Wednesday, June 14, 2023

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥१.१॥- रघुवंश (कालिदास)

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये  ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥१.१॥

- रघुवंश (कालिदास)

 तात्पर्यम्- 

मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत् के माता पिता पार्वती शिव को प्रणाम करता हूँ ॥१.१॥

अर्थात् - वाणी और अर्थ जैसे पृथक् रूप होते हुए भी एक ही हैं उसी प्रकार पार्वती और शिव कथन मात्र से भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। वाणी और अर्थ सदैव एक दूसरे से सम्पृक्त रहते हैं। वाणी और अर्थ के समान शिव और पार्वती भी अभिन्न हैं। अर्थ शम्भु रूप है तो वाणी शिवा ‘रूपार्थ शम्भुः शिवा वाणी’। वाक् और अर्थ दोनों ही पार्वती परमेश्वर रूप में नित्य और एक रूप हैं। एक विचित्र चित्रकर्मा जगत् चित्र के निर्माता हैं तो वाक् और अर्थ एक दूसरे के आश्रित होकर काव्यचित्र का निर्माण करते हैं।

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