकले थे।
       इसी प्रकार की एक कथा अन्य पुराण मे प्राप्त होती है। नारद जी एक तालाब मे डूबकी लगाते है और उनका शरीर एक सुन्दर नारी के रूप मे परिवर्तित हो जाता है। उनकी पूर्व स्मृति पूर्ण तया लुप्त हो जाती है। वे नारी के रूप मे एक ऋषि से विवाह करते है और उनकी अनेक सन्तानें होती है।एक दिन जब वे उसी तालाब मे पुनः डूबकी लगाते है, तो उनकी स्मृति पुनः लौट आती है । वे जैसे पहले थे, वैसे हो जाते है। पहले जोकुछ हुआ उसका लेश मात्र भी स्मरण नहीं रहता । पुनः भगवान श्रीकृष्ण उन्हें ज्ञान प्रदान करते है।

        सामवेदीय छान्दोग्य उपनिषद मे नारद -सनत्कुमार उपाख्यान का वर्णन आता है। सनत्कुमारजी ब्रह्माजी के मानस-पुत्र थे। नारद जी शिष्य रूप मे सनत्कुमारजी के पास जाते है। सनत्कुमारजी ने उनसे पूछा उन्होंने जो अन्यत्र जो कुछ भी सिखा है, उसे बताये। नारदजी ने कहा, 'भगवान्!  मै ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद, इतिहास-पुराण रूप। पाँचवा वेद, ब्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या और देवजनविद्या-नृत्य-संगीत आदि यह सब जानता हूँ। किन्तु इतना जानने पर भी मै शोक से ग्रस्त हूँ। हे भगवन्! मुझे इस शोक से पार लेजाए।' तब सनत्कुमारजी उन्हें आत्मज्ञान का उपदेश देते हैं। वेदान्त के ये उत्कृष्ट उपदेश माने जाते हैं।

         नारद के जीवन और कार्य का मुख्य उद्देश्य था--जीव के मन को उन्नत कर उसे ईश्वर की ओर प्रेरित करना। केवल मानवीय  स्तर के जीवों के लिये ही नहीं , अपितु देवता, असुर आदि के लिए भी । नारद विषयक सभी कथाएं यह प्रमाणित करती है कि उन्होंने बड़ी सुन्दरता से अपना उद्देश्य पूर्ण किया।

     *वृंद वृंदावन*

       भगवान श्रीकृष्ण के बांके बिहारी रूप और बाल लीलाओं के लिए विख्यात मथुरा जिले के वृंदावन में लाखों लोग दर्शन के लिए आते हैं. इसी वृंदावन में एक ऐसी जगह भी मौजूद है, जिसको लेकर मान्यता है कि वहां हर रात भगवान श्रीकृष्ण और राधा रास रचाने आते हैं. निधिवन के नाम से पहचानी जाने वाली इस जगह को लेकर कई ऐसी मान्यताएं हैं, जिन पर विश्वास करना कठिन है. जानिए निधिवन की मान्यताओं और उससे जुड़ी रोचक कहानियों के बारे में

*गीली दातून और बिखरा हुआ बिस्तर*

निधिवन में मौजूद पंडित और महंत बताते हैं कि हर रात भगवान श्री कृष्ण के कक्ष में उनका बिस्तर सजाया जाता है, दातुन और पानी का लोटा रखा जाता है. जब सुबह मंगला आरती के लिए पंडित उस कक्ष को खोलते हैं तो लोटे का पानी खाली, दातुन गिली, पान खाया हुआ और कमरे का सामान बिखरा हुआ मिलता है

*शाम होते ही, सब छोड़ देते हैं वन!*

पौराणिक मान्यता है कि निधिवन बंद होने के बाद भी यदि कोई छिपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो वह पागल हो जाता है. मंदिर के महंत और आसपास के लोग इससे जुड़े कई किस्से सुनाते हैं. उनके म‌ुताबिक जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छिप गया. जब सुबह निधि वन खुला तो वो बेहोश मिला और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया था

ऐसे ही कई भक्तों की कहानियां वहां प्रचलित हैं. दावा ये भी किया जाता है कि वहां मौजूद पशु-पक्षी और यहां तक कि चींटी भी शाम होते ही, वन छोड़ देती हैं.

*ज़मीन की ओर बढ़ते हैं पेड़..*

निधिवन में मौजूद पेड़ भी अपनी तरह के बेहद ख़ास हैं. जहाँ आमतौर पर पेड़ों की शाखाएं ऊपर की और बढ़ती है, वहीं निधि वन में मौजूद पेड़ों की शाखाएं नीचे की और बढ़ती हैं. इन पेड़ों की स्थिति ऐसी है कि रास्ता बनाने के लिए उनकी शाखाओं को डंडो के सहारे फैलने से रोका गया है

*नहीं खुलती हैं घरों की खिड़कियां*

ऐसी मान्यता है कि जो रात में होने वाले भगवान श्री कृष्ण और राधा के रास को देख लेता है वो पागल या अंधा हो जाता है. इसी कारण निधिवन के आसपास मौजूद घरों में लोगों ने उस तरफ खिड़कियां नहीं लगाई हैं, जिन मकानों में खिड़कियां हैं भी, वो शाम सात बजे मंदिर की आरती का घंटा बजते ही उन्हें बंद कर लेते हैं. कई लोगों ने अपनी खिड़कियों को ईंटों से बंद भी करा दिया है. आसपास रहने वाले लोगों के मुताबिक शाम सात बजे के बाद कोई इस वन की तरफ नहीं देखता

*जहां बांके बिहारी ने दिए दर्शन!*

निध‌िवन में ही ठा. बिहारी जी महाराज का दर्शन स्थल भी है। मान्यता है कि संगीत सम्राट एवं धुरपद के जनक स्वामी हरिदास भजन गाया करते थे. माना जाता है कि बांकेबिहारी जी ने उनकी भक्ति संगीत से प्रसन्न होकर एक सपना दिया. सपने में कहा कि मैं तुम्हारी साधना स्थल में ही विशाखा कुंड के पास ज़मीन में छिपा हूं. सपने के बाद हरिदास जी ने अपने शिष्यों की मदद से बिहारी जी को निकलवाया और मंदिर की स्थापना की. ये मंद‌िर आज भी वहां मौजूद है..

 *जय श्री कृष्ण* 

*भोगा: न भुक्ता वयम् एव भुक्ता: तापो न तप्त: वयम् एव तपाता:।*
*कालो न यातो वयम् एव याता: तृष्णा न जीर्णा वयम् एव जीर्णा: ।।भर्तृहरि।*

भोग कम न हुए, भोगते भोगते हम ही भुगते गए। हम तप कर न सके, विषय वासनाएँ हमें ही तपा गई। समय समाप्त नहीं हुआ पर हम ही मृत्यु का ग्रास बन गये, तृष्णा नहीं घटी हम ही बूढे हो गये, और हमारी आसक्ति बढती ही गई, इच्छा की पूर्ति कभी न हुई।

माँ नर्मदा की महिमा~

*त्वदीय पाद पंकजं नमामि देवी नर्मदे *
नर्मदा सरितां वरा -नर्मदा को सरितां वरा क्यों माना जाता है?
नर्मदा माता की असंख्य विशेषताओ में श्री "नर्मदा की कृपा द्रष्टि" से दिखे कुछ कारण यह है :-

नर्मदा सरितां वरा -नर्मदा नदियों में सर्वश्रेष्ट हैं !
नर्मदा तट पर दाह संस्कार के बाद, गंगा तट पर इसलिए नहीं जाते हैं कि, नर्मदा जी से मिलने गंगा जी स्वयं आती है |
नर्मदा नदी पर ही नर्मदा पुराण है ! अन्य नदियों का पुराण नहीं हैं !
नर्मदा अपने उदगम स्थान अमरकंटक में प्रकट होकर, नीचे से ऊपर की और प्रवाहित होती हैं, जबकि जल का स्वभाविक हैं ऊपर से नीचे बहना !
नर्मदा जल में प्रवाहित लकड़ी एवं अस्थिय कालांतर में पाषण रूप में परिवर्तित हो जाती हैं !
नर्मदा अपने उदगम स्थान से लेकर समुद्र पर्यन्त उतर एवं दक्षिण दोनों तटों में,दोनों और सात मील तक प्रथ्बी के अंदर ही अंदर प्रवाहित होती हैं , प्रथ्वी के उपर तो वे मात्र दर्शनार्थ प्रवाहित होती हैं | (उलेखनीय है कि भूकंप मापक यंत्रों ने भी प्रथ्बी कीइस दरार को स्वीकृत किया हैं )

