Thursday, February 1, 2024

सनातन धर्म में आचरण के नियम

 

सनातन धर्म में आचरण के नियम

 

सनातन धर्म में आचरण के नियम जिनका प्रतिदिन जीवन में पालन करना चाहिए। इसमें यम और नियम हैं। यह सनातन धर्म का अनुशासन है। इसका पालन करने वाला जीवन में हमेशा सुखी और शक्तिशाली बना रहता है।

       यम-

1.अहिंसा- किसी भी जीवित प्राणी को मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। जैसे हम स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें दूसरों को भी प्रेम और आदर देना चाहिए।

लाभ- किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से सकारात्मक का भाव हमारे अन्दर बनता है, यदि प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंसा का भाव सबके प्रति रखेंगे तो सबका कल्याण होगा।

2.सत्य- मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ रहना,हमेशा सत्य का पालन करना।

लाभ- सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा बनी रहती है। सत्य बोलने से व्यक्ति का आत्म विश्वास बढ़ता है। और वो किसी भी प्रकार की समस्या में नहीं उलझता हैं ।

 

3.अस्तेय- चोरी नहीं करना। किसी भी विचार और वस्तु की चोरी नहीं करना ही अस्तेय है। किसी के समान या वस्तु की चोरी किसी भी किमत पर नहीं करनी चाहिए  । गलत तरीकों से स्वयं का लाभ न करें।

लाभ- आप और आपका स्वभाव सिर्फ आपका है। व्यक्ति जितना परिश्रमी बनेगा उतना ही उसका व्यक्तित्व अच्छा और शुद्ध बनेगा।

4.ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य के दो अर्थ है- ईश्वर का ध्यान और यौन ऊर्जा का संरक्षण। ब्रह्मचर्य में रहकर व्यक्ति को विवाह से पहले अपनी पूरी शक्ति अध्ययन एवं प्रशिक्षण में लगाना चाहिए।  ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है- जैसे अभद्र वार्ता एवं मजाक, अश्लील चित्र एवं चलचित्र के देखने पर प्रतिबंध। स्त्री और पुरुष को आपस में बातचीत करते समय मर्यादित ढंग से रहना चाहिए। इसी से ब्रह्मचर्य बना रहता है।

लाभ- यौन शक्ति ही शरीर की उर्जा होती है। इस शक्ति का जितना संचय (संरक्षण) होता है व्यक्ति उतना शारीरिक ,मानसिक और अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली और ऊर्जावान हो जाता है। 

5.क्षमा- हम दूसरों के प्रति धैर्य एवं करुणा रखे एवं उन्हें समझने की कोशिश करें। सबके प्रति सहनशील रहें, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परिस्‍थिति के समस्या के कारण व्यवहार करता है।

लाभ- परिवार, समाज में आपका सम्मान बढ़ेगा। लोगों को आप समझने का समय देंगे तो लोग भी आपको समझने लगेंगे।

 

6.धृति - स्थिरता, चरित्र की दृढ़ता एवं ताकत। जीवन में जो भी क्षेत्र हम चुनते हैं, उसमें उन्नति एवं विकास के लिए यह जरूरी है कि निरंतर कोशिश करते रहें एवं स्थिर रहें। जीवन में लक्ष्य होना जरूरी है तभी स्थिरता आती है। जिसके पास लक्ष्य नहीं वो व्यक्ति जीवन समाप्त कर देता है।

लाभ- चरित्र की दृढ़ता से शरीर और मन में स्थि‍रता आती है। कोई भी दृढ़ व्यक्ति लक्ष्य को भेदने में सक्षम रहता है। इस स्थिरता से जीवन के सभी संकटों से मुक्त हुआ जा सकता हैं.   

