अद्वैतवेदान्तः दर्शनेषु अन्यतमः।न द्वैतम् अद्वैतम् । ज्ञानस्य चरमस्थितिरेव अद्वैतमित्युच्यते । शङ्कराचार्याणाम् आगमनात् प्रागपि अद्वैतसिद्धान्तः आसीत् । परन्तु
शङ्कराचार्याणाम् आगमनानन्तरं प्रसिद्धिं गतम् एतत् दर्शनम् । आस्य मतस्य प्रवर्तकः शङ्कराचार्यः । अद्वैतदर्शनं शङ्कराचार्यः प्रस्थानत्रयेण श्रुति स्मृति सूत्रैः समर्थितवान् अस्ति। अतः अस्य दर्शनस्य
"शाङ्करदर्शनम्" इत्यपि प्रसिद्धिः अस्ति। अस्मिन् दर्शने जीवब्रह्मणोः
ऐक्यं प्रतिपादयन्ति। प्रपञ्चे जीवभावङ्गतस्य विवेकिनः प्रत्येकपुरुषस्य
धर्मार्थकाममोक्षाख्याः चत्वारः पुरुषार्थाः सन्ति । चतुर्षु एतेषु आद्यास्त्रयः
पाञ्चभौतिकेऽस्मिन् प्रपञ्चे भौतिकस्य जीवस्य कृते इहफलभोगत्वेन विहिताः भवन्ति ।
अन्तिमः मोक्षः परमसुखात्मकः इति कथनात् अयं परमपुरुषार्थः भवति । चतुर्णामेतेषां
चतुर्वर्गत्वेन व्यवहारः। वर्गचतुष्टये आद्यास्त्रयः तत्तत्पुरुषमत्यनुसारम्
उत्पन्नत्वात् एतेषाम् अनित्यत्वम् उच्यते । अन्तिमत्वेन निर्विशेषात्मकं सुखं
प्राप्यते इत्यतः मोक्षःनित्यः इति शास्त्रेषु गीयते। नित्यभूतस्यास्य
मौक्षस्वरूपस्य प्राप्त्यर्थं विभिन्नाः दर्शनकाराः भिन्नभिन्नप्रकारेण स्वमतं
व्याचक्षुः । वेदान्तशास्त्रे केवलमात्मस्वरूपं प्रतिपाद्यते इति हेतोः मुमुक्षुः
वेदान्तशास्त्रपठनश्रवणमननादिषु प्रवृत्तो भवति । तस्मात् एतत् शास्त्रं सर्वेषां
शास्त्राणां शिरोमणिभूतं भवति । अस्मिन्नपि शास्त्रे आत्मनः स्वरूपप्रतिपादनं महता विस्तरेण प्रतिपादितमस्ति । यत्र
समस्तवेदमन्त्राणां लक्ष्यत्वेन अन्तिमं तत्त्वमेकं वर्णितं भवति तत् वेदान्तशास्त्रमित्युच्यते । उपनिषन्मन्त्रसमूहस्यापि वेदान्तः इति संज्ञा,
यतः
समस्तवेदानां परमलक्ष्यात्मकं तत्त्वमुपनिषन्मन्त्रेषु निगदितमस्ति ।
परिदृश्यमानस्य चराचरात्मकस्य सकलप्रपञ्चस्य सृष्टिकर्तृत्वेन मूलकारणं यद् ब्रह्म, तस्य सम्पूर्णं विवेचनात्मकं ज्ञानमुपनिषत्स्वेव लभ्यते,
एवमन्यत्र न
प्राप्यते । अतः वेदानामन्तिमं रहस्यमुपनिषदि कथितत्वात् उपनिषत् वेदान्तत्वेन आद्रियते ।
उक्तं च वेदान्तो नाम उपनिषत्प्रमाणम् इति । परन्तु उपनिषत्सु अत्यन्तरहस्यत्वेन
गूढतमभावाः सन्तीति कृत्वा उपनिषदर्थं सर्वैः ज्ञातुं न शक्यते । सर्वेषां
सम्यगवबोधनाय परमकारुणिकः वेदव्यासः उपनिषत्सारभूतानाम् अर्थान् एकीकृत्य
सूत्ररूपेण प्रणिनाय । यानि इदानीं गीयन्ते ब्रह्मसूत्राणि अथवा वेदान्तसूत्राणि
इति । ब्रह्मसूत्रात्मकः भागः अत्यल्पः, अथापि महत्वपूर्णः इति कृत्वा
एतेषां सूत्राणां व्याख्याने आहत्य एकादशजनाः स्वजन्म समर्पितवन्तः ।
18 पुराणों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय 18 mahapurans all maha purans hindi.shrimad bhagwatall maha purans hindi.shrimad bhagwat.all sanskrit ki jankari , sabhi sanskrit
Wednesday, November 30, 2016
Tuesday, November 22, 2016
Krishna radha
जब रंग-बिरंगी तितलियों से सजे बालकृष्ण पड़े उलझन में....
राम-श्याम (बलराम जी और श्रीकृष्ण) दोनों आकर द्वारके बाहर खड़े ही हुए थे कि एक तितली कहीं से उड़ती आयी और दाऊ की अलकों पर बैठ गयी।
कन्हाई यह कैसे सहन करले कि यह क्षुद्र प्राणी उसके अग्रज के सिर पर ही बैठे; किन्तु तितली को हटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह अलकों से उड़कर कन्हाई के दाहिने हाथ की नन्हीं मध्यमा अँगुली पर ही आ बैठी।
इतनी सुकुमार, इतनी अरुण अँगुली- तितली को बैठने के लिए इससे अधिक मृदुल, सुन्दर सुरभित कुसुम भला कहाँ मिलने वाला है।
अब श्याम उलझन में पड़ गया है, वह अपनी अँगुली पर बैठी छोटी पीली तितली का क्या करे?