नर्मदा से अधिक तीब्र जल प्रवाह वेग विश्व की किसी अन्य नदी का नहीं है |
नर्मदा से प्रवाहित जल घर में लाकर प्रतिदिन जल चदाने से बदता है |
नर्मदा तट में जीवाश्म प्राप्त होते हैं | (अनेक क्षेत्रों के वृक्ष आज भी पाषण रूप में परिवर्तित देखे जा सकते हैं |)
नर्मदा से प्राप्त शिवलिग ही देश के समस्त शिव मंदिरों में स्थापित हैं क्योकि ,शिवलिग केवल नर्मदा में ही प्राप्त होते हैं अन्यत्र नहीं |
नर्मदा में ही बाण लिंग शिव एवं नर्मदेश्वर (शिव ) प्राप्त होते है अन्यत्र नहीं |
नर्मदा के किनारे ही नागमणि वाले मणि नागेश्वर सर्प रहते हैं अन्यत्र नहीं |
नर्मदा का हर कंकड़ शंकर होता है ,उसकी प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती क्योकि , वह स्वयं ही प्रतिष्टित रहता है |
नर्मदा में वर्ष में एक बार गंगा आदि समस्त नदियाँ स्वयं ही नर्मदा जी से मिलने आती हैं |
नर्मदा राज राजेश्वरी हैं वे कहीं नहीं जाती हैं |
नर्मदा में समस्त तीर्थ वर्ष में एक बार नर्मदा के दर्शनार्थ स्वयं आते हैं |
नर्मदा के किनारे तटों पर ,वे समस्त तीर्थ अद्रश्य रूप में स्थापित है जिनका वर्णन किसी भी पुराण, धर्मशास्त्र या कथाओं में आया हैं |
नर्मदा का प्रादुर्भाव स्रष्टि के प्रारम्भ में सोमप नामक पितरों ने श्राद्ध के लिए किया था |
नर्मदा में ही श्राद्ध की उत्पति एवं पितरो द्वारा ब्रम्हांड का प्रथम श्राद्ध हुआ था अतः नर्मदा श्राद्ध जननी हैं |
नर्मदा पुराण के अनुसार नर्मदा ही एक मात्र ऐसी देवी (नदी )हैं ,जो सदा हास्य मुद्रा में रहती है |
नर्मदा तट पर ही सिद्दी प्राप्त होती है| ब्रम्हांड के समस्त देव, ऋषि, मुनि, मानव (भले ही उनकी तपस्या का क्षेत्र कही भी रहा हो) सिद्दी प्राप्त करने के लिए नर्मदा तट पर अवश्य आये है| नर्मदा तट पर सिद्धि पाकर ही वे विश्व प्रसिद्ध हुए|
नर्मदा (प्रवाहित ) जल में नियमित स्नान करने से असाध्य चर्मरोग मिट जाता है |
नर्मदा (प्रवाहित ) जल में तीन वर्षों तक ,प्रत्येक रविवार को नियमित स्नान करने से श्वेत कुष्ठ रोग मिट जाता हैं किन्तु ,कोई भी रविवार खंडित नहीं होना चाहिए |
नर्मदा स्नान से समस्त क्रूर ग्रहों की शांति हो जाती है | नर्मदा तट पर ग्रहों की शांति हेतु किया गया जप पूजन हवन,तत्काल फलदायी होता है |
नर्मदा अपने भक्तों को जीवन काल में दर्शन अवश्य देती हैं ,भले ही उस रूप में हम माता को पहिचान न सके|
नर्मदा की कृपा से मानव अपने कार्य क्षेत्र में ,एक बार उन्नति के शिखर पर अवश्य जाता है |
नर्मदा कभी भी मर्यादा भंग नहीं करती है ,वे वर्षा काल में पूर्व दिशा से प्रवाहित होकर , पश्चिम दिशा के ओर ही जाती हैं अन्य नदियाँ ,वर्षा काल में अपने तट बंध तोडकर ,अन्य दिशा में भी प्रवाहित होने लगती हैं |

नर्मदा पर्वतो का मान मर्दन करती हुई पर्वतीय क्षेत्रमें प्रवाहित होकर जन ,धन हानि नहीं करती हैं (मानव निर्मित बांधों को छोडकर )अन्य नदियाँ मैदानी , रितीले भूभाग में प्रवाहित होकर बाढ़ रूपी विनाशकारी तांडव करती हैं |

नर्मदा ने प्रकट होते ही अपने अद्भुत आलौकिक सौन्दार्य से समस्त सुरों ,देवो को चमत्कृत करके खूब छकाया था | नर्मदा की चमत्कारी लीला को देखकर शिव पर्वती हसते -हसते हाफ्ने लगे थे |
नेत्रों से अविरल आनंदाश्रु प्रवाहित हो रहे थे| उन्होंने नर्मदा का वरदान पूर्वक नामकरण करते हुए कहा - देवी तुमने हमारे ह्रदय को अत्यंत हर्षित कर दिया, अब पृथ्वी पर इसी प्रकार नर्म (हास्य ,हर्ष ) दा(देती रहो ) अतः आज से तुम्हारा नाम नर्मदा होगा |

नर्मदा के किनारे ही देश की प्राचीनतम -कोल ,किरात ,व्याध ,गौण ,भील, म्लेच आदि जन जातियों के लोग रहा करते थे ,वे वड़ेशिव भक्त थे |

नर्मदा ही विश्व में एक मात्र ऐसी नदी हैं जिनकी परिक्रमा का विधान हैं, अन्य नदियों की परिक्रमा नहीं होती हैं|

नर्मदा का एक नाम दક્ષિन गंगा है |
नर्मदा मनुष्यों को देवत्व प्रदान कર अजर अम्र र बनाती हैं|
नर्मदा में ६० करोड़, ६०हजार तीर्थ है (कलियुग में यह प्रत्यक्ष द्रष्टिगोचर नहीं होते )
नर्मदा चाहे ग्राम हो या वन, सभी स्थानों में पवित्र हैं जबकि गंगा कनखल में एवं सरस्वती कुरुक्षेत्र में ही ,अधिक पवित्र मानी गई हैं
नर्मदा दर्शन मात्र से ही प्राणी को पवित्र कर देती हैं जबकि ,सरस्वती तीन दिनों तक स्नान से, यमुना सात दिनों तक स्नान से गंगा एक दिन के स्नान से प्राणी को पवित्र करती हैं |
नर्मदा पितरों की भी पुत्री हैं अतः नर्मदा किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है|
नर्मदा शिव की इला नामक शक्ति हैं|
नर्मदा को नमस्कार कर नर्मदा का नामोच्चारण करने से सर्प दंश का भय नहीं रहता है|
नर्मदा के इस मंत्र का जप करने से विषधर सर्प का जहर उतर जाता है|
नर्मदाये नमः प्रातः, नर्मदाये नमो निशि| नमोस्तु नर्मदे तुम्यम, त्राहि माम विष सर्पतह| (प्रातः काल नर्मदा को नमस्कार, रात्रि में नर्मदा को नमस्कार, हे नर्मदा तुम्हे नमस्कार है, मुझे विषधर सापों से बचाओं (साप के विष से मेरी रक्षा करो )

नर्मदा आनंद तत्व ,ज्ञान तत्व सिद्धि तत्व ,मोक्ष तत्व प्रदान कर , शास्वत सुख शांति प्रदान करती हैं |
नर्मदा का रहस्य कोई भी ज्ञानी विज्ञानी नहीं जान सकता है | नर्मदा अपने भक्तो पर कृपा कर स्वयं ही दिव्य द्रष्टि प्रदान करती है |

नर्मदा का कोई भी दर्शन नहीं कर सकता है नर्मदा स्वयं भक्तों पर कृपा करके उन्हें बुलाती है |
नर्मदा के दर्शन हेतु समस्त अवतारों में भगवान् स्वयं ही उनके निकट गए थे |
नर्मदा सुख ,शांति , समर्धि प्रदायनी देवी हैं |
नर्मदा वह अम्र तत्व हैं ,जिसे पाकर मनुष्य पूर्ण तृप्त हो जाता है |
नर्मदा देव एवं पितृ दोनो कार्यों के लिए अत्यंत पवित्र मानी गई हैं |
नर्मदा का सारे देश में श्री सत्यनारायण व्रत कथा के रूप में इति श्री रेवा खंडे कहा जाता है |
श्री सत्यनारायण की कथा अर्थात घर बैठे नर्मदा का स्मरण |
नर्मदा में सदाशिव, शांति से वास करते हैं क्युकी जहाँ नर्मदा हैं और जहां शिव हैं वहां नर्मदा हैं |
नर्मदा शिव के साथ ही यदि अमरकंटक की युति भी हो तो साधक को ल्लाखित लक्ष की प्राप्ति होती हैं नर्मदा के किनारे સૃષ્ટિ के समस्त खनिज पदार्थ हैं

