Saturday, April 29, 2023

list of at least 18 Sanskrit universities in India

list of at least 18 Sanskrit universities in India (3 central, 1 deemed and 14 state universities) which are only focused on Sanskrit revival and Sanskrit studies along with related disciplines like Ayurveda.

Year Est. Name, place District State Type

1791[1]

Sampurnanand Sanskrit Vishwavidyalaya

(former Government Sanskrit College) Varanasi

Uttar Pradesh

University

1821 Poona Sanskrit College

(Deccan College) Pune

Maharashtra

Deemed University

1824 The Sanskrit College and University

Kolkata

West Bengal

University

1961 Kameshwar Singh Darbhanga Sanskrit University

Darbhanga

Bihar

University

1962 National Sanskrit University

Tirupati

Andhra Pradesh

Central University

1962 Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University

New Delhi

Delhi

Central University

1970 Central Sanskrit University

New Delhi

Delhi

Central University

1981 Shri Jagannath Sanskrit University

Puri

Odisha

University

1993 Sree Sankaracharya University of Sanskrit, Kalady

Ernakulam

Kerala

University

1997 Kavikulaguru Kalidas Sanskrit University, Ramtek

Nagpur

Maharashtra

University

2001 Jagadguru Ramanandacharya Rajasthan Sanskrit University

Jaipur

Rajasthan

University

2005 Uttarakhand Sanskrit University

Haridwar

Uttarakhand

University

2005 Shree Somnath Sanskrit University, Veraval

Somnath

Gujarat

University

2006 Sri Venkateswara Vedic University, Tirumala

Tirupati

Andhra Pradesh

University

2008 Maharshi Panini Sanskrit Evam Vedic Vishwavidyalaya

Ujjain

Madhya Pradesh

University

2011 Karnataka Samskrit University

Bengaluru

Karnataka

University

2011[2][3]

Kumar Bhaskar Varma Sanskrit and Ancient Studies University

Nalbari

Assam

University

2018 Maharishi Balmiki Sanskrit University[citation needed]

Kaithal

Haryana

University


Thursday, April 27, 2023

।। प्रातः स्मरण मंत्र- प्रतिदिन पढने वाले श्लोक ।।D

 

    ।। प्रातः स्मरण मंत्र- प्रतिदिन पढने वाले श्लोक ।।

 

                 प्रात: हाथ(कर)- दर्शनम्

          कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।

          करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

अर्थ- हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती तथा मूल में गोविन्द (परमात्मा ) का वास होता है। प्रातः काल में हाथों का दर्शन करें ।

 

                            पृथ्वी क्षमा प्रार्थना

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

 

 

अर्थ- समुद्ररूपी वस्त्रोवाली, जिसने पर्वतों को धारण किया हुआ है और विष्णु भगवान की पत्नी हे पृथ्वी देवी ! तुम्हे नमस्कार करता हूँ ! तुम्हे मेरे पैरों का स्पर्श होता है इसलिए क्षमायाचना करता हूँ।

 

      त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

 

अर्थ- है ब्रह्मा, विष्णु, शिव (त्रिपुरासुर का अंत करने वाला, श्री शिव), सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु सभी देवता मेरे दिन को मंगलमय करें।

 

                               स्नान मन्त्र

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।

नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

 

अर्थ- हे गंगा, यमुना,गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी नदियों ! (मेरे स्नानकरने के) इस जल में (आप सभी) पधारिये ।

 

                           सूर्यनमस्कार

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च

आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।

दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्

सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

 

ॐ मित्राय नम:

ॐ रवये नम:

ॐ सूर्याय नम:

ॐ भानवे नम:

ॐ खगाय नम:

ॐ पूष्णे नम:

ॐ हिरण्यगर्भाय नम:

ॐ मरीचये नम:

ॐ आदित्याय नम:

ॐ सवित्रे नम:

ॐ अर्काय नम:

ॐ भास्कराय नम:

ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

 

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।

दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

 

                          

 

 

  दीप दर्शन

शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदः।

शत्रु-बुद्धि-विनाशाय दीपज्योतिर्नमोस्तुते ॥

अर्थ- शुभ एवं कल्याणकारी, स्वास्थ्य एवं धनसंपदा प्रदान करनेवाली तथा शत्रुबुद्धि का नाश करनेवाली, हे दीपज्योति, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं ।

 

दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ।

दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ॥

अर्थ- दीप का प्रकाश परब्रह्म स्वरूप है । दीप की ज्योति जगत् का दुख दूर करनेवाला परमेश्वर है । दीप मेरे पाप दूर करे । हे दीपज्योति, आपको नमस्कार करता हूं ।

 

