गुरुकुल शिक्षापद्धति
आजतक आपने अनेक बार भारत की प्राचीन गुरुकुल
शिक्षापद्धति के विषय में सुना होगा । इस पद्धति की शिक्षा के विषय में हमें इतना
ही पता होता है कि इसमें गुरु के घर जाकर अध्ययन करना पडता है ।
आजतक आपने अनेक बार भारत की प्राचीन गुरुकुल शिक्षापद्धति के विषय
में सुना होगा । इस पद्धति की शिक्षा के विषय में हमें इतना ही पता होता है कि
इसमें गुरु के घर जाकर अध्ययन करना पडता है । गुरुकुल का निश्चित अर्थ क्या है, वहां की दिनचर्या, पढाने की पद्धति कैसी होती है आदि की
जानकारी के लिए उदाहरण के रूप में एक गुरुकुल पद्धति के विषय में यहां बता रहे हैं
। राम और कृष्ण गुरुकुल शिक्षापद्धति की ही देन थे । इसलिए, इसकी उपयोगिता असाधारण है ।
१. दिनचर्या
गुरुकुल की दिनचर्या कठोर होती है ।
अ. प्रातः ५ बजे प्रार्थना, पश्चात गंगास्नान, सूर्योदय समय संध्यावंदन, गायत्रीमंत्र का जाप पश्चात
सूर्यनमस्कार अथवा योगासन करना ।
आ. सवेरे ११.३० बजे तक पाठ करना ।
इ. पश्चात भिक्षा मांगना । यह ब्रह्मचर्यव्रत का एक आवश्यक अंग है ।
ई. पश्चात, १ घंटा
विश्राम कर, सूर्यास्त तक
पाठ चलता है ।
उ. सूर्यास्त से दस-पंद्रह मिनट पहले अध्ययन रोकना होता है ।
ऊ. फिर, सायंकालीन
संध्या, पश्चात
स्तोत्रपाठ होता है ।
ए. पश्चात, थोडा
फलाहार किया जाता है ।
ऐ. विश्राम
२. अध्ययन-अध्यापन
नया पाठ आरंभ होने पर उसका संबंध पिछले पाठ से रहता । इससे
पूर्वावलोकन किया जाता । नया पाठ पढाना आरंभ करने से पहले आचार्य दस मिनट तक पिछले
दिन के पाठ के विषय पूछते । इससे पता चलता कि विद्यार्थियों को पिछला पाठ कितना
समझा है । इसके पश्चात नया पाठ पढाना आरंभ किया जाता है । इस प्रकार पढाने से यह
पता चलता था कि विद्यार्थी प्रतिदिन कितना सीख रहा है । दूसरे शब्दों में
विद्यार्थी की प्रतिदिन ही परीक्षा होती थी । इसलिए, परीक्षा कब है, परीक्षा की तैयारी कैसे करें, यह प्रश्न ही नहीं होता था ।
३. आर्थिक सहायता
हमारी शिक्षासंस्था कभी भी शासन की सहायता पर आश्रित नहीं थी और आज
भी नहीं हैं । जनता ही उन्हें धन देती है और ऐसा कर, अपने को धन्य समझती है । प्राचीन काल
में सरकार कभी भी शिक्षाव्यवस्था अथवा संस्थाओं में हस्तक्षेप नहीं करती थी ।
हमारी प्राचीन राजनीति और शासनप्रणाली की यह परंपरा थी । शिक्षा पूर्ण स्वतंत्र थी
।
४. आजकल की शिक्षाप्रणाली और गुरुकुल की शिक्षाप्रणाली
मान लीजिए कि आपका बेटा होनहार है, बुद्धिमान है । उसमें इतनी क्षमता है कि
वह दसवीं तक का पाठ्यक्रम ३ वर्ष में सहजता से पढकर प्रथम श्रेणी में उतीर्ण होगा
। परंतु, आजकल उसे
ऐसा करने की सुविधा नहीं है । दूसरे विद्यार्थियों के ही साथ उसे ११ वीं तक का
पाठ्यक्रम पढना पढेगा । ऐसा करने में उसके जीवन के ८ वर्ष व्यर्थ चले जाते हैं ।
प्रत्येक परीक्षा में वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होगा; परंतु उसके जीवन के ऊर्जावान ८ वर्ष
व्यर्थ चले जाएंगे ।
हमारी गुरुकुल पद्धति में ऐसा नहीं होता । गुरुजी के पास जाकर
विद्यार्थी संहिता सीखते हैं । कोई मंद विद्यार्थी सरल ‘पुरुषसूक्त’ कंठस्थ करने
में भी महीना लगा देता है, तो दूसरा
विद्यार्थी उसे ८ दिन में ही कंठस्थ कर लेता है । गुरुजी उसे अगला सौरसूक्त सिखाते
हैं । पश्चात तीसरा, चौथा सिखाते
हैं । उसकी प्रगति में दूसरे विद्यार्थियों के कारण बाधा नहीं आती । कुछ
विद्यार्थी ३ वर्ष में संहिता पढते हैं । आगे – पद, क्रम, जटा, घन आदि की तैयारी करते हैं । मंद
विद्यार्थी को कदाचित ५-६ वर्ष भी लग सकते हैं । इस पद्धति की शिक्षा में किसी
विद्यार्थी की हानि नहीं होती ।
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामी (मराठी
साप्ताहिक, सनातन चिंतन, २७ दिसंबर २००७)
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात
प्राचीन भारतीय ज्ञानपीठोंका
गौरवशाली इतिहास !
