देवी भागवत पुराण....
यह पुराण परम
पवित्र वेद की प्रसिद्ध श्रुतियों के अर्थ से अनुमोदित, अखिल शास्त्रों के रहस्यका स्रोत तथा
आगमों में अपना प्रसिद्ध स्थान रखता है। यह सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, वंशानुकीर्ति, मन्वन्तर आदि
पाँचों लक्षणों से पूर्ण हैं। पराम्बा भगवती के पवित्र आख्यानों से युक्त है। इस
पुराण में लगभग १८,००० श्लोक
है।
एक बार
भगवत्-अनुरागी तथा पुण्यात्मा महर्षियों ने श्री वेदव्यास के परम शिष्य सूतजी से
प्रार्थना की-हे ज्ञानसागर ! आपके श्रीमुख
से विष्णु भगवान और शंकर के दैवी चरित्र तथा अद्भुत लीलाएं सुनकर हम बहुत सुखी
हुए। ईश्वर में आस्था बढ़ी और ज्ञान प्राप्त किया। अब कृपा कर मानव जाति को समस्त
सुखों को उपलब्ध कराने वाले, आत्मिक शक्ति
देने वाले तथा भोग और मोक्ष प्रदान कराने वाले पवित्रतम पुराण आख्यान सुनाकर
अनुगृहीत कीजिए। ज्ञानेच्छु और विनम्र महात्माओं की निष्कपट अभिलाषा जानकर महामुनि
सूतजी ने अनुग्रह स्वीकार किया। उन्होंने कहा-जन कल्याण की लालसा से आपने बड़ी
सुंदर इच्छा प्रकट की। मैं आप लोगों को उसे सुनाता हूँ। यह सच है कि श्री मद् देवी
भागवत् पुराण सभी शास्त्रों तथा धार्मिक ग्रंथों में महान है। इसके सामने
बड़े-बड़े तीर्थ और व्रत नगण्य हैं। इस पुराण के सुनने से पाप सूखे वन की भांति
जलकर नष्ट हो जाते हैं, जिससे मनुष्य
को शोक, क्लेश, दु:ख आदि नहीं भोगने पड़ते। जिस प्रकार
सूर्य के प्रकाश के सामने अंधकार छंट जाता है, उसी प्रकार भागवत् पुराण के श्रवण से
मनुष्य के सभी कष्ट, व्याधियां और
संकोच समाप्त हो जाते हैं। महात्माओं ने सूतजी से भागवत् पुराण के संबंध में ये
जिज्ञासाएं रखीं:
श्रीमद्
देवीभागवत पुराण
प्रस्तावना
भारतीय
जीवनधारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनमें पुराण, भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत
महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य भारतीय जीवन और संस्कृति की अक्षुण्ण
निधि है इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती है। भारतीय चिंतन
परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद् युग अर्थात् ज्ञान युग और
पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से
ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।
विकास
की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से
धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य
सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है
कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय मनीषा ने कितना चिंतन और मनन किया है।
पुराण साहित्य को केवल धार्मिक और पुरा कथा कहकर छोड़ देना उस पूरी चिंतनधारा से
अपने को अपरिचित रखना होगा, जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी संस्कृति
और परंपरा को नहीं जान सकते।
परंपरा
का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है क्योंकि परंपरा से अपने को संबद्ध
करना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे
पुराण साहित्य में सृष्टि की उत्पति, विकास,
मानव उत्पति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए गए
हैं कि यदि उनसे चमकदार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान में न रखे जाएं तो अनेक
बातें बहुत कुछ विज्ञानसम्मत भी हो सकती हैं। क्योंकि जहां तक सृष्टि के रहस्य का
प्रश्न है विकासवाद के सिद्धान्त के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी,
वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है। और इसलिए जिन
बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है उसे एकाएक पूरी तरह
से नहीं नकारा जा सकता।
महर्षि
वेदव्यास को 18 पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता
भी वेदव्यास हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ, यह
प्रश्न दूसरा है। यह बात भी अलग है कि सारे पुराण कथोपकथन शैली में विकासशील
रचनाएँ हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया। लेकिन यदि ध्यानपूर्वक
देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं जहां इतिहास,
भूगोल का तर्क उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जितना उसमें व्यक्त
जीवन-मूल्यों का स्वरूप।
यह
बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल के पुराण-साहित्य में की गई,
वे हमारे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं ? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी
तर्क और मूल्यवत्ता की प्रांसगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास
और आत्मालोक जन्म लेता है जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है। हम कितनी भी
भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर लें, अंतत: आस्था की तुलना में
यह उन्नति अधिक देर नहीं ठहरती। इसलिए इन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित
न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इनका महत्त्व है।
जैसा
कि हमने कहा कि पुराण साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की
सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है।
18 पुराणों में अलग-अलग देवी-देवीताओं को केन्द्र
में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की
गाथाएं कही गई हैं। इन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि
का आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं-न-कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा
होनी ही चाहिए। आधुनिक जीवन में भी संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर आने के बाद भी
विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम,
भक्ति, सेवा, सहनशीलता
आदि ऐसे गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के
स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती
है। वह यह है कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का
व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की
कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है। लेकिन उसका मूल उद्देश्य
सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
पुराणों
में कलियुग का जैसा वर्णन मिलता है आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अत: यह तो
निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों को और वृत्तियों के विकास
को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन-पाठन और आधुनिक जीवन की
सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को एक दिशा तो दे सकता है क्योंकि आधुनिक
जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है लेकिन विश्वास का विरोध करना
आत्महत्या के समान है।
प्रत्येक
पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की
विशेषणपरक अभिव्यक्ति बार-बार हुई है। लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक
स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली
हुआ है।
हिन्दी
में अनेक पुराण यथावत् लिखे गए। फिर प्रश्न उठ सकता है कि हमने इस प्रकार पुराणों
का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रारंभ किया ? उत्तर
स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में
अन्य पुराण नहीं पहुंचे होंगे हम उन तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय
साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने
का प्रयास कर सकेंगे।
हमने
मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की हैं और सामान्य व्यक्ति
की समझ में आने वाली सामान्य भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्वदर्शी शब्द हैं
उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को
उसी रूप में हो।
हम
आज जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत से मूल्य
खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत
अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी
परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में
तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपिरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो
कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत
विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता
रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मानव जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर
द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास, मनुष्य की
संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में
रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने
पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं,
लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित
करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमंड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्रकुमार जी के
प्रति हम बहुत आभारी हैं-उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित
कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी।
इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है और यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह
अनिवार्य है।
श्रीमद् देवीभागवत पुराण
एक बार
भगवत्-अनुरागी तथा पुण्यात्मा महर्षियों ने श्री वेदव्यास के परम शिष्य सूतजी से
प्रार्थना की-हे ज्ञानसागर ! आपके श्रीमुख से विष्णु भगवान और शंकर के दैवी चरित्र
तथा अद्भुत लीलाएं सुनकर हम बहुत सुखी हुए। ईश्वर में आस्था बढ़ी और ज्ञान प्राप्त
किया। अब कृपा कर मानव जाति को समस्त सुखों को उपलब्ध कराने वाले, आत्मिक शक्ति देने वाले तथा भोग और मोक्ष प्रदान
कराने वाले पवित्रतम पुराण आख्यान सुनाकर अनुगृहीत कीजिए।
ज्ञानेच्छु
और विनम्र महात्माओं की निष्कपट अभिलाषा जानकर महामुनि सूतजी ने अनुग्रह स्वीकार
किया। उन्होंने कहा-जन कल्याण की लालसा से आपने बड़ी सुंदर इच्छा प्रकट की। मैं आप
लोगों को उसे सुनाता हूँ।
यह सच
है कि श्री मद् देवी भागवत् पुराण सभी शास्त्रों तथा धार्मिक ग्रंथों में महान्
है। इसके सामने बड़े-बड़े तीर्थ और व्रत नगण्य हैं। इस पुराण के सुनने से पाप सूखे
वन की भांति जलकर नष्ट हो जाते हैं, जिससे मनुष्य को शोक, क्लेश, दु:ख
आदि नहीं भोगने पड़ते। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने अंधकार छंट जाता है, उसी प्रकार भागवत् पुराण के श्रवण से मनुष्य के
सभी कष्ट, व्याधियां
और संकोच समाप्त हो जाते हैं।
महात्माओं
ने सूतजी से भागवत् पुराण के संबंध में ये जिज्ञासाएं रखीं:
१. पवित्र
श्रीमद् देवी भागवत् पुराण का आविर्भाव कब हुआ ?
२. इसके
पठन-पाठन का समय क्या है ?
३. इसके
श्रवण-पठन से किन-किन कामनाओं की पूर्ति होती है ?
४. सर्वप्रथम
इसका श्रवण किसने किया ?
५. इसके
पारायण की विधि क्या है ?
