Tuesday, June 27, 2023

भरतनाट्यम

 

भरतनाट्यम, जिसे पहले सधीर अट्टम भी कहा जाता था, भारतीय शास्त्रीय नृत्य का एक प्रमुख रूप है जिसकी उत्पत्ति तमिलनाडु में हुई थी। यह प्राचीन काल से दक्षिणी भारत के मंदिरों और दरबारों में फला-फूला है। यह भारतीय शास्त्रीय नृत्य के मान्यता प्राप्त आठ रूपों में से एक है और यह दक्षिण भारतीय धार्मिक विषयों और आध्यात्मिक विचारों को व्यक्त करता है। विशेष रूप से शैव धर्म, वैष्णववाद और शक्तिवाद। मूर्तिकला और साहित्यिक साक्ष्य इंगित करते हैं कि भरतनाट्यम नृत्य, जो कि नाट्य शास्त्र पर आधारित है, पूरे भारत में मंदिर में पूजा के दौरान किया जाता था। बार-बार विदेशी आक्रमणों के कारण उत्तर में इस मूल शास्त्रीय नृत्य की परंपरा क्षतिग्रस्‍त हो गई और मिश्रित नृत्य रूपों ने इसे बदल दिया। सौभाग्य से, यह नृत्य परंपरा दक्षिण भारत में बनी रही, जहां इसे राजाओं द्वारा संरक्षण दिया गया और देवदासी प्रणाली द्वारा बनाए रखा गया।हम यह नहीं कह सकते कि भरतनाट्यम की परंपरा नाट्य शास्त्र के समय से या उससे पहले की शताब्‍दी से स्थिर है। यह धीरे धीरे विकसित हुई है और इस नृत्य के तत्वों में क्षेत्रीय विविधताएँ शामिल हैं। इस विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर भरतनाट्यम पाठ के वर्तमान स्वरूप का विकास था। यह 18 वीं शताब्दी के अंत में चार भाइयों के हाथों से हुआ, जिन्हें तंजावुर चौकड़ी के नाम से जाना जाता है। वे नट्टुवनार सुब्बारायण के चार पुत्र थे: चिन्नय्या, पोन्नय्या, वादिवेलु और शिवानंदम। उन्होंने भरतनाट्यम के संगीत को भी परिष्कृत किया, निस्संदेह उनके संगीत गुरु, महान संगीतकार मुथुस्वामी दीक्षितर से प्रभावित थे। इन घटनाओं ने सधीर को आज भरतनाट्यम के अग्रदूत के रूप में आकार दिया। ब्रिटिश (British) शासन के तहत, विभिन्‍न भारतीय कलाओं के विरूद्ध प्रचार किए गए, इसे क्रूड, अनैतिक और पश्चिमी सभ्यता की अवधारणाओं से नीचे प्रस्तुत किया गया। यह प्रभाव मंदिर में अनुष्ठानिक नृत्यों के लिए शाही दरबारों के संरक्षण को रोकने और शिक्षित भारतीयों को उनकी परंपराओं से दूर करने के लिए पर्याप्त था। आगे चलकर देवदासी प्रथा का पतन हो गया। इसने बदले में एक समुदाय के रूप में देवदासियों की प्रतिष्ठा को कम कर दिया। यहां तक कि जिन शब्दों से नृत्य को जाना जाता था - सदिर, नौच, दासी अट्टम, इत्यादि - अब अपमानजनक अर्थ बन गए।19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, पश्चिमी प्रभाव के तहत समाज सुधारकों ने इन परिस्थितियों का फायदा उठाया, कला के लिए एक एंटी-नच (Anti-Nautch) अभियान शुरू किया, इसकी एक सामाजिक बुराई के रूप में निंदा की।20वीं शताब्दी की पहली तिमाही तक, दक्षिण भारत के शास्त्रीय नृत्य का लगभग सफाया हो गया था, यहां तक कि तमिलनाडु में भी। तमाम बाधाओं के बावजूद, कुछ परिवारों ने इस नृत्य परंपरा के ज्ञान को संरक्षित रखा। इसके पुनरुद्धार में अलग-अलग पृष्ठभूमि के व्यक्ति शामिल थे: भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय कला में रुचि रखने वाले पश्चिमी लोग, देवदासी वर्ग के बाहर के लोग जिन्होंने भरतनाट्यम सीखा, और स्वयं देवदासी। आज शास्त्रीय भारतीय नृत्य के साथ काम करने वाला प्रत्येक व्यक्ति इन व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता का ऋणी है, जिनके प्रयासों के बिना भरतनाट्यम कहीं खो गया होता।भरतनाट्यम अब सम्मानित ब्राह्मण परिवारों के युवा कलाकारों को आकर्षित कर रहा था। शुरुआत में झटके लगे, उनकी भागीदारी ने अंततः कला को पुनर्जीवित करने के पक्ष में जनमत को स्थानांतरित करने में मदद की। ऐसी दो महिलाएं थीं मायलापुर की कलानिधि नारायणन और अडयार की रुक्मिणी देवी।