अखंड भारत के कोने-कोने में
शिक्षा के असंख्य केंद्र थे । छोटे-छोटे विद्याकेंद्रों की तो गिनती ही नहीं थी; क्योंकि वे इतनी बडी संख्या में
थे ।
प्राचीन भारत इस शिक्षण क्षेत्र
में अग्रसर था । भारतीय शिक्षा पद्धति जगत मान्य थी । आज के समान युवी पीढी तब
उच्च शिक्षा के लिए विदेश में नहीं जाती थी । इसके विपरीत विदेश से असंख्य
जिज्ञासु ज्ञानार्जन करने के लिए भारतीय विद्यापीठों में आते थे । इस विषय पर
गौरवशाली इतिहास के सुनहरे क्षण प्रस्तुत लेख द्वारा समझ लेते हैं ।
१. तक्षशिला विद्यापीठ
भारत की बौद्धिक राजधानी !गत जगत के
सबसे प्राचीन और जगद्विख्यात तक्षशिला विद्यापीठ के अवशेष ! इस विद्यापीठ ने लगभग
१२०० वर्ष ज्ञानदान का प्रचंड कार्य किया ।
‘तक्षशिला’
को जगत का प्रथम विश्वविद्यालय (विद्यापीठ) माना जाता है । आज के पाकिस्तान में
(रावलपिंडी से १८ मील उत्तर की ओर) स्थित यह विद्यापीठ इसवी सन के ७०० वर्ष पूर्व
स्थापित किया गया है । आगे इसवी सन ४५५ में पूर्व यूरोप के आक्रमणकारियों ने
अर्थात हुणों ने उसे नष्ट कर दिया । जागतिक स्तर पर विख्यात इस विद्यापीठ ने लगभग
१२०० वर्ष ज्ञानदान का प्रचंड कार्य किया । श्रेष्ठ आचार्यों की परंपरा निर्माण की
। अनेक जगप्रसिद्ध विद्यार्थी दिए । तक्षशिला विद्यापीठ बंद होने के कुछ वर्षों
में ही मगध राज्य में (आज के बिहार में) नालंदा विद्यापीठ की स्थापना हुई ।
ऐसा कहते
हैं कि तक्षशिला नगरी की स्थापना राजा भरत ने अपने बेटे अर्थात तक्ष के नाम पर की
। आगे यहीं पर विद्यापीठ स्थापित हो गया । जातक कथाआें में तक्षशिला विद्यापीठ के
विषय में बहुत जानकारी मिलती है । इन कथाआें में १०५ स्थानों पर तक्षशिला
विद्यापीठ का संदर्भ मिलता है । उस काल में अर्थात लगभग १ सहस्र वर्ष तक्षशिला
संपूर्ण भरतखंड की बौद्धिक राजधानी थी । उसकी यह ख्याति सुनकर ही चाणक्य समान
व्यक्ति मगध (बिहार) से इतनी दूर तक्षशिला आए ।
‘सुसीमजातक’ और तेलपत्त’ में तक्षशिला का अंतर काशी से २ सहस्र कोस बताया
है ।
१ अ.
तक्षशिला विद्यापीठ के चिकित्सा शास्त्र के प्रगत केंद्र !
इसवीं सन
के ५०० वर्ष पूर्व, जब
चिकित्सा शास्त्र का नाम भी जगत में कहीं नहीं था, तब तक्षशिला विद्यापीठ चिकित्सा शास्त्र
का बहुत बडा केंद्र माना जाता था । यहां ६० से अधिक विषय एक ही समय पर सिखाए जाते
थे । इसके अतिरिक्त यहां १० सहस्र ५०० विद्यार्थियों के पढने की सुविधा थी ।
१ आ.
तक्षशिला विद्यापीठ के विद्यार्थियों की उज्जवल परंपरा
१ आ १. इस
विद्यापीठ की स्थापना के उपरांत अर्थात इसवी पूर्व ७०० वर्ष, यहां सीखनेवाले पहले जगप्रसिद्ध
विद्यार्थी थे पाणिनी ! उन्होंने ही आगे संस्कृत भाषा का व्याकरण तैयार किया !