बड़े भाई की और हाथ बढ़ाकर दिखलाता है कि दादा इसे भगा दे यहाँ से।
दाऊ का काम- इनका स्वभाव तो श्याम के समीप से प्राणियों को भगाना नहीं है, ये तो अपने छोटे भाई तक प्राणियों को पहुँचाने वाले हैं।
तितली को भगाना तो दूर रहा, अनुज की अँगुली पर बैठा यह नन्हा प्राणी उन्हें बहुत प्रिय लगा है, ये तो ताली बजाकर सिर हिलाकर हँसने लगे हैं।
कन्हाई को अभी अपनी अँगुली और अँगुली पर बैठी तितली की चिन्ता है, वह इसे किसी प्रकार हटाने की धुन में हैं।
दाऊ दादा नहीं हटाता तो भद्र हटा दे, वह (कन्हाई) भद्र के समीप वैसे ही हाथ फैलाये, उस पर तितली लिये जाता है; किन्तु भद्र भी ताली बजाकर प्रसन्न होता है, वह तो नाचने ही लगता है।
ये सब सखा एक से हैं, सब ऐसे ही नाचेंगे।
कन्हाई उलझन में है और कोई उसकी अँगुली पर से तितली को भगाता नहीं।
यह तितली तो अँगुली पर ऐसी जमी बैठी है कि तनिक पंख भी नहीं हिलाती।
वर्षा बीत चुकी है, धुला स्वच्छ गगन, स्वच्छ धरा और शरद के प्रारम्भ में जब सर्वत्र भूमि हरित शृंगार किये है, तृणों में भी नन्हें पुष्प मुस्कराने लगे हैं, तितलियों का तो यह महोत्सव पर्व है।
वे एक पुष्प से उड़ती हैं और दूसरे पुष्प पर जा बैठती हैं।
नीली-पीली-काली-लाल रंग-बिरंगी छोटी-बड़ी तितलियों का समूह उड़ता, नाचता फिर रहा है सब कहीं; किन्तु भाग्यवान है यह तितली, आज सम्भवतः इसके जीवन में महापुण्य का सूर्योदय हुआ है।
सबेरे-सबेरे नन्दद्वार की ओर उड़ती निकली और तभी नन्द-भवन से निकले ढेर-सारे बालक।
अतिशय सुकुमार, परम सुन्दर गोरे-साँवले, कुछ मोटे-कुछ पतले छोटे बालक- ये हँसते, खिल-खिलाते, ऐसे मनोरम पुष्प तितली को भला और कहाँ मिलने थे।
सब अभी कलेऊ करके निकले हैं, डेढ़ से तीन वर्ष की वय के बालक- कुछ दिगम्बर हैं, कुछ की कटि में कछनियाँ हैं रंग-बिरंगी।
सबके नेत्र अज्जन-रञ्जित हैं सबकी अलकें तैल-सिञ्चित हैं।
सबके भाल पर कज्जल-बिन्दु है, सबके चरण, भुजाएँ, कण्ठ, कटि-नूपुर, कंकण, मुक्तामाल, किंकिणी से आभूषित हैं, अभी सबके शरीर स्वच्छ, सुचिक्कन हैं।
इतने खिले सचल पुष्प- तितली उड़ती आयी और दाऊ की अलकों पर बैठ गयी।
श्याम ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया तो वह अलक से उड़कर उसकी अँगुली पर आ बैठी।
अलकों में सुरभि थी तो अँगुली में सुरभि-सुरंग दोनों हैं, वह जमकर बैठ गयी है अँगुली पर।
लेकिन कोई इतने उत्तम सिंहासन पर जमकर बैठे- वहाँ से हटने का नाम ही न ले तो उसके सजातीय जनों को, सहचरों को, सहधर्मियों को ईर्ष्या नहीं होगी?
दूसरी भी तो ढेरों तितलियाँ हैं, वही क्यों इधर उधर भटकती फिरें?
तितलियों का एक समुदाय ही उड़ता आ गया, छोटी-बड़ी, काली-पीली-श्वेत-नीली-लाल अनेक रंगों की तितलियाँ और वे उड़ती आयीं, लगभग एक साथ आयीं और बालकों की अलकों पर, स्कन्धों पर, भुजाओं पर अँगुलियों तक पर बैठ गयीं।
कन्हाई अब चौंका, बालक भी चौंके।
अभी तक श्याम की अँगुली पर ही एक तितली बैठी थी, अब तो उसकी अलकों पर, स्कन्ध पर, भुजाओं पर भी अनेक रंगों की तितलियाँ आ बैठी हैं।
उसके अंगों पर ये बैठी रहतीं तो भी एक बात है; किन्तु ये तो उसके दादा के अंगों पर, नन्हें तोक के अंगों पर, सब सखाओं के अंगों पर आकर बैठ गयी हैं।
श्याम को तो यह नहीं रुचा, किन्तु वह इन सबको यहाँ से कैसे भगावे।
बालक हाथ बढ़ाते हैं अपने या दूसरे के अंग पर से तितलियों को भगाने के लिए तो वे उड़कर इनके ही कर या कन्धे पर बैठ जाती हैं।
इन्हें जैसे तनिक भी भय नहीं है, इनको भय हो या न हो, नन्हें बालक इनसे संकुचित होने लगे हैं।
सबने अपना नाचना-कूदना बन्द कर दिया है और इस नवीन उलझन में पड़ गये हैं।
‘मैया! मैया री!’ कन्हाई ने पुकार की।
अब मैया ही आवे तो इन नन्हें प्राणियों को सबके अंगों परसे हटावे।
‘अरे क्या है?’