रमण महर्षि का जन्म,रमण महर्षि ने अद्वैतवाद

रमण महर्षि का जन्म 30 दिसम्बरसन 1879 में मदुरईतमिलनाडु के पास 'तिरुचुलीनामक गाँव में हुआ था।  रमण महर्षि  के महान ऋषि और संत थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया। उनका आधुनिक काल में भारत और विदेश में बहुत प्रभाव रहा है।

रमण महर्षि ने अद्वैतवाद पर जोर दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि परमानंद की प्राप्ति 'अहम्‌को मिटाने तथा अंत:साधना से होती है। रमण ने संस्कृतमलयालमएवं तेलुगु भाषाओं में लिखा। बाद में आश्रम ने उनकी रचनाओं का अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में किया।

रुचि शिक्षा की अपेक्षा मुष्टियुद्ध  मल्लयुद्ध जैसे खेलों में अधिक थी तथापि धर्म की ओर भी उनका विशेष झुकाव था।। वे मानवसमुदाय एकांत में प्रार्थना किया करते 25 वर्षों तक उन्होंने तप किया। इस बीच दूर और पास के कई भक्त उन्हें घेरे रहते थे। उनकी माता और भाई उनके साथ रहने को आए और पलनीस्वामीशिवप्रकाश पिल्लै तथा वेंकटरमीर जैसे मित्रों ने उनसे आध्यात्मिक विषयों पर वार्ता की। संस्कृत के महान्‌ विद्वान्‌ गणपति शास्त्री ने उन्हें  और 'महर्षिकी उपाधियों से विभूषित किया। उन्होंने 63 शिव संतो से सम्बंधित एक धार्मिक पुस्तक पढी। यह उनका पहला धार्मिक सहित्य था। इसको पढ़कर वह बहुत रोमांचित हुए। पुस्तक में दिए गए पवित्र संतो के उदाहरण उनके हृदय को छू गये। इसने उनके हृदय में त्याग और परमेश्वर के प्रति प्रेम की भावना को जाग्रत कर दिया। रमण को 17 वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ।1902 में 'शिव प्रकासम पिल्लैनामक व्यक्ति रमण के पास 14 प्रश्न स्लेट पर लिखकर लाये। इन्हीं 14 प्रश्नों के उत्तर रमण की पहली शिक्षाएँ है। इनमें आत्म निरीक्षण की विधि हैजो कि तमिल में नान यार और अंग्रेज़ी में हू ऍम आई के नाम से प्रकाशित की गयी। उस समय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् गणपति आचार्य 1907 में रमण से मिलने गए और उनसे अपने आध्यत्मिक संदेह पर बात की। गणपति आचार्य ने बताया कि जो कुछ भी आध्यात्मिकता के बारे में पढ़ा जा सकता हैमैंने पढ़ा हैयहाँ तक कि वेदान्त शास्त्रों की भी मुझे पूर्ण समझ है। जप भी मैं अपने हृदय से करता हूँ। लेकिन फिर भी 'तपसक्या हैअब तक समझ नहीं पाया हूँयही जानने के लिए आपकी शरण मैं आया हूँ। रमण 15 मिनट तक उनकी आँखों में शांत होकर देखते रहे और फिर बोले- "अगर कोई यह देख पाए कि 'मैंके भाव का उद्भव कहाँ से होता है तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगाऔर यही तपस है। अगर कोई देख पाए कि मंत्र बोलते समय मंत्र की ध्वनि कहाँ से पैदा होती हैतो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगाऔर यही तपस है।" यह रहस्योद्घाटन जानकर विद्वान् शास्त्री ने उनके सामने आत्म-समर्पण कर दिया और उन्हें भगवान व महर्षि के नाम से संबोधित किया। शास्त्री ने बाद में रमण-गीता लिखीजिसमें महर्षि की शिक्षाओं के बारे में बताया गया है। रमण महर्षि के शिष्यों ने उनके लिए एक आश्रम और मंदिर का निर्माण कियाजहाँ पर देश और विदेश से भक्त आकर रहते थे।[1]

