Wednesday, August 16, 2023

नाट्यशास्त्र - रचयिता #भरत मुनि थे। भरत मुनि का जीवनकाल ४०० ईसापूर्व से १०० ई के मध्य किसी समय माना जाता है।

#नाट्यशास्त्र - रचयिता #भरत मुनि थे। भरत मुनि का जीवनकाल ४०० ईसापूर्व से १०० ई के मध्य किसी समय माना जाता है।
#संगीत, #नाटक और #अभिनय के सम्पूर्ण #ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता, #रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। #३७ #अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच, अभिनेता, अभिनय, नृत्यगीतवाद्य, #दर्शक, #दशरूपक और रस निष्पत्ति से सम्बन्धित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है।

नाट्य और नृत्त, #दृश्य #काव्य के ये दो भेद हैं। #नट-#नटी द्वारा किसी अवस्थाविशेष की अनुकृति नाट्य है - 'नाट्यते अभिनयत्वेन रूप्यते- इति नाट्यम्'। ताल और लय की संगति से अनुबद्ध अनुकृत को नृत्त कहते हैं। ये दोनों ही अभिनय के विषय हैं और ललित कला के अंतर्गत माने जाते हैं। नाट्य के प्रमुख अंग चार हैं - वाचिक, सात्विक, आंगिक और आहार्य। उक्ति-प्रत्युक्ति की यथावत् अनुकृति वाचिक अभिनय का विषय है। भावों का यथावत् प्रदर्शन सात्विक अभिनय है।

भावप्रदर्शन के लिए हाथ, पैर, नेत्र, भ्रू, एवं कटि, मुख, मस्तक आदि अंगों की विविध चेष्टाओं की अनुकृति आंगिक अभिनय है। देशविदेश के अनुरूप वेशभूषा, चालढाल, रहन सहन और बोली की अनुकृति आहार्य अभिनय का विषय है। चतुर्विध अभिनय के सहायक नृत्य, गीत, वाद्य एवं गति, वृत्ति, प्रवृत्ति और आसन का अनुसंधान भी नाट्य के अंतर्गत है। इस प्रकार अभिनय के विविध अंग एवं उपांगों के स्वरूप और प्रयोग के आकारप्रकार का विवरण प्रस्तुत कर तत्संबंधी नियम तथा व्यवहार को निर्धारित करनेवाला शास्त्र 'नाट्यशास्त्र' है। अभिनय के अनुरूप स्थान को नाट्यगृह कहते हैं जिसके प्रकार, निर्माण एवं साजसज्जा के नियमों का प्रतिपादन भी नाट्यशास्त्र का ही विषय है। विविध श्रेणी के अभिनेता एवं अभिनेत्री के व्यवहार, परस्पर संलाप और अभिनय के निर्देशन एवं निर्देशक के कर्तव्यों का विवरण भी नाट्यशास्त्र की व्यापक परिधि में समाविष्ट है। इसका मुख्य उद्देश्य ऐहिक जीवन की नाना वेदनाओं से परिश्रांत जनता का मनोरंजन है - यह देव, दानव एवं मानव समाज के लिए आमोद प्रमोद का सरल साधन है। यह नयनों की तृप्ति करनेवाला एवं भावोद्रेक का परिमार्जन कर प्रेक्षकवर्ग का आह्लादित करनेवाला मनोरम अनुसंधान है - यह जातिभेद, वर्गभेद, वयोभेद आदि नैसर्गिक एवं सामाजिक विभेदों से निरपेक्ष, भिन्न रुचि की जनता का सामान्य रूप से समाराधन करनेवाला एक कांत, 'चाक्षुषक्रतु' है। इसके प्रवर्तक स्वयं प्रजापति हैं जिन्होंने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्वांगिरस से रस का परिग्रह कर सार्ववर्णिक पंचम वेद का प्रादुर्भाव किया। उमा-महादेव ने सुप्रीत हो लोकानुरंजन के हेतु लास्य एवं ताण्डव का सहयोग देकर इसे उपकृत किया है। वस्तुत: ऐसा कोई शास्त्र, कोई शिल्प, न कोई विद्या और न कोई कला ऐसी है जिसका प्रतिनिधित्व नाट्यशास्त्र में न हो। इस तरह अनुपम दिव्यता से अनुप्राणित नाट्यशास्त्र के अधिष्ठाता देव की भी कल्पना, इतर वेद एवं वेदांगों के अधिष्ठाताओं की भाँति, की गई है जिसके स्वरूप का उल्लेख 'नृसिंहप्रासाद' नामक ग्रंथ में मिलता है।

