वेदान्त दर्शन
वेदान्त दर्शन- वेदान्त शब्द का तात्पर्य है –
वेद का अंत। इन्हें वेदों का अंतिम भाग अथवा वेदों का सार भी का जाता है। वेद के
मुख्यतः तीन भाग हैं –
- वैदिक मंत्र
- ब्राह्मण
- उपनिषद
उपनिषद वेद का अंतिम भाग तथा वैदिक काल का अंतिम
साहित्य है। वेदांत के तीन रूप बताए गए हैं –
- द्वैत
- विशिष्टाद्वैत
- अद्वैत
अधिकांश दार्शनिक
अद्वैत समर्थक हैं और विशिष्ट आ गए और अद्वैत में कोई अंतर नहीं मानते हैं। उनके
अनुसार यह तीनों रूप वेदान्त दर्शन के तीन चरण है और अंतिम लक्ष्य अद्वैत की
अनुभूति है। इस प्रकार जो ज्ञान वास्तविकता की ओर ले जाता है वही वेदांत है।
वेदान्त दर्शनका प्रारंभ परम निराश आवाज से होता है तथा इसका अंत होता है यथार्थ
आशावाद में। वेदांत यह शिक्षा देता है कि निर्वाण
लाभ यही और अभी हो सकती हैं, उसके लिए मृत्यु की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता
नहीं। निर्वाण शब्द का तात्पर्य है आत्मसाक्षात्कार कर लेना।
वेदान्त
दर्शन के सिद्धान्त
वेदान्त दर्शन के प्रमुख सिद्धांत निम्न है –
1. ब्रह्म की अवधारणा
2. जगत की अवधारणा
3. माया की अवधारणा
4. जीव की अवधारणा
5. आत्मा की अवधारणा
6. मोक्ष की अवधारणा
1. ब्रह्म की अवधारणा
शंकराचार्य ने ब्रह्म की सत्ता को ही वास्तविक
सत्ता माना है। शंकराचार्य ने कहा है “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवों ब्रह्मोव
नापर:।” अर्थात ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, अन्य कोई नहीं।
ब्रह्म की मूल तत्व है और ब्रह्म के द्वारा ही इस ब्रह्मांड की संरचना होती है।
ब्रह्म इस संसार का निर्माण अपनी माया शक्ति द्वारा करता है। शंकराचार्य ने सत्ता
की तीन कोटियां बताई है। परमार्थिक सत्ता, व्यावहारिक सत्ता, प्रतिभाषिक सत्ता।
परमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म निर्गुण पूर्णता सत्य
है तथा सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी है। ब्रह्म अनेक जीवो के रूप में प्रकट होता है।
ब्रह्म का अस्तित्व देशकाल से परे है। ब्रह्म स्वत: सिद्ध है इसलिए उसे सिद्ध करने
के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
2. जगत की अवधारणा
शंकराचार्य के अनुसार जगत मिथ्या है क्योंकि जगत
परिवर्तनशील है इसका वास्तविक अस्तित्व नहीं है जगत स्वप्नवत् काल्पनिक, मायिक एवं असत्य है
किंतु व्यावहारिक दृष्टि से जगत सत्य है क्योंकि इसी जगत में रहकर मनुष्य ज्ञान, कर्म, भक्ति और मोक्ष की
प्राप्ति करता है। शंकराचार्य ने जगत को समझने के लिए 3 सत्ताओं का उल्लेख
किया जो कि निम्न है।
1. आर्थिक सत्ता
2. व्यावहारिक सत्ता
3. प्रतिभाषिक सत्ता
3. माया की अवधारणा
शंकराचार्य के अनुसार आदिकाल से ही परम तत्व
अर्थात् परमात्मा की शक्ति विद्यमान है। इसे माया की संज्ञा दी गई है जो कि ना तो
सत्य है और ना असत्य है। इसका वर्णन संभव नहीं है। परमात्मा माया की सहायता से जगत
का निर्माण करता है जगत में जो विविधता दिखाई देती है वह सत्य नहीं है। सत्य तो