                           गणपति ध्यान

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय।

लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥

नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय।

गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

 

            सरस्वतीवंदना

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।

या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।

सा माम पातु सरस्वती भगवती

निःशेषजाड्याऽपहा॥

 

शिवस्तुति

कर्पूर गौरम करुणावतारं,

संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।

सदा वसंतं हृदयार विन्दे,

भवं भवानी सहितं नमामि॥

देवी ध्यान

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

 

अर्थ- हे नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगल मयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करने वाली, शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।

 

श्रीराम वंदना

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।

कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

 

विष्णुस्तुति

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

 

                           श्रीकृष्णस्तुति

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।

नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥

सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।

गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

                   

एक श्लोकी रामायण

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।

वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।

पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

 

                              हनुमान वंदना

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌।

दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌।

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

 

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

 

                              स्वस्तिवाचन

 

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः

स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

 

                                   शांतिपाठ

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,

पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,

सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

 

॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

 

 

संस्कृतम्

संस्कृतम् जगतः एकतमा अतिप्राचीना समृद्धा शास्त्रीया च भाषा वर्तते। संस्कृतं भारतस्य जगत: वा भाषास्वेकतमा‌ प्राचीनतमा। भारती, सुरभारती, अमरभारती, अमरवाणी, सुरवाणी, गीर्वाणवाणी, गीर्वाणी, देववाणी, देवभाषा, संस्कृतावाक्, दैवीवाक्, इत्यादिभिः नामभिः एतद्भाषा प्रसिद्धा। इयं भाषा न केवलं भारतस्‍य अपि तु विश्वस्य प्राचीनतमा भाषा इति मन्यते। इयं भाषा तावती समृद्धा अस्ति यत् प्राय: सर्वासु भारतीयभाषासु न्‍यूनाधिकरूपेण अस्‍या: शब्‍दा: प्रयुज्‍यन्‍ते. अत: भाषाविदां मतेन इयं सर्वासां भाषाणां जननी मन्‍यते। पुरा संस्कृतं लोकभाषा आसीत्‌। जना: संस्कृतेन वदन्ति स्म॥

Saturday, April 22, 2023

महाभारत के रोचक तथ्य | पौराणिक, ऐतिहासिक ग्रंथ हैं।

 महाभारत के रोचक तथ्य | पौराणिक, ऐतिहासिक ग्रंथ हैं।

Facts About Mahabharata in Hindi


महाभारत महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखा गया था जिसे पांचवें वेद ग्रंथ के रूप में जाना जाता है और यह हिंदू संस्कृति की एक मूल्यवान संपत्ति है। इस महाकाव्य से भगवद् गीता भी निकली जिसमें कुल एक लाख श्लोक हैं और इसलिए इसे शतसहस्त्री संहिता के नाम से जाना जाता है। 

वेदव्यास नाम नहीं अपितु वेदों का ज्ञान रखने वालों को दिया गया पद है। कृष्णद्वीपायन के पूर्व 27 वेदव्यास हुए। और कृष्णद्वीपायन 28 वें वेदव्यास थे , जिन्हें यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उनकी त्वचा का रंग भगवान कृष्ण की तरह गेहुँआ था और उनका जन्म एक द्वीप पर हुआ था।

कहा जाता है कि महाभारत में 18 संख्या बहुत महत्वपूर्ण है।महाभारत की पुस्तक में 18 अध्याय हैं। गीता में भी 18 अध्याय हैं। कृष्ण जी ने अर्जुन को 18 दिन तक ज्ञान दिया था।

महाभारत में 18 अक्षौहिणी सेना थी, जिसमे से 11 अक्षौहिणी सेना कौरवों के पास और 7 अक्षौहिणी से पांडवो के पास थी। एक अक्षौहिणी सेना में लगभग 21870 रथ, 21870 हाथी, 65610 घुड़सवारी और 109350 पैदल सैनिक होते थे।

यह युद्ध भी 18 दिन तक चला था और युद्ध में 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। महाभारत में 18 संख्या या तो कोई संयोग है या फिर इसमें कोई रहस्य छिपा है।

अजीब लेकिन सच है कि 10 अन्य गीताएं हैं जो व्याध गीता, अष्टावक्र गीता, पराशर गीता आदि हैं। हालांकि श्री भगवद् गीता शुद्ध और पूर्ण गीता है जिसमें भगवान कृष्ण द्वारा जानकारी दी गई है।

वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने पहली बार महाभारत को राजा जनमेजय के घर पढ़ा जो अभिमन्यु के पोते और परीक्षित के पुत्र थे। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उनके द्वारा कई सर्पयज्ञ किए गए थे।