१ आ २. इसवी सन से पूर्व छठी
शताब्दी में चिकित्सा शास्त्र सीखे हुए जीवक (अथवा जिबाका), आगे मगध राजवंश के राजवैद्य बने । अर्थशास्त्र के चाणक्य आगे ‘कौटिल्य’ नाम से प्रसिद्ध हुए ।
१ इ.
बढते आक्रमणों के कारण आचार्यों ने विद्यापीठ छोड दिया !
चीनी
यात्री और विद्यार्थी फाह्यान’ वर्ष ४०५ में तक्षशिला विद्यापीठ में आए । पश्चिम
से होनेवाले आक्रमणों की संख्या में वृद्धि हो चुकी थी । अनेक आचार्य विद्यापीठ
छोडकर जा चुके थे । इसलिए फाह्यान को वहां अधिक ज्ञान लाभ नहीं हुआ । उन्होंने ऐसा
लिख कर रखा है । आगे ७ वीं शताब्दी में तक्षशिला विद्यापीठ की महिमा सुनकर और एक
चीनी यात्री युवान च्वांड वहां गया । उस समय उसे विद्याभ्यास की कोई पहचान नहीं
मिली ।
२. अनेक दुर्लभ ग्रंथों का प्रचंड
संग्रहवाला नालंदा विद्यापीठ !
लगभगे ७०० वर्ष जगत के सर्वोत्कृष्ट
विद्यापीठ के रूप में विख्यात नालंदा विद्यापीठ के अवशेष ! यहां अनेक दुर्लभ
ग्रंथों का प्रचंड संग्रह था ।
हूण
आक्रमणकारियों ने जिस काल में तक्षशिला विद्यापीठ उद्ध्वस्त किया, लगभग उसी काल में मगध साम्राज्य में
नालंदा विद्यापीठ की स्थापना की जा रही थी । मगध के महाराज शकादित्य (अर्थात गुप्त
वंशीय सम्राट कुमार गुप्त : वर्ष ४१५ से ४५५) ने अपने अल्पकाल में नालंदा को
विद्यापीठ के रूप में विकसित किया । इस विद्यापीठ का आरंभिक नाम था ‘नलविहार’ ।
नालंदा विद्यापीठ अनेक भवनोेंं का एक बहुत बडा संकुल था । इसमें प्रमुख भवन थे –
रत्नसागर, रत्नोदधी
और रत्नरंजक ! ‘मान मंदिर’ सबसे ऊंचा प्रशासकीय भवन था । आगे इसवी सन ११९७ में
बख्तियार खिलजी ने यह विद्यापीठ जला डाला ।
इससे पहले
तक लगभग ७०० वर्ष नालंदा विद्यापीठ जगत का सर्वोकृष्ट विद्यापीठ था ।
इस विद्यापीठ में प्रवेश के लिए
कठोर परीक्षा देनी पडती थी । चीनी यात्री ह्युएन त्सांग यहां १० वर्ष तक अध्ययन कर
रहे थे । उनके गुरु शीलभद्र असम के थे । ह्युएन त्सांग ने इस विद्यापीठ की प्रशंसा
में विपुल लेखन कार्य किया है ।
३. विक्रमशील विद्यापीठ, बिहार
‘बौद्ध धर्म के वज्रयान’ संप्रदाय
के के अधिकृत अध्ययन-केंद्र विक्रमशील विद्यापीठ के अवशेष !
८ वीं
शताब्दी में बंगाल के पाल वंशीय राजा धर्मपाल ने इस विद्यापीठ की स्थापना आज के
बिहार में की थी । इस विद्यापीठ के अंतर्गत ६ विद्यालय थे । प्रत्येक विद्यालय में
१०८ शिक्षक थे । १० वीं शताब्दी में प्रसिद्ध तिब्बती लेखक तारानाथ ने इस
विद्यापीठ का विस्तृत वर्णन किया है । इस विद्यापीठ के प्रत्येक द्वार पर एक-एक
प्रमुख आचार्य नियुक्त थे । जो नए प्रवेश लेनेवाले विद्यार्थियों की परीक्षा लेते
थे । उनकी परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियों को ही विद्यापीठ में प्रवेश मिलता
था ।
१२ वीं
शताब्दी में यहां ३ सहस्र विद्यार्थी अध्ययनरत थे । पूर्व में और दक्षिण में
मुसलमान आक्रमणकारी पहुंच रहे थे और उनकी दृष्टि जिस ज्ञान के साधन और स्थान पर
पडती, वह उन्हें
उद्ध्वस्त कर रहे थे । उत्खनन में जो अवशेष मिले हैं, उससे यह ध्यान में आता है कि इस
विद्यापीठ के बडे सभागृह में लगभग ८ सहस्र लोगों के बैठने की व्यवस्था थी ! इस
विद्यापीठ में विदेशी विद्यार्थियों में तिब्बती विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक
थी । इसका एक कारण यह था कि यह बौद्ध धर्म के ‘वज्रयान’ संप्रदाय के अध्ययन का
महत्त्वपूर्ण और अधिकृत केंद्र था ।नालंदा विद्यापीठ नष्ट होने के उपरांत लगभग ६
वर्षों में अर्थात १२०३ में नालंदा जलानेवाले बख्तियार खिलजी ने यह विद्यापीठ भी
जला डाला !