7.दया- इसे करुणा भी कहते है। जो लोग यह कहते हैं कि दया ही दुख का कारण है वे दया के अर्थ और महत्व को नहीं समझते। जीवन में आध्यात्मिक विकास के लिए ये अति आवश्यक गुण है। 

लाभ- जिस व्यक्ति में सभी प्राणियों के प्रति दया भाव है वह स्वयं के प्रति भी दया से भरा हुआ है। इसी गुण से भगवान प्रसन्न होते हैं।  

8.आर्जव- सरलता - दूसरों को  धोखा (छलना) नहीं देना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदार बनके रहना चाहिए।

लाभ- छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है।

9.मिताहार- भोजन का संयम अर्थात सही रूप से लेना ही मिताहार है। हम जीने के लिए खाएं न कि खाने के लिए जिएं। सभी तरह का व्यसन त्यागकर एक स्वच्छ भोजन का चयन कर उचित समय पर खाना खाएं। स्वस्थ रहकर लंबी उम्र पाना चाहते हैं तो मिताहार को अपनाएं।

लाभ- अच्छा आहार हमारे शरीर को स्वस्थ बनाकर ऊर्जा और स्फूति प्रदान करता है। अन्न ही अमृत है।

10.शौच- आंतरिक एवं बाहरी पवित्रता और स्वच्छता। हम अपने शरीर एवं उसके वातावरण को पूर्ण रूप से स्वच्छ रखें।

लाभ- वातावरण, शरीर और मन की स्वच्छता एवं व्यवस्था का हमारे अंतर्मन पर सात्विक प्रभाव पड़ता है। इससे स्वच्छता सकारात्मक और दिव्यता आती है। 

 

नियम

1.ह्री- पश्चात्ताप, अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप होना जरूरी है। यदि आप में पश्चाताप की भावना नहीं है तो आप अपनी बुराइयों को बढ़ा रहे हैं। विनम्र रहना एवं अपने द्वारा की गई गलती और भूल अव्यवहार के प्रति पश्चाताप करना जरूरी है,

लाभ- पश्चाताप हमें अवसाद और तनाव से बचाता है तथा हमें फिर से सही बल प्रदान करता है। जिसका नुकसान किया है उसके सामने और मंदिर, माता-पिता या स्वयं के समक्ष खड़े होकर भूल को स्वीकारने से मन और शरीर हल्का हो जाता है।

 

2.संतोष- संतोष रखना और कृतज्ञता से जीवन जीना ही संतोष है। जो आपके पास है उसका सदुपयोग और जो अपके पास नहीं है, उसका शोक नहीं करना ही संतोष है। अर्थात जो है उसी से संतुष्ट और सुखी रहकर उसका आनंद लेना।

लाभ- यदि आप दूसरों के पास जो है उसे देखर और उसके पाने की लालसा में रहेंगे तो सदा दुखी ही रहेगें बल्कि होना यह चाहिए कि हमारे पास जो है उसके होने का आनंद कैसे मनाएं या उसका सदुपयोग कैसे करें।

4.दान- आपके पास जो भी है वह ईश्वर की देन है। यदि आप यह समझते हैं कि यह तो मेरे प्रयासों से हुआ है तो आप में घमंड का संचार होगा। ईश्वर की देन और परिश्रम के फल के हिस्से को व्यर्थ न जाने दें। इसे आप मंदिर, धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं में दान कर सकते हैं

लाभ- दान किसे करें और दान का महत्व क्या है यह जरूर जानें। दान पुण्य करने से मन में संतोष, सुख और संतुलन का संचार होता है।

4.आस्तिकता- वेदों में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। माता-पिता, गुरु और ईश्वर में निष्ठा एवं विश्वास रखना भी आस्तिकता है।

लाभ- आस्तिकता से मन और मस्तिष्क में जहां समारात्मकता बढ़ती हैं वहीं हमारी हर तरह की मांग की पूर्ति भी होती है। अस्तित्व या ईश्वर से जो भी मांगा जाता है वह तुरंत ही मिलता है।

5.ईश्वर प्रार्थना- बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन सनातन धर्म में ईश्वर या देवी-देवता के लिए संध्यावंदन करने का निर्देश है। संध्यावंदन में प्रार्थना, स्तुति या ध्यान किया जाता है।

लाभ- आंख बंद कर ईश्वर या देवी देवता का ध्यान करने से व्यक्ति उस शक्ति से जुड़ जाता है।