भविष्य की भविष्यवाणी करने के लिए, ज्योतिषी नक्षत्रों पर निर्भर करते हैं क्योंकि महाभारत काल के दौरान सूर्य के कोई संकेत नहीं थे। नक्षत्र के प्रथम स्थान में रोहिणी थी अश्विनी नहीं।

कहते हैं कि भीष्म पितामह प्रतिदिन 10 हजार पांडव सैनिकों का वध कर देते थे। 

भविष्य की भविष्यवाणी करने के लिए, ज्योतिषी नक्षत्रों पर निर्भर करते हैं क्योंकि महाभारत काल के दौरान सूर्य के कोई संकेत नहीं थे। नक्षत्र के प्रथम स्थान में रोहिणी थी अश्विनी नहीं।

क्या आप जानते हैं कि महाभारत की लड़ाई में विदेशी भी शामिल थे – असली लड़ाई सिर्फ पांडवों और कौरवों की नहीं थी, रोम, यूनान की सेनाएं भी इसका हिस्सा थीं।

यह भी माना जाता है कि अभिमन्यु की मृत्यु का कारण एक चक्रव्यूह के सात महारथी थे

कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र में इतना खून बहा था कि वहां की मिट्टी का रंग आज भी लाल है। 

युद्ध के अंत के बाद कहते हैं कि युधिष्ठिर की आज्ञा से कुरुक्षेत्र की भूमि को जला दिया गया था ताकि किसी भी योद्धा का शव न बचे।

प्रतिदिन लाखों लोगों के लिए युद्ध भूमि के पास ही लगे एक शिविर में भोजन बनता था। युद्ध की शुरुआत के पूर्व के दिन लगभग 45 लाख से अधिक लोगों का भोजन बना

कहते हैं कि महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने के प्रथम दिन श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच खड़े होकर अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था तब तक के लिए उन्होंने समय को रोक दिया था और सभी सैनिक स्तंभ जैसे हो गए थे।

गीता ज्ञान को अर्जुन के अलावा हस्तिनापुर में बैठे संजय ने और अर्जुन के रथ पर विराज मान हनुमानजी ने सुना था परंतु यह भी कहा जाता है कि वहां के आकाश में उड़ रहे पक्षियों में से कुछ पक्षियों ने भी यह ज्ञान सुना था।

दुर्वासा मुनि के श्राप के प्रभाव से वपु ने गरुड़वंशीय कंधर नामक पक्षी की पत्नी मदनिका के गर्भ से केक पक्षिणी के रूप में जन्म लिया। उसका नाम तार्क्षी था। बाद में उसका विवाह मंदपाल के पुत्र द्रोण से विवाह किया गया। 16 वर्ष की आयु में उसने गर्भ धारण किया। इसी अवस्था में उसके मन में महाभारत का युद्ध देखने की इच्छा जाग्रत हुई। वह आकाश में उड़ रही थी उसी समय अर्जुन ने अपनी किसी शत्रु के ऊपर बाण का संधान किया था। दुर्भाग्यवश यह बाण तार्क्षी के पंखों को छेदता हुआ निकल गया और वह अपने गर्भस्त्र अंडों को गिराकर स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त होकर पुन: अपने अप्सरा स्वरूप में आकर देवलोक चली गई। लेकिन उसके अंडे गर्भ-विच्छेद के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े। संयोगवश उसी समय युद्ध लड़ रहे भगदत्त के सुप्रवीक नामक गजराज का विशालकाय गलघंट भी बाण लगने से टूटकर गिरा और उसने अंडों को आच्छादित (ढंक लिया) कर दिया। कुछ समय बाद उन अंडों से बच्चे निकले। तभी उस समय मार्ग से विचरण करते हुए मुनि शमीक आ निकले। मुनि उन पक्षी शावकों पर अनुकंपा करके अपने आश्रम में ले जाकर पालने लगे। 

महाभारत युद्ध के दौरान द्रौपदी युद्ध शिविर में ही रहती थी। एक बार कुंती और गांधारी भी वहां पर आई थी।

महाभारत के अंतिम दिन के बाद जब दुर्योधन का वध किया जा रहा था तो बलरामजी ने आकर दुर्योधन का पक्ष लिया था और तब फिर भीम और दुर्योधन में गदा युद्ध हुआ और अंत में भीम ने दुर्योधन के वध कर दिया था। 

विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है।

महाभारत ग्रंथ की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। लेकिन इसका लेखन भगवान श्रीगणेश ने किया था।

महाभारत प्रचारक वैशम्पायन,सूत,जैमिनि,पैल द्वारा किया गया था।

महाभारत के श्लोकों की संख्या 1,00,000 है।

महाभारत का मूलतत्त्व और आधार कौरवों औ र पाण्डवों के मध्य का आपसी संघर्ष था।

महाभारत में मुख्य पात्र श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीष्म, कर्ण, भीम, दुर्योधन आदि है।