एक साथ मैया यशोदा, माँ रोहिणी और प्राय: वे सब गोपियाँ, दासियाँ जो नन्द-भवन में थीं, घबड़ाकर बाहर दौड़ आयीं, उनका नीलमणि ऐसे क्यों पुकारता है?
द्वार पर आकर तो मैया ठगी खड़ी रह गयी।
बालकों के अंगों पर बैठी ये ढेरों तितलियाँ-अद्भुत शोभा है यह, और कन्हाई मैया की ओर दौड़ते-दौड़ते ठिठककर खड़ा हो गया है।
यह अच्छी उलझन है- ये तितलियाँ तो इतनी ढीठ हैं कि उसकी मैया और माँ के सिरों, कन्धों पर भी जा चढ़ी हैं, वहाँ भी जमकर बैठने जा पहुँची हैं,
राम-श्याम (बलराम जी और श्रीकृष्ण) दोनों आकर द्वारके बाहर खड़े ही हुए थे कि एक तितली कहीं से उड़ती आयी और दाऊ की अलकों पर बैठ गयी।
कन्हाई यह कैसे सहन करले कि यह क्षुद्र प्राणी उसके अग्रज के सिर पर ही बैठे; किन्तु तितली को हटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह अलकों से उड़कर कन्हाई के दाहिने हाथ की नन्हीं मध्यमा अँगुली पर ही आ बैठी।
इतनी सुकुमार, इतनी अरुण अँगुली- तितली को बैठने के लिए इससे अधिक मृदुल, सुन्दर सुरभित कुसुम भला कहाँ मिलने वाला है।
अब श्याम उलझन में पड़ गया है, वह अपनी अँगुली पर बैठी छोटी पीली तितली का क्या करे?
बड़े भाई की और हाथ बढ़ाकर दिखलाता है कि दादा इसे भगा दे यहाँ से।
दाऊ का काम- इनका स्वभाव तो श्याम के समीप से प्राणियों को भगाना नहीं है, ये तो अपने छोटे भाई तक प्राणियों को पहुँचाने वाले हैं।
तितली को भगाना तो दूर रहा, अनुज की अँगुली पर बैठा यह नन्हा प्राणी उन्हें बहुत प्रिय लगा है, ये तो ताली बजाकर सिर हिलाकर हँसने लगे हैं।
कन्हाई को अभी अपनी अँगुली और अँगुली पर बैठी तितली की चिन्ता है, वह इसे किसी प्रकार हटाने की धुन में हैं।
दाऊ दादा नहीं हटाता तो भद्र हटा दे, वह (कन्हाई) भद्र के समीप वैसे ही हाथ फैलाये, उस पर तितली लिये जाता है; किन्तु भद्र भी ताली बजाकर प्रसन्न होता है, वह तो नाचने ही लगता है।
ये सब सखा एक से हैं, सब ऐसे ही नाचेंगे।
कन्हाई उलझन में है और कोई उसकी अँगुली पर से तितली को भगाता नहीं।
यह तितली तो अँगुली पर ऐसी जमी बैठी है कि तनिक पंख भी नहीं हिलाती।
वर्षा बीत चुकी है, धुला स्वच्छ गगन, स्वच्छ धरा और शरद के प्रारम्भ में जब सर्वत्र भूमि हरित शृंगार किये है, तृणों में भी नन्हें पुष्प मुस्कराने लगे हैं, तितलियों का तो यह महोत्सव पर्व है।
वे एक पुष्प से उड़ती हैं और दूसरे पुष्प पर जा बैठती हैं।
नीली-पीली-काली-लाल रंग-बिरंगी छोटी-बड़ी तितलियों का समूह उड़ता, नाचता फिर रहा है सब कहीं; किन्तु भाग्यवान है यह तितली, आज सम्भवतः इसके जीवन में महापुण्य का सूर्योदय हुआ है।
सबेरे-सबेरे नन्दद्वार की ओर उड़ती निकली और तभी नन्द-भवन से निकले ढेर-सारे बालक।
अतिशय सुकुमार, परम सुन्दर गोरे-साँवले, कुछ मोटे-कुछ पतले छोटे बालक- ये हँसते, खिल-खिलाते, ऐसे मनोरम पुष्प तितली को भला और कहाँ मिलने थे।
सब अभी कलेऊ करके निकले हैं, डेढ़ से तीन वर्ष की वय के बालक- कुछ दिगम्बर हैं, कुछ की कटि में कछनियाँ हैं रंग-बिरंगी।
सबके नेत्र अज्जन-रञ्जित हैं सबकी अलकें तैल-सिञ्चित हैं।
सबके भाल पर कज्जल-बिन्दु है, सबके चरण, भुजाएँ, कण्ठ, कटि-नूपुर, कंकण, मुक्तामाल, किंकिणी से आभूषित हैं, अभी सबके शरीर स्वच्छ, सुचिक्कन हैं।
इतने खिले सचल पुष्प- तितली उड़ती आयी और दाऊ की अलकों पर बैठ गयी।
श्याम ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया तो वह अलक से उड़कर उसकी अँगुली पर आ बैठी।
अलकों में सुरभि थी तो अँगुली में सुरभि-सुरंग दोनों हैं, वह जमकर बैठ गयी है अँगुली पर।
लेकिन कोई इतने उत्तम सिंहासन पर जमकर बैठे- वहाँ से हटने का नाम ही न ले तो उसके सजातीय जनों को, सहचरों को, सहधर्मियों को ईर्ष्या नहीं होगी?
