Monday, December 31, 2018

मैक्समूलर ने 'प्राचीन संस्कृत साहित्य का इतिहास



मैक्समूलर ने 'प्राचीन संस्कृत साहित्य का इतिहास' लिखा जो कि 1859 में प्रकाशित किया गया। यह वही काल था जब भारत में 1857 की क्रांति हुई थी और जिसे भारतीय राष्ट्रवाद के 'पुनरूज्जीवी पराक्रम' का प्रतीक माना जा रहा था, तब जर्मनी में संस्कृत के प्रति ऐसा ठोस कार्य होना बहुत ही अर्थपूर्ण था।
इसका अभिप्राय था कि भारतीय राष्ट्रवाद का 'पुनरूज्जीवी पराक्रमी' भाव भारतीयों को ही नहीं, विदेशियों को भी प्रभावित कर रहा था और भारत में चाहे लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्घति भारतीय भाषा को और संस्कृति को मारने का जितना प्रयास कर रही थी पर भारतीय भाषा और भारतीय संस्कृति उस समय भी लोगों को संस्कार बांट रही थी और निरंतर अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। अपनी उपरोक्त पुस्तक में मैक्समूलर ने भारत की ऋग्वेदकालीन आर्य मान्यताओं की बड़ी गंभीर विवेचना की है। अपनी इसी पुस्तक में वह भारत के ऋग्वेद को विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ घोषित करता है। इस ग्रंथ में वह भारतीय भाषा और संस्कृति से तथा भारत के धर्म से अभिभूत दिखायी पड़ता है। उसके इस प्रकार के भाव ने उस समय के विश्व स्तरीय विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कराया था। जिससे संस्कृत को विश्व के ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानने और संस्कारों का पालना बनाने में सहायता मिली। भारत के विषय में यह सत्य है कि इसकी मनीषा विश्व की मार्ग दर्शिका रही है और विश्व की अन्य संस्कृतियों की मनीषा इसके सामने फीकी ही रही है। मैक्समूलर ने इस तथ्य को बड़ी स्पष्टता से अपने ग्रंथ में स्वीकार किया। उसने इस ग्रंथ में भारत की वैदिक संहिताओं ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद तथा परवर्ती स्मृति साहित्य का पूर्ण मनोयोग से विवेचन किया है। उसे भारत के वैदिक धर्म के एकेश्वरवादी स्वरूप ने अधिक प्रभावित किया था। जिसे उसने 'मोनोथीज्म' का नाम दिया था। इसका अभिप्राय था कि मैक्समूलर वेद की इस घोषणा को ही उचित और अंतिम सत्य मानता था कि 'एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात वह परमपिता परमात्मा तो एक ही है परंतु विद्वान लोग उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। भारत की मूलभाषा संस्कृत का विश्व के लिए यह बहुत बड़ा संदेश है कि ईश्वर को एक ही जानो और एक ही मानो। उसके नाम पर लड़ो झगड़ो नही और ना ही अपने अलग-अलग संप्रदाय बनाओ। संस्कृत भाषा की इसी विशेषता को एक संस्कार के रूप में हिंदी ने अपनाया है, और वह भी मनुष्य के न लडऩे झगडऩे को धर्म घोषित करती है। मैक्समूलर ने भारतीय भाषा के इस धर्म की गंभीर विवेचना की, और उसने हमारी संस्कृत और संस्कृति के रोम-रोम में मानवतावाद को एक रस हुए पाया।
मैक्समूलर भारत के धर्म पर लिखता ही नही था अपितु भारतीय विद्या और भाषाशास्त्र पर उत्तम व्याख्यान भी दिया करता था। जिससे लोगों पर उत्तम प्रभाव पड़ता था। उसने भारत से प्रभावित होकर अपनी प्रसिद्घ पुस्तक 'इंडिया व्हाट इट कैन टीच अस' लिखी। इस पुस्तक को विश्व में बड़ी प्रसिद्घि मिली और लोगों को इसके माध्यम से भारत को और भारत की समृद्घ भाषा को समझने का उचित अवसर प्राप्त हुआ। मैक्समूलर लिखता है:-''इस बात का पता लगाने के लिए कि सर्वाधिक सम्पदा और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण ऐसा कौन सा देश है? यदि आप मुझे इस भूमंडल का अवलोकन करने के लिए कहें तो मैं बताऊंगा कि वह देश भारत है, भारत जहां भूतल पर ही स्वर्ग की छटा निखर रही है। यदि आप यह जानना चाहें कि मानव मस्तिष्क की उत्कृष्टतम उपलब्धियों का सर्वप्रथम साक्षात्कार किस देश ने किया है और किसने जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर विचार कर उनमें से कईयों के ऐसे समाधान ढूंढ़ निकाले हैं कि प्लेटो और काण्ट जैसे दार्शनिकों का अध्ययन करने वाले लोगों के लिए भी वे मनन के योग्य हैं तो मैं फिर भारत का ही नाम लूंगा और यदि यूनानी, रोमन और सेमेटिक जाति के यहूदियों की विचारधारा में ही सदा अवगाहन करते रहने वाले हम यूरोपियनों को ऐसा कौन सा साहित्य पढऩा चाहिए जिससे हमारे जीवन का अंतर्तम परिपूर्ण और अधिक सर्वांगीण अधिक विश्वव्यापी यूं, कहें कि संपूर्णतया मानवीय बन जाए और जीवन ही क्यों अगला जन्म तथा शाश्वत जीवन भी सुधर जाए तो मैं एक बार भारत का ही नाम लूंगा।''