महाभारत ग्रंथ का वाचन सबसे पहले महर्षि वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने राजा जनमेजय की सभा में किया था। राजा जनमेजय अभिमन्यु के पौत्र तथा परीक्षित के पुत्र थे। इन्होंने ने ही अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया था।

भीष्म पितामह के पिता का नाम शांतनु था, उनके पिता का पहला विवाह गंगा से हुआ था।

वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था।

प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।

ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं।

महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया।

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे 4000 – 3500 वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो.एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है। क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य 7500 वर्ष पुरामहाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है: “नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥” परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ “नारायणं नमस्कृत्य” से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं।

महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे।

ने शहर भी मिल चुके हैं।गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में नहीं रुकेंगे। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते।

महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है: “जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा”

महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। 100 कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अन्तत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ।

महाभारत में विदुर यमराज के अवतार थे। ये धर्म शास्त्र और अर्थशास्त्र के महान ज्ञाता थे। ऋषि मंदव्य के श्राप की वजह से उन्हें मनुष्य योनी में जन्म लेना पड़ा था।

दुर्योधन ने भगवद् गीता सुनने से यह कह कर मना कर दिया था कि वह सही और गलत के बारे में जानता है। उसने यह भी कहा कि कुछ शक्तियां हैं। जो उसे सही मार्ग चुनने नहीं दे रहीं। अगर उसने कृष्ण की बातें सुनी होतीं, तो युद्ध टाला जा सकता था।

आश्चर्य की बात है, द्रौपदी देवी दुर्गा की अवतार थी। एक बार देर रात भीम ने द्रौपदी को मां दुर्गा के रूप में देखा, वह भीम से खाली कटोरे में भीम का खून मांग रही थी, मृत्यु से डरा हुआ, उसने यह पूरी कहानी अपनी मां– कुंती को सुनाई। फिर उन्होंने द्रौपदी को भीम को कभी दुख न पहुंचाने के लिए कहा। नश्वर होने के नाते, द्रौपदी को वचन देना पड़ा और ऐसा करते समय वह अपने होंठ काट लेती है। कुंती अपने कपड़े के किनारे से उनके होठों पर लगे हुए खून को साफ करती है और वचन देती है कि भीम उसके लिए कटोरा भरेगा।कौरवों के इलावा धृतराष्ट्र का युयुत्सु नाम का एक और पुत्र था। गांधारी के गर्भवती के समय वह धृतराष्ट्र की सेवा करने से असमर्थ थी, इसीलिए उन दिनों वैश्य नाम की दासी धृतराष्ट्र की सेवा करती थी। युयुत्सु, वैश्य और धृतराष्ट्र का पुत्र था। युयुस्तु बहुत यशस्वी और विचारशील था।

कहा जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा आज भी ज़िंदा है।अश्वत् थामा ने महाभारत के युद्ध में एक ब्रह्मास्त्र छोड़ा था, जिससे लाखों लोग मारे गए थे। यह सब देखकर कृष्ण जी क्रोधित हो गए और उन्होंने अश्वत्थामा को श्राप दे दिया कि वह इन सब मृतिक लोगों का पाप ढोता हुआ तीन हजार वर्ष तक निर्जन स्थानों पर भटकता रहेगा। कहा जाता है कि अश्वत् थामा इस श्राप के बाद रेगिस्तानी इलाके में चला गया था।

सहदेव अपने पिता का दिमाग खाकर बुद्धिमान और ज्ञानी बन गया था, वह भविष्य को देख सकता था। इसीलिए युद्ध शुरू होने से पहले दुर्योधन सहदेव के पास गया और उसे युद्ध शुरू करने का सही मुहूर्त पूछा। दुर्योधन उनका सबसे बड़ा शत्रु है, सहदेव को ये बात पता होते हुए भी उसने दुर्योधन को युद्ध शुरू करने का सही समय बताया था।

कुंती की बाल्यावस्था में उसने ऋषि दुर्वासा की सेवा की थी। ऋषि दुर्वासा ने सेवा से खुश होकर उसे एक मंत्र दिया था, इस मंत्र का प्रयोग कर कुंती किसी भी देवता का आह्वान कर उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थी। विवाह के बाद कुंती ने मंत्र की शक्ति देखने के लिए सूर्यदेव का आह्वान किया, जिससे कर्ण का जन्म हुआ था।