४. उड्डयंतपुर विद्यापीठ, बिहार
पाल वंश की
स्थापना करनेवाले राजा गोपाल ने उड्डयंतपुर विद्यापीठ की स्थापना बौद्ध विहार के
रूप में की थी । उसके विशाल भवन को देखकर बख्तियार खिलजी को लगा कि यह कोई किला ही
है । इसलिए उसने उस पर आक्रमण कर दिया । समय पर सैनिकी सहायता नहीं मिल पाई ।
इसलिए केवल विद्यार्थी और आचार्यों ने ही उसका जोरदार सामना किया; परंतु सब के सब मारे गए ।
५. सुलोटगी विद्यापीठ, कर्नाटक
कर्नाटक के
बीजापुर जिले में यह महत्त्वपूर्ण विद्यापीठ ११ वीं शताब्दी के अंत में बना था ।
राष्ट्र्कुटों का शासन होते हुए कृष्ण (तृतीय) राजा के मंत्री नारायण ने सुलोटगी
विद्यापीठ का निर्माण किया था; परंतु विद्यापीठ के रूप में कुछ कार्य होने के पूर्व ही उसर मुसलमानी
आक्रमकों ने आक्रमण कर उसे उद्ध्वस्त कर दिया ।यहां पविट्टागे नामक संस्कृत
महाविद्यालय अल्पावधि में ही संस्कृत शिक्षा के लिए चर्चा में आया था । देशभर से
चयनित २०० विद्यार्थियों को भोजन और निवास के साथ शिक्षा देनेवाला यह विशेषतापूर्ण
विद्यापीठ था ।
६. सोमपुर महाविहार, बांग्लादेश
सोमपुर महाविहार विद्यापीठ में चीन, तिब्बत, मलेशिया, जावा और सुमात्रा के विद्यार्थी पढने आते थे ।
बांग्लादेश
के नौगांव जिले में बादलगाजी तालुका के पहाडपुर गांव में महाविहार के रूप में
स्थापित हुए सोमपुर महाविहार शैक्षणिक केंद्र आगे विद्यापीठ के रूप में स्थापित
हुआ । पाल वंश के दूसरे राजा धर्मपाल देव ने ८ वीं शताब्दी के अंत में इस महाविहार
का निर्माण किया । इसकी रचना ऐसी थी जिससे इसे जगत के सबसे बडा बौद्ध विहार कहा जा
सकता था । चीन, तिब्बत, मलेशिया, जावा और सुमात्रा के विद्यार्थी यहां
पढने आते थे । १० वीं शताब्दी में प्रसिद्ध विद्वान अतीश दिपशंकर श्रीज्ञान इसी
विद्यापीठ के आचार्य थे ।
७. रत्नागिरी विद्यापीठ, ओडिशा
छठी
शताब्दी में बौद्ध विहार के रूप में स्थापित हुआ यह स्थान आगे शिक्षा का बडा
केंद्र बना । तिब्बत के अनेक विद्यार्थी यहां से शिक्षा ग्रहण करके गए । तिब्बत के
इतिहास में इस विद्यापीठ का उल्लेख कालचक्र तंत्र का विकास करनेवालेा विद्यापीठ’, इस प्रकार किया गया है; क्योंकि यहां खगोलशास्त्र का अध्ययन
किया जाता था ।
८. गोलकी मठ अर्थात् विद्यापीठ, मध्यप्रदेश
जबलपुर
(मध्यप्रदेश) के भेडाघाट में ६४ योगिनियों का मंदिर है । इसे ‘गोलकी मठ’ कहते हैं
। इस गोलकी मठ का उल्लेख मलकापुर पिलर’ के रूप में प्रसिद्ध पुरातत्त्व शोध में भी
मिला है । ‘मटमायूर वंश’ कलचुरी वंशों में से एक है । इस वंश के युवराजदेव (प्रथम)
ने इस मठ की स्थापना की । मूलत: ये तांत्रिक और अन्य विषयों के विद्यापीठ थे । इस
गोलकी मठ के अर्थात विद्यापीठ के अधीन अनेक विद्यालय भी आंध्रप्रदेश में थे ।
९. भारत में असंख्य ज्ञानमंदिर !
