अलसस्य कुतो
विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
भावार्थ :
आलसी इन्सान को
विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन
को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?
रूपयौवनसंपन्ना
विशाल कुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
भावार्थ :
रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और
चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो
वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।
विद्याभ्यास
स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
भावार्थ :
विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा
और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।
विद्या ददाति
विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
भावार्थ :
विद्या से विनय
(नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की
प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।
दानानां च
समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले । श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
भावार्थ :
सब दानों में
कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।
क्षणशः कणशश्चैव
विद्यामर्थं च साधयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
भावार्थ :
एक एक क्षण गवाये
बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए ।
क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?
विद्या नाम नरस्य
कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा । सत्कारायतनं
कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम् तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु
॥
भावार्थ :
विद्या अनुपम
कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु
है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार
का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस
लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन ।
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