वैश्यमपायन, वेदव्यास के शिष्य, ने राजा जन्मेजय के दरबार में पहली बार महाभारत शांतनु का दूसरा विवाह निषाद की पुत्री सत्यवती से हुआ और उससे उनके दो बच्चे– चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। एक युद्ध में चित्रांगद की मृत्यु हो गई और विचित्रवीर्य राजा बने जिसने काशी की राजकुमारी अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया।

क्या आप जानते हैं कि भगवान कृष्ण ने कौरवों की बजाए पांडवों का साथ क्यों दिया। वास्तव में, अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही कृष्ण के पास उनकी मदद मांगने के लिए गए थे। वे उनके कक्ष में पहुंचे। दुर्योधन उनके कक्ष में पहले पहुंचा था और वह कृष्ण के सिरहाने जाकर बैठ गया था। अर्जुन, कृष्ण के पैरों के पास गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। जब कृष्ण की नींद खुली तो उन्होंने अर्जुन को पहले देखा, मुस्कुराए और कहा कि वह उसका साथ देंगे।

महाभारत में, कौरवों की रक्षा जयद्रथ कर रहा था। पांडवों को चक्रव्यूह में प्रवेश करने से रोकने के लिए वह अपने वरदान का प्रयोग कर रहा था। जयद्रथ को भगवान शिव से वरदान प्राप्त था कि वह अर्जुन को छोड़कर बाकी पांडवों को युद्ध में एक दिन के लिए रोक सकता था। अर्जुन को भगवान कृष्ण का संरक्षण प्राप्त था। इसलिए वह इस वरदान से बाहर रहा। लेकिन जब अर्जुन के पुत्र की चक्रव्यूह में हत्या हुई तब बाद में अर्जुन ने जयद्रथ को अपने बाण से मार डाला।

ऋषि किंदम की श्राप की वजह से पांडु ने साम्राज्य छोड़ दिया था और संन्यासी बन गए थे। कुंती और मादरी भी उनके साथ वन में रहने लगीं। यहां दुर्वासा के मंत्र से धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायुदेव से भीम, इंद्र से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र मादरी को बताया और सहदेव का जन्म हुआ।

का पाठ किया था। जन्मेजय अभिमन्यु के पौत्र और परीक्षित के पुत्र थे। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने कई सर्पयज्ञ (सापों की आहुति) किए थे।शांतनु का दूसरा विवाह निषाद की पुत्री सत्यवती से हुआ और उससे उनके दो बच्चे– चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। एक युद्ध में चित्रांगद की मृत्यु हो गई और विचित्रवीर्य राजा बने जिसने काशी की राजकुमारी अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया।

क्या आप जानते हैं कि भगवान कृष्ण ने कौरवों की बजाए पांडवों का साथ क्यों दिया। वास्तव में, अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही कृष्ण के पास उनकी मदद मांगने के लिए गए थे। वे उनके कक्ष में पहुंचे। दुर्योधन उनके कक्ष में पहले पहुंचा था और वह कृष्ण के सिरहाने जाकर बैठ गया था। अर्जुन, कृष्ण के पैरों के पास गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। जब कृष्ण की नींद खुली तो उन्होंने अर्जुन को पहले देखा, मुस्कुराए और कहा कि वह उसका साथ देंगे।

महाभारत में, कौरवों की रक्षा जयद्रथ कर रहा था। पांडवों को चक्रव्यूह में प्रवेश करने से रोकने के लिए वह अपने वरदान का प्रयोग कर रहा था। जयद्रथ को भगवान शिव से वरदान प्राप्त था कि वह अर्जुन को छोड़कर बाकी पांडवों को युद्ध में एक दिन के लिए रोक सकता था। अर्जुन को भगवान कृष्ण का संरक्षण प्राप्त था। इसलिए वह इस वरदान से बाहर रहा। लेकिन जब अर्जुन के पुत्र की चक्रव्यूह में हत्या हुई तब बाद में अर्जुन ने जयद्रथ को अपने बाण से मार डाला।

ऋषि किंदम की श्राप की वजह से पांडु ने साम्राज्य छोड़ दिया था और संन्यासी बन गए थे। कुंती और मादरी भी उनके साथ वन में रहने लगीं। यहां दुर्वासा के मंत्र से धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायुदेव से भीम, इंद्र से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र मादरी को बताया और सहदेव का जन्म हुआ।

आज़ हम आपको उस महान भारतीय धरोहर के बारे में जानकारी देंगे। वो है भारत का काव्य ग्रंथ “महाभारत”। महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। इसे भारत भी कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं।

विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग 1,10,000 श्लोक है। तो चलिए इस विषय के बारे में कुछ ओर ख़ास तथ्य आपको बताते है।

