पराशर एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि, शास्त्रवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी एवं स्मृतिकार है।
येे महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार भी हैं। पराशर शर-शय्या पर पड़े भीष्म से मिलने गये थे। परीक्षित् के प्रायोपवेश के समय उपस्थित कई ऋषि-मुनियों में वे भी थे। वे छब्बीसवें द्वापर के व्यास थे। जनमेजय के सर्पयज्ञ में उपस्थित थे। भारतीय ज्योतिष के प्रवर्तकों में महर्षि पराशर अग्रगण्य हैं। महर्षि प्रोक्तं ग्रंथों में केवल इन्ही का सम्पूर्ण ग्रंथ 'बृहत्पराशरहोराशास्त्र' नाम से उपलब्ध हैं। अन्य प्रवर्तक ऋषियों के वचन तो इतस्ततः मिलते हैं, लेकिन किसी सम्पूर्ण ग्रंथ के अद्यावधि दर्शन नही होते हैं। यह बात पराशर के मत की सर्व व्यापकता व सार्वभौमिकता का एक पुष्कल प्रमाण है। 'पराशरहोराशास्त्र' की गुणग्रहिता व सम्पूर्णता के कारण ही इनकी यह रचना सर्वत्र प्रचलित है।
★ ज्योतिष शास्त्र के
सभी ग्रंथों पर यदि दृष्टि डाली जाये तो अनुभव होता है कि परवर्ती आचार्यों के
मंतव्यों की मूल भित्ति पराशरीय विचार ही हैं। एक प्रकार से पराशर के ज्योतिषीय
विचारों का प्रस्तार ही अवान्तर ग्रंथों में न्यूनाधिक रूप से देखने में आता है।
अतः कहा भी गया है -
तीर्थोदकं च वह्निश्च नान्यतः शुद्धिमर्हतः॥ (भवभूति)
अर्थात - जिस प्रकार वेदों का स्वयं प्रमाण स्वतः सिद्ध है, तीर्थ का जल व अग्नि स्वयं शुद्ध है, उन्हें शुद्ध करने, प्रमाणित करने व ग्राह्य बनाने के लिए
किसी पवित्रीकरण की आवश्यकता नही होती उसी प्रकार पराशर के वचनों को प्रमाण रूप
में उद्धृत करने की सर्वत्र परिपाटी है। पराशरीय कथनों व निर्णयों को प्रमाणित
करने के लिए किसी अन्य ऋषि वाक्यों की आवश्यकता अकिंचित्कर ही है।
★ पराशर सम्प्रदाय या
पराशरीय विचारधारा, विचारों की उस गंगा के समान है, जो समस्त भारत भूमि को अपने अमृत से
आप्लावित करती हुई अपनी चरम गति या मंजिल पर पहुंचती है और अवान्तर अनेक विचारधारा
रूपी नदियों को भी अपने भीतर समेटती चलती है। अतः 'पराशर मत्त' गंगानद है तो अन्य विचारधाराएं या
मत्त नदियाँ ही है। यह एक अविच्छिन्न रूप से बहने वाली, सदानीरा नदी है। इस दृष्टि से देखने
पर महर्षि पराशर का स्थान जैमिनी मुनि से ऊँचा ही सिद्ध होता है। जैमिनीय मत्त के
पोषण की परंपरा हमें अवान्तर काल में अट्टू रूप में नही मिलती है।
जैमिनीय मत्त की सभी बातें पराशर सम्प्रदाय में सर्वतोभावेन समाहित
हो गयी है, इसका आभास पराशरहोराशास्त्र को देखने से मिल जाता है।
★ वराहमिहिर जैसे
आचार्य भी पराशर के सिद्धांतों के सामने नतमस्तक हैं। वे अपने ग्रंथों में बहुत
पराशर मत्त का उल्लेख करके उसका अंगीकरण करते हैं। अतः पराशर सम्प्रदाय सम्पूर्ण
भारत में चतुर्दिक, पुष्पित व पल्लवित होता रहा है तथा ज्योतिष के विषय में उनके
द्वारा रचित 'बृहदपराशरहोराशास्त्र' अंतिम निर्णायक ग्रंथ माना जाता है।
पराशर, 'फलित ज्योतिष'
के आधार स्तंभ हैं इसमें कोई संदेह नही है। पराशर नाम के एक मुनि हुए हैं। उनके द्वारा रचित ग्रंथों में 'कृषिसंग्रह', 'कृषि पराशर' एवं 'पराशर तंत्र' के नाम गिनाए जाते हैं। किंतु इनमें से मूल ग्रंथ 'कृषि पराशर' ही है। इस ग्रंथ के रचयिता पराशर मुनि कौन से हैं, इस विषय पर यथेष्ट मतभेद है। ग्रंथ की शैली के आधार पर यह 8वीं शती के पूर्व का लिखा नहीं समझा जाता।
'कृषि पराशर' में कृषि पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव, मेघ और उसकी जातियाँ, वर्षामाप, वर्षा का अनुमान, विभिन्न समयों की वर्षा का प्रभाव, कृषि की देखभाल, बैलों की सुरक्षा, गोपर्व, गोबर की खाद, हल, जोताई, बैलों के चुनाव, कटाई के समय, रोपण, धान्य संग्रह आदि विषयों पर विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
ग्रंथ के अध्ययन से पता चलता है कि पराशर के मन में कृषि के लिए अपूर्व सम्मान था। किसान कैसा होना चाहिए, पशुओं को कैसे रखना चाहिए, गोबर की खाद कैसे तैयार करनी चाहिए और खेतों में खाद देने से क्या लाभ होता है, बीजों को कब और कैसे सुरक्षित रखना चाहिए, इत्यादि विषयों का सविस्तार वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है।
हलों के संबंध में दिया हुआ है कि ईषा, जुवा, हलस्थाणु, निर्योल
(फार), पाशिका, अड्डचल्ल, शहल तथा पंचनी ये हल के आठ अंग हैं। पाँच हाथ की हरीस, ढाई हाथ का हलस्थाणु (कुढ़), डेढ़ हाथ का फार और कान के सदृश जुवा होना चाहिए। जुवा चार हाथ का होना चाहिए।