नर्मदा तट पर ही भगवान् धन्वन्तरी की समस्त औषधीया प्राप्त होती हैं नर्मदा तट पर ही त्रेता युग में भगवान् श्री राम द्वारा प्रथम वार कुम्वेश्व्र तीर्थ की स्थापना हुई थी जिसमें सह्र्स्ती के समस्त तीर्थों का जल , रिशी मुनियों द्वारा कुम्भो ,घंटों में लाया गया था नर्मदा के त्रिपुरी तीर्थ देश का केंद्र बिंदु भी था

नर्मदा नदी ब्रम्हांड के मध्य भाग में प्रवाहित होती हैं नर्मदा हमारे शरीर रूपी ब्रम्हांड के मध्य भाग (ह्रदय ) को पवित्र करें तो , अष्टदल कमल पर कल्याणकारी सदा शिव स्वयमेव आसीन हो जावेगें|

नर्मदा का ज्योतिष शास्त्र मुह्र्तों में रेखा विभाजन के रूप में महत्त्व वर्णित हैं (भारतीय ज्यातिष )
नर्मदा के दक्षिण और गुजरात के भागों में विक्रम सम्बत का वर्ष ,कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को प्रारंभ होता हैं (भारतीय ज्यातिष )

नर्मदा सर्वदा हमारे अन्तः करण में स्थित हैं

नर्मदा माता के कुछ शव्द सूत्र उनके चरणों में समर्पित हैं ,उनका रह्र्स्य महिमा भगवान् शिव के अतिरिक्त कौन जान सकता हैं?

श्री कृष्ण चालीसा 

दोहा
    बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
    अरुण अधर जनु बिम्बफल, नयन कमल अभिराम॥
    पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।
    जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज॥

चालीसा
    जय यदुनंदन जय जगवंदन। जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
    जय यशुदा सुत नन्द दुलारे। जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
    जय नट-नागर, नाग नथइया॥ कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥
    पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो। आओ दीनन कष्ट निवारो॥
    वंशी मधुर अधर धरि टेरौ। होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥
    आओ हरि पुनि माखन चाखो। आज लाज भारत की राखो॥
    गोल कपोल, चिबुक अरुणारे। मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
    राजित राजिव नयन विशाला। मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥
    कुंडल श्रवण, पीत पट आछे। कटि किंकिणी काछनी काछे॥
    नील जलज सुन्दर तनु सोहे। छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
    मस्तक तिलक, अलक घुँघराले। आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
    करि पय पान, पूतनहि तार्‌यो। अका बका कागासुर मार्‌यो॥
    मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला। भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥
    सुरपति जब ब्रज चढ़्‌यो रिसाई। मूसर धार वारि वर्षाई॥
    लगत लगत व्रज चहन बहायो। गोवर्धन नख धारि बचायो॥
    लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई। मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥
    दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥ कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
    नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें। चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥
    करि गोपिन संग रास विलासा। सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
    केतिक महा असुर संहार्‌यो। कंसहि केस पकड़ि दै मार्‌यो॥
    मात-पिता की बन्दि छुड़ाई। उग्रसेन कहँ राज दिलाई॥
    महि से मृतक छहों सुत लायो। मातु देवकी शोक मिटायो॥
    भौमासुर मुर दैत्य संहारी। लाये षट दश सहसकुमारी॥
    दै भीमहिं तृण चीर सहारा। जरासिंधु राक्षस कहँ मारा॥
    असुर बकासुर आदिक मार्‌यो। भक्तन के तब कष्ट निवार्‌यो॥
    दीन सुदामा के दुःख टार्‌यो। तंदुल तीन मूंठ मुख डार्‌यो॥
    प्रेम के साग विदुर घर माँगे। दुर्योधन के मेवा त्यागे॥
    लखी प्रेम की महिमा भारी। ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
    भारत के पारथ रथ हाँके। लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥
    निज गीता के ज्ञान सुनाए। भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥
    मीरा थी ऐसी मतवाली। विष पी गई बजाकर ताली॥
    राना भेजा साँप पिटारी। शालीग्राम बने बनवारी॥
    निज माया तुम विधिहिं दिखायो। उर ते संशय सकल मिटायो॥
    तब शत निन्दा करि तत्काला। जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
    जबहिं द्रौपदी टेर लगाई। दीनानाथ लाज अब जाई॥
    तुरतहि वसन बने नंदलाला। बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥
    अस अनाथ के नाथ कन्हइया। डूबत भंवर बचावइ नइया॥
    'सुन्दरदास' आस उर धारी। दया दृष्टि कीजै बनवारी॥
    नाथ सकल मम कुमति निवारो। क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
    खोलो पट अब दर्शन दीजै। बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥

दोहा
    यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।
    अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥
[8/20, 4:51 PM] ‪+91 99773 73840‬: 

 बांके बिहारी मंदिर इतिहास . . .

बांके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।

बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण 1864 में स्वामी हरिदास ने करवाया था।

बाँके बिहारी मन्दिर : यह वृन्दावन का सबसे प्रमुख मन्दिर है। श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करे बिना तो वृन्दावन की यात्रा भी अधूरी रह जाती है।

श्री बाँके बिहारी जी को स्वामी श्री हरिदास जी महारज ने निधिवन में प्रकट किया था। पहले बिहारी जी की सेवा निधिवन में ही होती थी। वर्तमान मन्दिर का निर्माण सन् 1864 में सभी गोस्वमियों के सहयोग से कराया गया।

तब से श्री बाँके बिहारी जी महाराज इसी मन्दिर में विराजमान हैं। यहाँ पर मंगला आरती साल में सिर्फ़ एक बार जन्माष्टमी के अवसर पर होती है।

अक्षय तृतीया पर चरण दर्शन, ग्रीष्म ऋतु में फ़ूल बंगले, हरियाली तीज पर स्वर्ण-रजत हिण्डोला, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा पर बंशी एवं मुकुट धारण, बिहार पंचमी, होली आदि उत्सवों पर विशेष दर्शन होते हैं।

श्री बाँकेबिहारी जी का संक्षिप्त इतिहास:-

श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नही चाहेगा।

यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया।

मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया। श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे।

उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हूआ था।

इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था।

हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है।

हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे।

जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये।

निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया।

यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है।

श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया।

सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी, बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत 1975 में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया।

तब इस सेठ ने वेरी, कोलकत्ता, रोहतक, इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफी सहायता प्रदान कर रहा है।

आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह स्थानान्तरित हुए। परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहां से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं।

कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना।

इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं। श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं।

केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं ।

और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है । इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे।

एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे।

शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय ।

इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें श्री बाँकेविहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर में कपट खोले तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी।

किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था।

वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं। इससे प्रमाणित होता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं।

इसी कारण से प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। कारण–रात्रि में रास करके यहां बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं।

स्वामी हरिदास जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेकों सम्राट यहाँ आते थे। एक बार दिल्ली के सम्राट अकबर, स्वामी जी के दर्शन हेतु यहाँ आये थे। ठाकुर जी के दर्शन प्रातः 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक एवं सायं 6 बजे से रात्रि 6 बजे तक होते हैं।

विशेष तिथि उपलक्ष्यानुसार समय के परिवर्तन कर दिया जाता हैं।
श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं।

जिनमें से एक तथा दो निम्नलिखित हैं– एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।

कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति ने श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर वो रोने लगी।

संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे, इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– 'हे प्रभु में घर जा रही हुँ,

किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना, ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों रेलवे स्टेशन की ओर घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये।

उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े।

गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे। दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया। तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुन श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।

इधर भक्त तथा भक्तिमति श्रीबाँकेबिहारी जी की स्वयं कृपा जानकर दोनों ने संसार का गमन त्याग कर श्रीबाँकेबिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया।

ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।

झाँकी का अर्थ:-
श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं, और भी किंवदंती हैं।

एक बार एक भक्त देखता रहा कि उसकी भक्ति के वशीभूत होकर श्रीबाँकेबिहारी जी भाग गये। पुजारी जी ने जब मन्दिर की कपाट खोला तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी नहीं दिखाई दिये।

पता चला कि वे अपने एक भक्त की गवाही देने अलीगढ़ चले गये हैं। तभी से ऐसा नियम बना दिया कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा। ऐसी ही बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित है।

स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे। इस मन्दिर में कृष्ण के साथ श्रीराधिका विग्रह की स्थापना नहीं हुई। वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन श्रीबाँकेबिहारी के श्रीचरणों का दर्शन होता है।

पहले ये निधुवन में ही विराजमान थे। बाद में वर्तमान मन्दिर में पधारे हैं। यवनों के उपद्रव के समय श्रीबाँकेबिहारी जी गुप्त रूप से वृन्दावन में ही रहे, बाहर नहीं गये।

श्रीबाँकेबिहारी जी का झाँकी दर्शन विशेष रूप में होता है। यहाँ झाँकी दर्शन का कारण उनका भक्तवात्सल्य एवं रसिकता है।

एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे।

रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया।

इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। यहाँ एक विलक्षण बात यह है कि यहाँ मंगल आरती नहीं होती।

यहाँ के गोसाईयों का कहना हे कि ठाकुरजी नित्य-रात्रि में रास में थककर भोर में शयन करते हैं। उस समय इन्हें जगाना उचित नहीं है।

बोलिये हमारे श्री बाँके बिहारी की जय
जै जै श्री हरिदासजु स्वामी की जय

 सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। ये वर्ष में लगभग एक ही बार पड़ती है। इस अमावस्या का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व होता है। विवाहित स्त्रियों द्वारा इस दिन अपने पतियों के दीर्घायु कामना के लिए व्रत का विधान है।

इस दिन मौन व्रत रहने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। शास्त्रों में इसे अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत की भी संज्ञा दी गयी है। अश्वत्थ यानि पीपल वृक्ष। इस दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा पीपल के वृक्ष की दूध, जल, पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा और वृक्ष के चारों ओर 108 बार धागा लपेट कर परिक्रमा करने का विधान होता है। धान, पान और खड़ी हल्दी को मिला कर उसे विधान पूर्वक तुलसी के पेड़ को चढ़ाया जाता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है। कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृद्ध, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा। ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है।

इस  दिन रद्राभिषेक कराना चाहिए। नाग के जोड़े चांदी या सोने में बनवाकर उन्हें बहते पानी में प्रवाहित कर दें। सोमवती अमावस्या को दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से भी इस दोष में कमी होती है . या फिर प्रत्येक अमावस्या को एक ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा वस्त्र भेंट करने से पितृ दोष कम होता है . शनिवार के दिन पीपल की जड़ में गंगा जल, काले  तिल चढ़ाये । पीपल और बरगद के वृ्क्ष की पूजा करने से पितृ दोष की शान्ति होती है।

किसी भी शिव मंदिर में सोमवती अमावस्या या नाग पंचमी के दिन ही काल सर्प दोष की शांति करनी चाहिए।  काल के स्वामी महादेव शिव जी है सिर्फ शिव जी है जो इस योग से मुक्ति दिला सकते है क्योंकि नाग जाति के गुरु महादेव शिव हैं। शास्त्रो में जो उपाय बताए गये हैं उनके अनुसार जातक किसी भी मंत्र का जप करना चाहे, तो निम्न मंत्रों में से किसी भी मंत्र का जप-पाठ आदि कर सकता है।
१- ऊँ नम शिवाय मंत्र का  जप करना चाहिए और शिवलिंग के उपर गंगा जल, काले  तिल चढ़ाये ।
२ – महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है।

3 -नव नाग स्तुति  का पाठ करें

अनंतं वासुकिं शेषंपद्म नाभं च कम्बलं।

शंख पालं धृत राष्ट्रं तक्षकं कालियंतथा॥

एतानि नव नामानि नागानां चमहात्मनां।

सायं काले पठेन्नित्यं प्रातः कालेविशेषतः॥

तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयीभवेत्॥

जिनकी कुंडली में शनि ग्रह के कारण चंद्रमा कमजोर हो रहा है या साढ़ेसती चल रही हो और वह मानसिक विकारों से दिन-प्रतिदिन ग्रस्त होते जा रहे हों, वे सोमवती अमावस्या पर दूध, चावल, खीर, चांदी, फल, मिष्ठान और वस्त्र इत्यादि अपने पितरों के निमित्त पिंडदान करवाकर इतना पुण्य प्राप्त कर सकते है, जिससे उनकी कुंडली में जरूरी ग्रहों की नकारात्मक ऊर्जा आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक रूप धारण कर लेगी।

सोमवती अमावस्या पर स्त्रिया अपने सुहाग की रक्षा और आयु की वृद्धि के लिए पीपल की पूजा करती हैं। पीपल के वृक्ष को स्पर्श करने मात्र से पापों का क्षय हो जाता है और परिक्रमा  करने से आयु बढ़ती है और व्यक्ति मानसिक तनाव से मुक्त हो जाता है। अमावस्या के पर्व पर अपने पितरों के निमित्त पीपल का वृक्ष लगाने से सुख-सौभाग्य, संतान, पुत्र, धन की प्राप्ति होती है और पारिवारिक क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

संस्कृत के बारे में आश्चर्यजनक तथ्य ! --------------

संस्कृत के बारे में आश्चर्यजनक तथ्य !
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1. कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा। संदर्भ: – फोर्ब्स पत्रिका 1987.
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2. सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, भारतीय विक्रम संवत कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिक परिवर्तन के साथ शुरू होता है) संदर्भ: जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी.
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3. दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बात करने से व्यक्ति… स्वस्थ और बीपी, मधुमैह , कोलेस्ट्रॉल आदि जैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानव शरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति का शरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रिय हो जाता है।संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद).
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4. संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत,
रामायण आदि में सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी (Technology) रखती है।संदर्भ: रशियन
स्टेट यूनिवर्सिटी.
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5.नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्ते की पांडुलिपियों है जो वे अध्ययन का उपयोग कर
रहे हैं. असत्यापित रिपोर्ट का कहना है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से
हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं. !
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6.दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए है, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय
इंडिया (भारत) में नहीं है।
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7. दुनिया की सभी भाषाओं की माँ संस्कृत है। सभी भाषाएँ (97%) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है। संदर्भ: – यूएनओ
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8. नासा वैज्ञानिक द्वारा एक रिपोर्ट है कि अमेरिका 6 और 7 वीं पीढ़ी के सुपर कंप्यूटर
संस्कृत भाषा पर आधारित बना रहा है जिससे सुपर कंप्यूटर अपनी अधिकतम सीमा तक उपयोग किया जा सके। परियोजना की समय सीमा 2025 (6 पीढ़ी के लिए) और 2034 (7 वीं पीढ़ी के लिए) है, इसके बाद दुनिया भर में संस्कृत सीखने के लिए एक भाषा क्रांति होगी।
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9. दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छी भाषा संस्कृत है। संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985.
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10. संस्कृत भाषा वर्तमान में “उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी” तकनीक में इस्तेमाल की जा रही है। (वर्तमान में, उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी तकनीक सिर्फ रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका में ही मौजूद हैं। भारत के पास आज “सरल किर्लियन फोटोग्राफी” भी नहीं है )
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11. अमेरिका, रूस, स्वीडन, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और ऑस्ट्रिया वर्तमान में भरत नाट्यम और नटराज के महत्व के बारे में शोध कर रहे हैं। (नटराज शिव जी का कॉस्मिक नृत्य है। जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के सामने शिव या नटराज की एक मूर्ति है ).
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1२. ब्रिटेन वर्तमान में हमारे श्री चक्र पर आधारित एक रक्षा प्रणाली पर शोध कर रहा है |
तो आने वाला समय अंग्रेजी का नही संस्कृत का है , इसे सीखे और सिखाएं, देश को विकास के पथ पर बढ़ाएं.
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13 अमेरिका की सबसे बड़ी संस्था NASA (National Aeronautics and Space Administration )ने संस्कृत भाषा को अंतरिक्ष में कोई भी मैसेज भेजने के लिए सबसे उपयोगी भाषा माना है ! नासा के वैज्ञानिकों की मानें तो जब वह स्पेस ट्रैवलर्स को मैसेज भेजते थे तो उनके वाक्य उलटे हो जाते थे। इस वजह से मेसेज का अर्थ ही बदल जाता था। उन्होंने दुनिया के कई भाषा में प्रयोग किया लेकिन हर बार यही समस्या आई। आखिर में उन्होंने संस्कृत में मेसेज भेजा क्योंकि संस्कृत के वाक्य उलटे हो जाने पर भी अपना अर्थ नहीं बदलते हैं।

