तत त्वं असि का अर्थ |
ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद
छान्दोग्योपनिषद् की
एक कथा है । बात उस समय की है जब धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र
श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया । एक दिन पिता आरुणी
उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा – “
श्वेतकेतु ! अभी और वेदाभ्यास करने की इच्छा है या विवाह ?”
पिता की यह बात सुनकर श्वेतकेतु बड़े दर्प से बोला – “
एक बार राजा जनक की सभा को जीत लूँ,
उसके बाद जैसा आप उचित समझे ।” अपने पुत्र के मुंह से ऐसे अहंकार से युक्त
वचन सुनकर ऋषि उद्दालक सहम से गये । वह बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर चल दिए । श्वेतकेतु
अपनी ही मस्ती में घर से निकल गया । तब श्वेतकेतु की माँ ने ऋषि उद्दालक का चेहरा
पढ़ लिया और पूछा – “
आप ऐसे सहमे हुए से क्यों है ?”
तब व्यथित होते हुए ऋषि उद्दालक बोले – “ श्वेतकेतु की राजा जनक की सभा को जीतने
की लालसा ही बता रही है कि उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा । वह केवल शाब्दिक शिक्षाओं
का बोझा ढोकर आया है । वह जब घर आये तो उसे मेरे पास भेजना ।” इतना कहकर ऋषि उद्दालक अपने अध्ययन कक्ष
की ओर चल दिए ।
जब श्वेतकेतु घर आया तो उसकी माँ ने उसे पिता के पास जाने के
लिए कहा । पिता के पास जाकर श्वेतकेतु बोला – “ तात ! आपने मुझे बुलाया ?”
ऋषि उद्दालक बोले – “
हाँ ! बेठो ! इतना कहकर वह अपना काम करने लगे ।” श्वेतकेतु से धैर्य नहीं रखा गया अतः वह
बोला – “
तात ! आपने मुझे क्यों बुलाया ?”
तब ऋषि उद्दालक बोले – “श्वेतकेतु
! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है ! क्या तुम उसे जानते हो, जिसे जानने से, जो सुना न गया हो, वो सुनाई देने लगता है । जिसका चिंतन
नहीं किया गया हो, वो
चिंतनीय बन जाता है । जो अज्ञात है,
वो ज्ञात हो जाता है ।”
तब श्वेतकेतु बोला – “
तात ! मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी । यदि वे जानते होते तो उन्होंने
मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती । अतः आप ही मुझे इस बारे में बताये ?” यह सुनकर तथा श्वेतकेतु की जिज्ञासा को
जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गये ।
ऋषि आरुणि उद्दालक श्वेतकेतु को लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गये
और कुछ मिट्टी उठाते हुए बोले – “
श्वेतकेतु ! जिस तरह जब तुम मिट्टी को जान लेते हो,
तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो कि वह भी
मिट्टी स्वरूप ही है । जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने सभी स्वर्णाभूषणों
को जान लेते हो । उसी तरह अब तुम ही बताओ ?
क्या है वह मुलभुत तत्व,
जिसको जान लेने से तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है ।”
जिज्ञासु दृष्टि से श्वेतकेतु बोला – “ मैं नहीं जानता ! तात ।”
तब आरुणि उद्दालक बोले – “ वह सर्वोच्च सत्य सत् है, अस्तित्व है, चेतना है । इसी चेतना से नाम और रूप के
सारे संसार ने जन्म लिया है । जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है । वैसे ही
चेतना या अस्तित्व ही सबकुछ है । इसलिए तुम वही सत् चेतना हो । तत त्वं असि =
तत्वमसि ।”
तत्वमसि यह एक महावाक्य है जो यह घोषणा करता है कि “तुम
वो ही हो, जो
तुम खोज रहे हो ।”
यह साधक और साध्य के एक्य को दर्शाता है । इसी महावाक्य के माध्यम से आचार्य अपने
शिष्य को उपदेश करता है कि “वह
तुम ही हो जो तुम खोज रहे हो”
श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक उसे
फूलों के एक बगीचे में ले गये और बोले – “
यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु ?”
श्वेतकेतु – “
हाँ ! तात ।”
आचार्य उद्दालक – “
छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फुल का हूँ और मैं उस फुल
का हूँ ?”
श्वेतकेतु – “
नहीं तात !”
आचार्य उद्दालक – “
उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत
पहचान खत्म हो जाती है । ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना
अस्तित्व खो देती है । वह चेतना ही है जो सबको जोडती है । जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है ।”
तब श्वेतकेतु बोला – “
लेकिन तात ! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई ?”
आचार्य उद्दाक बोले – “
जाओ ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक
उसे तोड़ने को कहते है और पूछते है कि इसमें क्या है ? श्वेतकेतु कहता है – “
इसमें बहुत सारे छोटे – छोटे बीज है ।”
तब आचार्य उद्दालक बोलते है – “
इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें
क्या है ?” जब
श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के के देखा तो बोला – “ यह इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव
नहीं ! तात ।”
तब आचार्य उद्दालक बोले – यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते । इसी से
विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न होता है ।
उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (जिसे
तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है ।”
इसके बाद आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे जल में नमक
घोलकर लाने के लिए कहा और श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और
पूछा कि “
कैसा है ?” जल
नमकीन था । फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा । वो भी नमकीन था । अंत में
उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा । वो भी नमकीन था ।
तब आचार्य उद्दालक बोले – “ जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक
बूंद में नमक है । उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी सभी जगह वही चेतना विद्यमान है ।
वो मुझमें भी है, वही
तुम हो । तत त्वं असि ।”
इस तरह मऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण
लेकर “तत
त्वं असि”
महावाक्य की नो बार उद्घोषणा की । जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर
लिया । यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छः वे अध्याय में दिया गया ।
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