इस ग्रंथ से पता लगता है कि पराशर के काल में कृषि अत्यंत पुष्ट कर्म थी।
कृषि पराशर संस्कृत भाषा में निबद्ध कृषि का सर्चवाधिक चर्चित
ग्रन्थ है। यह महर्षि पराशर के द्वारा विरचित माना जाता है। इसमें प्रारम्भ में ही
कहा गया है कि अन्न ही प्राण है,
बल है; अन्न ही समस्त अर्थ का साधन है। देवता, असुर, मनुष्य सभी अन्न से जीवित हैं तथा
अन्न धान्य से उत्पन्न होता है और धान्य बिना कृषि के नहीं होता। इसलिए सभी कर्म
छोड़कर कृषि कर्म ही करना चाहिए।[1] कृषि के लिए जल की आवश्यकता को देखते
हुए तथा जल के प्रमुख साधन होने के कारण वृष्टि ज्ञान को पराशर ने प्रमुखता दी है[2] तथा इसी क्रम में बतलाया है कि
विभिन्न ग्रहों का वर्षा पर क्या प्रभाव पड़ता है जैसे कि चन्द्रमा के संवत्सर का
राजा होने पर पृथ्वी धान्य से पूर्ण होती है तथा शनि के राजा होने पर वर्षा मन्द
होती है।
इसी प्रकार मेघों के प्रकार का वर्णन, अलग-अलग ऋतुओं में होने वाली वर्षा के
लक्षणों का वर्णन तथा अनावृष्टि के लक्षणों का भी पराशर ने वर्णन किया है। साथ ही
ऋषि ने कृषि कर्म में नियुक्त पशुओं के भी उचित रखरखाव करने को कहा है तथा उतना ही
कृषि कर्म करने का निर्देश किया है जिससे पशु को कष्ट न हो जो पशुओं के प्रति
भारतीय व्यवहार का द्योतक है।[3]
इसके पश्चात् गौशाला की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देने की बात
कही है। पशुओं के त्यौहारों का तथा हल सामग्री का भी वर्णन ऋषि ने किया है। इसके
पश्चात कृषि कर्म प्रारम्भ करने के समय का वर्णन करते हुए कहा है कि शुभ समय में
ही यथाविधि पूजन करके हल प्रसारण करना चाहिए।
इसके पश्चात शोधित किए तथा संरक्षित हुए बीजों को उचित समय में
बोने का निर्देश है साथ ही धान्य को काटने तथा उसको तृणरहित करने का वर्णन है।
पराशर ऋषि कहते हैं कि जो धान्य तृण रहित नहीं किया जाता वो क्षीण हो जाता है।[4]
इसके साथ ही जलरक्षण का भी वर्णन प्राप्त होता है। ऋषि पराशर इसके
लिए निर्देश करते हुए कहते हैं कि शरत्काल आने पर जल का संरक्षण करना चाहिए तथा
क्षेत्र में नल का रोपण करना चाहिए। इसके साथ पराशर ने धान्य काटने से पूर्व
पुष्ययात्रा का विधान किया है जो सभी विघ्नों की शान्ति तथा धान्य की वृद्धि केलिए
होती थी। तत्पश्चात् पौष मास में धान्य काटने का निर्देश किया गया है।
1.
इन्हें भी देखें अन्न प्राणा बलं
चान्नमन्नं सर्वार्थसाधनम्।
देवासुरमनुष्याश्च सर्वे चान्नोपजीविनः ॥ (६)
अन्नं हि धान्यसंजातं धान्यं कृपया विना न च।
तस्मात् सर्वं परित्यज्य कृषिं यत्नेन कारयेत् ॥ (७)
2.
↑ वृष्टिमूला कृषिः सर्वा वृष्टिमूलं च जीवनम्।
तस्मादादौ प्रयत्नेन वृष्टिज्ञानं समाचरेत् ॥ (१०)
3.
↑ कृषिं च तादृशीं कुर्याद्यथा वाहान्न पीडयेत्।
वाहपीडार्जितं शस्यं गर्हितं सर्वकर्मसु ॥ (८४)
4.
↑ निष्पन्नमपि यद्धान्यं न कृतं तृणवर्जितम्।
न सम्यक् प्हलमाप्नोति तृणक्षीणा कृषिर्भवेत् ॥ (१८९)
1.
महर्षि पराशर का काल
★ पराशर का काल
महाभारत काल के लगभग होना अनुमित है। कलियुग नामक कालखण्ड के प्रारम्भ में होने के
कारण उत्तरोत्तर बलियस्त्व के सिद्धांत से कलियुग में पराशर मत्त की सर्वोपरि
मान्यता स्पष्ट है।
★ कौटिल्य के
अर्थशास्त्र के एक या दो स्थानों पर ऐसा आभास मिलता है कि उस समय वशिष्ठ व पितामह
सिद्धान्त का प्रचार था अतः नारद,
वशिष्ठ, पितामहादि ज्योतिष प्रवर्तकों के पश्चात पराशर का समय मानने से
परम्परया इनका अस्तित्व कलियुग के आदि में प्रतीत होता है।
★ पराशरः का सृष्टि
तत्व निरूपण सूर्य सिद्धांत के तदीय प्रकरण से मेल खाता है। अतः पौराणिक काल में
आधुनिक मत्त से पाणिनि से पहले,
चाणक्य से भी पहले, वैदिक रचना काल के बाद, पुराण युग में, महाभारत युद्ध की घटना के आसपास पराशर
विद्यमान थे।
★ अर्थशास्त्र में
पराशर का नामोल्लेख पाया जाता है। गरुड़ पुराण में पराशरस्मृति के श्लोकों का
संग्रह किया गया है।
★ बृहदारण्यकोपनिषद व
तैत्तिरीयारण्यक में व्यास व पराशर के नाम आते हैं।
★ यास्क ने अपने निरुक्त में पराशर के मूल का भी उल्लेख किया है। ये कृष्णद्वैपायन व्यास के
पिता थे तथा इनके पिता का नाम 'शक्ति' था। वराह ने पराशर को शक्तिपुत्र या शक्ति पूर्व कहा है।
★ अग्निपुराण में
स्पष्टतया इन्हें शक्ति का पुत्र ही कहा है। यही पराशर मत्स्यगंधा सत्यवती पर
मोहित हुए थे तथा सत्यवती के गर्भ से पराशर पुत्र कृष्णद्वैपायन व्यास उत्पन्न हुए