महाभारत ग्रंथ की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। लेकिन इसका लेखन भगवान श्रीगणेश ने किया था।

महाभारत प्रचारक वैशम्पायन,सूत,जैमिनि,पैल द्वारा किया गया था।

महाभारत का मूलतत्त्व और आधार कौरवों औ र पाण्डवों के मध्य का आपसी संघर्ष था।

महाभारत में मुख्य पात्र श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीष्म, कर्ण, भीम, दुर्योधन आदि है।

महाभारत ग्रंथ का वाचन सबसे पहले महर्षि वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने राजा जनमेजय की सभा में किया था। राजा जनमेजय अभिमन्यु के पौत्र तथा परीक्षित के पुत्र थे। इन्होंने ने ही अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया था।

भीष्म पितामह के पिता का नाम शांतनु था, उनके पिता का पहला विवाह गंगा से हुआ था।

वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था।

प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।

ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं।

महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया।

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे 4000 – 3500 वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो.एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है। क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य 7500 वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।

महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है: “नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥” परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ “नारायणं नमस्कृत्य” से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं।

महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे।

गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में नहीं रुकेंगे। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते।

महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है: “जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा”

महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। 100 कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अन्तत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ।

महाभारत में विदुर यमराज के अवतार थे। ये धर्म शास्त्र और अर्थशास्त्र के महान ज्ञाता थे। ऋषि मंदव्य के श्राप की वजह से उन्हें मनुष्य योनी में जन्म लेना पड़ा था।

दुर्योधन ने भगवद् गीता सुनने से यह कह कर मना कर दिया था कि वह सही और गलत के बारे में जानता है। उसने यह भी कहा कि कुछ शक्तियां हैं। जो उसे सही मार्ग चुनने नहीं दे रहीं। अगर उसने कृष्ण की बातें सुनी होतीं, तो युद्ध टाला जा सकता था।

आश्चर्य की बात है, द्रौपदी देवी दुर्गा की अवतार थी। एक बार देर रात भीम ने द्रौपदी को मां दुर्गा के रूप में देखा, वह भीम से खाली कटोरे में भीम का खून मांग रही थी, मृत्यु से डरा हुआ, उसने यह पूरी कहानी अपनी मां– कुंती को सुनाई। फिर उन्होंने द्रौपदी को भीम को कभी दुख न पहुंचाने के लिए कहा। नश्वर होने के नाते, द्रौपदी को वचन देना पड़ा और ऐसा करते समय वह अपने होंठ काट लेती है। कुंती अपने कपड़े के किनारे से उनके होठों पर लगे हुए खून को साफ करती है और वचन देती है कि भीम उसके लिए कटोरा भरेगा।

कौरवों के इलावा धृतराष्ट्र का युयुत्सु नाम का एक और पुत्र था। गांधारी के गर्भवती के समय वह धृतराष्ट्र की सेवा करने से असमर्थ थी, इसीलिए उन दिनों वैश्य नाम की दासी धृतराष्ट्र की सेवा करती थी। युयुत्सु, वैश्य और धृतराष्ट्र का पुत्र था। युयुस्तु बहुत यशस्वी और विचारशील था।

कहा जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा आज भी ज़िंदा है।अश्वत् थामा ने महाभारत के युद्ध में एक ब्रह्मास्त्र छोड़ा था, जिससे लाखों लोग मारे गए थे। यह सब देखकर कृष्ण जी क्रोधित हो गए और उन्होंने अश्वत्थामा को श्राप दे दिया कि वह इन सब मृतिक लोगों का पाप ढोता हुआ तीन हजार वर्ष तक निर्जन स्थानों पर भटकता रहेगा। कहा जाता है कि अश्वत् थामा इस श्राप के बाद रेगिस्तानी इलाके में चला गया था।

धर्म ग्रंथों के अनुसार 33 मुख्य भगवान हैं और उनमें से एक हैं अष्ट वसु जिनका जन्म शांतनु और गंगा के पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी आठवीं संतान भीष्म थी।

जब पांडव वारणावत नगर में रह रहे थे, एक दिन वहां कुंती ने ब्राह्मण भोज करवाया। सब लोगों के भोजन कर के चले जाने के बाद वहां एक भील स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ भोजन करने आई और उस रात वह अपने पुत्रों के साथ वहीं सो गई। उसी रात भीम ने महल में आग लगा दी और सभी पांडव कुंती सहित गुप्त रास्ते से बाहर निकल गए। सुबह जब लोगों ने भील स्त्री और उसके पांच पुत्रों के शव देखे तो उन्हें लगा कि कुंती और पांचों पांडव जल कर मर गए हैं।