 

अनुभव हुआ।

एक दिन रमण एकांत में अपने चाचा के घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। हमेशा की तरह वें पूर्णतः स्वस्थ थे। अचानक से उन्हें मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वे मरने के लिए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा थावह नहीं जानते थे। लेकिन आने वाली मृत्यु से वे बौखलाए नहीं। उन्होंने शांतिपूर्वक सोचा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने अपने आप से कहा- "अब मृत्यु आ गयी है!" इसका क्या मतलब हैवह क्या है जो मर रहा हैयह शरीर मर जाता है। वह तत्काल लेट गए। अपने हाथ पैरों को सख्त कर लिया और साँस को रोककर होठों को बंद कर लिया। इस समय उनका जैविक शरीर एक शव के समान था। अब क्या होगायह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में बदल जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँक्या मैं शरीर हूँयह शरीर तो शांत और निष्क्रिय है। लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक कि आवाज को भी महसूस कर पा रहा हूँ। मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूँ। शरीर मर जाता हैपर आत्मा को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं अमर आत्मा हूँ। बाद में रमण ने इस अनुभव को अपने भक्तों को सुनाया और बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। उन्होंने सीधे सच को जाना और मृत्यु का डर सदा के लिए गायब हो गया।


भगवान शिव के 63 महान भक्त-नयनार

 

 भगवान शिव के 63 महान भक्त-नयनार


ब्रह्माण्ड के सबसे शांत एवं सबसे रौद्र रूप के दर्शन किसी एक शक्ति में करने के परिपेक्ष में भगवान शिव अर्थात भोले-शंकर सबसे आदर्श प्रमाण माने जाते हैं। शिव का एक नाम भोला है, अर्थात उन्हें बेहद मासूम एवं कोमल हृदय का ईश्वर माना जाता है। उदाहरण के तौर पर वे बेहद जल्दी (सभी देवताओं की तुलना में सबसे शीघ्र) प्रसन्न हो जाते हैं, और बिना अधिक सोचे-विचारे मनचाहा वरदान दे-देते हैं, जैसा की उन्होंने भस्मासुर के संदर्भ में किया था। वही दूसरे संदर्भ में शिव को विनाशक "विनाश का देवता" भी माना जाता है। अपने भोले और मासूम प्रकृति के विपरीत विनाश के देवता अर्थात विध्वंशक के तौर पर शिव के भीतर पूरे ब्रह्माण्ड को क्षण भर में धूमिल करने की क्षमता है। जैसा की उन्होंने माता सती के वियोग में किया भी है। शिव की इसी बहुरूपी (अनेक रूपों वाली) प्रकृति और आलौकिकता ने युगो-युगों से मनुष्यों, को भक्तों के रूप में अपने प्रति आकर्षित किया है। तीसरी से 8वीं शताब्दी CE के दौरान तमिलनाडु में रहने वाले 63 संतों (शिव उपासकों) के एक समूह को नयनार के नाम से जाना जाता है। इन सभी संतों का चरित्र शेक्किषार नामक भक्तकवि के पेरिय पु राण में वर्णित है। इन संतों का जीवन तेलुगु में 'शिवभक्त चरितमु' के नाम से प्रकाशित किया गया है। नयनार की सूची में सर्वप्रथम सुंदरार (सुंदरमूर्ति) द्वारा उनकी कविता तिरुथोंडा थोगई में संकलित की गई थी। उन्होंने ग्यारह छंदों में, कराईक्कल अम्मैयार तक नयनार संतों के नाम गाए। सभी नयनार विभिन्न पृष्ठभूमियों से सम्बंध रखते थे, जिनमें चन्नार, वन्नियार, वेल्लालस, इदयार, कुरुम्बर, थेवर, तेल बेचने वाले, ब्राह्मण, धोबी, हरिजन आदि शामिल थे। उन्हें प्रमुख तौर पर दक्षिण भारत के महत्त्वपूर्ण हिंदू संतों के रूप में माना जाता है। इन सभी ने छठी, सातवीं और आठवीं शताब्दी सीई के दौरान पूरे तमिलनाडु में शैववाद का प्रसार किया। उन्होंने देशी तमिल भाषा में भगवान की स्तुति में आत्मा-उत्तेजक भजनों की रचना की, और उन्हें सभी सामाजिक स्तर के लोगों के बीच फैलाया।
63
नयनारों की सूची को नीचे क्रमशः दिया गया है:

 


1.
अनय नयनार
2.
आदिपत्त नयनार
3.
अय्यडिगल् कडवर्कान् नयनार
4.
अमरनीदि नयनार्
5.
अप्पुदि अडिगळ्
6.
अरिवट्टय नयनार
7.
चंडीश्वर नयनार
8.
दंडियदिगळ् नयनार
9.
ऎनटिनाथ नयनार
10.
ऎरिपात्त नयनार
11.
अय्यर्कान् कालिक्काम नयनार
12.
गणनाथ नयनार
13.
इडन् गाजि नयनार
14.
इलयान् कुडिमारनायनारु
15.
इयर् पगै नयनार
16.
कलिकांब नयनार
17.
कालिय नयनार
18.
कानम पुल्ल नयनार
19.
कन्नप्प नायनारु
20.
करैक्कल् अम्मय्यारु (कारक्काल् अम्म)
21.
कज् हार् सिंग नयनार
22.
कझरित्ररिवार् (चेरमान् पॆरुमाळ् नयनार)
23.
कोचॆन् गाट् चोळ नयनार
24.
कूत्रुव नयनार
25.
कोट्पुलि नयनार
26.
कुलाचिरायि नयनार
27.
मनकंचार नयनारगुग्गुलु कलश नयनार
28.
मंगयार् करशियार्
29.
मॆय् पॊरुल् नयनार
30.
मूर्ख नयनार
31.
मूर्ति नयनार
32.
मुनैयडुवारु
33.
मुरुग नयनार
34.
नामिनंदि अडिगळ्
35.
नरसिंग मुनियारय्यरु
36.
नेश नयनार
37.
निन्राऋषि नॆडुमर नयनार
38.
पॆरुमिजहलायि नयनार
39.
पूसलार् नयनार
40.
पूगल् चोळ नयनार
41.
पूगज् तुनायि नयनार
42.
सक्किय नयनार
43.
सदय नायनारु
44.
सत्ति नयनार
45.
शेरुतुनायि नयनार
46.
शिरप्पुलि नयनार
47.
शिरुतॊंड नयनार
48.
सोमशिर नयनार
49.
सुंदर्राम्मूर्ति
50.
तिरुज्ञान सम्बंधारु
51.
तिरुकुरिप्पु तॊंडनयनार
52.
तिरुमूल नयनार
53.
तिरुनालै पोवार् नयनार (नंदनार)
54.
तिरुनवुक्करसारु नयनार
55.
तिरुनीलकंठ नयनार
56.
तिरुनीलकंठ याज् पनार् नयनार
57.
तिरुनीलनक्कार् नयनार
58.
रुद्रपशुपति नयनार
59.
वायिलारु नयनार
60.
विराल् मिंड नयनार
61.
इयर् कान् कलिकाम नयनार
62.
करि नयनार
63.
इसै ज्ञाननियार
नयनार की सूची में 3 महिलायें भी शामिल हैं।

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

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