भगवान राम और हनुमान जी का संवाद
बहुत सुन्दर और ज्ञान वर्धक प्रसंग, जरूर पढ़े :-
1हनुमान जी जब संजीवनी बुटी का पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है:-
प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था, बल्कि मेरा भ्रम दूर करने के लिए भेजा था। और आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही आपका राम नाम का जप करने वाला सबसे बड़ा भक्त हूँ।
भगवान बोले कैसे ?
हनुमान जी बोले - वास्तव में मुझसे भी बड़े भक्त तो भरत जी है, मै जब संजीवनी लेकर लौट रहा था तब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, उन्होने कहा कि यदि मन, वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो, यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित होकर स्वस्थ हो जाए। उनके इतना कहते ही मै उठ बैठा ।सच कितना भरोसा है भरत जी को आपके नाम पर।
शिक्षा :-हम भगवान का नाम तो लेते है पर भरोसा नही करते, भरोसा करते भी है तो अपने पुत्रो एवं धन पर, कि बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा, धन ही साथ देगा।
उस समय हम भूल जाते है कि जिस भगवान का नाम हम जप रहे है वे है, पर हम भरोसा नहीं करते। बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है.
2 दूसरी बात प्रभु!
बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ. मेरा दूसरा अभिमान भी टूट गया।
शिक्षा :- हमारी भी यही सोच है कि, अपनी गृहस्थी का बोझ को हम ही उठाये हुए है।जबकि सत्य यह है कि हमारे नही रहने पर भी हमारा परिवार चलता ही है।
3फिर हनुमान जी कहते है :-
एक और बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरत जी के पास है। आपने सुबाहु, मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया। आपका बाण तो आपसे दूर कर देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है । उन्होने अपने बाण पर बैठाकर मुझे आपके पास भेज दिया।
भगवान बोले :- हनुमान, जब मैंने ताडका को तथा और भी राक्षसों को मारा तो वे सब मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास आये ।
इस पर हनुमान जी बोले :- प्रभु! आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है। सच्चा संत तो भरत जी ही है और संत का बाण है उनकी वाणी ।
शिक्षा :- हम संत वाणी को समझते तो है पर सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है।
4हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चल दिए ।
शिक्षा :-कभी-कभी हम भी संतो पर संदेह करते है, कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे। एक संत ही हैं, जो हमें सोते से जागते है जैसे (संत) भरत जी ने हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका मन, वचन, कर्म सब भगवान में लगा हुआ है। उन पर भरोसा तो करो तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक अवश्य पहुँचा देगे ।
भक्त और भगवान की जय
[
चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा । चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसड़्गति   ।
संसार में चन्दन अतीव शीतल होता है ।चन्दन से भी चन्द्र विशेष शीतल होता है किन्तु उन दोनों से भी अधिक शीतल साधुओं का संग होता है ।
[8/24, 9:25 AM] ‪+91 96877 26729‬: *सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |*
*वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः- स्वयमेव संपदः ||*
अर्थात् : अचानक (आवेश में आ कर बिना सोचे समझे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है | (इसके विपरीत) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है |
*शुभ प्रभात.....*
आराध्या *
*ये हैं महाभारत के वो 5 श्राप जो जिनका प्रभाव आज भी इस धरती पर है*
          वैसे तो हिन्दू धर्म ग्रंथो में कई सारे श्राप का वर्णन किया गया है इतना ही नहीं हर श्राप के पीछे कोई न कोई कारण छुपा था। कई श्राप के पीछे संसार का कल्‍याण छिपा होता है। आज ऐसे ही 5 श्रापों के बारे में बताने जा रहे हैं जिनका इतिहास में कुछ महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है लेकिन इनका प्रभाव अभी भी देख सकते है।
*1.*   *श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को श्राप* :-
       पाडंवों ने स्‍वर्गलोक जाने से पहले अपना सारा राज पाठ अभिमन्‍यु के बेटे परीक्षित को दान दे दिया बताया जाता है कि राजा परीक्षित के शासन काल में सभी प्रजा सुखी थी। एक बार की बात है राजा परीक्षित वन वन में खेलने गए थें तभी उन्हें शमीक नामक ऋषि मिले जो मौन व्रत धारण कर अपनी तपस्या में लीन थे तभी परीक्षित उनसे कई बार बोलने का प्रयास करते हैं लेकिन उनके न बोलने से उन्‍हे गुस्‍सा आ गया और उन्होंने ऋषि के गले में एक मारा हुआ सांप डाल दिया। जब ये बात ऋषि शमीक के पुत्र श्रृंगी को पता चली तो उन्होंने राजा परीक्षित को श्राप दे दिया की आज से सात दिन बाद राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग के डसने से हो जायेगी। आपको बता दें राजा परीक्षित के जीवित रहते इस पृथ्‍वी पर कलयुग हावी नहीं हो सकता था इसलिए उनके मरते ही कलयुग पूरी पृथ्वी पर हावी हो गया।
*2.*    *श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा को श्राप*:-
        जैसा कि हम सब जानते हैं कि महाभारत युद्ध के अंत में अश्वत्थामा ने पाण्डव पुत्रों का धोखे से वध कर दिया, तब अश्वत्थामा का पीछा करते हुए पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ महर्षि वेदव्यास के आश्रम तक पहुंच गए। लेकिन उसके बाद अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र से पाण्डवों पर वार किया। ये देख अर्जुन ने भी अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा। तभी महर्षि व्यास ने इन दोनों अस्त्रों को टकराने से रोक लिया। इन दोनों को महर्षि व्‍यास ने अपने अस्‍त्र लेने को वापस कहा लेकिन अश्‍वत्‍थामा को यइस विद्या का ज्ञान नहीं था जिसके लिए उसने अपने अस्त्र की दिशा बदलकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी। इससे भगवान श्रीकृष्ण क्रोधित होकर अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे और तुम यहां रहकर भी किसी से बातचीत नहीं कर पाओगे पशु के समान वन में रहोगे।
*3.*  *माण्डव्य ऋषि का यमराज को श्राप* :-
           महाभारत में मांडव्य ऋषि का वर्णन किया गया है। बताया गया है कि एक बार राजा ने गलती से अपने सैनिकों को ऋषि मांडव्य को शूली में चढ़ाने का श्राप दिया। लेकिन जब शूली पर लटकने के बाद भी ऋषि के प्राण नहीं गए तो राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ तथा उन्होंने ऋषि मांडव्य को शूली से उतरवाया तथा अपनी गलती की क्षमा मांगी। जिसके बाद ऋषि ने यमराज से अपनी सजा का कारण पूछा और कारण था कि ऋषि जब 12 वर्ष के थे तो आपने एक छोटे से कीड़े के पूछ में सीक चुभाई थी। ये कारण जानकर ऋषि को बहुत दुख पहुंचा जिससे अाहत होकर उन्‍होंने यमराज को श्राप दे दिया तुम शुद्र योनि में दासी के पुत्र के रूप में जन्म लोगे। माण्डव्य ऋषि के इस श्राप के कारण यमराज को विदुर के रूप में जन्म लेना पडा।
*4.*   *उर्वशी का अर्जुन को श्राप*:-
        ऐसा बताया जाता है कि एक बार अर्जुन दिव्यास्त्र पाने के लिए स्वर्ग लोक गया वहां उर्वशी नाम की एक अप्सरा उन पर आकर्षित हो गई। जब उर्वशी ने यह बात अर्जुन को बताई तो जवाब में अर्जुन ने उर्वशी को अपनी माता के समान बताया। इस बात पर उर्वशी को गुस्‍सा आ गया और उन्होंने अर्जुन से कहा की आखिर तुम क्यों नपुंसक की तरह बात क़र रहे हो, मैं तुम्हे श्राप देती हु की तुम नपुंसक हो जाओ तथा स्त्रियों के बीच तुम्हे नर्तक बन क़र रहना पड़े। इस श्राप के कारण ही अर्जुन वनवास के समय नर्तिका का वेश धारण कर कौरवों के नजरो से बच गए।
*5.* *युधिस्ठीर ने दिया था महिलाओं को यह श्राप*:-
       बताया जाता है कि महाभारत का युद्ध जब समाप्त हो गया तो माता कुंती ने पांडवों से एक रहस्य बताया की कर्ण उनका भाई था। इस बात को सुनकर पांडव अत्‍यंत दुखी हो जाते हैं। युधिस्ठीर ने विधि-विधान पूर्वक कर्ण का अंतिम संस्कार किया और उसी क्षण उन्होंने समस्त स्त्री जाती को यह श्राप दे दिया जिसका प्रभाव आज भी है इसी कारण कोई भी स्त्री किसी भी प्रकार की बात को छुपा नहीं पाती।
*हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*