6.सिद्धांत श्रवण- निरंतर वेद, उपनिषद या गीता का श्रवण करना। वेद का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा समारात्मक बनाने के लिए साधु-संतों एवं ज्ञानीजनों की संगत में वेदों का अध्ययन एक शक्तिशाली माध्यम है।

 

लाभ- जिस तरह शरीर के लिए पौ‍ष्टिक आहार की जरूरत होती है उसी तरह दिमाग के लिए समारात्मक बात, किताब और दृष्य की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक वातावरण से हमें यह सब प्राप्त होता है। 

7.मति- हमारे धर्मग्रंथ और धर्म गुरुओं द्वारा सिखाई गई नित्य साधना का पालन करना। एक प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन से पुरुषार्थ करके अपनी इच्छा शक्ति एवं बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना।

लाभ- संसार में रहें या संन्यास में निरंतर अच्छी बातों का अनुसरण करना जरूरी है

8.व्रत- अतिभोजन, मांस एवं नशीली पदार्थों का सेवन नहीं करना, अवैध यौन संबंध, जुए आदि से बचकर रहना। इसका गंभीरता से पालन करना चाहिए अन्यथा एक दिन सारी आध्यात्मिक या सांसारिक कमाई समाप्त हो जाएगी । 

लाभ- व्रत से नैतिक बल मिलता है तो आत्मविश्वास तथा दृढ़ता बढ़ती है। जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए व्रतवान बनना जरूरी है। व्रत से शरीर स्वस्थ रहता है, मन और बुद्धि भी शक्तिशाली बने रहते हैं।

9.जप- जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इसको दूर किया जा सकता है। इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। अर्थात प्रार्थना करना या ध्यान करना भी जप है।

लाभ- मंत्र ही निरंतर जपने से हजारों विचार धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं। जप से मन  शुद्ध हो जाता है। 

10.तप- कष्टों को सहना तप है। सही कार्यों को करते हुए जो समस्या आये उसको सह कर आगे बढ़ते रहना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है।

लाभ- जीवन में कैसी भी परिस्थिति आपके सामने हो, तब आप संतुलन नहीं खोते, तप  से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्रा‍प्त किया जा सकता हैं।

 

जो व्यक्ति यम और नियम का पालन करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। इसलिए सभी को इनका पालन करना चाहिए ।

कृष्ण यजुर्वेद

 

कृष्ण यजुर्वेद

कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपनिषदों में है। इस उपनिषद के रचयिता कठ नाम के तपस्वी आचार्य थे। वे मुनि वैशम्पायन के शिष्य तथा यजुर्वेद की कठशाखा के प्रवृर्त्तक थे। इसमें दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। भर्तु प्रपंच ने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी भाष्य रचना की थी।

प्रथम अध्याय

इस अध्याय में नचिकेत अपने पिता द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर यम के यहाँ पहुंचता है और यम की अनुपस्थिति में तीन दिन तक भूखा-प्यास यम के द्वार पर बैठा रहता है। तीन दिन बाद जब यम लौटकर आते हैं, तब उनकी पत्नी उन्हें ब्राह्मण बालक अतिथि के विषय में बताती है। यमराज बालक के पास पहुंचकर अपनी अनुपस्थिति के लिए नचिकेता से क्षमा मांगते हैं और उसे इसके लिए तीन वरदान देने की बात कहते हैं। वे उसे उचित सम्मान देकर व भोजन आदि कराके भी सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। तदुपरान्त नचिकेता द्वारा वरदान मांगने पर 'अध्यात्म' के विषय में उसकी जिज्ञासा शान्त करते हैं।
प्रथम वल्ली
कथा इस प्रकार है कि किसी समय वाजश्रवा ऋषि के पुत्र वाजश्रवस उद्दालक मुनि ने विश्वजित यज्ञ करके अपना सम्पूर्ण धन और गौएं दान कर दीं। जिस समय ऋत्विजों द्वारा दक्षिणा में प्राप्त वे गौएं ले जाई जा रही थीं, तब उन्हें देखकर वाजश्रवस उद्दालक मुनि का पुत्र नचिकेता सोच में पड़ गया; क्योंकि वे गौएं अत्यधिक जर्जर हो चुकी थीं। वे न तो दूध देने योग्य थीं, न प्रजनन के लिए उपयुक्त थीं। उसने सोचा कि इस प्रकार की गौओं को दान करना दूसरों पर भार लादना है। इससे तो पाप ही लगेगा।
ऐसा विचार कर नचिकेता ने अपने पिता से कहा-'हे तात! इससे अच्छा तो था कि आप मुझे ही दान कर देते।'
बार-बार ऐसा कहने पर पिता ने क्रोधित होकर कह दिया-'मैं तुझे मृत्यु को देता हूं।'
पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए नचिकेता यम के द्वार पर जा पहुंचा और तीन दिन तक भूखा-प्यासा पड़ा रहा। जब यम ने उसे वरदान देने की बात कही, तो उसने पहला वरदान मांगा।

