पाण्डुलिपि हिन्दी का जाना-पहचाना
और और बोली-भाषा में चलने वाला शब्द है। यह एक ऐसा शब्द है जिसकी अर्थवत्ता तो
लगभग कायम रही है लेकिन विकसित होते समाज में लेखन तकनीक में आए बदलावों के चलते
पाण्डुलिपि का शाब्दिक अर्थ मौजूदा दौर में वह नहीं रहा, मगर आशय आज भी कायम है। पाण्डुलेख या पाण्डुलिपि का मूल अर्थ है हाथ से
लिखी गई किसी रचना का शुरुआती प्रारूप।यानी पाण्डुलेख दरअसल हस्तलेख ही है।
हस्तलेख यानी हाथ से लिखा हुआ प्रारूप। अब पाण्डुलिपि का अर्थ प्रेसकॉपी हो गया
है। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि जब विचार-मीमांसा करते थे तो उनके भाष्य को किसी
ज़माने में भूमि को गोबर से पोत कर उस पर खड़िया मिट्टी से लिपिबद्ध किया जाता था।
कालान्तर में यह काम दीवारों पर होने लगा। उसके बाद लकड़ी की पाटियों का चलन हुआ।
मिट्टी से पुते काष्ठ-फलक पर लिखा जाने लगा। उसके बाद ताड़पत्र पर लिखने का चलन
हुआ और तब भी पुस्तकाकार प्रारूप का नाम पाण्डुलिपि रहा और फिर जब काग़ज़ का दौर
आया, तब भी हस्तलिखित मसौदा ही पाण्डुलिपि कहलाता रहा। आज
जबकि कम्प्युटर का युग है और हाथों से लिखना क़रीब क़रीब बन्द हो चुका है, कम्प्युटर के ज़रिए बनाए गए प्रारूप को भी पाण्डुलिपि ही कहते हैं।
पाण्डुलिपि
हिन्दी की तत्सम शब्दावली का हिस्सा है। संस्कृत के पाण्डु और लिपि से मिल कर बना है पाण्डुलिपि। पाण्डु का अर्थ होता है पीला या
सफ़ेद अथवा पीली आभा वाली सफेदी। वैसे पाण्डुलेख या पाण्डुलिपि में किसी सतह को
सफेदी से पोत कर लिखने का भाव है। एक
प्रसिद्ध पौराणिक पात्र और कुल के मुख्य पुरुष का नाम भी पाण्डु था। पाँच पाण्डव
इन्ही पाण्डु की सन्तान थे। वे जन्म से पीले रंग के थे इसलिए उनका नाम पाण्डु
पड़ा। मोनियर विलियम्स पाण्डु की व्युत्पत्ति संस्कृत कीपण्ड धातु से होने की सम्भावना जताते हैं। इससे बने संस्कृत पाण्ड्र का
अर्थ भी श्वेत होता है। इसका मराठी रूप है पांढर् जिसमें सफेद रंग का आशय है।
श्वेतकमल के लिए पुण्ड्र या पुण्डरीक शब्द हैं जिनकी इस शब्दावली से रिश्तेदारी
है। इनके मूल में पण् धातु है। पण् यानी पवित्र कर्म। गौर करें श्वेत वर्ण पवित्रता का पवित्र है।
बेदाग। कलुषहीन। इसीलिए पाण्डु शब्द में सफेदी का भाव प्रमुख है। पाण्डु हल्के
पीले रंग की मिट्टी को भी कहते हैं। पंजाब में लकड़ी की तख्ती पर लिखा जाता है।
इसकी सतह को चिकनी मुल्तानी मिट्टी से पोत कर हमवार बनाया जाता है। मुल्तानी
मिट्टी का रंग हल्का पीला होता है। रामरज भी इसी को कहते है। पीला रंग मांगलिक
होता है। शादी ब्याह में पीले चावल दिए जाते हैं। गन्ध-चन्दन का रंग पीला होता है।
पुरातात्विक उत्खनन में जहाँ कहीं मटमैले या धूसर रंगों के बर्तनों की अधिकता रही
उसे पाण्डु भाण्ड सभ्यता नाम भी दिया गया।
पाण्डुलिपि
शब्द बहुत प्राचीन नहीं है जबकि पुराने युग में इसके लिए पाण्डुलेख शब्द का प्रयोग होता था। वैसे भी किसी हस्तलिखि दस्तावेज या
प्रारूप को पाण्डुलिपि कहना सही नहीं है। पाण्डुलेख ही सही शब्द है। पाण्डुलिपि
शब्द से ऐसा आभास होता है मानो किसी लिपि का नाम पाण्डु है। लिपि शब्द का प्रचलित
अर्थ वही है जो अंग्रेजी में स्क्रिप्ट का है यानी अक्षर, लेख, वर्णमाला, उत्कीर्णन,
चित्रण आदि। प्राचीन काल में ज़मीन और दीवारों पर कुछ न कुछ
चित्र उकेर कर ही मनुष्य ने अपने मनोभावों के दस्तावेजीकरण का काम शुरू किया था।
इसके बाद ही भाषा के सन्दर्भ में चिह्नों पर मनुष्य का ध्यान गया। उसके द्वारा
व्यक्त विविध चित्र-संकेत ही प्रारम्भिक भाषाओं के लिपि-चिह्न बने। लिपि बना है