संस्कृत के शब्द sanskrit ke shabd

शिष्टाचारः ( Common formulas or Good practices)[सम्पाद्यताम्]
• हरिः ॐ ! = Hello !
• सुप्रभातम् |* = Good morning.
• नमस्कारः/नमस्ते । = Good afternoon/Good evening.
• शुभरात्रिः । = Good night.
• धन्यवादः । = Thank You.
• स्वागतम् । = Welcome.
• क्षम्यताम् । = Excuse/Pardon me.
• चिन्ता मास्तु । = Dont worry.
• कृपया । = Please.
• पुनः मिलामः । = Let us meet again.
• अस्तु । = All right./O.K.
• श्रीमन् । = Sir.
• मान्ये/आर्ये । = Lady.
• साधु साधु/समीचीनम् । = Very good.
मेलनम् ( Meeting )[सम्पाद्यताम्]
• भवतः नाम किम् ? = What is your name? (masc.)
• भवत्याः नाम किम् ? = What is your name? (fem.)
• मम नाम ‌.....। = My name is .....
• एषः मम मित्रं .....। = This is my friend .....
• एतेषां विषये श्रुतवान् = I have heard of them
• एषा मम सखी .....। = This is my friend ..... (fem.).
• भवान् किं (उद्योगं) करोति ? = What do you do? (masc.)
• भवती किं (उद्योगं) करोति? = What do you do? (fem.)
• अहं अध्यापकः अस्मि । = I am a teacher (masc.)
• अहम अध्यापिका अस्मि । = I am a teacher.(fem.)
• अधिकारी/अधिकारिणी = Officer;
• टङ्कलेखकः/टङ्कलेखिका = Typist
• तंत्रज्ञः/तन्त्रज्ञा = Engineer;
• प्राध्यापकः/प्राध्यापिका = Professor
• लिपिकः/लिपिका = Clerk
• न्यायवादी/न्यायवादिनी = lawyer
• विक्रयिकः/विक्रयिका = Salesman;
• व्याख्याता/व्याख्यात्री = Lecturer
• अहं यन्त्रागारे कार्यं करोमि । = I work in a factory.
• कार्यालये = in an office;
• महाविद्यालये = in a college
• वित्तकोषे = in a bank;
• चिकित्सालये = in a hospital
• माध्यमिकशालायां = in a high school;
• यन्त्रागारे = in a factory
• भवान्/भवती कस्यां कक्ष्यायां पठति ? = Which class are you in?
• अहं नवमकक्ष्यायां पठामि । = I am in Std.IX.
• अहं .कक्ष्यायां पठामि । = I am in I/II/III/B.Sc. class.
• भवतः ग्रामः ? = Where are you from?
• मम ग्रामः .....। = I am from .....
• कुशलं वा ? = How are you ?
• कथमस्ति भवान् ? = How are you ?
• गृहे सर्वे कुशलिनः वा ? = Are all well at home?
• सर्वं कुशलम् । = All is well.
• कः विशेषः ? ( का वार्ता ?) = What news?
• भवता एव वक्तव्यम् । = You have to say.
• कोऽपि विशेषः ? = Anything special?
• भवान् (भवती) कुतः आगच्छति ? = Where are you coming from?
• अहं शालातः, गृहतः, ...तः = I am coming from school/house/....
• भवान्/भवती कुत्र गच्छति ? = Where are you going?
• भवति वा इति पश्यामः । = Let us see if it can be done.
• ज्ञातं वा ? = Understand ?
• कथं आसीत् ? = How was it?
• अङ्गीकृतं किल ? = Agreed?
• कति अपेक्षितानि ? = How many do you want?
• अद्य एव वा ? = Is it today?
• इदानीं एव वा ? = Is it going to be now?
• आगन्तव्यं भोः । = Please do come.
• तदर्थं वा ? = Is it for that ?
• तत् किमपि मास्तु । = Don't want that.
• न दृश्यते ? = Can't you see?
• समाप्तं वा ? = Is it over?
• कस्मिन् समये ? = At what time?
• तथापि = even then
• आवश्यकं न आसीत् । = It was not necessary.
• तिष्ठतु भोः । = Be here for some more time.
• स्मरति किल ? = Remember, don't you?
• तथा किमपि नास्ति । = No, it is not so.
• कथं अस्ति भवान् ? = How are you?
• न विस्मरतु । = Don't forget.
• अन्यच्च = besides
• तदनन्तरम् = then
• तावदेव किल ? = Is it only so much?
• महान् सन्तोषः । = Very happy about it.
• तत् तथा न ? = Is it not so?
• तस्य कः अर्थः ? = What does it mean?
• आं भोः । = Yes, Dear, Sir.
• एवमेव = just
• अहं देवालयं/कार्यालयं/विपणिं गच्छामि । = I am going to temple/office/market.
• किं चिराद् दर्शनं ? = What is the matter ? You are not seen these days.
• भवन्तं कुत्रापि दृष्टवान्। = I remember to have seen you somewhere.
• भवान् सम्भाषणशिबिरं आगतवान् वा ? = Have you come to the conversation camp ?
ध्यातव्यं: Note:
• शब्दाः 'भवान्/भवती' is used for the convenience of Samskrita conversation learning.
• The verb used for 'भवान्/भवती' is III Person Singular instead of II Person singular.
• तर्हि कुत्र दृष्टवान् ? = In that case where have I seen you?
• तर्हि तत्रैव दृष्टवान् |= I must have seen you there in that case.
सरल वाक्यानि (Simple sentenes)[सम्पाद्यताम्]
• तथैव अस्तु । = Let it be so/so be it.
• जानामि भोः । = I know it.
• आम्, तत् सत्यम् । = Yes,that is right.
• समीचीना सूचना । = A good suggestion indeed.
• किञ्चित् एव । = A little.
• किमर्थं तद् न भवति ? = Why can't that be done ?
• भवतु नाम । = Leave it at that.
• ओहो ! तथा वा ? = Oh! Is that so ?
• एवमपि अस्ति वा ? = Is it like this ?
• अथ किम् ? = Then ?
• नैव किल ! = No
• भवतु ! = Yes
• आगच्छन्तु । = Come in.
• उपविशन्तु । = Please sit down.
• सर्वथा मास्तु । = Definitely no.
• अस्तु वा ? = Can that be so ?
• किमर्थं भोः ? = Why ?
• प्राप्तं किल ? = You have got it, haven't you ?
सामान्य वाक्यानि (Ordinary sentences)[सम्पाद्यताम्]
• प्रयत्नं करोमि । = I will try.
• न शक्यते भोः । = No, I can't.
• तथा न वदतु । = Don't say that.
• तत्र कोऽपि सन्देहः नास्ति । = There is no doubt about it.
• तद् अहं न ज्ञातवान् । = I didn't know that.
• कदा ददाति ? = When are you going to give me ?
• अहं कथं वदामि 'कदा इति' ? = How can I say when ?
• तथा भवति वा ? = Can that be so ?
• भवतः समयावकाशः अस्ति वा ? = Are you free ?
• अद्य भवतः कार्यक्रमः कः ? = What are your programmes for today ?
• अरे ! पादस्य / हस्तस्य किं अभवत् ? = Oh! What happened to your legs/arms?
• बहुदिनेभ्यः ते परिचिताः। = I have known him for long ( shouldn't be'them' for 'him'? May be plural'te' is used for a VVIP))
• तस्य कियद् धैर्यं/धार्ष्ट्यम् ? = How dare he is ?
• भवान् न उक्तवान् एव । = You have not told me..
• अहं किं करोमि ? = What can I do ?
• अहं न जानामि । = I don't know.
• यथा भवान् इच्छति तथा । = As you wish/say.
• भवतु, चिन्तां न करोतु = Yes, don't bother.
• तेन किमपि न सिध्यति । = There is no use/nothing hppenns on account of that.
• सः सर्वथा अप्रयोजकः । = He is good for nothing.
• पुनरपि एकवारं प्रयत्नं कुर्मः । = Let us try once more.
• मौनमेव उचितम् । = Better be quiet.
• तत्र अहं किमपि न वदामि । = I do not want to say anything in this regard/No comments, please/I must think before I say anything.
• तर्हि समीचीनम् । = O.K. if that is so.
• एवं चेत् कथम् ? = How then, if it is so ?
• मां किञ्चित् स्मारयतु । = Please remind me.
