पुराण का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन
नैमिषारण्य
में सूत जी का आगमन, पुराण
का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन
प्रत्येक
कल्प और अनुकल्प में विस्तार विस्तारपूर्वक रचा हुआ यह समस्त मायामय जगत जिनसे
प्रकट होता, जिनमे
स्थित रहता और अंतकाल में जिनके भीतर पुनः लीन हो जाता जो इस दृश्य-प्रपंच से
सर्वथा पृथक है, जिनका
ध्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान
पुरुषोत्तम जगन्नाथ जी को मैं प्रणाम करता हूँ। जो शुद्ध, आकाश के सामान निर्लेप, नित्यानंदमय, सदा प्रसन्न, निर्मल सबके स्वामी, निर्गुण, व्यक्त और अव्यक्त से परे, प्रपंच से रहित, एक मात्र ध्यान में ही अनुभव
करने योग्य तथा व्यापक हैं, समाधिकाल
में विद्वान पुरुष इसी रूप में जिनका ध्यान करते हैं, जो संसार कि उत्पत्ति और विनाश
के एकमात्र कारण है, जरा-अवस्था
जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकती तथा जो मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, उन भगवान श्री हरी की मैं वंदना
करता हूँ।
मुनि
बोले – साधु
शिरोमणे! आप पुराण, तंत्र
, छहों
शास्त्र, इतिहास
तथा देवताओं और दैत्यों के जन्म-कर्म एवं चरित्र – सब जानते हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा मोक्षशास्त्र में
कोई भी ऐसी बात नहीं जो आपको ज्ञात न हो। महामते! आप सर्वज्ञ हैं, अतः हम आपसे कुछ प्रश्नो का
उत्तर सुनना चाहते हैं; बताईये, यह समस्त जगत कैसे उत्पन्न हुआ? भविष्य में इसकी क्या दशा होगी? स्थावर-जङ्गम रूप संसार सृष्टि
से पहले कहाँ लीन था और फिर कहाँ लीन होगा?
लोमहर्षण
जी ने कहा – जो
निर्विकार, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, सदा एक रूप और सर्व विजयी है, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है।
जो ब्रह्मा, विष्णु
और शिवरूप से जगत की उत्पत्ति, पालन
तथा संहार करने वाले हैं, जो
भक्तों को संसार सागर से तारने वाले हैं, उन भगवान् को प्रणाम है। जो एक होकर भी अनेक रूप धारण करते हैं, स्थूल और सूक्षम सब जिनके ही
सवरूप हैं, जो
अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य) रूप तथा मोक्ष के हेतु हैं, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है।
जरा और मृत्यु जिनका स्पर्श जिनका स्पर्श नहीं करती, जो सबके मूल कारण है, उन परमात्मा विष्णु को नमस्कार है। जो इस विश्व के आधार हैं, अत्यंत सूक्षम से भी सूक्षम हैं, सब प्राणियों के भीतर विराजमान
है, क्षर
और अक्षर पुरुष से उत्तम तथा अविनाशी है, उन भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वास्तव में अत्यंत
निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु
अज्ञानवश नाना पदार्थों के रूप में प्रतीत हो रहे हैं, जो विश्व की सृष्टि और पालन में
समर्थ एवं उसका संहार करने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जगत
के अधीश्वर हैं, जिनके
जन्म और विनाश नहीं होते, जो
अव्यय, आदि, अत्यंत सूक्षम तथा विश्वेश्वर
हैं, उन
श्री हरि को तथा ब्रह्मा आदि देवताओं को मैं प्रणाम करता हूँ। तत्पश्चात इतिहास
पुराणों के ज्ञाता, वेद
वेदांगों के पारंगत विद्वान, सम्पूर्ण
शास्त्रों के तत्त्वज्ञ पराशरनंदन भगवान व्यास को, जो मेरे गुरुदेव हैं, प्रणाम करके मैं वेद के तुल्य माननीय पुराण का वर्णन करूँगा।
पूर्वकाल में दक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियों के पूछने पर कमलयोनि भगवान् ब्रह्मा जी ने
जो सुनायी थी, वही
पापनाशिनी कथा मैं इस समय कहूंगा। मेरी वह कथा बहुत ही विचित्र और अनेक अर्थों
वाली होगी। उसमें श्रुतियों के अर्थ का विस्तार होगा। जो इस कथा को सदा अपने हृदय
में धारण करेगा अथवा निरंतर सुनेगा, वह अपनी वंश – परम्परा
को कायम रखते हुए स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होगा।
जो
नित्य, सदसत्स्वरूप
तथा कारणभूत अवयक्त प्रकृति है, उसी
को प्रधान कहते हैं। उसी से पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया है। मुनिवरों! अमित
तेजस्वी ब्रह्मा जी को ही पुरुष समझो। वे समस्त प्राणियों कि सृष्टि करने वाले हैं
तथा भगवान नारायण के आश्रित हैं। प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से अहंकार ततः अहंकार
से सब सूक्षम भूत उत्पन्न हुए। भूतों के जो भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए हैं। यह सनातन सर्ग है।
तदनंतर स्वयंभू भगवान् नारायण से नाना प्रकार कि प्रजा उत्पन्न करने कि इच्छा से
सबसे पहले जल की ही सृष्टि की। जल का दूसरा नाम ‘नार’ है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नर
से हुयी है। वह जल पूर्वकाल में भगवान् का अयन (निवासस्थान) हुआ, इसीलिए वे नारायण कहलाते हैं।