बंगाल में
जगद्द्ल’, आंध्रप्रदेश
में नागार्जुनकोंडा’, कश्मीर में
शारदापीठ’, तमिलनाडु
में कांचीपुरम’, ओडिशा में
पुष्पगिरी’, उत्तरप्रदेश
में वाराणसी’, ऐसे कितने
नाम लें ..? ये सर्व
ज्ञानमंदिर थे । ज्ञानपीठ थे । तब वनवासी और (आज की भाषा में) पिछडे हुए भागों में
भी आवश्यक शिक्षा सभी को मिलती थी ।
– श्री. प्रशांत पोळ (संदर्भ :
मासिक एकता’)
(‘विद्यापीठ’ का विचार सर्वप्रथम
भारत ने ही जगत को दिया । आज वही भारत पश्चिमी मैकॉले की निरुपयोगी शिक्षापद्धति
के चंगुल में जकडे हुआ है । यह देखकर, प्रत्येक भारतीय मन अस्वस्थ हो
जाता है । प्राचीन भारतीय शिक्षापद्धति को वास्तविक अर्थों में गतवैभव प्राप्त
करवाना हो, तो
हिन्दू राष्ट्र का कोई विकल्प नहीं ! – संकलनकर्ता)
Categoriesवैदिक गुरुकुल संस्कृति
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प्राचीनकाल में हमारे देश में वैदिक शिक्षणपद्धति थी । इसलिए, उस समय भारत सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र था ।
कहा जाता है कि तब यह देश इतना समृद्ध था कि यहां की भूमि से सोने का धुआं निकलता
था । इस वैदिक शिक्षापद्धति की नींव आध्यात्मिक थी ।
सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र निर्माण
करनेवाली वैदिक शिक्षापद्धति !
April 16, 2018
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प्राचीनकाल में हमारे देश में
वैदिक शिक्षणपद्धति थी । इसलिए, उस समय भारत सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र था । कहा जाता है कि तब यह देश इतना
समृद्ध था कि यहां की भूमि से सोने का धुआं निकलता था । इस वैदिक शिक्षापद्धति की
नींव आध्यात्मिक थी । इसी प्रकार, वैदिक शिक्षा कालातीत एवं हितकारी थी, इसलिए ऐसी शिक्षापानेवाले विद्यार्थी
राष्ट्र को उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचाते थे । ऐसे उत्तम गुरुकुल भारत में थे; इसीलिए सहस्रों वर्ष बीतने पर भी, उनका स्थान ध्रुवसमान अचल है । यह वैदिक
शिक्षापद्धति कैसी थी, इस विषय
में जानकारी देनेवाला श्री प्र.दी. कुलकर्णी का मराठी लेख ‘केसरी गर्जने’ में
प्रकाशित हुआ था । उसका हिन्दीरूप हम अपने पाठकों के लिए यहां दे रहे हैं ।
१. श्रीगुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान
वैदिक
शिक्षापद्धति में श्रीगुरु का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । अथर्ववेद में
श्रीगुरु को शिष्य का आध्यात्मिक पिता कहा गया है । परमेश्वरीय तत्त्वज्ञान पाने
की जिसकी इच्छा हो, उसे
श्रोत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाना चाहिए, यह भारतीय संस्कृति कहती है ।
२. बुद्धि और मन से शुद्ध तथा
प्रामाणिक गुरु !
वैदिककाल
के गुरु की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि वे बुद्धि और मन से शुद्ध तथा प्रामाणिक
होते थे । उनमें ज्ञान का दंभ तनिक भी नहीं था । गोपथ ब्राह्मण ग्रंथ में एक बहुत
रोचक कथा है । मौद्गल्य और मैत्रेय नाम के दो आचार्य थे । एक बार उनमें
शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें
आचार्य मैत्रेय हार गए और अपनी पाठशाला बंद कर मौद्गल्य के शिष्य बन गए । विख्यात
मीमांसक मंडनमिश्र और आदि शंकराचार्य में शास्त्रार्थ के समय मंडनमिश्र की
धर्मपत्नी भारती न्यायकर्ता थी । मेरा पति शास्त्रार्थ में हार गया, यह कहने में उन्हें संकोच नहीं हुआ ।
इतना ही नहीं, मंडनमिश्र
ने शंकराचार्य से संन्यास की दीक्षा ली और उनके शिष्य बन गए । इस घटना से क्या सीख
मिलती है ? दक्षिण
हिन्दुस्थान में अप्पय्या दीक्षित नाम के प्रतिभाशाली पंडित थे । वे द्वैतवाद के
अनुयायी थे । शृंगेरी मठ के अद्वैतवादी पंडित से शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें दीक्षित हार गए । तब, उन्होंने तुरंत संन्यास लिया और जीवनभर
अद्वैतवाद का प्रचार किया । ये और ऐसे अनेक उदाहरणों से सिद्ध होता है कि विद्या
और बुद्धि के क्षेत्र में प्रामाणिकता की परंपरा वेदकाल से अब तक निरंतर चलती रही
।
३. समर्थ शिष्य को ही गुरु का
आशीर्वाद !