थे, यह सुविदित ही है।
★ इन्ही पराशर ने
कलियुग में व्यवस्था बनाये रखने के लिए 'पराशरस्मृति' या 'द्वादशाध्यायी' धर्मसंहिता की रचना की थी।
कृते तु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः। द्वापरे शंखलिखितः
कलौ पराशरः स्मृतः॥
★ कृष्णद्वैपायन
व्यास जी जब कुछ मुनियों को बदरिकाश्रम(बद्रीनाथ तीर्थ)में स्थित अपने पिता पराशर
के पास ले गए थे तब पराशर ने उन्हें वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था परक ज्ञान दिया था।
★ वराह ने इन्ही
शक्तिपुत्र पराशर को होराशास्त्र का प्रवक्ता भी माना है।वराहमिहिर पांचवी सदी में
हुए हैं, ऐसा माना जाता है। अतः प्रत्येक परिस्थिति में आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पराशर
के समय की निचली सीमा है।
★ श्रीमद् भागवत में
एक स्थान पर विदुर व मैत्रेय का वार्तालाप उल्लिखित है। इससे भी मैत्रेय, पराशर व महाभारत की कड़ियाँ मिलती
प्रतीत होती है। मैत्रेय को होराशास्त्र बताने वाले महर्षि पराशर महाभारत काल में
वृद्धावस्था या चतुर्थाश्रम प्राप्त ऋषि थे। महाभारत का समय परम्परया कम से कम 3000 वर्ष पूर्व माना
जाता है। अतः पराशर 2-3 सहस्त्राब्दियों पूर्व भारत में हुए थे।
★ 'पराशर तन्त्र' का उल्लेख भट्टोत्पल ने अनेक स्थानों
पर किया है। उन्होंने बृहज्जातक की टीका में 'पाराशरी संहिता' देखने व पढ़ने की बात स्वीकार की है। 'पराशर तन्त्र' नाम से जो उद्धरण दिए गए हैं, उनका विषय तन्त्र अर्थात सिद्धांत
ज्योतिष से कम व संहिता से अधिक मेल खाता है।
1.
शिव भक्त पराशर वेदव्यास पराशर
★ भगवान ब्रह्मा जी नारद जी से कहते
हैं-
ब्रह्मा जी बोले - हे नारद! अब हम् शिवजी के छब्बीसवें अवतार की
कथा कहते हैं, तुम मन लगाकर सुनो।
★ भगवान शिव का छब्बीसवाँ अवतार -
छब्बीसवें द्वापर में पराशर ने व्यास का जन्म लिया, जो हमारे प्रपौत्र थे तथा शक्ति से
उत्पन्न हुए थे। उनके समान शिव भक्त कोई नही हुआ। उन्होंने वेद के १. ऋक् २. यजु
३. साम एवं ४. अथर्वण ये चार भाग किये तथा उनकी शाखाओं को बढ़ाया। तत्पश्चात अठारह
पुराण बनाये, क्योंकि कलियुग के प्रवेश से सांसारिक जीवों की बुद्धि नष्ट हो गयी
थी। उन्होंने वेद की रीतियाँ युक्ति पूर्वक पुराणों में इस प्रकार मिला दी, जिससे लोग प्रसन्न हो। जिस प्रकार की
कोई वैद्य कड़वी औषधि न देकर मीठी औषधि द्वारा रोगी को प्रसन्न करता है। उन्होंने
अन्य व्यासों की अपेक्षा जो कि पहले हुए थे, अधिक अच्छे पुराण बनाये। यद्यपि हमने
तथा व्यास (पराशर) ने अनेकों प्रकार के प्रयत्न किए, जिससे कि व्यासमत्त प्रसिद्ध हो परंतु
हमारा यत्न निष्फल हुआ और किसी ने भी पुराणों को न पढ़ा। तब व्यास पराशर ने चिंतित
होकर शिवजी का ध्यान किया तथा स्तुति करते हुए उनसे कहा कि हे प्रभो! द्वापर युग
व्यतीत हो गया तथा कलियुग आ गया। यद्यपि मैंने वेद के आशय पुराणों में प्रकट कर
दिए, परंतु कलियुग के प्रभाव से इन्हें कोई नही समझता, प्रबृत्ति मार्ग को बढ़ रहा है, परंतु निब्रति की समाप्ति हो रही है।
हे प्रभो! हे भक्तवत्सल! किसी ने भी पुराणों को नहीं छूआ, अतः मेरा मत्त प्रसिद्ध नही होता
इसलिए आप मेरी प्रार्थना सुनकर सहायता कीजिये तथा मेरे धर्म को दृढ़ कीजिये।आप
अवतार लेकर मेरे मत की वृद्धि करें। हे नारद! मेरे प्रपौत्र व्यास पराशर की इस
प्रार्थना को शिवजी ने स्वीकार कर लिया तथा छब्बीसवें द्वापर के अंत में और कलियुग
के प्रारंभ में "#सहिष्णु" नामक अवतार ग्रहण कर लिया तथा १. उलूक २. विद्युत ३.
सम्बल तथा ४. अश्वलायन ये चार शिष्य उत्पन्न किये तथा उन्हें योग का ज्ञान सिखाया
तथा उन्होंने योग को प्रकट किया।उस योग को संसारी जीवों ने बड़े यत्न से सीखा। फिर
उन्होंने वेद एवं पुराणों से अच्छे धर्म एवं मत्त प्रकट किए। शिवजी के ये चार
शिष्य आश्रम जानने वाले, योगाभ्यासी तथा निष्पाप हुए। हे नारद ! इस प्रकार भगवान
शिव ने अपने इन चार शिष्यों सहित योग को प्रकट कर पुराणों को प्रसिद्ध किया तथा
व्यास(#पराशर)जी को प्रसन्न किया।
1.
भगवान_श्री _पराशर_दोहा -
1.
वशिष्ठ जैगीषव्य नामा, देवल कपिल रहे सुखधामा।
सनंदन सनातन हि कहेउ वोढु पंचशिख नाम रहेऊ ॥११॥ शुक्र चवन नर शक्रि हि, #पराशर हि व्यास।
1.
शुकदेव जैमिनी ऋषि, मार्कण्डेय हरिदास ॥१३॥
पौलस्त्य शरद्वान,
अगस्त्य अरिष्टनेमि हि। शमीक हि बुद्धिमान, मांडव्य पैल पाणिनी यह ॥१५॥ भागुरि याज्ञवल्क्य
हि कहाये, #द्वैपायन पिप्पलाद रहाये।
1.