पारायण
का उपयुक्त समय
सूतजी बोले-देवी भागवत की कथा-श्रवण से भक्तों और श्रद्धालु
श्रोताओं को ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। मात्र क्षणभरकी कथा-श्रवण से भी
देवी के भक्तों को कभी कष्ट नहीं होता। सभी तीर्थों और व्रतों का फल देवी भागवत के
एक बार के श्रवण मात्र से प्राप्त हो जाता है। सतयुग, त्रेता तथा द्वापर में तो
मनुष्य के लिए अनेक धर्म-कर्म हैं, किंतु कलियुग में तो पुराण
सुनने के अतिरिक्त कोई अन्य धार्मिक आचरण नहीं है। कलियुग के धर्म-कर्महीन तथा
आचारहीन मनुष्यों के कल्याण के लिए ही श्री व्यासजी ने पुराण-अमृत की सृष्टि की
थी। देवी पुराण के श्रवण के लिए यों तो सभी समय फलदायी है, किंतु फिर भी आश्विन, चैत्र, मार्गशीर्ष तथा आषाढ़ मासों एवं
दोनों नवरात्रों में पुराण के श्रवण से विशेष पुण्य होता है। वास्तव में यह पुराण
नवाह्र यज्ञ है, जो सभी
पुण्य कर्मों से सर्वोपरि एवं निश्चित फलदायक है। इस नवाह्न यज्ञ से छली, मूर्ख, अमित्र, वेद-विमुख निंदक, चोर, व्यभिचारी, उठाईगीर, मिथ्याचारी, गो-देवता-ब्राह्मण निंदक तथा
गुरुद्वेषी जैसे भयानक पापी शुद्ध और पापरहित हो जाते हैं। बड़े-बड़े व्रतों, तीर्थ-यात्राओं, बृहद् यज्ञों या तपों से भी वह
पुण्य फल प्राप्त नहीं होता जो श्रीमद् देवी भागवत् पुराण के नवाह्र पारायण से
प्राप्त होता है।
तथा न गंगा न गया न काशी न नैमिषं न मथुरा न पुष्करम्।
पुनाति सद्य: बदरीवनं नो यथा हि देवीमख एष विप्रा:।
गंगा, गया, काशी, नैमिषारण्य, मथुरा, पुष्कर और बदरीवन आदि तीर्थों
की यात्रा से भी वह फल प्राप्त नहीं होता, जो नवाह्र पारायण रूप देवी
भागवत श्रवण यज्ञ से प्राप्त होता है। सूतजी के अनुसार-आश्विन् मास के शुक्ल पक्ष
की अष्टमी को स्वर्ण सिंहासन पर श्रीमद् भागवत की प्रतिष्ठा कराकर ब्राह्मण को
देने वाला देवी के परम पद को प्राप्त कर लेता है। इस पुराण की महिमा इतनी महान है
कि नियमपूर्वक एक-आध श्लोक का पारायण करने वाला भक्त भी मां भगवती की कृपा प्राप्त
कर लेता है।
श्रीमद्
देवीभागवत पुराण का आविर्भाव
महर्षि पराशर और देवी सत्यवती के संयोग से श्रीनारायण के अंशावतार देव
व्यासजी का जन्म हुआ। व्यासजी ने अपने समय और समाज की स्थिति पहचानते हुए वेदों को
चार भागों में विभक्त किया और अपने चार पटु शिष्यों को उनका बोध कराया। इसके
पश्चात् वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित नर-नारियों का मंदबुद्धियों के कल्याण के
लिए अट्ठारह पुराणों की रचना की, ताकि
वे भी धर्म-पालन में समर्थ हो सकें।
सूतजी ने कहा-महात्मन्! गुरुजी के आदेशानुसार सत्रह पुराणों के
प्रसार एवं प्रचार का दायित्व मुझ पर आया, किंतु भोग और
मोक्षदाता भागवत पुराण स्वयं गुरुजी ने जन्मेजय को सुनाया। आप जानते हैं-जन्मेजय
के पिता राजा परीक्षित को तक्षक सर्प ने डस लिया था और राजा ने अपनी हत्या के
कल्याण के लिए श्रीमद् भागवत् पुराण का श्रवण किया था। राजा ने नौ दिन निरंतर
लोकमाता भगवती दुर्गा की पूजा-आराधना की तथा मुनि वेदव्यास के मुख से लोकमाता की
महिमा से पूर्ण भागवत पुराण का श्रवण किया। इसके फलस्वरूप मां ने उन्हें दर्शन
दिए। अपने पूज्य पिता की सद्गति को देखकर जहां राजा जन्मेजय प्रसन्न हुए वहां
उन्होंने श्री वेदव्यास से पुराणों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ,
काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाले श्रीमद् देवीभागवत पुराण को
सुनाने की विनती की।
देवी पुराण की
महिमा
देवी पुराण के पढ़ने
एवं सुनने से भयंकर रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि
भूत-प्रेत बाधा, कष्ट योग और दूसरे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आधिदैहिक कष्टों का निवारण हो जाता है। सूतजी ने इसके लिए एक
कथा का उल्लेख करते हुए कहा-वसुदेव जी द्वारा देवी भागवत पुराण को पारायण का फल ही
था कि प्रसेनजित को ढूंढ़ने गए श्रीकृष्ण संकट से मुक्त होकर सकुशल घर लौट आए थे।
इस पुराण के श्रवण से दरिद्र धनी, रोगी-नीरोगी तथा पुत्रहीन
स्त्री पुत्रवती हो जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चतुर्वर्णों के व्यक्तियों द्वारा समान रूप से पठनीय एवं
श्रवण योग्य यह पुराण आयु, विद्या, बल,
धन, यश तथा प्रतिष्ठा देने वाला अनुपम ग्रंथ
है।
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