प्रामाणिकता
से विद्यादान करते हुए गुरु, शिष्य को अपना संपूर्ण ज्ञान दे देते थे । इसीलिए शिष्य, गुरु का वाक्य प्रमाण मानते थे । उस काल
में आजकल के समान शिक्षक थोडे और विद्यार्थी अनगिनत, ऐसी स्थिति नहीं थी । अध्ययन समाप्त
होने तक विद्यार्थियों को गुरु के घर पर ही रहना पडता था । इसलिए, गुरु को प्रत्येक विद्यार्थी पर ध्यान
देना सरल होता था । सब एक स्थान पर रहते थे, तो आपस में विभिन्न विषयों पर चर्चा भी
होती थी । ऐसे प्रतिभाशाली गुरु और जिज्ञासु शिष्यों के प्रश्नोत्तर सुनते समय
सबके लिए ज्ञान का भंडार खुलता था । इसीलिए, अध्ययन पूरा होने पर स्नातकों को
आशीर्वाद देते समय गुरु कहते थे, ‘तुम्हें बहुत विद्यार्थी मिलें । गुरु का यह आशीर्वाद केवल
शाब्दिक नहीं होता था । जब उन्हें विश्वास हो जाता था कि आश्रम से सीखकर
निकलनेवाला यह स्नातक विद्यादान की परंपरा आगे बढाने में सक्षम है, तभी उसे यह आशीर्वाद देते थे ।
४. गुरुकुल में योग्यता के अनुसार
शिष्यों को शिक्षा !
विविध
आश्रमों में प्रवेश देते समय गुरु शिष्यों की पात्रता जांचते थे । वैदिककाल में
शिक्षा देने का कार्य करनेवालों ने अपना विशिष्ट वर्ग बनाकर, वह व्यवसाय अपने अधिकार में कर लिया था, उस काल में शिक्षा निःशुल्क थी, अतः उससे आर्थिक लाभ की कोई अपेक्षा
नहीं की जाती थी । इसके विपरीत, अनेक पराक्रमी और धनवान राजा, सेनापति आश्रम की अपनी ओर से आर्थिक
सहायता करते थे । वास्तविक, विद्याप्राप्ति
के पश्चात शिष्य से मिलनेवाली गुरुदक्षिणा ही गुरु का धन होती थी । गुरुदक्षिणा
देना आवश्यक ही है, ऐसा नियम
नहीं था और वैसी कोई शर्त भी नहीं थी । ऐसा करनेवाले गुरु की धर्मग्रंथों में
निंदा की गई है । इस संबंध में महाकवि कालिदास एक स्थान पर कहते हैं, यस्यागमः केवल जीविकायै तं ज्ञानपव्यं
वणिजं वदन्ति। जो केवल आजीविका (रोजीरोटी) की विद्या देता है, वह ब्राह्मण नहीं, ज्ञान की दुकान चलानेवाला बनिया है !
५. गुरुकुल में सब वर्णों के
विद्यार्थियों का समान आदर !