पहला वरदान

'हे मृत्युदेव! जब मैं आपके पास से लौटकर घर जाऊं, तो मेरे पिता क्रोध छोड़, शान्त चित्त होकर, मुझसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करें और अपनी शेष आयु में उन्हें कोई चिन्ता न सताये तथा वे सुख से सो सकें।' यमराज ने 'तथास्तु, 'अर्थात् 'ऐसा ही हो' कहकर पहला वरदान दिया।

दूसरा वरदान

'हे मृत्युदेव! आप मुझे स्वर्ग के साधनभूत उस 'अग्निज्ञान' को प्रदान करें, जिसके द्वारा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए पुरुष अमरत्व को प्राप्त करते हैं।' यमराज ने नचिकेता को उपदेश देते हुए कहा-'हे नचिकेता! तुम इस 'अग्निविद्या' को एकाग्र मन से सुनो। स्वर्गलोक को प्राप्त कराने वाली यह विद्या अत्यन्त गोपनीय है।' तदुपरान्त यमराज ने नचिकेता को समझाया कि ऐसा यज्ञ करने के लिए कितनी ईंटों की वेदी बनानी चाहिए और यज्ञ किस विधि से किया जाये तथा कौन-कौन से मन्त्र उसमें बोले जायें। अन्त में नचिकेता की परीक्षा लेने के लिए यमराज ने उससे अपने द्वारा बताये यज्ञ का विवरण पूछा, तो बालक नचिकेता ने अक्षरश: उस विधि को दोहरा दिया। उसे सुनकर यमराज बालक की स्मरणशक्ति और प्रतिभा को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-'हे नचिकेता! तेरे मांगे गये तीन वरदानों के अतिरिक्त मैं तुम्हें एक वरदान अपनी ओर से यह देता हूं कि मेरे द्वारा कही गयी यह 'अग्निविद्या' आज से तुम्हारे नाम से जानी जायेगी। तुम इस अनेक रूपों वाली, ज्ञान-तत्त्वमयी माला को स्वाकर करो।'


नचिकेता को दिव्य 'अग्निविद्या' प्राप्त हुई। इसलिए उस विद्या का नाम 'नचिकेताग्नि' (लिप्त न होने वाले की विद्या) पड़ा। इस प्रकार की त्रिविध 'नचिकेत' विद्या का ज्ञाता, तीन सन्धियों को प्राप्त कर, तीन कर्म सम्पन्न करके जन्म-मृत्यु से पार हो जाता है और परम शान्ति प्राप्त करता है। आचार्यों ने नचिकेत विद्या को 'प्राप्ति,' 'अध्यायन' और 'अनुष्ठान' तीन विधियों से युक्त कहा है। साधक को इन तीनों के साथ आत्म-चेतना की सन्धि करनी पड़ती है, अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को इस विद्या से अनुप्राणित करना पड़ता है। इस प्रक्रिया को 'त्रिसन्धि' प्राप्ति कहा जाता है। कुछ आचार्य माता-पिता और गुरु से युक्त होने को त्रिसन्धि' कहते हैं। इन सभी को दिव्याग्नि के अनुरूप ढालते हुए साधक जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। अब उसने यमराज से तीसरा वर मांगा।