केवल परमतत्व है जो जगत की समस्त वस्तुओं में उपस्थित है। ब्रह्म ही जगत की रचना
के उपादान का कारण है। वे सभी प्राणी जो माया द्वारा उत्पन्न होते हैं जीव कहलाते
हैं।
माया के जाल में फस
कर प्राणी या भूल जाता है कि ईश्वर उसका सर्जन करता है जिसके कारण वह स्वयं को एक
स्वतंत्र सत्ता मान लेता है और अपने शरीर मन तथा इंद्रियों में सिमट जाता है। इसी
अज्ञानता के कारण जीएसएम को करता मान लेता है और संघ काम कर्म करते हुए पाप तथा
पुण्य का भागी बनता रहता है। इसी कारण उसे जन्म और मृत्यु के बंधन में रहना पड़ता
है। ज्ञान हो जाता है कि उसका संबंध परमात्मा से भी है तब उसकी अज्ञानता धीरे-धीरे
छूटने लगती है वह निष्काम कर्म की प्रवृति की ओर अग्रसर होता है और परमात्मा में लीन हो जाता है।
4. जीव की अवधारणा
शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन के अनुसार प्राणी
माया की रचना है। अज्ञानता के कारण प्राणी स्वयं को अपने शरीर का स्वामी समझ लेता
है और इंद्रियों द्वारा शरीर जो भी कर्म करता है उसे यह मान लिया जाता है कि अमुक
कार्य जीव ने किया है। प्राणी अपनी ज्ञानेंद्रियों की सहायता से बाय जगत का ज्ञान
अर्जित कर सकता है। जीव और आत्मा में व्यावहारिक अंतर होता है। आत्मा परमार्थिक
सत्ता है जबकि जीव व्यावहारिक सत्ता
जब आत्मा शरीर इंद्रियां मन के अधिकारियों से
शुरू होती है तब वह जीव होता है। आत्मा एक है जब जीव भिन्न-भिन्न शरीरों में
अलग-अलग है। इस प्रकार जीव आत्मा का आभास मात्र है। शंकराचार्य का मत है कि आत्मा
मुक्त है परंतु इसके विपरीत बंधनग्रस्त है। अपने प्रयासों से जियो मोक्ष प्राप्त
कर सकता है। शरीर के नष्ट हो जाने के बाद जीव आत्मा में लीन हो जाता है।
5. आत्मा की अवधारणा
अद्वैत वेदांत के अनुसार आत्मतत्व ही परमतत्व है।
शंकराचार्य का मत है आत्मा और परमात्मा एक ही तत्व के 2 नाम है। आत्मा अजर
और अमर है। माया के कारण आत्मा जीवात्मा के रूप में जीवो का रूप ले लेती है। आत्मा
परिवर्तनशील है क्योंकि यह स्थान और समय से बंधी हुई नहीं है। वेदान्त दर्शन के
अनुसार आत्मा ब्रह्म दोनों समान सत्य हैं।
6. मोक्ष की अवधारणा
भारतीय दर्शन में मुझको ही जीवन का अंतिम लक्ष्य
बताया गया है शंकराचार्य के अनुसार जब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप ब्रह्म में लीन
होने के लिए बंधनों से मुक्त हो जाती है तब मोक्ष प्राप्त हो जाता है अर्थात जीव
को आत्मज्ञान या ब्रह्म ज्ञान हो जाता है। शंकराचार्य ने ज्ञान योग को कर्म योग से
बड़ा माना है मोक्ष प्राप्ति के लिए निष्काम कर्म की आवश्यकता होती है सकाम कर्म
से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती कर्मफल के कारण जीवन जीवन मरण के बंधन में बना
रहता है और जब तक इस बंधन में जीव रहता है उसे आत्मज्ञान नहीं हो पाता निष्काम
कर्म वही योगी कर सकता है जिसे आत्मज्ञान का बोध हो जाता है।
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