सहदेव अपने पिता का दिमाग खाकर बुद्धिमान और ज्ञानी बन गया था, वह भविष्य को देख सकता था। इसीलिए युद्ध शुरू होने से पहले दुर्योधन सहदेव के पास गया और उसे युद्ध शुरू करने का सही मुहूर्त पूछा। दुर्योधन उनका सबसे बड़ा शत्रु है, सहदेव को ये बात पता होते हुए भी उसने दुर्योधन को युद्ध शुरू करने का सही समय बताया था।

कुंती की बाल्यावस्था में उसने ऋषि दुर्वासा की सेवा की थी। ऋषि दुर्वासा ने सेवा से खुश होकर उसे एक मंत्र दिया था, इस मंत्र का प्रयोग कर कुंती किसी भी देवता का आह्वान कर उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थी। विवाह के बाद कुंती ने मंत्र की शक्ति देखने के लिए सूर्यदेव का आह्वान किया, जिससे कर्ण का जन्म हुआ था।

वैश्यमपायन, वेदव्यास के शिष्य, ने राजा जन्मेजय के दरबार में पहली बार महाभारत का पाठ किया था। जन्मेजय अभिमन्यु के पौत्र और परीक्षित के पुत्र थे। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने कई सर्पयज्ञ (सापों की आहुति) किए थे।

मरने से पहले पांडवों के पिता पांडु ने अपने पुत्रों से कहा कि वे उसका दिमाग खा जाएं, क्योंकि इससे वह बुद्धिमान होंगे और ज्ञान भी हासिल होगा। लेकिन उनमें से सिर्फ सहदेव ने ही अपने पिता के दिमाग को खाया। जब सहदेव ने पहली बार दिमाग खाया, उसे दुनिया में बीत चुकी चीज़ों के बारे में जाना। दूसरी बार जो वर्तमान में हो रहा है, उसके बारे में जानकारी मिली। तीसरी बार भविष्य में क्या होने वाला है, इसके बारे में उसने जानकारी हासिल की।

शांतनु का दूसरा विवाह निषाद की पुत्री सत्यवती से हुआ और उससे उनके दो बच्चे– चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। एक युद्ध में चित्रांगद की मृत्यु हो गई और विचित्रवीर्य राजा बने जिसने काशी की राजकुमारी अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया।

क्या आप जानते हैं कि भगवान कृष्ण ने कौरवों की बजाए पांडवों का साथ क्यों दिया। वास्तव में, अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही कृष्ण के पास उनकी मदद मांगने के लिए गए थे। वे उनके कक्ष में पहुंचे। दुर्योधन उनके कक्ष में पहले पहुंचा था और वह कृष्ण के सिरहाने जाकर बैठ गया था। अर्जुन, कृष्ण के पैरों के पास गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। जब कृष्ण की नींद खुली तो उन्होंने अर्जुन को पहले देखा, मुस्कुराए और कहा कि वह उसका साथ देंगे।

महाभारत में, कौरवों की रक्षा जयद्रथ कर रहा था। पांडवों को चक्रव्यूह में प्रवेश करने से रोकने के लिए वह अपने वरदान का प्रयोग कर रहा था। जयद्रथ को भगवान शिव से वरदान प्राप्त था कि वह अर्जुन को छोड़कर बाकी पांडवों को युद्ध में एक दिन के लिए रोक सकता था। अर्जुन को भगवान कृष्ण का संरक्षण प्राप्त था। इसलिए वह इस वरदान से बाहर रहा। लेकिन जब अर्जुन के पुत्र की चक्रव्यूह में हत्या हुई तब बाद में अर्जुन ने जयद्रथ को अपने बाण से मार डाला।

ऋषि किंदम की श्राप की वजह से पांडु ने साम्राज्य छोड़ दिया था और संन्यासी बन गए थे। कुंती और मादरी भी उनके साथ वन में रहने लगीं। यहां दुर्वासा के मंत्र से धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायुदेव से भीम, इंद्र से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र मादरी को बताया और सहदेव का जन्म हुआ।

हम सभी जानते हैं कि महाभारत में, दुर्योधन ने चौसर का खेल जीता और युधिष्ठिर से द्रौपदी को दुर्योधन की बाईं जंघा पर बैठने को कहने के लिए कहा। इसी वजह से वह खलनायक के रूप में जाना गया। लेकिन उस समय, पत्नी को पुरुष के बाईं जंघा या बाईं तरफ और पुत्रियों को दाईं जंघा या दाईं तरफ रखा जाता था।

आमतौर पर लोग छह–पक्षीय पासे के बारे में जानते हैं। अजीब बात यह है कि जिस पासे से शकुनी ने पांडवों को चौसर के खेल में हराया था, उसके चार ही पक्ष थे और वे पासे किस चीज से बने थे, इसके बारे में किसी को पता नहीं था।