दूसरी भी तो ढेरों तितलियाँ हैं, वही क्यों इधर उधर भटकती फिरें?
तितलियों का एक समुदाय ही उड़ता आ गया, छोटी-बड़ी, काली-पीली-श्वेत-नीली-लाल अनेक रंगों की तितलियाँ और वे उड़ती आयीं, लगभग एक साथ आयीं और बालकों की अलकों पर, स्कन्धों पर, भुजाओं पर अँगुलियों तक पर बैठ गयीं।
कन्हाई अब चौंका, बालक भी चौंके।
अभी तक श्याम की अँगुली पर ही एक तितली बैठी थी, अब तो उसकी अलकों पर, स्कन्ध पर, भुजाओं पर भी अनेक रंगों की तितलियाँ आ बैठी हैं।
उसके अंगों पर ये बैठी रहतीं तो भी एक बात है; किन्तु ये तो उसके दादा के अंगों पर, नन्हें तोक के अंगों पर, सब सखाओं के अंगों पर आकर बैठ गयी हैं।
श्याम को तो यह नहीं रुचा, किन्तु वह इन सबको यहाँ से कैसे भगावे।
बालक हाथ बढ़ाते हैं अपने या दूसरे के अंग पर से तितलियों को भगाने के लिए तो वे उड़कर इनके ही कर या कन्धे पर बैठ जाती हैं।
इन्हें जैसे तनिक भी भय नहीं है, इनको भय हो या न हो, नन्हें बालक इनसे संकुचित होने लगे हैं।
सबने अपना नाचना-कूदना बन्द कर दिया है और इस नवीन उलझन में पड़ गये हैं।
‘मैया! मैया री!’ कन्हाई ने पुकार की।
अब मैया ही आवे तो इन नन्हें प्राणियों को सबके अंगों परसे हटावे।
‘अरे क्या है?’
एक साथ मैया यशोदा, माँ रोहिणी और प्राय: वे सब गोपियाँ, दासियाँ जो नन्द-भवन में थीं, घबड़ाकर बाहर दौड़ आयीं, उनका नीलमणि ऐसे क्यों पुकारता है?
द्वार पर आकर तो मैया ठगी खड़ी रह गयी।
बालकों के अंगों पर बैठी ये ढेरों तितलियाँ-अद्भुत शोभा है यह, और कन्हाई मैया की ओर दौड़ते-दौड़ते ठिठककर खड़ा हो गया है।
यह अच्छी उलझन है- ये तितलियाँ तो इतनी ढीठ हैं कि उसकी मैया और माँ के सिरों, कन्धों पर भी जा चढ़ी हैं, वहाँ भी जमकर बैठने जा पहुँची हैं,
Friday, November 18, 2016
पुराण का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन
पुराण का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन
नैमिषारण्य
में सूत जी का आगमन, पुराण
का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन
प्रत्येक
कल्प और अनुकल्प में विस्तार विस्तारपूर्वक रचा हुआ यह समस्त मायामय जगत जिनसे
प्रकट होता, जिनमे
स्थित रहता और अंतकाल में जिनके भीतर पुनः लीन हो जाता जो इस दृश्य-प्रपंच से
सर्वथा पृथक है, जिनका
ध्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान
पुरुषोत्तम जगन्नाथ जी को मैं प्रणाम करता हूँ। जो शुद्ध, आकाश के सामान निर्लेप, नित्यानंदमय, सदा प्रसन्न, निर्मल सबके स्वामी, निर्गुण, व्यक्त और अव्यक्त से परे, प्रपंच से रहित, एक मात्र ध्यान में ही अनुभव
करने योग्य तथा व्यापक हैं, समाधिकाल
में विद्वान पुरुष इसी रूप में जिनका ध्यान करते हैं, जो संसार कि उत्पत्ति और विनाश
के एकमात्र कारण है, जरा-अवस्था
जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकती तथा जो मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, उन भगवान श्री हरी की मैं वंदना
करता हूँ।
मुनि
बोले – साधु
शिरोमणे! आप पुराण, तंत्र
, छहों
शास्त्र, इतिहास
तथा देवताओं और दैत्यों के जन्म-कर्म एवं चरित्र – सब जानते हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा मोक्षशास्त्र में
कोई भी ऐसी बात नहीं जो आपको ज्ञात न हो। महामते! आप सर्वज्ञ हैं, अतः हम आपसे कुछ प्रश्नो का
उत्तर सुनना चाहते हैं; बताईये, यह समस्त जगत कैसे उत्पन्न हुआ? भविष्य में इसकी क्या दशा होगी? स्थावर-जङ्गम रूप संसार सृष्टि
से पहले कहाँ लीन था और फिर कहाँ लीन होगा?