• तं अहं सम्यक् जानामि । = I know him well.
• तदानीमेव उक्तवान् किल ? = Haven't I told you already ?
• कदा उक्तवान् भोः ? = When did you say so ?
• यत्किमपि भवतु । = Happen what may.
• सः बहु समीचीनः = He is a good fellow.
• सः बहु रूक्षः । = He is very rough.
• तद्विषये चिन्ता मास्तु । = Don't worry about that.
• तथैव इति न नियमः । = It is not like that.
• कर्तुं शक्यं, किञ्चित् समयः अपेक्षते । = I/We can do it, but require time.
• न्यूनातिन्यूनं एतावत् तु कृतवान् ! = At least he has done this much !
• द्रष्टुं एव न शक्यते । = Can't see it.
• तत्रैव कुत्रापि स्यात् । = It may be somewhere there.
• यथार्थं वदामि । = I am telling the truth.
• एवं भवितुं अर्हति । = This is O.K./all right.
• कदाचित् एवमपि स्यात् । = It may be like this sometimes.
• अहं तावदपि न जानामि वा ? = Don't I know that much ?
• तत्र गत्वा किं करोति ? = What are you going to do there ?
• पुनः आगच्छन्तु । = Come again.
• मम किमपि क्लेशः नास्ति । = It is no trouble (to me).
• एतद् कष्टं न । = This is not difficult.
• भोः, आनीतवान् वा ? = Have you brought it ?
• भवतः कृते कः उक्तवान् ? = Who told you this ?
• किञ्चिदनन्तरं आगच्छेत् । = He/It may come sometime later.
• प्रायः तथा न स्यात् । = By and large, it may not be so.
• चिन्ता मास्तु, श्वः ददातु । = It is no bother, return it tomorrow.
• अहं पुनः सूचयामि । = I will let you know.
• अद्य आसीत् वा ? = Was it today ?
• अवश्यं आगच्छामि । = Certainly, I will come.
• नागराजः अस्ति वा ? = Is Nagaraj in ?
• किमर्थं तत् एवं अभवत् ? = Why did it happen so ?
• तत्र आसीत् वा ? = Was it there ?
• किमपि उक्तवान् वा ? = Did you say anything ?
• कुतः आनीतवान् ? = Where did you bring it from ?
• अन्यत् कार्यं किमपि नास्ति । = Don't have any other work.
• मम वचनं शृणोतु । = Please listen to me.
• एतत् सत्यं किल ? = It is true, isn't it ?
• तद् अहं अपि जानामि । = I know it myself.
• तावद् आवश्यकं न । = It is not needed so badly.
• भवतः का हानिः ? = What loss is it to you ?
• किमर्थं एतावान् विलम्बः ? = Why are you late ?
• यथेष्टं अस्ति । = Available in plenty.
• भवतः अभिप्रायः कः ? = What do you say about it ?/What is your opinion ?
• अस्य किं कारणम् ? = What is the reason for this ?
• स्वयमेव करोति वा ? = Do you do it yourself ?
• तत् न रोचते ? = I don't like it.
• उक्तं एव वदति सः । = He has been repeating the same thing.
• अन्यथा बहु कष्टम् । = It will be a big botheration if it is not so.
• किमर्थं पूर्वं न उक्तवान् ? = Why didn't you say it earlier ?
• स्पष्टं न जानामि । = Don't know exactly.
• निश्चयः नास्ति । = Not sure.
• कुत्र आसीत् भवान् ? = Where were you ?
• भीतिः मास्तु । = Don't get frightened.
• भयस्य कारणं नास्ति । = Not to fear.
• तदहं बहु इच्छामि = I like that very much.
• कियत् लज्जास्पदम् ? = What a shame ?
• सः मम दोषः न । = It is not my fault.
• मम तु आक्षेपः नास्ति । = I have no objection.
• सः शीघ्रकोपी । = He is short-tempered.
• तीव्रं मा परिगणयतु । = Don't take it seriously.
• आगतः एषऽवराकः । = Camped here.(?)
• युक्ते समये आगतवान् । = you have come at the right time.
• बहु जल्पति भोः । = He talks too much.
• एषा केवलं किंवदन्ती । = It is just gossip.
• किमपि न भवति । = Nothing happens.
• एवमेव आगतवान् । = Just came to call on you.
• विना कारणं किमर्थं गन्तव्यम् ? = Why go there unnecessarily ?
• भवतः वचनं सत्यम् । = You are right.
• मम वचनं कः शृणोति ? = Who listens to me ?
• तदा तद् न स्फुरितम् । = It did not flash me then.
• किमर्थं तावती चिन्ता ? = Why so much botheration ?
• भवतः किं कष्टं अस्ति ? = Tell me, what your trouble is ?
• छे, एवं न भवितव्यं आसीत् । = Tsh, it should not have happened.
• अन्यथा न चिन्तयतु । = Don't mistake me.
मित्र मिलनम् ( Meeting the friends )[सम्पाद्यताम्]
• नमोनमः । = Good morning/afternoon/evening
• किं भोः, दर्शनमेव नास्ति ! = Hello, didn't see you for long !
• नैव, अत्रैव सञ्चरामि किल ! = No, I have been moving about right here !
• किं भोः, वार्ता एव नास्ति ? = Hello, not to be seen for a long time !
• किं भोः, एकं पत्रं अपि नास्ति ? = Hey, You haven't even written a letter !
• वयं सर्वे विस्मृताः वा ? = You have forgotten us all, Haven't you ?
• कथं विस्मरणं भवति भोः ? = How can I forget you ?
• भवतः सङ्केतं एव न जानामि स्म। = I didn't know your address.
• महाजनः संवृत्तः भवान् ! = you have become a big man !
• भवान् एव वा ! दूरतः न ज्ञातम् । = Is it you ? I couldn't recognise you from a distance.
• ह्यः भवन्तं स्मृतवान् । = I remembered you yesterday.
• किं अत्र आगमनम् ? = What made you come here ?
• अत्रैव किञ्चित् कार्यं अस्ति । = I have some work here.
• त्वरितं कार्यं आसीत् | अतः आगतवान् । = I am here as I have some urgent work.
• बहुकालतः प्रतीक्षां करोमि । = I have been waiting for you for a long time.
• यानं न प्राप्तं, अत एव विलम्बः । = Could not get the bus,hence late.
• आगच्छतु भोः, गृहं गच्छामः । = Come, let us go home.
• इदानीं वा, समयः नास्ति भोः । = Now? No time, you know.
• श्वः सायं मिलामः वा ? = Shall we meet tomorrow evening ?
• अवश्यं तत्रैव आगच्छामि । = I'll come there without fail.
• इदानीं कुत्र उद्योगः ? = Where do you work now ?
• यन्त्राकारे उद्योगः । = I work in a factory.
• ग्रामे अध्यापकः अस्मि । = I am a teacher in a village.
• इदानीं कुत्र वासः ? = Where are you put up ?
• एषः मम गृहसङ्केतः । = This is my address.
• यानं आगतं, आगच्छामि । = Bus has come, bye, bye.
• अस्तु, पुनः पश्यामः । = OK. Let us meet again.
• पुनः अस्माकं मिलनं कदा ? = When shall we meet again ?
• पुनः कदा मिलति भवान् ? = When are you going to meet me ? (again)
• तद्दिने किमर्थं भवान् न आगतवान् ? = Why didn't you come that day ?
• वयं आगतवन्तः एव । = We have already arrived.
• भवतः समीपे संभाषणीयं अस्ति । = I have something to talk to you about.
• भवान् अन्यथा गृहीतवान् । = You have mistaken me.
• भवन्तं बहु प्रतीक्षितवान् । = I very much expected you.
• बहुकालतः तस्य वार्ता एव नास्ति । = No news from him for days.
• भवतः पत्रं इदानीं एव लब्धम् । = I have just received your letter.
• किञ्चिद्दूरं अहमपि आगच्छामि । = I will walk with you for some distance.
• मिलित्वा गच्छामः । = Let us go together.