तीसरा वरदान

'हे मृत्युदेव! मनुष्य के मृत हो जाने पर आत्मा का अस्तित्त्व रहता है, ऐसा ज्ञानियों का कथन है, परन्तु कुछ की मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व नहीं रहता। आप मुझे इस सन्देह से मुक्त करके बतायें कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा का क्या होता है?' नचिकेता के तीसरे वरदान को सुनकर यमराज ने उसे समझाया कि यह विषय अत्यन्त गूढ़ हैं इसके बदले वे उसे समस्त विश्व की सम्पदा और साम्राज्य तक दे सकते हैं, किन्तु वह यह न पूछे कि मृत्यु के बाद आत्मा का क्या होता है; क्योंकि इसे जानना और समझना अत्यन्त अगम्य है, परन्तु नचिकेता किसी भी रूप में यमराज के प्रलोभन में नहीं आया और अपने मांगे हुए वरदान पर ही अड़ा रहा।
द्वितीय वल्ली

·         यमराज ने नचिकेता के हठ हो देखा, तो कहा-'हे नचिकेता!'कल्याण' और 'सांसारिक भोग्य पदार्थों' का मार्ग अलग-अलग है। ये दोनों ही मार्ग मनुष्य के सम्मुख उपस्थित होते हैं, किन्तु बुद्धिमान जन दोनों को भली-भांति समझकर उनमें से एक अपने लिए चुन लेते हैं। जो अज्ञानी होते हैं, वे भोग-विलास का मार्ग चुनते हैं और जो ज्ञानी होते हैं, वे कल्याण का मार्ग चुनते हैं। प्रिय नचिकेता! श्रेष्ठ आत्मज्ञान को जानने का सुअवसर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। इसे शुष्क तर्कवितर्क से नहीं जाना जा सकता।'

·         यमराज ने बताया-'प्रिय नचिकेता! '' ही वह परमपद है। '' ही अक्षरब्रह्म है। इस अक्षरब्रह्म को जानना ही 'आत्माज्ञान' है। साधक अपनी आत्मा से साक्षात्कार करके ही इसे जान पाता है; क्योंकि आत्मा ही 'ब्रह्म' को जानने का प्रमुख आधार है। एक साधक मानव-शरीर में स्थित इस आत्मा को ही जानने का प्रयत्न करता है।'

'न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥' 1/2/18॥ अर्थात् यह नित्य ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो उत्पन्न होता है और न मृत्यु को ही प्राप्त होता है। यह आत्मा न तो किसी अन्य के द्वारा जन्म लेता है और न कोई इससे उत्पन्न होता है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत औ क्षय तथा वृद्धि से रहित है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह विनष्ट नहीं होता।

·         'हे नचिकेता! परमात्मा इस जीवात्मा के हृदय-रूपी गुफ़ा में अणु से भी अतिसूक्ष्म और महान् से भी अतिमहान रूप में विराजमान हैं। निष्काम कर्म करने वाला तथा शोक-रहित कोई विरला साधक ही, परमात्मा को कृपा से उसे देख पाता है। दुष्कर्मों से युक्त, इन्द्रियासक्त और सांसारिक मोह में फंसा ज्ञानी व्यक्ति भी आत्मतत्त्व को नहीं जान सकता।'

तृतीय वल्ली

·         'हे नचिकेता! जो विवेकशील है, जिसने मन सहित अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो सदैव पवित्र भावों को धारण करने वाला है, वही उस आत्म-तत्त्व को जान पाता है; क्योंकि—

'एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रय्या बुद्धिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥' 1/3/12॥ अर्थात् समस्त प्राणियों में छिपा हुआ यह आत्मतत्त्व प्रकाशित नहीं होता, वरन् यह सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले तत्त्वदर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि से दिखाई देता है।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में परमेश्वर की प्राप्ति में जो बाधाएं आती हैं, उनके निवारण और हृदय में उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। परमात्मा की सर्वव्यापकता और संसार-रूपी उलटे पीपल के वृक्ष का विवेचन, योग-साधना, ईश्वर-विश्वास और मोक्षादि का वर्णन है। अन्त में ब्रह्मविद्या के प्रभाव से नचिकेता को ब्रह्म-प्राप्ति का उल्लेख है।
प्रथम वल्ली