लोमहर्षण
जी ने कहा – जो
निर्विकार, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, सदा एक रूप और सर्व विजयी है, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है।
जो ब्रह्मा, विष्णु
और शिवरूप से जगत की उत्पत्ति, पालन
तथा संहार करने वाले हैं, जो
भक्तों को संसार सागर से तारने वाले हैं, उन भगवान् को प्रणाम है। जो एक होकर भी अनेक रूप धारण करते हैं, स्थूल और सूक्षम सब जिनके ही
सवरूप हैं, जो
अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य) रूप तथा मोक्ष के हेतु हैं, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है।
जरा और मृत्यु जिनका स्पर्श जिनका स्पर्श नहीं करती, जो सबके मूल कारण है, उन परमात्मा विष्णु को नमस्कार है। जो इस विश्व के आधार हैं, अत्यंत सूक्षम से भी सूक्षम हैं, सब प्राणियों के भीतर विराजमान
है, क्षर
और अक्षर पुरुष से उत्तम तथा अविनाशी है, उन भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वास्तव में अत्यंत
निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु
अज्ञानवश नाना पदार्थों के रूप में प्रतीत हो रहे हैं, जो विश्व की सृष्टि और पालन में
समर्थ एवं उसका संहार करने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जगत
के अधीश्वर हैं, जिनके
जन्म और विनाश नहीं होते, जो
अव्यय, आदि, अत्यंत सूक्षम तथा विश्वेश्वर
हैं, उन
श्री हरि को तथा ब्रह्मा आदि देवताओं को मैं प्रणाम करता हूँ। तत्पश्चात इतिहास
पुराणों के ज्ञाता, वेद
वेदांगों के पारंगत विद्वान, सम्पूर्ण
शास्त्रों के तत्त्वज्ञ पराशरनंदन भगवान व्यास को, जो मेरे गुरुदेव हैं, प्रणाम करके मैं वेद के तुल्य माननीय पुराण का वर्णन करूँगा।
पूर्वकाल में दक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियों के पूछने पर कमलयोनि भगवान् ब्रह्मा जी ने
जो सुनायी थी, वही
पापनाशिनी कथा मैं इस समय कहूंगा। मेरी वह कथा बहुत ही विचित्र और अनेक अर्थों
वाली होगी। उसमें श्रुतियों के अर्थ का विस्तार होगा। जो इस कथा को सदा अपने हृदय
में धारण करेगा अथवा निरंतर सुनेगा, वह अपनी वंश – परम्परा
को कायम रखते हुए स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होगा।
जो
नित्य, सदसत्स्वरूप
तथा कारणभूत अवयक्त प्रकृति है, उसी
को प्रधान कहते हैं। उसी से पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया है। मुनिवरों! अमित
तेजस्वी ब्रह्मा जी को ही पुरुष समझो। वे समस्त प्राणियों कि सृष्टि करने वाले हैं
तथा भगवान नारायण के आश्रित हैं। प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से अहंकार ततः अहंकार
से सब सूक्षम भूत उत्पन्न हुए। भूतों के जो भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए हैं। यह सनातन सर्ग है।
तदनंतर स्वयंभू भगवान् नारायण से नाना प्रकार कि प्रजा उत्पन्न करने कि इच्छा से
सबसे पहले जल की ही सृष्टि की। जल का दूसरा नाम ‘नार’ है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नर
से हुयी है। वह जल पूर्वकाल में भगवान् का अयन (निवासस्थान) हुआ, इसीलिए वे नारायण कहलाते हैं।
भगवान् ने जो जल में अपनी शक्ति का आधान किया, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ। उसी में स्वयंभू
ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए-ऐसा सुना जाता है। सुवर्ण के सामान कांतिमान भगवान्
ब्रह्मा ने एक वर्ष तक उस अण्ड में निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये। फिर एक
टुकड़े से द्युलोक बनाया और दूसरे से भूलोक। उन दोनों के बीच आकाश रखा। जल के ऊपर
तैरती हुयी पृथ्वी को स्थापित किया। फिर दसों दिशाएं निश्चित कीं। साथ ही काल, मन, वाणी, काम, क्रोध और रति की सृष्टि की। इन
भावों के अनुरूप सृष्टि करने की इच्छा से सात प्रजापतियों को अपने मन से उत्पन्न
किया। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वशिष्ठ। पुराणों में
ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गए हैं।
तत्पश्चात
ब्रह्मा जी ने अपने रोष से रूद्र को प्रकट किया। फिर पूर्वजों के भी पूर्वज
सनत्कुमार जी को उत्पन्न किया। इन्ही सात महर्षियों से प्रजा तथा ग्यारह रुद्रों