मैत्रेय करख उपमन्यु जेहा, गोरमुख अरुणि और्व तेहा ॥१६॥
कक्षिवान् भरद्वाज कहिजे, वेदशिर शंकुवर्ण लहीजे। शौनक #परशुराम कहावे, इंद्रप्रमद और्व कवष रहावे ॥१८॥
- #श्रीहरिचरित्रामृतसागर
नमो वसिष्ठाय महाव्रताय पराशरं वेदनिधिं नमस्ये। नमोऽस्त्वनन्ताय
महोरगाय, नमोऽस्तु सिद्धेभ्य इहाक्षयेभ्यः ॥१०॥ नमोऽस्त्वृषिभ्यः परमं
परेषां देवेषु देवं वरदं वराणाम् । सहस्त्रशीर्षाय नमः शिवाय सहस्त्रनामाय
जनार्दनाय ॥११॥
अर्थात - (यह मंत्र इस प्रकार है) - महान व्रतधारी वसिष्ठ को
नमस्कार है, वेदनिधि पराशर को नमस्कार है, विशाल सर्प-रूपधारी अनन्त(शेषनाग)को
नमस्कार है, अक्षय सिद्धगण को नमस्कार है, ऋषि वृन्द को नमस्कार है तथा परात्पर, देवाधिदेव, वरदाता परमेश्वर को नमस्कार है एवं
सहस्त्र मस्तक वाले शिव को और सहस्त्रों नाम धारण करने वाले भगवान जनार्दन को
नमस्कार है। - महाभारतम्
तपोनिधि, तपोमूर्ति भक्तवत्सल पराशर का आश्रम - बद्रिकाश्रम
ततस्ते ऋषयः सर्वे धर्मतत्वार्थकांक्षिणः।
ऋषिं व्यासं पुरस्कृत्य गता बदरिकाश्रमं ॥५॥
नानापुष्पलताकीर्णम् फलपुष्पैरलंकृतम्।
नदिप्रस्त्रवणोपेतं पुण्यतीर्थोपशोभितम् च॥६॥
मृगपक्षिनिनादाढ़यं देवतायनावृतम्।
यक्षगन्धर्वसिद्धैश्च नृत्यंगीतैरलंकृतम् ॥७॥
तस्मिन्नृषिसभामध्ये शक्तिपुत्रं पराशरम्।
सुखासीनं महातेजा मुनिमुख्यगणावृतम् ॥८॥
कृतांजलिपुटो भूत्वा व्यासस्तु ऋषिभि: सह।
प्रदक्षिणाभिवादैश्च स्तुतिभि: समपूज्यत्॥९॥
अर्थात - तब धर्म के तत्व की अभिलाषा करने वाले वह सम्पूर्ण ऋषि यह
सुनकर श्री व्यास जी को आगे कर #बदरिकाश्रम को गये।#यह #आश्रम अनेक भाँति पुष्पों_की_लताओं_से_पूर्ण, #फल-#पुष्पों से शोभायमान, #नदी_और_झरनों से विभूषित, #पवित्र_तीर्थों से शोभायमान, #मृग_और_पक्षियों के शब्द से शब्दायमान, #देवमन्दिरों से आवृत, #यक्ष_और_गंधर्वों के नृत्यगान से #शोभायमान, और #सिद्धगणों से अलंकृत था। #उस_आश्रम में #शक्ति_ऋषि के पुत्र #मुनिवर_पराशर #प्रधान_प्रधान_मुनियों_से_युक्त_होकर
1.
ऋषियों_की_सभा_में_सुखपूर्वक_बैठे_थे। इस समय में #व्यास जी ने ऋषियों के साथ जाकर हाथ
जोड़कर उनकी #प्रदक्षिणा_कर #प्रणामपूर्वक_स्तुति_करके_पूजन_किया। पराशर स्मृति
■ संस्कृत साहित्य में 'पराशर' यह नाम आदरणीय ही नही अपितु अत्यंत
प्राचीन भी है। संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद में वशिष्ठ, शतायु के साथ पराशर का भी नाम आया है।
◆ प्रये गृहात् ममदुस्त्वाया पराशरः शतायुर्वशिष्ठ ।।
● संदर्भ - द्वितीय खंड ऋग्वेद मंडल 7, अध्याय 2 सूक्त 18, मंत्र 21)
● इन तीनों ने राजा सुदास की विजय कामना
के लिए इंद्र से प्रार्थना की थी।
■ ऋग्वेद के प्रथम खंड, प्रथम मंडल, पंचम अध्याय सूक्त 65-73 (पृष्ठ 121 से 133 तक) तक के सूक्तों
के द्रष्टा (निर्माता), दिव्य द्रष्टा,
वैदिक द्रष्टा,भविष्य द्रष्टा अधभूतकर्मा भगवन् महर्षि पराशर ही माने जाते है।
■ एक अन्य उल्लेख के आधार पर पराशर नाम
वाली एक वेद शाखा भी है।
● संदर्भ - काठक अनुक्रमणिका, 'इस्तु' 3/460, पृष्ठ 7
■ निरुक्त में पराशर के मूल पर लिखा
पाया जाता है।
◆ द्वात्रिंशच्छ्तपदेषु
पराशरः ● संदर्भ - निरुक्त (निघण्टु) 4/3
■ पाणिनि मुनि ने अपने व्याकरण शास्त्र
में 'पराशर' को भिक्षु-सूत्र प्रणेता के रूप में उद्धृत कर पाराशर्यों का भी
उल्लेख किया है।
◆ "पाराशर्येण प्रोक्तं भिक्षु-सूत्रमधीयते। पाराशरिणो भिक्षवः। तथा 'पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनट
सूत्रयोः'। ● संदर्भ - अष्टाध्यायी -
4/3/110
■ रामायण - वाल्मीकि रामायण में वशिष्ठ
के पौत्र तथा शक्ति के पुत्र के रूप में पराशर की चर्चा हुई है। ■ महाभारत - आदिपर्व, शांतिपर्व, अनुशासन पर्व में पराशर को लेकर
पर्याप्त उल्लेख मिलता है। महाभारत में ही शक्ति पुत्र(शाक्तेय) पराशर के साथ
पराशर नामक एक सर्प की भी चर्चा की गई है। ◆ पराशरस्तरुण को
मणि: स्कंधस्तारुणि:। इति नामा....। ● संदर्भ -(महाभारत आदिपर्व, अध्याय 57, श्लोक 19)
■ कौटिल्य अर्थशास्त्र - कौटिल्य
अर्थशास्त्र में पराशर एवं पाराशर्य नाम से छः बार उल्लेख हुआ है। ◆ 'साधारण एष दोष इति
पराशरः' ● संदर्भ - कौटिल्य अर्थशास्त्र - 1.8 पृ.34, तथा 1/15/59, 1/17/68, 2/17/119, 8/1/572, 8/3/583
■ ब्रह्मांडपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, देवीभागवतपुराण और विष्णु आदि पुराणों
में पराशर को एवं उनके मतों को अंकित किया गया।
● ब्रह्मांडपुराण - खंड 2, अध्याय 32 श्लोक 115, 2/33/3, 2/35/24,29, 4/4/65-66, 1/1/9, 3/8/11, आदि। ● वायुपुराण - अध्याय