सदाचारी और
विषय में रुचि आवश्यकता होती थी उसमें, किसी भी वर्ण के बुद्धिमान विद्यार्थी
को प्रवेश दिया जाता था । वेद के अतिरिक्त, सब विद्याएं समाज के सभी वर्गों को
सिखाई जाती थीं । , त्रिवर्णिकों
के प्रति विशेष प्रेम और अन्यों से द्वेष, ऐसी भावना नहीं थी । ऐसा विश्वास था कि
वेद मंत्र हैं । उनके उच्चारण से मनुष्य का जीवन, कल्पना और विश्व जुडा है । इसलिए उनका
उच्चारण शास्त्रानुसार ही होना चाहिए । वेद के अतिरिक्त, जिन विद्याआें का संबंध विशुद्ध उच्चारण
से नहीं था, वे सभी
विद्यार्थियों को सिखाई जाती थीं । एकबार विद्यार्थी आश्रम में आने के पश्चात, वह सदाचारी और विनयसंपन्न हुआ है कि
नहीं, यह जानने
के लिए एक वर्ष तक उसकी अनेक प्रकार से परीक्षा ली जाती थी । कूर्मपुराण में लिखा
है,
संवत्सरोषिते
शिष्ये गुरुर्ज्ञानमनिर्दिशन् ।
हरते
दुष्कृतं तस्य शिष्यस्य वसतो गुरुः ॥
शिष्य एक
वर्ष गुरु के घर रहे और तब भी गुरु उसे न सिखाएं, तब उस शिष्य का सब पाप गुरु को लगता है
। स्मृतिकौस्तुभ में एक वचन है, विद्यार्थियों को तत्परता से न पढानेवाला गुरु, अगले जन्म में आम का वृक्ष बनता है ।
इतना पढाने
के पश्चात, अध्यापक को
भी भोजन की आवश्यकता होती ही है । इसके लिए शास्त्रकारों ने शिष्यों के मन में गुरु
के प्रति कृतज्ञता भाव उत्पन्न करने हेतु, गुरुदक्षिणा की परंपरा आरंभ की । यह
गुरुदक्षिणा शिक्षा पूर्ण होने पर ही दी जाए, पहले नहीं; ऐसा वचन है । असमर्थ गरीब शिष्य भी
गुरुदक्षिणा दे सके, इसके लिए
उस समय का समाज आवश्यक धनराशि जुटाने में उसकी सहायता करता था । महाभारतकाल की एक
घटना है कि उत्तंक नाम के निर्धन (गरीब) शिष्य के पास गुरुदक्षिणा देने के लिए धन
नहीं था । यह पता चलने पर, एक राजा ने
अपनी रानी के कान से सोने के कुंडल निकालकर उस शिष्य को दिए ।
६. शिष्य का संपूर्ण जीवन अच्छा
बनानेको पहला कर्तव्य माननेवाले गुरु !
आश्रम में
रहनेवाले शिष्य का ध्यान, गुरु उनके
माता-पिता से भी अधिक रखते थे । शिष्य भी गुरु से सर्वाधिक प्रेम करते थे । गुरु
यह नहीं मानते थे कि केवल विद्या देना मेरा काम है । वे, शिष्य का संपूर्ण जीवन उत्तम बनाना अपना
कर्तव्य समझते थे । गुरु के घर में रहते समय शिष्य अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की
चिंता छोडकर, सब काम
करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अपने गुरु सांदीपनी के आश्रम में सब प्रकार के काम करते
थे । गोपथ ब्राह्मण ग्रंथ में वर्णन मिलता है कि गुरु के घर उत्साह से काम करते
समय शिष्यों के शरीर से पसीने की धाराएं निकलती थीं । शिष्य को काम बताते समय गुरु
भी इस बात का ध्यान रखते थे कि उसके अभ्यास की हानि न हो । ऐसा काम करते समय यदि
किसी शिष्य की मृत्यु हो जाती थी, तब गुरु को कठोरतम प्रायश्चित करना पडता था । शिष्य जब आश्रम का
अनुशासन नहीं मानता था, तब गुरु
उसे ठंडे पानी से स्नान, उपवास और
गुरुगृह छोडने का दंड देते थे । परंतु जब शिष्य एक सीमा से अधिक उद्दंडता करने लगे, तब गुरु उसकी पीठ पर छडी से प्रहार कर
सकता है, ऐसा मनु और
गौतम ऋषि ने ग्रंथ में लिखा है । ऐसा दंड देते समय राजपुत्र और रंक में भेदभाव
नहीं किया जाता था । बौद्धजातक कथा में वर्णन मिलता है कि वाराणसी के राजपुत्र की
चोरी की लत छुडाने के लिए गुरु ने उसे छडी से बहुत पीटा । धर्मसूत्र और मनुस्मृति
पढने से पता चलता है कि वैदिककाल में केवल राजा नहीं, ऋषि भी न्याय करने में निष्ठुर होते थे
।
७. विद्यालयों पर राजा का नहीं, विद्वानों
और तपस्वियों का ही पूरा नियंत्रण !