का प्रादुर्भाव हुआ। उक्त सात महर्षियों से समस्त प्रजा तथा ग्यारह रुद्रों का
प्रादुर्भाव हुआ। उक्त सात महर्षियों के सात बड़े-बड़े वंश हैं, देवता भी इन्हीं के अंतर्गत हैं।
उक्त सातों वंशों के लोग कर्मनिष्ठ एवं संतानवान हैं। उन वंशों को बड़े-बड़े ऋषियों
से सुशोभित किया है। इसके बाद ब्रह्माजी ने विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित, इंद्रधनुष, पक्षी तथा मेघों कि सृष्टि की।
फिर यज्ञों की सिद्धि के लिए उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद प्रकट किये तदनन्तर साध्य देवताओं की उत्पत्ति
बतायी जाती है। छोटे-छोटे सभी भूत भगवान ब्रह्मा के अंगो से उत्पन्न हुए हैं। इस
प्रकार प्रजा कि सृष्टि करते रहने पर भी जब प्रजा की वृद्धि नहीं हुई, तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग
करके आधे से पुरुष ओर आधे से स्त्री हो गए। पुरुष का नाम मनु हुआ। उन्ही के नाम पर
‘मन्वन्तर’ काल मन गया है। स्त्री आयोनिजा
शतरूपा थी, जो
मनु को पत्नी रूप में प्राप्त हुयी। उसने दस हज़ार वर्षों तक अत्यंत दुष्कर तपस्या
करके परम तेजस्वी पुरुष को पति रूप में प्राप्त किया। वे ही पुरुष स्वायम्भुव मनु
कहे गए हैं (वैराज पुरुष भी उन्हीं का नाम है) उनका ‘मन्वन्तर-काल’ इकहत्तर चतुर्युगी का बताया जाता
है।
शतरूपा
ने वैराज पुरुष के अंश से वीर, प्रियव्रत
और उत्तानपाद नामक पुत्र उत्पन्न किये। वीर से काम्य नामक श्रेष्ठ कन्या उत्त्पन्न
हुयी जो कर्दम प्रजापति की धर्मपत्नी हुयी। काम्या के गर्भ से चार पुत्र हुए – सम्राट, कुक्षी, विराट और प्रभु। प्रजापति अत्रि
ने रजा उत्तानपाद को गोद ले लिया। प्रजापति उत्तानपाद ने अपनी पत्नी सूनृता के
गर्भ से ध्रुव, कीर्तिमान, आयुष्मान तथा वसु – ये चार पुत्र उत्पन्न किये।
ध्रुव से उनकी पत्नी शम्भू ने श्लिष्टि और भव्य – इन दो पुत्रों को जन्म दिया। श्लिष्टि के उसकी पत्नी सुछाया के गर्भ
से रिपु, रिपुञ्जय, वीर, वृकल और वृकतेजा – ये पांच पुत्र उत्पन्न हुए। रिपु
से बृहती ने चक्षुष नाम के तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। चाक्षुष के उनकी पत्नी
पुष्करिणी से, जो
महात्मा प्रजापति वीरण की कन्या थी, चाक्षुष मनु उत्पन्न हुए। चाक्षुष मनु से वैराज प्रजापति की कन्या
नड्वला के गर्भ से दस महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं – कुत्स, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक, कवी, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुद्युम्न तथा अभिमन्यु। पुरु से
अग्नेयी ने अंग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अंगिरा तथा मय – ये छः पुत्र उत्पन्न किये। अंग
से सुनीथा ने वेन नामक एक पुत्र पैदा किया। वेन के अत्याचार से ऋषियों को बड़ा
क्रोध हुआ; अतः
प्रजाजओं की रक्षा के लिए उन्होंने उसके दाहिने हाथ का मंथन किया, उससे महाराज पृथु प्रकट हुए।
उन्हें देखकर मुनियों ने कहा –
‘ये महातेजस्वी नरेश प्रजा को प्रसन्न रखेंगे तथा महान यश के भागी
होंगे। वेनकुमार पृथु धनुष और कवच धारण किये अग्नि के समान तेजस्वी रूप में प्रकट
हुए थे। उन्होंने इस पृथ्वी का पालन किया। राजसूय यज्ञ के लिए अभिषिक्त होने वाले
राजाओं में वे सर्वप्रथम थे। उनसे ही स्तुति-गान में निपुण सूत और मागध प्रकट हुए।
उन्होंने इस पृथ्वी से सब प्रकार के अन्न दुहे थे। प्रजा कि जीविका चले, इसी उद्देश्य से उन्होंने
देवताओं, ऋषियों, पितरों, दानवों, गन्धर्वों तथा अप्सराओं आदि के
साथ पृथ्वी दोहन किया था।
भागवत पुराण में दर्ज़ है गर्भधारण का पूरा विज्ञान, पढ़ें एक आश्चर्यजनक खोज
भागवत पुराण में दर्ज़ है गर्भधारण का पूरा विज्ञान, पढ़ें एक आश्चर्यजनक खोज
गर्भ में शिशु का निर्माण
इंसान के जन्म
की कहानी भी कितनी अद्भुत है। विज्ञान के अनुसार जब स्त्री के अंडाणु का पुरुष के
शुक्राणु के द्वारा निषेचन होता है, तब गर्भ में एक शिशु का निर्माण होता है। धीरे-धीरे उसके शरीर के अंग बनते हैं, बाहरी अंगों के साथ अंदरूनी अंग भी पनपते
हैं। एक लम्बा समय काटकर वह मां के गर्भ से बाहर आता है।
गर्भधारण के पहले दिन से आखिरी दिन तक
