Thursday, August 10, 2023

भक्ति के बारे में कई ग्रन्थ अपने विचार रखते है। और शिवपुराण में भी भक्ति के बारे में बताया है।

 भक्ति के बारे में कई ग्रन्थ अपने विचार रखते है। और शिवपुराण में भी भक्ति के बारे में बताया है।


शिवपुराणोक्त नवधा भक्ति-

शिव उवाच-
श्रवणं कीर्तनं चैव स्मरणं सेवनं तथा।
दास्यं तथार्चनं देवि वन्दनं ममसर्वदा।।
सख्यमात्मार्पणंचेति नवाङ्गानि विदुर्बुधाः।
उपाङ्गानिशिवे तस्या बहूनि कथितानि वै।।

शिव जी सती से कहते हैं--
हे देवि श्रवण, कीर्तन स्मरण सेवन दास्य अर्चन सदा मेरा वन्दन सख्य और आत्मसमर्पण-विद्वानों ने भक्ति के ये नौ अंग माने हैं। इसके अतिरिक्त उस भक्ति के बहुत से उपांग भी कहे गए हैं।

श्रृणु देवि नवाङ्गानां लक्षणानि पृथक् पृथक्।
ममभक्तेर्मनो दत्त्वा भुक्तिमुक्तिप्रदानि हि।।

अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के नौ अंगोके पृथक् पृथक् लक्षण सुनो, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं।

1.श्रवण--
कथादेर्नित्यसम्मानं कुर्वन्देहादिभिर्मुदा।
स्थिरासनेन तत्पानं यत्तच्छ्रवणमुच्यते।।

जो स्थिर आसन पर बैठकर तन-मन आदि से मेरेकथा कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक उसका पान किया जाता है, उसे श्रवण कहते हैं।

2.कीर्तन---
हृदाकाशेन संपश्यन् जन्मकर्माणि वै मम।
प्रीत्योच्चोच्चारणं तेषामेतत्कीर्तनमुच्यते।।

जो हृदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म एवं कर्मों का चिन्तन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्च स्वर से उच्चारण करता है उसे कीर्तन कहते हैं।

3.स्मरण---
(क)निर्गुण--
व्यापकं देवि मां दृष्ट्वा नित्यं सर्वत्र सर्वदा।
निर्भयत्वं सदा लोके स्मरणं तदुदाहृतम्।।

जो नित्य मुझ महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर संसार में निरन्तर निर्भय रहता है उसे स्मरण कहा गया है(यह निर्गुण स्मरण भक्ति है)।

(ख)सगुण--
अरुणोदयमारभ्य सेवाकाले$ञ्चिता हृदा।
निर्भयत्वं सदा लोके स्मरणं तदुदाहृतम्।।

अरुणोदय काल से प्रारम्भ कर शयन पर्यन्त तत्पर चित्त से निर्भय होकर भगवदविग्रह की सेवा करने को स्मरण कहा गया है(यह सगुण स्मरण भक्ति है)।

4.सेवन---
सदा सेव्यानुकूल्येन सेवनं तद्धि गोगणैः।

हर समय सेव्य की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियों से जो निरन्तर सेवा की जाती है वही सेवन है।

5.दास्य---
हृदयामृतभोगेन प्रियं दास्यामुदाहृतम्।।

अपने को प्रभू का किंकर समझकर हृदयामृत के भोग से स्वामी का सदा प्रिय संपादन करना ही दास्य है।

6.अर्चन---
सदाभृत्यानुकूलेन विधिना मे परात्मने।
अर्पणं षोडशानां वै पाद्यादीनां तदर्चनं।।

अपने को सदा सेवक समझकर शास्त्रीय विधि से मुझ परमात्मा को सदा पाद्य आदि सोलह उपचारोंका जो समर्पण करता है उसे अर्चन कहते हैं।

7.वन्दन---
मंत्रोच्चारणध्यानाभ्यां मनसा वचसा क्रमात्।
यदष्टाङ्गेनभूस्पर्शं तद्वै वन्दनमुच्यते।।

वाणी से मंत्र का उच्चारण करते हुए एवं मन से ध्यान करते हुए चरणों हाथों जानुओं आदि आठ अंगों से भूमिका स्पर्श करते हुए लेटकर अष्टांग प्रणाम किया जाता हैउसे वन्दन कहते हैं।

8.सख्य----
मङ्गलामङ्गलमं यद्यत्करोतीतीश्वरो हि मे।
सर्वं तन्मङ्गलायेति विश्वासः सख्यलक्ष्णम्।।

ईश्वर मंगल-अमंगल जो कुछ करता है वह सब मेरे मंगल के लिए है, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना सख्य भक्ति का लक्षण है।

9.आत्मसमर्पण---
कृत्वा देहादिकं तस्य प्रीत्यै सर्वं तदर्पणम्।
निर्वाहाय च शून्यत्वं यत्तदात्मसमपर्णम्।।

देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जानेवाली वस्तु है, वह सब भगवान की प्रसन्नता के लिए उन्हीं को समर्पित करके अपने निर्वाह के लिए कुछ भी बचाकर न रखना अथवा निर्वाह की चिंता से भी रहित हो जाना आत्मसमर्पण कहा जाता है।

नवाङ्गानीति मद्भक्तेर्भुक्तिप्रदानि च।
मम प्रियाणि चातीव ज्ञानोत्पत्तिकराणि च।।

मेरी भक्ति के ये नौ अंग हैं, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इनसे ज्ञान प्रकट हो जाता है,तथा ये साधन मुझे अत्यंत प्रिय हैं।

इत्थं साङ्गोपाङ्गभक्तिर्मम सर्वोत्तमा प्रिये।
ज्ञानवैराग्यजननी मुक्तिदासी विराजते।।

इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है। यह ज्ञान वैराग्य की जननी है और मुक्ति इसकी दासी है।

कलौ प्रत्यक्षफलदा भक्तिः सर्वयुगेष्वपि।
तत्प्रभावादहं नित्यं तद्वशो नात्र संशयः।।

भक्ति कलियुग में तथा अन्य सभी युगों में भी प्रत्यक्ष फल देने वाली है। भक्ति के प्रभाव से मैं सदा भक्त के वश में रहता हूँ, इसमें सन्देह नहीं है।

कमें



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