उस काल में
साहित्य की पढाई के साथ-साथ अन्य विविध प्रकार के शास्त्रों और व्यवसायों की भी
शिक्षा दी जाती थी । वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख है । वेदविद्या, छंदशास्त्र, इतिहास, पुराण, याज्ञिक कर्म, भूमिति, ज्योतिष, सैनिक शिक्षा, गायन, कला, गूढ विद्या, तैराकी, शिल्पशास्त्र, धनुर्विद्या, रथकर्म, गरुडविद्या, पशुपालन, अश्व-सारथ्य, लौह-विद्या, खनिज विद्या, सर्पविद्या, वैद्यक जैसे अनेक विषय पढाए जाते थे ।
आजकल पुस्तकीय ज्ञान के साथ व्यावसायिक शिक्षा देने का जो प्रयत्न चल रहा है, उसकी जड वैदिक शिक्षापद्धति में है ।
अनेक शिक्षा-समितियों के सुझावों को पूर्णतः लागू न करने के कारण आज का विद्यार्थी
केवल परीक्षार्थी बनकर रह गया है । स्नातक तक शिक्षाप्राप्त विद्यार्थी जब समाज
में जाए, तब वह
आर्थिक दृष्टि से अपने पैरों पर खडा हो सके, इसके लिए वैदिककाल में पुस्तकीय ज्ञान
के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा दी जाती थी । पहले की शिक्षापद्धति की सबसे बडी
विशेषता यह थी कि विद्यालय राजसत्ता के दास नहीं थे; उनपर विद्वानों और तपस्वियों का
नियंत्रण रहता था । आजकल की भांति उस समय शिक्षाक्षेत्र में ऐसे अधिकारियों और
मंत्रियों का हस्तक्षेप नहीं होता था, जिनका संबंध शिक्षा से नहीं होता था ।
राजा भी गुरुकुल में विनम्रता और सभ्यता से प्रवेश करे, ऐसीपरिपाटी थी । एक श्रेष्ठ राष्ट्र का
निर्माण वैदिक शिक्षापद्धति से हो सकी, इसका कारण यही था कि वह कभी राजसत्ता के
अधीन नहीं थी । इसके विपरीत, राजसत्ता पर ऋषियों का पूरा नियंत्रण रहता था ।
८. सार्वकालिक और हितकारी वैदिक
शिक्षापद्धति !
वैदिक
शिक्षापद्धति के इस रूप में, युगपरिवर्तन के पश्चात भी, कुछ अपवादों को छोड दें, तो मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ । प्रत्येक
कालखंड में उपयोगी शिक्षापद्धति, वैदिक शिक्षापद्धति ही है । परंतु, पिछले सौ-डेढसौ वर्ष की परतंत्रता के
कारण तथा वर्तमान में हुए अनुचित संस्कारों के कारण भारत के बौद्धिक क्षेत्र में
विदेशियों की वैचारिक दासता उत्पन्न हुई ।
इस दासता
के कारण राष्ट्र के विविध क्षेत्रों पर जो कुछ दुष्परिणाम हुआ है, उसमें सबसे अधिक हानि ‘भारतीय
शिक्षापद्धति’ की हुई है । इसमें पाश्चात्य शिक्षापद्धति का अनुकरण हो रहा है ।
इसके दोष ही हमारी शिक्षापद्धति में प्रमुखरूप से दिखाई देते हैं । दूसरे शब्दों
में कहें, तो हमने
उनके दोषों को ही अपनाया है और उनके गुणों से हमारा विशेष संबंध नहीं हुआ । इसलिए, इसमें आध्यात्मिक दृष्टिकोण का पूर्णतः
अभाव और विलक्षण ध्येयशून्यता है । इन दोषों के कारण शिक्षाक्षेत्र और मंदिरों पर
राजसत्ता का अधिकार हो गया । इससे शिक्षा को व्यापारिक रूप मिला । शिक्षकों का
उच्च नैतिक भाव नष्ट हुआ और वे द्रव्य देनेवालों के सेवक बन गए।
९. उत्तम संस्कार देनेवाली वैदिक
शिक्षापद्धति !
गुरुकुल
में वैदिक शिक्षा के उत्तम संस्कारों की भट्टी में तपकर आदर्श बने विद्यार्थियों
को राष्ट्र के लिए समर्पित करते समय आचार्य उन्हें जो उपदेश करते थे, उसका स्मरण हुए बिना नहीं रहा जा सकता ।
आचार्य कहते थे, ‘सत्य बोलना, अपना कर्तव्य ठीक से समझकर धर्म का आचरण
करना, सिखाई हुई
विद्या प्रमाद में पडकर नहीं भूलना, प्रजा की एकता तोडने का कार्य नहीं करना, धर्म की उपेक्षा नहीं करना, अपने कल्याणमार्ग को नहीं छोडना, माता-पिता का ध्यान रखना, आचार्य का सम्मान करना, अतिथि का सम्मान करना, धर्म के बताए हुए देवकार्य और पितृकार्य
नहीं भूलना, बुरी बातों
का अनुकरण न करना, धर्म और
ईश्वर से डरना तथा उनका अनादर हो, ऐसा आचरण नहीं करना । श्रेष्ठ और
गुरुतुल्य जनों का अनुकरण कर, जीवन को सफल बनाना । दान, विचारपूर्वक परंतु श्रद्धासहित करना ।
– श्री
प्र.दी. कुलकर्णी (मराठी पत्र, ‘केसरी गर्जने’, १ नवंबर ९२/२)
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