- 23,59,61,65,77
● मत्स्य-पुराण - अध्याय - 14,53,145 ● देविभागवतपुराण - प्रथम एवं द्वादश स्कन्ध
■ वराहमिहिर -
● भारतीय ज्योतिष-शास्त्र में आचार्य
वराह-मिहिर का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन्होंने अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों के साथ
अपनी संहिता में पराशर के नाम और सिद्धांतो को उद्धृत किया है। रोहिणी योग पर
लिखते हुए उन्होंने गर्ग और कश्यप के साथ पराशर की चर्चा की है। वाराही संहिता के
टीकाकार भट्टोत्पल ने पराशरीय संहिता को उद्धृत करते हुए लिखा है - धनिष्ठाद्यात् पौष्ठार्द्धांतं
चरः शिशिरः। वसंत पौषणार्द्धात् रोहिणयाम्।सौम्यादाश्लेषार्द्धनतं ग्रीष्म:।
प्रावृडाशलेषार्द्धत् हस्तान्तम्। चित्राद्यात ज्येष्ठार्द्धत् श्रवणांतम्।
● वराहमिहिर के टिकाकर भट्टोत्पल ने
पराशर का ऋतु-अवस्थान विषय-पाठ उद्धृत किया है।
■ सिद्धेश्वर शास्त्री- सिद्धेश्वर
शास्त्री चित्राव के अनुसार पराशर आयुर्वेदाचार्यों में आयुर्वेदशास्त्र प्रणेता
हैं।
पृथिव्युवाच :
-
तथानुकम्पमानेन यज्वनाथामितौजसा ।।७६।। पराशरेण दायादः
सौदासस्याभिरक्षितः । सर्वकर्माणि कुरुते शूद्रवत् तस्य स द्विजः ।।७७।।
सर्वकर्मेत्यभिख्यातः स माम रक्षतु पार्थिवः।।
अर्थात - पृथ्वी देवी कहती है - इसी प्रकार अमित शक्तिशाली
यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचाई है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रों के
समान सब कर्म करता है। इसलिए 'सर्वकर्मा' नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे।
- पृथ्वी देवी (महाभारत - शांति पर्व)
'पराशर' शब्द का अर्थ
पराशर' शब्द का अर्थ है - 'पराशृणाति पापानीति पराशरः' अर्थात् जो दर्शन-स्मरण करने से ही
समस्त पापों का नाश करता है,
वही पराशर है।
1.
आचार्य_सायण_ने_पराशर_शब्द_की #व्याख्या इस प्रकार की है -
हे पराशर परागत्य शृणाति हिनस्ति शत्रुन् इति पराशर:॥१॥
अर्थात - शत्रुओं को परास्त करके उन्हें नष्ट कर देने वाले को #पराशर कहते हैं।
- सायण भाष्य
1.
निरुक्त में एक अन्य स्थल पर #पराशर की #दूसरी_व्याख्या इन शब्दों में विवेचित है-
पराशातयिता यातुनाम् इति पराशरः।... परा परितः यातूनां...
रक्षसाम्। ...शातयिता विनाशकः॥३०॥(निरुक्त ६.३०)
अर्थात - जो चारों ओर से राक्षसों का विनाश करने में समर्थ हो वह #पराशर है।
- निरुक्त/ निघण्टु ( #आचार्य_यास्क)
परं मातुर्निमातुरनिजायायददरं तदयं यतः। ऋचमुच्चार्य निर्भिद्य निर्गात
स पराशरः ।।१।।
अर्थात - यह माता के उदर से वेद ऋचाओं को बोलते हुए निकाला था, अतः इसका नाम पराशर रखा गया।
★★★ परस्य कामदेवस्य शरः सम्मोहनादयः। न
विद्यन्ते यतस्तेन ऋषिरुक्तः पराशरः।।२।।
अर्थात - कामदेव के सम्मोहन, उन्मादन, शोषण, तापन, स्तम्भन, इन पांच बाणों का प्रभाव अपने पर न
होने देने के यतन के कारण ऋषियों ने भी इन्हें "पराशर" ही कहा।
★★★ पराकृताः शरा यस्मात् राक्षसानां
वधार्थिनाम्। अतः पराशरो नामः ऋषिरुक्तः मनीषिभिः।। पराशातयिता यातूनाम् इति
पराशरः।
।।३,३१/२।।
अर्थात - वध की इच्छा रखने वाले राक्षसों के बाणों को इन्होंने परे कर
दिया। अतः बुद्धिमानों ने इनका नाम "पराशर"नाम कहा।
★★★ परासुः स यतस्तेन वशिष्ठः स्थापितो
मुनिः। गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ।।४।। अर्थात - उस बालक ने गर्भ में
आकर परासु (मरने की इच्छा वाले ) वसिष्ठ मुनि को पुन: जीवित रहने के लिये उत्साहित
किया था; इसलिये वह लोक में "पराशर" के नाम से विख्यात हुआ।
★★★ पराशृणाती पापानीति पराशर: ।।५।।
अर्थात - जो दर्शन स्मरण करने मात्र से ही समस्त पाप-ताप को छिन्न-भिन्न कर
देते हैं वे ही पराशर हैं।
★★★ अतः प्राण-परित्याग करने की इच्छा
वाले वशिष्ठ का आधार होने के कारण, या काम-बाण प्रभावों को परास्त करने
के कारण, या फिर शरों से दूर ले जाकर इनका रक्षण करने के कारण अथवा शत्रुओं
का पराभव करने वाला होने के कारण इस बालक का नाम #पराशर ही व्यवहार में आया। ॥
वेदों में वर्णित #पराशर_शाबर_मंत्र -
वेदों में वर्णित #सत्यवादी_मुनिश्रेष्ठ_महामना #पराशर के गुणों का वर्णन -
अपराजितो जितारातिः सदानन्दों दयायुतः गोपालो गोपतिर्गोप्ता
कलिकालपराशरः॥५८॥
अर्थात - शत्रुओं के द्वारा अजेय, शत्रुओं को जीतने वाले, सदा आनन्दित रहने वाले, दयालु, पृथ्वी का पालन करने वाले, इंद्रियों के स्वामी, भक्तों के रक्षक #कलिकाल(कलियुग) के #मुनिश्रेष्ठ_पराशर अर्थात् कथा वाचकों के उत्पादक #महामुनि_पराशर ।
1.