संस्कृत की लिप्धातु से जिसमें लेपना, पोतना, चुपड़ना, प्रज्वलित करना या आच्छादन करना जैसे
भाव हैं। गौरतलब है कि वैदिक सभ्यता में हवन यज्ञादि से पूर्व भूमिपूजन के लिए
ज़मीन को लीपा जाता था। उस पर
माँगलिक चिह्न बनाए जाते थे। हिन्दी में लीपना, लेपन,
आलेपन जैसी क्रियाएँ इससे ही बनी हैं। लिप् से ही बना है लिप्त
शब्द जिसका अर्थ है किसी गीले पदार्थ से सना हुआ, लिपा हुआ,
पुता हुआ। लिप्त का परवर्ती
विकास किसी के असर में होना, लीन रहना, प्रभाव में होना जैसे आशयों से प्रकट होता है। कुछ और शब्द भी इसी कड़ी
में हैं जैसे संलिप्त यानी संलग्न रहना और निर्लिप्त यानी अलग रहना,
उदासीन रहना, जुड़ाव न होना।
गौरतलब
है कि प्रारम्भिक लेखन कलम या लेखनी से नहीं, बल्कि लेखनी जैसी शलाका या नुकीले पत्थर से
आलेपित सतह को गोदने या
उत्कीर्ण
करने से होता था। बाद में लिपि-चिह्न स्थिर होने के बाद जब ताड़ पत्र या कपड़े पर
लिखने का चलन हुआ तब असल में लिपि को व्यावहारिक अर्थ मिला। सो पाण्डुलिपि शब्द में लिपि से तात्पर्य संकेताक्षर, चिह्न या वर्णमाला से ही है। किसी सतह को पीला या सफ़ेद पोत कर उस पर
किसी भी रंग के लेखन को पाण्डुलिपि कहा गया। लेख में भी
उत्कीर्णन का भाव है। यह बना है लिख् धातु से जिसमें लकीर खींचना, रेखा बनाना, घसीटना और छीलना, खुरचना जैसे भाव हैं। लिख का प्राचीन रूप था रिष् या ऋष्। देवनागरी का ऋ अक्षर दरअसल संस्कृत भाषा का एक मूल शब्द भी है जिसका
अर्थ है जाना, पाना। इसमें खरोचने, लकीर खींचने, चोट पहुंचाने जैसे अर्थ भी हैं।
ऋ की महिमा से कई इंडो यूरोपीय भाषाओं जैसे हिन्दी, उर्दू,
फारसी अंग्रेजी, जर्मन वगैरह में
दर्जनों ऐसे शब्दों का निर्माण हुआ। हिन्दी का रीति या रीत शब्द इससे ही निकला
है। ऋ का प्रतिरूप नजर आता
है अंग्रेजी के राइट ( सही-उचित) और जर्मन राख्त (राईट)में। लकीर और रेखा का अर्थ एक ही है। इन
दोनों का मूल भी एक है। लिख् और रिष्धातुओं से इनका विकास हुआ है। अंग्रेजी का राइट शब्द भी इसी कड़ी में
है। इनसे बने लेख, लेखनी, लेखक,
लीक, लकीर, रेखा
जैसे शब्द तो हिन्दी में खूब प्रचलित हैं।
पाण्डुलिपि
के लिए पहले हस्तलेख या हस्तलिपि शब्द भी प्रचलित था। हस्तलेख मे हाथ से की गई
चित्रकारी, लेखन से आशय है। बाद में इसका आशय दस्तावेज,
परिपत्र या प्रारूप हो गया। बाद में इसे पाण्डुलिपि के अर्थ में
लिया जाने लगा। चव्यापक अर्थो में पाण्डुलिपिया पाण्डुलेख में आलेख, प्रारूप, मुख्य प्रारूप, किसी कृति का प्रकाशन पूर्व का रूप जैसे आशय प्रकट होते हैं। मगर अब
इसका प्रयोग पुस्तक प्रकाशन के सन्दर्भ में प्रेस कॉपी से ही है जिसे अंग्रेजी में
मेन्युस्क्रिप्ट कहते हैं। यह बना है लैटिन के सामासिक पद मेन्युस्किप्टस manu scriptus से।
इसका पहला पद बना है प्राचीन भारोपीय धातु मेन से जिसका अर्थ है हाथ, हाथ में हाथ देना आदि। अंग्रेजी का मेन्युअल शब्द इससे ही बना है
जिसमें हस्तचालित, हस्तनिर्मित होने का भाव है। इसका एक
अर्थ हस्तलिखित प्रारूप भी है। स्क्रिप्टस लैटिन के स्क्रिप्टम
से बना है जिसमें किताब, नियमावली, लकीर, चिह्न जैसे भाव है। जिसके मूल में
प्रोटो इंडो-यूरोपीय धातु स्कर है। प्राचीन भारोपीय धातु ker का ओल्ड जर्मनिक में
रूप हुआ sker जिसका मतलब होता है
काटना, बाँटना, विभाजन करना।
संस्कृत में इसका रूप है कृ। कर्तन यानी काटना जैसा शब्द इससे ही बना है। कर्तनी
यानी जिससे काटा जाए। कतरना, कतरनी यानी कैंची जैसे देशज
शब्द इसके ही रूप हैं। अंग्रेजी के शेयर share यानी अंश, टुकड़ा, हिस्सा।
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