• तिष्ठतु भोः, अर्धार्धं काफी पिबामः । = Wait, let's have a by-two coffee (It appears to mean sharing one cup of coffee between two persons)
• अस्तु, पिबामः । = Fine, let us have it.
• स्थातुं समयः नास्ति । = No time to stay.
• गमनात् अनुक्षणमेव पत्रं लिखतु । = Write as soon as you reach there.
• पुनः कदाचित् पश्यामि । = Meet you again.
• यदा कदा वा भवतु, अहं सिद्धः । = I am ready any day.
• तेषां कृते मम शुभाशयान् निवेदयतु । = Convey my good wishes to them/*him(Only if that person is a VIP).
• किं भोः, एवं वदति ? = Hey, why do you say so ?
• किञ्चित् कालं तिष्ठतु । = Please wait for some time.
• भवान् एव परिशीलयतु । = Think about it, yourself.
• अत्र पत्रालयः कुत्र अस्ति ? = Where is the post office, here ?
• कियद्दूरे अस्ति ? = How far is it ?
• वित्तकोषः कियद्दूरे अस्ति ? = How far is the bank ?
• किमर्थं एवं त्वरा (संभ्रमः) ? = Why so much of confusion ?
• इतोऽपि समयः अस्ति किल ? = There is still time, isn't it ?
• सर्वस्य अपि मितिः भवेत् । = There should be some limit for everything.
• कियद् इति दातुं शक्यम् ? = How much can I give him ?
• कस्मिन् समये प्रतीक्षणीयम् ? = When shall I expect ?
• गृहे उपविश्य किं करोति ? = What are you going to do by sitting at home ?
• भवतः परिचयः एव न लब्धः । = Could not recognize you.
• किं भोः, बहु कृशः जातः ? = Hey, You have become very weak.
• अवश्यं मम गृहं आगन्तव्यम् । = Please do call on us.
• सः सर्वत्र दर्वीं चालयति । = He pokes his nose everywhere.
• यथा भवान् इच्छति । = I am game for whatever you say.
• परिहासाय उक्तवान् भोः । = I said it in fun, You know.
• एषः भवतः अपराधः न । = It is not your fault.
• नैव, चिन्ता नास्ति । = No, no trouble/botheration.
• वयं इदानीं अन्यद्गृहे स्मः । = We live in a different home now/Changed our residence.
• भवान् मम अपेक्षया ज्येष्ठः वा ? = Are you elder to me ?
• ओहो, मम अपेक्षया कनिष्ठः वा ? = Younger to me, is it ?
• भवान् विवाहितः वा ? = Are you married ?
• नैव, इदानीमपि एकाकी । = No, still a bachelor.
• भवतः पिता कुत्र कार्यं करोति ? = Where does your father work ?
• सः वर्षद्वयात् पूर्वमेव निवृत्तः । = He retired two years ago.
• सः वृद्धः इव भाति । = He looks aged.
• भवन्तः सर्वे सहैव वसन्ति वा ? = Do all of you live together ?
• नैव, सर्वे विभक्ताः = No, we live separately.
• भवतः वयः कियत् ? = How old are you ?
• भवन्तः कति सहोदराः ? = How many brothers are you ?
• वयं आहत्य अष्टजनाः । = We are eight.
• भवान् एव ज्येष्ठः वा ? = Are you the eldest ?
• मम एकः अग्रजः अस्ति । = I have an elder brother.
• सः इदानीमपि बालः । = He is still a boy.
• भवतः अनुजायाः कति वर्षाणि ? = How old is your younger sister ?
• भवान् मा ददातु, मा स्वीकरोतु । = Neither give, nor take anything.
• अन्यं कमपि न पृच्छतु । = Don't ask anyone except me.
• तर्हि सर्वं दायित्वं भवतः एव । = In that case the entire responsibility is yours.
• सर्वत्र अग्रे सरति । = He takes the initiative in everything.
• भवन्तं गृहे एव पश्यामि । = I will see you in your house.
• सः निष्ठावान् । = He is very orthodox.
• यावदहं प्रत्यागच्छामि, तावद् प्रतीक्षां करोतु । = Wait till I come.
• द्वयोः एकः आगच्छतु । = Either of the two come.
• तस्य कृते विषयः निवेदितः वा ? = Have you informed him about the news?
• तस्य कृते सः अत्यन्तं प्रीतिपात्रम् । = He is closely related to him.
• भवता एतद् न कर्तव्यम् । = You should not do this.
• यदि सः स्यात्\.\.\. । = Had he been here...
• अवश्यं आगन्तव्यं, न विस्मर्तव्यम् । = Don't forget, please do come.
• कियत् कालं तिष्ठति ? = How long will you be here?
• एषा वार्ता मम कर्णमपि आगता । = I have heard of this news.
• सः स्तोकात् मुक्तः । = He escaped narrowly.
• भवन्तं द्रष्टुं सः पुनः आगच्छति किल ? = He is going to come back to see you. Isn't he ?
• अहं किमर्थं असत्यं वदामि ? = Why should I tell a lie ?
• भवान् अपि एवं वदति वा ? = Of all the people are you going to say this ?
• भवान् एवं कर्तुं अर्हति वा ? = Can you do this ?
• भवान् गच्छतु, मम किञ्चित् कार्यं अस्ति । = You proceed, I have some work.
• वृथा भवान् चिन्तां करोति । = You just worry unnecessarily.
• दैवेच्छा तदा आसीत्, किं कुर्मः ? = It was God's will. What shall we do ?
• अहं अन्यद् उक्तवान्, भवान् अन्यद् गृहीतवान् । = I told you one thing. You understood it differently.
• एतावद् अनृतं वदति इति न ज्ञातवान् । = I never expected that he would tell a lie.
• प्रमादतः संवृत्तम्, न तु बुद्ध्या । = I did not do it purposely. It was just accidental.
• एषः एकः शनिः । = This fellow is a bugbear.
• भवदुक्तं सर्वमपि अङ्गीकर्तुं न शक्यम् । = I cannot agree with all you say.
• अहं गन्तुं न शक्नोमि । = I cannot go.
• विषयस्य वर्धनं मास्तु । = Don't escalate the matter.
• सर्वेऽपि पलायनशीलाः । = All these fellows take to their heels in the face of danger.
• असम्बद्धं मा प्रलपतु । = Don't talk foolishly.
• सर्वस्य अपि भवान् एव मूलम् । = You are the root cause of all these.
• सुलभेन तस्य जाले पतितवान् । = He fell into his trap easily.
• अस्माकं मिलनानन्तरं बहु कालः अतीतः । = It is a long time since we met.
• इदानीं आगन्तुं न शक्यते । = I cannot come now.
• भवान् अपि अङ्गीकरोति वा ? = Do you agree ?
• भवान् अपि विश्वासं कृतवान् ? = Did you believe that ?
• सः विश्वासयोग्यो वा ? = Is he trustworthy ?
• किञ्चित् साहाय्यं करोति वा ? = Would you mind helping me a bit ?
• समयः कथं अतिशीघ्रं अतीतः ! = How quickly the time passed !
• युक्ते समये आगतवान् । = You have come at the right time.
• एक निमेषं विलम्बः चेत् अहं गच्छामि स्म । = I would have left if you were late by a minute.
• अहमपि भवता सह आगच्छामि वा ? = Shall I come with you ?
• किञ्चित् कालं द्विचक्रिकां ददाति वा ? = Would you mind lending me your bicycle for a few minutes ?
• इदानीं मया अपि अन्यत्र गन्तव्यम् । = I have to go somewhere now.
• भवान् स्वकार्यं पश्यतु । = You mind your business.
• शीघ्रं प्रत्यागच्छामि । = I'll be back in a short while.
• आवश्यकं चेत् श्वः आनयामि । = If you want it, I shall bring it tomorow.
• {\rm `}मास्तु{\rm '} इत्युक्तेऽपि सः न शृणोति । = I said no,but he doesn't listen to me.

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...