अथर्ववेद_में_महर्षि_पराशर_का_देवत्व -
★ अथर्ववेद में
ऋषिश्रेष्ठ पराशर का देवत्व निर्दिष्ट है। अथर्ववेद में वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, तपोनिधि, भगवान पराशर की गणना ऋषियों में न
होकर देवताओं में कई गयी है।
★ ऋषि- अथर्ववेद के
अधिकांश सूक्तों के ऋषि 'अथर्वा'(अविचल, प्रज्ञायुक्त-स्थिरप्रज्ञ) ऋषि हैं। अन्य अनेक ऋषियों के सूक्तों
के साथ भी अथर्वा का नाम संयुक्त है। जैसे अथर्वाचार्य, अथर्वाकृति, अथर्वाङ्गिरा, भृगवंगीरा ब्रह्मा आदि।
★ अथर्वेद में इन
निम्नलिखित सभी को ऋषित्व प्राप्त है -
१. भृगु अर्थवण
२. वशिष्ठ ३. अगत्स्य ४. अंगिरा ५. अथर्वा, ६. भृगु ७. जमदग्नि, ८. कश्यप ९. कण्व, १०. विश्वामित्र ..... आदि।
★ अथर्वेद में
निम्नलिखित सभी को देवत्व प्राप्त है -
देवता - अथर्ववेद में देवताओं की संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा
दोगुनी से भी अधिक है।
१. अंश २. अग्नि ३. अग्नाविष्णु ४. अरुंधती नामक औषधि ५. अश्विनीकुमार ६. इन्द्र ७. कश्यप
८.चंद्रमा ९.धन्वंतरि १०. #पराशर
★ अथर्ववेद के इस मंत्र में #पराशर से प्रार्थना की गई है की वे
शत्रु को नष्ट करें।
1.
अथर्ववेद -
(६५- शत्रुनाशक सूक्त)
【ऋषि - अथर्वा,
देवता - #पराशर, छन्द-१ पथ्यापंक्ति, २-३ अनुष्टुप】
अव मन्युरवायताव बाहू मनोयुजा।
1.
पराशर त्वं तेषां पराञ्चम्
शुष्ममर्दयाधा नो रयिमा कृधि ॥१॥
अर्थात - (शत्रु के) क्रोध एवं शस्त्रास्त्र दूर हों। शत्रुओं की
भुजाएं अशक्त एवं मन साहसहीन हों। हे दूर से ही शर-संधान में निपुण देव (#पराशर)! आप उन शत्रुओं के बल को
परांगमुख करके नष्ट करें तथा उनके धन हमें प्रदान करें।
परासुः स यतस्तेन वशिष्ठः स्थापितो मुनिः।
गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ॥ महाभारतम् १। १७९। ३
परासोराशासनमवस्थानं येन स पराशरः। आंपूर्ब्बाच्छासतेर्डरन्। इति नीलकण्ठः ॥
बाल्य और शिक्षा
पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि था और उनकी माता का नाम
अद्यश्यन्ती था। शक्तिमुनि वसिष्ठऋषि के पुत्र और वेदव्यास के पितामह थे। इस
आधार पर पराशर वसिष्ठ के पौत्र थे।
सुतं त्वजनयच्छक्त्रेरदृश्यन्ती पराशरम्।
काली पराशरात् जज्ञे कृष्णद्वैपायनं मुनिम् ॥ इत्यग्निपुराणम् ॥
शक्तिमुनि का विवाह तपस्वी वैश्य चित्रमुख की कन्या अदृश्यन्ती से
हुआ था। माता के गर्भ में रहते हुए पराशर ने पिता के मुँह से ब्रह्माण्ड पुराण सुना था, कालान्तर में उन्होंने प्रसिद्ध
जितेन्द्रिय मुनि एवं युधिष्ठिर के सभासद जातुकर्ण्य को उसका उपदेश किया
था। पराशर बाष्कल के शिष्य थे। ऋषि बाष्कल ऋग्वेद के आचार्य थे। याज्ञवल्क्य, पराशर, बोध्य और अग्निमाढक इनके शिष्य थे।
बाष्कल ने ऋग्वेद की एक शाखा के चार विभाग करके अपने इन शिष्यों को पढ़ाया था।
पराशर याज्ञवल्क्य के भी शिष्य थे।
राक्षस-सत्र
इक्ष्वाकुवंशी अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के पौत्र सुदास हुए थे। उनके पुत्र वीरसह (मित्रसह) हुए, जो सुदास-पुत्र होने से सौदास भी
कहलाते थे। महर्षि वसिष्ठ के शाप से वे नरभोजी राक्षस कल्माषपाद हुए। राक्षस रूप
कल्माषपाद ने शक्ति सहित वसिष्ठ के सौ पुत्रों को खा लिया। इससे दु:खार्त वसिष्ठ
ने आत्महत्या के कई प्रयत्न किये,
पर सफल नहीं हुए। अतः शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती को साथ लेकर वे
हिमालय पर पहुँचे। एक बार वसिष्ठने वेदाध्ययन की ध्वनि सुनी तो चकित रह गये, इसलिए कि वेद-पाठ करने वाला कोई वहाँ
दिखाई नहीं दे रहा था। तब अदृश्यन्ती ने उन्हें बता दिया कि शक्ति का पुत्र मेरे
गर्भ में है और उसी के वेदाध्ययन की ध्वनि सुनी गयी है। यह सुनकर वसिष्ठ इतने
प्रसन्न हुए कि उन्होंने मृत्यु की इच्छा छोड़ दी। जन्मोपरांत पराशर ने सुन लिया
कि राक्षस कल्माषपाद ने उनके पिता शक्ति को खा लिया था। यह सुनते ही उनके मन में राक्षसों के प्रति घोर विरोध
उत्पन्न हुआ और उन्होंने संसार से राक्षसों का अन्त कर डालने का निश्चय किया। इस आशय
से उन्होंने अपना राक्षस-सत्र आरंभ किया जिसमें राक्षस मरते जा रहे थे। कई राक्षस
स्वाहा हो गये तो निऋति की आज्ञा पाकर महर्षि पुलस्त्य पराशर के पास गये
और राक्षसवंश को बचाये रखने के लिए राक्षस-सत्र पूर्ण करने की प्रार्थना की।