इस प्रकार मैक्समूलर ने भारत को विश्व की भाषाओं का, विश्व के धर्मों का और विश्व की संस्कृतियों का एकमात्र प्रेरणा स्रोत बनाकर यह सिद्घ किया कि विश्व में भाषा, धर्म व संस्कृति की समरूपता तभी संभव है जब लोग भारत को जानें और भारत को समझें। उसका मानना था कि अधिकतर लोगों को भारत के प्राचीन साहित्य की खोज परियों की कहानी जैसी लगती होगी। इतिहास का एक अध्याय उसे वे कम मानते हैं। उस साहित्य के शुद्घ और सही होने में संदेह है जो और संदेह किया जाता रहा है।  अरिस्टोटल और प्लेटो ने क्या कहा यदि उनसे कहा जाता है कि उनके समय में भारत में जिस भारत की विजय न सही खोज अलेक्जेंडर ने की थी प्राचीन-साहित्य है, जो यूनान के साहित्य की अपेक्षा अधिक समृद्घ है।
अब से लगभग 150 वर्ष पूर्व जब भारत को लोग अंग्रेज जाति का गुलाम समझने की भ्रांति में थे, तब भारतीय भाषा और साहित्य के लिए मैक्समूलर की ऐसी सोच और खोज बहुत ही अर्थपूर्ण थी। जो लोग प्राचीनकाल में विश्व का नेतृत्व करने वालों में यूनान की संस्कृति और वहां की भाषा को प्राथमिकता दे रहे थे-मैक्समूलर की ऐसी धारणा और सिद्घांत के प्रतिपादन से उनकी प्राथमिकता बदल गयी और लोग भारत की ओर देखने लगे। उन्हें लगा कि विश्व संभवत: और संस्कृति का सूर्य तो भारत में जन्मा है। उन्हें मैक्समूलर ने बताया कि दूसरे स्थानों की अपेक्षा भारतवर्ष में हम जिसका पर्यक्षेपण और अध्ययन अधिक कर सकते हैं वह यह है कि धार्मिक विचार और धार्मिक भाषा की उत्पत्ति कैसे होती है उनमें वेग कैसे आता है, विस्तार कैसे होता है, एक मुख से दूसरे मुख तक जाने में उनके रूप कैसे बदल जाते हैं, एक मस्तिष्क से दूसरे में पहुंचने में परिवर्तन कैसे होता है? फिर भी उन सबमें एक समता रहती है जो मूल स्रोत से जहां से उसका उद्गम हुआ किसी न किसी अंश में समान होती है।
मैक्समूलर की मान्यता थी कि संस्कृत के अध्ययन से हमको मानवीय भाषा की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन करने में सफलता मिली है। मैक्समूलर वेदों को भारतीय मान्यता के अनुरूप अपौरूषेय मानता था, इसलिए वेदों की भाषा भी अपौरूषेय ही है। जिससे स्पष्ट है कि संसार को भारत की भाषा-संस्कृत को देवभाषा मानना चाहिए। मैक्समूलर भारत की संस्कृत भाषा के विषय में कहता है कि यह दुर्भाग्य ही था कि संस्कृत की विद्वत्ता के लिए हमारा प्रथम परिचय भारतीय साहित्य के कालिदास और भवभूति के सुंदतापूर्ण वर्णन से ही हुआ और शैव तथा वैष्णवों के द्वंद्व ही हमने देखे। वास्तविक मौलिक और महत्वपूर्ण काल संस्कृत साहित्य का वह है जो बौद्घ धर्म के उदय से पूर्व था, उसका अध्ययन और अधिक गंभीरता से करना आवश्यक है। तब संस्कृत भारत की बोलचाल की भाषा थी। उस समय शिव की उपासना अज्ञात थी। भारत के लोग अपनी भाषा के प्रति कितने गंभीर थे उसका चित्रण करते हुए मैक्समूलर का कहना था कि उस अद्र्घनग्न हिंदू पर विचार कीजिए जो भारतीय गगन के नीचे मुक्ताकाश में पवित्र ऋचाओं का पाठ कर रहा है। कंठस्थ प्रणाली से ये मंत्र गीत तीन या चार हजार वर्षों से उसे मिलते रहे हैं। यदि लेखन कला का आविष्कार ना होता और मुद्रण व्यवस्था ना होती, यदि भारत में इंग्लैंड का राज्य न होता तब भी वह युवक ब्राह्मण, उसी के समान करोड़ों उसके देशवासी इसी प्रकार अपनी ऋचाएं कंठस्थ (अर्थात अपनी देवभाषा की उत्कृष्टता का राग जपते) प्रणाली से करते।




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