साइंस में यह सब
प्रक्रिया बड़े सुचारू रूप से समझाई गई है। स्त्री के गर्भधारण करने के पहले दिन से
लेकर आखिरी दिन तक गर्भ के भीतर होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को विस्तार से समझाया
है विज्ञान ने। वैज्ञानिक भाषा में इस प्रक्रिया को ‘भ्रूणविज्ञान’ कहा जाता है।
भागवत पुराण में भ्रूण विज्ञान
लेकिन आधुनिक
विज्ञान से वर्षों पहले ही भागवत पुराण में भ्रूण विज्ञान का उल्लेख कर दिया गया
था। कपिल मुनि द्वारा एक शिशु के जन्म की कहानी का वर्णन भागवत पुराण में
विस्तारित रूप से किया गया है। कपिल मुनि द्वारा यह तथ्य भागवत पुराण में महाभारत
की घटना के काफी बाद लिखे गए थे।
बच्चे भगवान का तोहफा
लेकिन फिर भी यह
समय आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा भ्रूण विज्ञान की व्याख्या से हज़ारों वर्षों पहले
का था। जब तक आधुनिक विज्ञान द्वारा इस तथ्य को परिभाषित नहीं किया गया था, तब तक पश्चिमी देशों का भी यह मानना था कि
बच्चे भगवान द्वारा इंसान को दिया हुआ एक तोहफा हैं। भगवान की मर्जी से ही इनका
धरती पर आगमन होता है। लेकिन भागवत पुराण में इसके विपरीत तथ्य शामिल हैं।
स्त्री बीज की व्याख्या
भागवत पुराण में
रज एवं रेत का उल्लेख किया गया है। यहां रज से तात्पर्य स्त्री बीज है तथा रेत का
अर्थ है पुरुष का वीर्य। और इन दोनों के मेल को कलाल कहा गया है। कलाल एक ऐसा शब्द
है जो स्त्री बीज के वीर्य से मिलाप के बाद होने वाली सम्पूर्णता को दर्शाता है, जिसके बाद ही संतान के गर्भ में होने का पता
लगता है।
कपिल मुनि की खोज
भागवत पुराण में
दिए गए इस उल्लेख के वर्षों बाद साइंस ने विभिन्न प्रकार के एक्स-रे और स्कैनिंग
तरीके से यह पता लगाया कि किस प्रकार से गर्भ में बच्चे का जन्म होता है। लेकिन
कपिल मुनि द्वारा वर्षों पहले ही यह आविष्कार कर लिया गया था कि 12 घंटों के भीतर मां के गर्भ में कलाल का
निर्माण हो जाता है। भागवत पुराण के इस तथ्य को विज्ञान ने भी सही माना है।
अंडे का आकार
अब यह कलाल अगली
पांच रातों का समय लेता है और फिर एक बुदबुदे में बदलता है। यहां बुदबुदे से
यात्पर्य है एक प्रकार का बुलबुला। इसके बाद 10 दिनों में यह बुदबुदा एक कार्कंधु में बदल जाता है। इसके बाद और अगले 5 दिनों में यानी कि 15 दिनों के बाद यह कार्कंधु एक अंडे का आकार ले
लेता है।
कपिल मुनि का ज्ञान
आश्चर्य की बात
है कि आज साइंस भी ठीक इसी प्रकार से एक के बाद एक किस प्रकार से स्त्री के भ्रूण
में बच्चे का विकास होता है, उसे समझाता है। यह तथ्य हमें बेहद अचंभित करते हैं कि एक ऐसे युग में जब तकनीक
के नाम पर कुछ भी मौजूद नहीं था, तब भी कपिल मुनि ने अपने पराक्रम एवं ज्ञान से इतनी बड़ी जानकारी हासिल की थी।
एक महीने बाद
भागवत पुराण में
दिए गए इस उल्लेख के अनुसार स्त्री के गर्भधारण करने के ठीक एक महीने बाद अथवा 31वें या फिर 32वें दिन गर्भ में पल रहा अंडा एक सिर का आकार ले लेता है। आज के आधुनिक युग
में मशीनों की मदद से बच्चे का यह सिर आसानी से देखा जा सकता है।
दूसरा महीना
आगे भागवत पुराण
का कहना है कि दूसरा महीना पूरा होने पर बच्चे के अन्य शारीरिक अंग बनना शुरू हो
जाते हैं। और तीसरे महीने में तो शरीर पर बाल आने लगते हैं, नाखून निकल आते हैं और धीरे-धीरे हड्डियां
एवं त्वचा अपना आकार लेने लगती हैं।
एक अजब अहसास
महज एक अंडे से
बच्चे के इस आकार को बनता देखना एवं साथ ही स्त्री द्वारा महसूस कर सकना भी एक अजब
ही अहसास है। यह वही स्त्री समझ सकती है जिसने महीनों तक अपने भीतर एक जीवित जान
को रखा हो। इन सभी तथ्यों से अलग एक और तथ्य ऐसा है जिसने साइंस को भी काफी पीछे
छोड़ दिया है।
3 महीने पूर्ण होते ही
भागवत पुराण के
अनुसार महिला के गर्भ के भीतर पल रहे बच्चे का गुप्तांग तीसरे महीने के खत्म होते
ही बन जाता है। वैसे तो यह गुप्तांग 8 हफ्तों के पूरे होने के बाद बनना शुरू हो जाते हैं, लेकिन 3 महीने पूर्ण होते ही इनका आकार अपने पूर्ण चरम पर पहुंच जाता है।
सात धातु का निर्माण
कपिल मुनि ने
इसके बाद चौथे महीने का वर्णन पूर्ण आध्यात्मिक रूप से किया है। उनका कहना है कि