उन्होंने अहिंसा का उपदेश दिया। व्यास ने भी पराशर को
समझाया कि बिना किसी दोष के समस्त राक्षसों का संहार करना अनुचित है, इसलिए आप अपना यज्ञ पूर्ण करें
क्योंकि साधुओं का भूषण क्षमा है -
अलं निशाचरर्दर्ग्धर्दी नैश्यकारिभिः।
सत्रं ये विरमत्ये तत्क्षमाजरा हि साधनः॥ [1]
पुलस्त्य तथा व्यास के सदुपदेशों से
प्रभावित होकर पराशर ने अपना राक्षस-सत्र पूर्ण किया। उन्होंने अग्नि को हिमालय के समतल प्रदेश में
रख दिया। पुलस्त्य ने राक्षस-सत्र पूर्ण करने के उपलक्ष्य में उन्हें कई प्रकार के
आशीर्वाद दिये। उन्होंने बताया कि क्रोध करने पर भी तुम ने मेरे वंश का मूलोच्छेद
नहीं किया। उसके लिए तुम को एक विशेष वर प्रदान करता हूँ। तुम पुराण संहिता के
रचयिता बनोगे।[2][3] देवता तथा परमार्थतत्त्व को यथावत्
जान सकोगे और मेरे प्रसाद से निवृत्त और प्रवृत्तिमूलक धर्म में तुम्हारी बुद्धि
निर्मल एवं असंदिग्ध रहेगी -
सन्ततेर्न ममोच्छेदः क्रुद्धेनापि यतः कृतः।
त्वयः तस्मान्महाभाग ददम्यन्यं महावरम्॥
पुराणसंहिताकर्ता भवान्वत्स भविष्यति।
देवता पारमार्थ्य च यथाद्वेत्यते भवान्॥
प्रवृत्ते च निवृत्ते च कर्मण्यस्तमला मितः।
मत्प्रसादादसन्दिग्धा यव वत्स भविष्यति॥ [4]
विवाह और सन्तति
नर्मदा के उत्तरी तट पर
पराशर ने पुत्र-प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या की और पार्वती ने प्रत्यक्ष दर्शन
देकर उनकी इच्छा पूर्ण होने का आश्वासन दिया।
चेदिराज नामक उपरिचर वसु एक बार मृगया के लिए निकला, तो सुगंधित पवन, सुंदर वातावरण आदि से प्रभावित राजा
को अपनी पत्नी याद आयी और उसका वीर्य-स्खलन हुआ। उसे अपनी पत्नी तक पहुँचाने की, राजा ने एक श्येन पक्षी से प्रार्थना
की। श्येन जब उसे ले जा रहा था,
उसे मांसपिंड समझ कर मार्ग में एक दूसरा श्येन पक्षी हड़पने लगा।
तब वह वीर्य कालिन्दी के जल में जा गिरा, जिसे ब्रह्मा के शापवश मछली के रूप
में कालिन्दी में रहती आ रही अद्रिका नामक अप्सरा ने निगल लिया। फलतः उस मछली के
गर्भ से एक पुत्री और एक पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र का नाम मत्स्य पड़ा, जो विराट राजा बना। पुत्री का नाम
काली रखा गया और वह एक धीवर के यहाँ पालित हुई। काली या मत्स्यगंधा जब किंचित्
बड़ी हुई, तब वह अपने पालित पिता की नाव चलाने के काम में सहायता करती थी। एक
प्रातःकाल पराशर यमुना पार करने के लिए आये। धीवर कन्या काली ने ही नाव खेयी। उसे
देख पराशर मुनि मुग्ध हो गये और उससे कामपूर्ति की प्रार्थना की। दूसरा कोई न देख
पाए, इसके लिए मुनि ने कुहासे की सृष्टि की और उसके साथ संभोग किया, जिसके फलस्वरूप पराशर-पुत्र व्यास का
जन्म हुआ।[5]
पराशर के अनुग्रह एवं आशीर्वाद से काली का कौमार रह गया। पराशर के
आश्लेष से काली सुवास से युक्त सत्यवती हुई। सत्यवती को
योजनगंधा होने का वरदान दिया। यही सत्यवती कालांतर में शंतनु की पत्नी हुई, जिसके गर्भ से चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य का जन्म हुआ।
विचित्रवीर्य ने काशीराज-पुत्री अंबिका तथा अंबालिका को ब्याहा, पर वह निस्संतान मर गया। तब सत्यवती
के आग्रह पर अंबिका तथा अंबालिका के साथ व्यास का नियोग हुआ और फलस्वरूप पांडु एवं धृतराष्ट्र का जन्म हुआ।
पराशर-पुत्र व्यास वेदों का विभाजन करके वेदव्यास कहलाये। महाभारत एवं पुराणों के
रचयिता होने का श्रेय भी व्यास को दिया जाता है।
पराशर के उलूक आदि पुत्र भी थे। भविष्यपुराण के अनुसार उलूक की बहन
उलूकि का पुत्र वैशेषिक शाखा का प्रवक्ता कणाद हुआ।
कथाएँ
मनोजव की कथा
एक बार चंद्रवंशी राजा मनोजव को शत्रुओं ने देश पर आक्रमण करके
परिवार सहित भगा दिया। तब वे सेतुबंध के समीप एक वन में पहुँचे। भूखे-प्यासे पुत्र
तथा पत्नी को देखकर राजा मूच्छित हो गये। तभी उस मार्ग पर निकले हुए पराशर मुनि
वहाँ पहुंचे। पति की मूच्छा पर विलाप करती रानी सुमित्रा को उन्होंने आश्वस्त किया
तथा अपने हाथ से राजा का स्पर्श किया। राजा होश में आया। उसने मुनि को प्रणाम
किया। तब पराशर ने शत्रुओं पर विजय पाने के लिए सेतुबंध के मंगलतीर्थ में स्नान
करने का उसे उपदेश दिया। मुनि ने उसे श्रीरामजी के एकाक्षर मंत्र का उपदेश किया।
