रमण महर्षि का जन्म 30 दिसम्बर, सन 1879 में मदुरई, तमिलनाडु के पास 'तिरुचुली' नामक गाँव में हुआ था। रमण महर्षि के महान ऋषि और संत थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया। उनका आधुनिक काल में भारत और विदेश में बहुत प्रभाव रहा है।
रमण महर्षि ने अद्वैतवाद पर जोर दिया।
उन्होंने उपदेश दिया कि परमानंद की प्राप्ति 'अहम्' को मिटाने तथा अंत:साधना से होती है।
रमण ने संस्कृत, मलयालम, एवं तेलुगु भाषाओं में लिखा। बाद में आश्रम ने उनकी रचनाओं का
अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में किया।
रुचि शिक्षा की अपेक्षा मुष्टियुद्ध व मल्लयुद्ध जैसे खेलों में अधिक थी तथापि धर्म की
ओर भी उनका विशेष झुकाव था।। वे मानवसमुदाय एकांत में प्रार्थना किया करते 25 वर्षों तक उन्होंने तप किया। इस बीच
दूर और पास के कई भक्त उन्हें घेरे रहते थे। उनकी माता और भाई उनके साथ रहने को आए
और पलनीस्वामी, शिवप्रकाश पिल्लै तथा वेंकटरमीर जैसे मित्रों ने उनसे आध्यात्मिक विषयों पर
वार्ता की। संस्कृत के महान् विद्वान् गणपति शास्त्री ने उन्हें और 'महर्षि' की उपाधियों से विभूषित किया। उन्होंने 63 शिव संतो से सम्बंधित एक धार्मिक पुस्तक पढी। यह उनका पहला धार्मिक सहित्य था।
इसको पढ़कर वह बहुत रोमांचित हुए। पुस्तक में दिए गए पवित्र संतो के उदाहरण उनके हृदय को छू गये। इसने
उनके हृदय में त्याग और परमेश्वर के प्रति प्रेम की भावना को जाग्रत कर दिया। रमण
को 17 वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव
हुआ।1902 में 'शिव प्रकासम पिल्लै' नामक व्यक्ति रमण के पास 14 प्रश्न स्लेट पर लिखकर लाये। इन्हीं 14 प्रश्नों के उत्तर रमण की पहली शिक्षाएँ है। इनमें आत्म
निरीक्षण की विधि है, जो कि तमिल में नान यार और अंग्रेज़ी में हू ऍम आई के नाम से प्रकाशित की गयी। उस समय के
प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् गणपति आचार्य 1907 में रमण से मिलने गए और उनसे अपने
आध्यत्मिक संदेह पर बात की। गणपति आचार्य ने बताया कि जो कुछ भी आध्यात्मिकता के
बारे में पढ़ा जा सकता है, मैंने पढ़ा है, यहाँ तक कि वेदान्त शास्त्रों की भी मुझे पूर्ण समझ है। जप
भी मैं अपने हृदय से करता हूँ। लेकिन फिर भी 'तपस' क्या है, अब तक समझ नहीं
पाया हूँ? यही जानने के लिए आपकी शरण मैं आया हूँ।
रमण 15 मिनट तक उनकी आँखों में शांत होकर देखते
रहे और फिर बोले- "अगर कोई यह देख पाए कि 'मैं' के भाव का उद्भव कहाँ से होता है तो
उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है। अगर कोई देख पाए कि मंत्र बोलते समय मंत्र की ध्वनि कहाँ से पैदा होती
है, तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो
जायेगा, और यही तपस है।" यह रहस्योद्घाटन
जानकर विद्वान् शास्त्री ने उनके सामने आत्म-समर्पण कर दिया और उन्हें भगवान व
महर्षि के नाम से संबोधित किया। शास्त्री ने बाद में रमण-गीता लिखी, जिसमें महर्षि की शिक्षाओं के बारे में बताया गया है। रमण
महर्षि के शिष्यों ने उनके लिए एक आश्रम और मंदिर का निर्माण किया, जहाँ पर देश और विदेश से भक्त आकर रहते थे।[1]
अनुभव हुआ।
एक दिन रमण एकांत में अपने चाचा के घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। हमेशा की तरह
वें पूर्णतः स्वस्थ थे। अचानक से उन्हें मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने
महसूस किया कि वे मरने के लिए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा था, वह नहीं जानते थे। लेकिन आने वाली मृत्यु से वे बौखलाए
नहीं। उन्होंने शांतिपूर्वक सोचा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने अपने आप से कहा-
"अब मृत्यु आ गयी है!" इसका क्या मतलब है? वह क्या है जो मर रहा है? यह शरीर मर जाता
है। वह तत्काल लेट गए। अपने हाथ पैरों को सख्त कर लिया और साँस को रोककर होठों को
बंद कर लिया। इस समय उनका जैविक शरीर एक शव के समान था। अब क्या होगा? यह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में
बदल जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? यह शरीर तो शांत और निष्क्रिय है। लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक
कि आवाज को भी महसूस कर पा रहा हूँ। मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूँ। शरीर मर जाता
है, पर आत्मा को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं
अमर आत्मा हूँ। बाद में रमण ने इस अनुभव को अपने भक्तों को सुनाया और बताया कि यह
अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। उन्होंने सीधे सच को जाना और मृत्यु का डर सदा
के लिए गायब हो गया।
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