कहा जाता है कि महाभारत धर्म के बारे में शिक्षा देता है और कई लोग इसे सत्य और झूठ से जोड़ कर भी देखते हैं लेकिन महाभारत में कहीं भी, किसी भी उदाहरण में, सत्य या झूठ को परिभाषित नहीं किया गया है। महाभारत का प्रत्येक कार्य उसके पात्रों की वर्तमान स्थिति पर निर्भर करता है।

भविष्यवाणी करने के लिए ज्योतिषि नक्षत्रों पर निर्भर रहते थे क्योंकि महाभारत युग में कोई राशि चिह्न नहीं था। नक्षत्रों में रोहिणी पहले स्थान पर था न कि अश्विनी।

कर्ण और दुर्योधन की बहुत गहरी दोस्ती थी। एक बार कर्ण और दुर्योधन की पत्नी भानुमति शतरंज खेल रहे थे। भानुमति ने दुर्योधन को आते देख कर खड़े होने की कोशिश की। कर्ण को पता नहीं था कि दुर्योधन आ रहा है। जब भानुमति खड़े होने की कोशिश कर रही थी, तब कर्ण ने उसकी मदद करने के लिए उसे पकड़ना चाहा।

लेकिन कर्ण के हाथ में भानुमति की मोतियों की माला आ गई और माला टूट कर बिखर गई। तब तक दुर्योधन भी वहां आ चूका था। वह दोनों दुर्योधन को देख डर गए कि दुर्योधन को कहीं कुछ गलत शक ना हो जाए। लेकिन दुर्योधन को कर्ण पर बहुत विश्वास था और उसने बस इतना ही कहा कि मोतियों को उठा लो।

वेदव्यास नाम नहीं है बल्कि एक पद है जिसे वेदों की जानकारी रखने वाले व्यक्तियों को दिया जाता है। कृष्णद्विपायन से पहले 27 वेदव्यास थे और कृष्णद्विपायन 28वें वेदव्यास हुए , भगवान कृष्ण के रंग जैसे श्याम वर्ण और द्वीप पर जन्म लेने की वजह से उन्हें यह नाम दिया गया था।

अजीब, लेकिन सच है कि व्याघ गीता, अष्टावक्र गीता, पराशर गीता आदि जैसी 10 अन्य गीताएं भी हैं। हालांकि श्री भगवद् गीता, भगवान कृष्ण द्वारा दी गई जानकारी वाली शुद्ध और पूर्ण गीता है।

क्या आप जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में विदेशी भी शामिल थे। वास्तविक युद्ध सिर्फ पांडवों और कौरवों के बीच नहीं था बल्कि रोम और यमन की सेना भी इसका हिस्सा थी ।

अभिमन्यु की मौत के लिए चक्रव्यूह की रचना करने वाले सात महारथियों को उसकी मौत का कारण माना जाता है लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। अभिमन्यु ने दुर्योधन के पुत्र की हत्या की थी, जो सात महारथियों में से एक था। इसी बात से नाराज हो कर दुशासन ने अभिमन्यु का वध कर दिया था।

क्या आप जानते हैं कि इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी ने अर्जुन को श्राप दिया था, क्योकि वह उर्वशी को ‘मां’ कहकर बुला रहा था जिसपर उर्वशी को गुस्सा आया और उसे श्राप दिया कि वह एक हिजड़ा बन जाएगा। इस पर भगवान इंद्र ने अर्जुन से कहा कि यह श्राप एक वर्ष के अज्ञातवास के दौरान तुम्हारे लिए वरदान बन जाएगा और उस अवधि के समाप्त होने पर वह फिर से अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लेगा। वन में 12 वर्ष बिताने के बाद पांडवों ने 13वां वर्ष राजा विराट के दरबार में निर्वासन में बिताया। अर्जुन ने अपने श्राप का प्रयोग किया और ब्रिहन्नला नाम के हिजड़े के रुप में वहां रहा।

महाभारत के युद्ध में भगवान कृष्ण ने हथियार न उठाने के अपने वचन को तोड़ा था। लेकिन जब उन्होंने देखा की अर्जुन, भीष्म की शक्तियों का सामना करने में समर्थ नहीं है, वह असहाय हो गया है, तब उन्होंने तत्काल रथ की लगाम छोड़ दी और युद्ध भूमि में कूद पड़े। उन्होंने रथ के पहियों में से एक को निकाल लिया और भीष्म की हत्या करने के लिए उनकी तरफ फेंका। अर्जुन ने कृष्ण को रोकने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहा।


इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...