उसका विधिवत् जप करने पर राजा के सम्मुख युद्ध के लिए आवश्यक धनुष-बाण, रथ, सारथी सब स्वयं प्रकट हुए। मुनि पराशर
ने पवित्र जल से राजा का अभिषेक किया तथा दिव्यास्त्रों की प्रयोग-विधि समझायी।
राजा ने पुनः शत्रु पर विजय पायी और अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया।
जनक से संवाद
पराशर ने महाराज जनक से मिलकर अध्यात्म के संबंध में चर्चा की। एक
बार राजा जनक ने कल्याणप्राप्ति का उपाय जानना चाहा, तो पराशर ने सदाचार एवं धर्मनिष्ठा का
उपदेश दिया।
धर्म एव कृतः श्रेयानिहलोके परत्र च।
तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिणः॥ [6]
अर्थात् मनीषियों का कथन है कि धर्म के विधिपूर्वक अनुष्ठान से इहलोक
एवं परलोक मंगलकारी बनते हैं। उससे बढ़कर श्रेयस्कर दूसरा कोई साधन नहीं है।
सत्संग को पराशर ने महत्त्व दिया।
गोत्रप्रवर्तक
इनसे प्रवृत्त पराशर गोत्र में गौर, नील, कृष्ण, श्वेत, श्याम और धूम्र छह भेद हैं। गौर पराशर
आदि के भी अनेक उपभेद मिलते हैं। उनके पराशर, वसिष्ठ और शक्ति तीन प्रवर हैं
(मत्स्य., 201)।
रचनाएँ
ऋग्वेद में पराशर की कई ऋचाएँ (1, 65-73-9, 97) हैं। विष्णुपुराण, पराशर स्मृति, विदेहराज जनक को उपदिष्ट गीता (पराशर गीता) जो महाभारत के शांतिपर्व का एक भाग है, बृहत्पराशरसंहिता आदि पराशर की रचनाएँ
हैं। भीष्माचार्य ने धर्मराज को पराशरोक्त गीता का उपदेश किया है (महाभारत, शांतिपर्व, 291-297)। इनके नाम से संबद्ध अनेक ग्रंथ ज्ञात होते हैं :
1. बृहत्पराशर होरा शास्त्र,
2. लघुपाराशरी (ज्यौतिष),
3. बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता,
4. पराशरीय धर्मसंहिता (स्मृति),
5. पराशर संहिता (वैद्यक),
6. पराशरीय पुराणम् (माधवाचार्य ने उल्लेख किया है),
7. पराशरौदितं नीतिशास्त्रम् (चाणक्य ने उल्लेख किया है),
8. पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने उल्लेख किया
है)।
पराशर स्मृति
पराशर स्मृति एक धर्मसंहिता है, जिसमें युगानुरूप धर्मनिष्ठा पर बल
दिया गया है। कहते हैं कि, एक बार ऋषियों ने कलियुग योग्य धर्मों को
समझाने की व्यास से प्रार्थना की।
व्यासजी ने अपने पिता पराशर से इसके संबंध में पूछना उचित समझा। अतः वे मुनियों को
लेकर बदरिकाश्रम में पराशर के पास
गये। पराशर ने समझाया कि कलियुग में लोगों की शारीरिक शक्ति कम होती है, इसलिए तपस्या, ज्ञान-संपादन, यज्ञ आदि सहज साध्य नहीं हैं। इसलिए
कलिकाल में दान रूप धर्म की महत्ता है।
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमित्यूचुर्दानमेकं कलौयुगे॥ [7]
कलियुग में पराशर प्रोक्त धर्म को विशेष मान्यता प्राप्त हुई है।
कहा गया है कि -
कृतेतु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः।
द्वापरे शंखलिखितः कलौ पराशरः स्मृतः॥ (पराशर स्मृति 1.24)
अर्थात् सत्ययुग में मनु द्वारा प्रोक्त धर्म मुख्य था, त्रेता में गौतम की महत्ता थी।
द्वापर में शंख-लिखित मुनियों द्वारा कहे गये धर्म की प्रतिष्ठा थी। पर कलिकाल में
पराशर से निर्दिष्ट धर्म की प्रतिष्ठा है। पराशर मुनि अहिंसा को परमाधिक महत्त्व
देते हैं। पराशरस्मृति में गोमाता कोे न केवल अवध्य, अपि तु पूजनीय भी कहा गया है। वैसे ही
वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का विशद वर्णन उनके स्मृति ग्रंथ में है। ग्रंथ के
अन्त में योग पर ज़ोर दिया गया है। पराशर ने आयुर्वेद एवं ज्योतिष पर भी अपनी
रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
शास्त्रों में
उल्लेख
1.
"सुतं त्यजनयच्छक्लेरदृश्यन्ती पराशरम्। काली पराशरात् जज्ञे
कृष्णद्वैपायनं मुनिम्॥" (अग्निपुराणम्)
2.
अयं हि द्वादशाध्यायात्मिकां
धर्मसंहितां कृतवान्।
3.
सा च कलिकर्तव्यधर्मविषया। यदुक्तं
तत्रैव।
4.
"कृते तु मानवो धर्मस्त्त्रेतायां गौतमः स्मृतः।
5.
द्वापरे शंखलिखितः कलौ पाराशरः
स्मृतः॥"
6.
अयं खलु मातुस्यगन्धायां सत्यवत्यां
वेदव्यासमुत्पादितवान्। ऐसा दो स्थानों पर कहा गया है। प्रथमबार देवी भागवत में और द्वीतयबार
स्कन्धपुराण के २ अध्याय में।
7.
परान् आशृणाति हिनस्तीति। शृ गि
हिंसे+अच्।" नागभेदः। यथा। महाभारत में १। ५७। १८।
8.
"वराहको वीरणकः सुचित्रश्चित्रवेगिकः। पराशरस्तरुणको
मणिस्कन्धस्तथारुणिः॥"
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