भगवान् ने जो जल में अपनी शक्ति का आधान किया, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ। उसी में स्वयंभू
ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए-ऐसा सुना जाता है। सुवर्ण के सामान कांतिमान भगवान्
ब्रह्मा ने एक वर्ष तक उस अण्ड में निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये। फिर एक
टुकड़े से द्युलोक बनाया और दूसरे से भूलोक। उन दोनों के बीच आकाश रखा। जल के ऊपर
तैरती हुयी पृथ्वी को स्थापित किया। फिर दसों दिशाएं निश्चित कीं। साथ ही काल, मन, वाणी, काम, क्रोध और रति की सृष्टि की। इन
भावों के अनुरूप सृष्टि करने की इच्छा से सात प्रजापतियों को अपने मन से उत्पन्न
किया। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वशिष्ठ। पुराणों में
ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गए हैं।
तत्पश्चात
ब्रह्मा जी ने अपने रोष से रूद्र को प्रकट किया। फिर पूर्वजों के भी पूर्वज
सनत्कुमार जी को उत्पन्न किया। इन्ही सात महर्षियों से प्रजा तथा ग्यारह रुद्रों
का प्रादुर्भाव हुआ। उक्त सात महर्षियों से समस्त प्रजा तथा ग्यारह रुद्रों का
प्रादुर्भाव हुआ। उक्त सात महर्षियों के सात बड़े-बड़े वंश हैं, देवता भी इन्हीं के अंतर्गत हैं।
उक्त सातों वंशों के लोग कर्मनिष्ठ एवं संतानवान हैं। उन वंशों को बड़े-बड़े ऋषियों
से सुशोभित किया है। इसके बाद ब्रह्माजी ने विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित, इंद्रधनुष, पक्षी तथा मेघों कि सृष्टि की।
फिर यज्ञों की सिद्धि के लिए उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद प्रकट किये तदनन्तर साध्य देवताओं की उत्पत्ति
बतायी जाती है। छोटे-छोटे सभी भूत भगवान ब्रह्मा के अंगो से उत्पन्न हुए हैं। इस
प्रकार प्रजा कि सृष्टि करते रहने पर भी जब प्रजा की वृद्धि नहीं हुई, तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग
करके आधे से पुरुष ओर आधे से स्त्री हो गए। पुरुष का नाम मनु हुआ। उन्ही के नाम पर
‘मन्वन्तर’ काल मन गया है। स्त्री आयोनिजा
शतरूपा थी, जो
मनु को पत्नी रूप में प्राप्त हुयी। उसने दस हज़ार वर्षों तक अत्यंत दुष्कर तपस्या
करके परम तेजस्वी पुरुष को पति रूप में प्राप्त किया। वे ही पुरुष स्वायम्भुव मनु
कहे गए हैं (वैराज पुरुष भी उन्हीं का नाम है) उनका ‘मन्वन्तर-काल’ इकहत्तर चतुर्युगी का बताया जाता
है।
शतरूपा
ने वैराज पुरुष के अंश से वीर, प्रियव्रत
और उत्तानपाद नामक पुत्र उत्पन्न किये। वीर से काम्य नामक श्रेष्ठ कन्या उत्त्पन्न
हुयी जो कर्दम प्रजापति की धर्मपत्नी हुयी। काम्या के गर्भ से चार पुत्र हुए – सम्राट, कुक्षी, विराट और प्रभु। प्रजापति अत्रि
ने रजा उत्तानपाद को गोद ले लिया। प्रजापति उत्तानपाद ने अपनी पत्नी सूनृता के
गर्भ से ध्रुव, कीर्तिमान, आयुष्मान तथा वसु – ये चार पुत्र उत्पन्न किये।
ध्रुव से उनकी पत्नी शम्भू ने श्लिष्टि और भव्य – इन दो पुत्रों को जन्म दिया। श्लिष्टि के उसकी पत्नी सुछाया के गर्भ
से रिपु, रिपुञ्जय, वीर, वृकल और वृकतेजा – ये पांच पुत्र उत्पन्न हुए। रिपु
से बृहती ने चक्षुष नाम के तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। चाक्षुष के उनकी पत्नी
पुष्करिणी से, जो
महात्मा प्रजापति वीरण की कन्या थी, चाक्षुष मनु उत्पन्न हुए। चाक्षुष मनु से वैराज प्रजापति की कन्या
नड्वला के गर्भ से दस महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं – कुत्स, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक, कवी, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुद्युम्न तथा अभिमन्यु। पुरु से
अग्नेयी ने अंग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अंगिरा तथा मय – ये छः पुत्र उत्पन्न किये। अंग
से सुनीथा ने वेन नामक एक पुत्र पैदा किया। वेन के अत्याचार से ऋषियों को बड़ा
क्रोध हुआ; अतः
प्रजाजओं की रक्षा के लिए उन्होंने उसके दाहिने हाथ का मंथन किया, उससे महाराज पृथु प्रकट हुए।
उन्हें देखकर मुनियों ने कहा –
‘ये महातेजस्वी नरेश प्रजा को प्रसन्न रखेंगे तथा महान यश के भागी
होंगे। वेनकुमार पृथु धनुष और कवच धारण किये अग्नि के समान तेजस्वी रूप में प्रकट
हुए थे। उन्होंने इस पृथ्वी का पालन किया। राजसूय यज्ञ के लिए अभिषिक्त होने वाले
राजाओं में वे सर्वप्रथम थे। उनसे ही स्तुति-गान में निपुण सूत और मागध प्रकट हुए।
उन्होंने इस पृथ्वी से सब प्रकार के अन्न दुहे थे। प्रजा कि जीविका चले, इसी उद्देश्य से उन्होंने
देवताओं, ऋषियों, पितरों, दानवों, गन्धर्वों तथा अप्सराओं आदि के
साथ पृथ्वी दोहन किया था।
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