·         परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।

·         यमराज नचिकेता को बताते हैं-'हे नचिकेता! शुद्ध जल को जिस पात्र में भी डालो, वह उसी के अनुसार रूप ग्रहण कर लेता है। पौधों में वह रस, प्राणियों में रक्त और ज्ञानियों में चेतना का रूप धारण कर लेता है। उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह शुद्ध रूप से किसी के साथ भी एकरूप हो जाता हैं जो साधक सभी पदार्थों से अलिप्त होकर परमात्मतत्त्व से लिप्त होने का प्रयास करता है, उस साधक को ही सत्य पथ का पथिक जानकर 'आत्मतत्त्व' का उपदेश दिया जाता है।'

द्वितीय वल्ली

·         'हे नचिकेता! उस चैतन्य और अजन्मा परब्रह्म का नगर ग्यारह द्वारों वाला है- दो नेत्र, दो कान, दो नासिका रन्ध्र, एक मुख, नाभि, गुदा, जननेन्द्रिय और ब्रह्मरन्ध्र। ये सभी द्वार शरीर में स्थित हैं। कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर, जो साधक द्वारों के मोह से सर्वथा अलिप्त रहकर नगर में प्रवेश करता है, वह निश्चय ही परमात्मा तक पहुचता हैं शरीर में स्थित एक देह से दूसरी देह में गमन करने के स्वभाव वाला यह जीवात्मा, जब मृत्यु के उपरान्त दूसरे शरीर में चला जाता है, तब कुछ भी शेष नहीं रहता। यह गमनशील तत्त्व ही ब्रह्म है। यही जीवन का आधार है। प्राण और अपान इसी के आश्रय में रहते हैं। अब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा का क्या होता है, अर्थात् वह कहां चला जाता है।'यमराज ने आगे कहा-

'योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥2/2/7'अर्थात् अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात् वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।

·         'हे नचिकेता! समस्त जीवों के कर्मानुसार उनकी भोग-व्यवस्था करने वाला परमपुरुष परमात्मा, सबके सो जाने के उपरान्त भी जागता रहता है। वही विशुद्ध तत्त्व परब्रह्म अविनाशी कहलाता है, जिसे कोई लांघ नहीं सकता। समस्त लोक उसी का आश्रय ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नितत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्रत्येक आधारभूत वस्तु के अनुरूप हो जाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा(ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है। वही भीतर है और वही बाहर है।

'एकोवशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।'
तृतीय वल्ली

·         इस वल्ली में यमराज ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से करते हैं, जो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है। जिसकी जड़े ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर लटकी हैं या फैली हुई हैं। यह वृक्ष सृष्टि का सनातन वृक्ष है। यह विशुद्ध, अविनाशी और निर्विकल्प ब्रह्म का ही रूप है।

·         यमराज बताते हैं कि यह सम्पूर्ण विश्व उस प्राण-रूप ब्रह्म से ही प्रकट होता है और निरन्तर गतिशील रहता है। जो ऐसे ब्रह्म को जानते हैं, वे ही अमृत्य, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं इस परब्रह्म के भय से ही अग्निदेव तपते हैंसूर्यदेव तपते हैं। इन्द्रवायु और मृत्युदेवता भी इन्हीं के भय से गतिशील रहते हैं।

·         'हे नचिकेता ! मृत्यु से पूर्व, जो व्यक्ति ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह जीव समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है, अन्यथा विभिन्न योनियों में भटकता हुआ अपने कर्मों का फल प्राप्त करता रहता है। यह अन्त:करण विशुद्ध दर्पण के समान है। इसमें ही ब्रह्म के दर्शन किये जा सकते हैं। जब मन के साथ सभी इन्द्रियां आत्मतत्त्व में लीन हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती हे, तब इसे जीव की 'परमगति' कहा जाता है। इन्द्रियों का संयम करके आत्मा में लीन होना ही 'योग' है। हृदय की समस्त ग्रन्थियों के खुल जाने से मरणधर्मा मनुष्य अमृत्व, अर्थात् 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।' ऐसी विद्या को जानकर नचिकेता बन्धनमुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो गया।

 

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