चौथे महीने में गर्भ में पल रहे शिशु के सात धातु अपना रूप ले लेते हैं। यहां सात
धातु से तात्पर्य है रस (शारीरिक कोशिकाएं), रक्त (खून),
स्नायु (मांसपेशियां), मेद (चर्बी), अस्थि (हड्डियां),
मज्ज
(तान्त्रिका कोशिका) तथा शुक्र (प्रजनन ऊतक)।
पांचवें महीने में भूख-प्यास महसूस होना
भागवत पुराण में
गर्भ में पल रहे बच्चे को चौथे के बाद पांचवें महीने में भूख-प्यास महसूस होने
लगती है। इस तथ्य को विज्ञान ने भी सराहा है। विज्ञान भी मानता है कि पांचवें
महीने में जिस भी प्रकार का अन्न, जल,
खाद्य पदार्थ
मां लेती है,
वही बच्चे
द्वारा ग्रहण किया जाता है।
छठा महीना
गर्भवती महिला
के लिए छठा महीना भी बेहद अहम माना जाता है। यह वह महीना है जब भ्रूण अंदर घूमने
लगता है। यह तथ्य भागवत पुराण में मौजूद है, जिसे विज्ञान भी मानता है लेकिन इसके बाद सातवें महीने के तथ्य को विज्ञान आज
तक समझ नहीं पाया है या फिर आज भी वह इस खोज से कोसों दूर है।
सातवें महीने में बच्चे का दिमाग काम करता है
भागवत पुराण के
अनुसार गर्भ धारण के सातवें महीने में जब बच्चे का दिमाग काम करने लग जाता है तो
वह अपने पूर्व जन्म को याद करता है। पूर्व जन्म की कहानियां उसके दिमाग में जगह
बनाने लगती हैं। इसके साथ ही वर्तमान में वह गर्भ के भीतर जो ज़िंदगी जी रहा है, उसकी यादें भी उसके मस्तिष्क में भरने लगती
हैं,
लेकिन साइंस इन
तथ्यों को नहीं मानता।
पूर्व एवं पुनर्जन्म की यादें
साइंस का कहना
है कि सातवें माह में शिशु का दिमाग जरूर काम करने लग जाता है, किन्तु पूर्व एवं पुनर्जन्म से संबंधित बातों
को साइंस खारिज करता है। साइंस का कहना है कि यदि यह यादें दिमाग में भर जाती हैं
तो जन्म होने के बाद शिशु कैसे सब भूल जाता है।
पीड़ा मिलने से भूल जाता है
इसका जवाब भी
भागवत पुराण में दिया गया है। भागवत पुराण के अनुसार जन्म के समय बच्चा तमाम पीड़ा से होकर
गुजरता है। गर्भ से बाहर आते समय सबसे ज्यादा यदि उसके किसी अंग को कष्ट पहुंचता
है तो वह है उसका सिर। उसके सिर को मिलने वाली पीड़ा उसके दिमाग पर गहरा असर करती
है,
जिसकी वजह से वह
कुछ याद नहीं रख पाता है।
आठवां और नौवां महीना
इसके बाद कपिल
मुनि बताते हैं कि आठवें महीने में शिशु अपने सिर और पीठ को मोड़कर मां के गर्भ में
बैठा हुआ होता है। इसके बाद नौवें महीने में वह सांस लेना शुरू कर देता है। बच्चे
को ऑक्सीजन और आहार अपनी माता द्वारा ही प्राप्त होता है और फिर दसवें महीने में
प्रसूति वायु द्वारा शिशु को नीचे की ओर धकेला जाता है। इसके बाद ही मां बच्चे को
जन्म देती है।
शारीरिक क्रोमोसोम
भागवत पुराण में
साइंस की प्रसिद्ध परिभाषा क्रोमोसोम यानी कि गुणसूत्र पर भी विस्तार से व्याख्या
दी गई है। इसका मानना है कि पुरुष के 23 क्रोमोसोम एवं महिला के 23 क्रोमोसोम मिलकर ही एक शिशु का निर्माण करते हैं। यही तथ्य साइंस द्वारा भी
ग्रहण किया गया है। लेकिन एक ऐसा समय भी था जब 23 की बजाय 24
क्रोमोसोम के
उपस्थित होने का दावा किया जाता था।
लेकिन 24वां गुणसूत्र भी है
पौराणिक तथ्यों
के आधार पर भी ऐसी ही एक दुविधा शामिल है। जहां भागवत पुराण 23 गुणसूत्र होने का दावा करता है, वहीं दूसरी ओर महाभारत के अनुसार 24 गुणविधियां हैं जिसमें से आखिरी है ‘प्रकृति’। वर्षों बाद विज्ञान द्वारा भी 23 या 24
गुणसूत्र होने
जैसी अव्यवस्था का सामना किया गया।
दुविधा की बात
जिन वैज्ञानिकों
ने शरीर में 24
क्रोमोसोम होने
का दावा किया उन्हें विज्ञान द्वारा नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया। वर्ष 1962 तक तो स्कूल की किताबों में भी शरीर में 24 क्रोमोसोम होने का वर्णन किया जाता था, लेकिन बाद में कुछ अन्य वैज्ञानिकों के शोध
ने 24
की बजाय 23 क्रोमोसोम होने का दावा किया।
महाभारत युग में भी
जिसके बाद से
इसे अपना भी लिया गया लेकिन इन नए वैज्ञानिकों को किसी भी प्रकार का नोबेल
पुरस्कार नहीं मिला। जिस प्रकार की अव्यवस्था आज के समय में विज्ञान ने देखी है, हो सकता है यही दुविधा उस युग में भी हुई
होगी,
जब महाभारत और
भागवत पुराण के तथ्यों में अंतर पाया गया।
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