#नाट्यशास्त्रमिदं रम्यं मृगवक्त्रं जटाधरम्।
अक्षसूत्रं त्रिशूलं च विभ्रार्णाच त्रिलोचनम्।

नाट्य संबंधी नियमों की संहिता का नाम 'नाट्यशास्त्र' है। भारतीय परंपरा के अनुसार नाट्यशास्त्र के आद्य रचयिता स्वयं प्रजापति माने गए हैं और उसे 'नाट्यवेद' कहकर नाट्यकला को विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया है।

जिस प्रकार परम पुरुष के निःश्वास से आविर्भूत वेदराशि के द्रष्टा विविध ऋषि प्रकल्पित हैं उसी तरह महादेव द्वारा प्रोक्त नाट्यवेद के द्रष्टा शिलाली, कृशाश्व और भरतमुनि माने गए हैं। शिलाली एवं कृशाश्व द्वारा संकलित नाट्यसंहिताएँ आज उपलब्ध नहीं है, केवल भरत मुनि द्वारा प्रणीत ग्रंथ ही उपलब्ध हुआ है जो 'नाट्यशास्त्र' के नाम से प्रथित है। इसका प्रणयन संभवतः कश्मीर, भारत देश में हुआ।

नाट्यशास्त्र का रचनाकाल, निर्माणशैली तथा बहिःसाक्ष्य के आधार पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के लगभग स्थिर किया जा सकता है।

हले अध्याय में नाट्योत्पत्ति, दूसरे में मण्डपविधान देने के पश्चात् अगले तीन अध्यायों में नाट्यारम्भ से पूर्व की प्रक्रिया का विधान वर्णित है। छठे और सातवें अध्याय में रसों और भावों का व्याख्यान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में व्याप्त रससिद्धान्त की आधारशिला है। आठवें और नवें अध्याय में उपांग एवं अंगों द्वारा प्रकल्पित अभिनय के स्वरूप की व्याख्या कर अगले चार अध्यायों में गति और करणों का उपन्यास किया है। अगले चार अध्यायों में छन्द और अलंकारों का स्वरूप तथा स्वरविधान बतालाया है। नाट्य के भेद तथा कलेवर का सांगोपांग विवरण १८वें और १९वें अध्याय में देकर २०वें वृत्ति विवेचन किया है। तत्पश्चात् २९वें अध्याय में विविध प्रकार के अभिनयों की विशेषताएँ दी गई हैं। २९ से ३४ अध्याय तक गीत वाद्य का विवरण देकर ३५वें अध्याय में भूमिविकल्प की व्याख्या की है। अंतिम अध्याय उपसंहारात्मक है।

यह ग्रंथ मुख्यत: दो पाठान्तरों में उपलब्ध है १. औत्तरीय पाठ और २. दाक्षिणात्य। पाण्डुलिपियों में एक और ३७वाँ अध्याय भी क्वचित् उपलब्ध होता है जिसका समावेश निर्णयसागरी संस्करण में संपादक ने किया है। इसके अतिरिक्त मूल मात्र ग्रंथ का प्रकाशन चौखंबा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से भी हुआ है जिसका पाठ निर्णयसागरी पाठ से भिन्न है। अभिनव भारती टीका सहित नाट्यशास्त्र का संस्करण गायकवाड सीरीज़ के अंतर्गत बड़ौदा से प्रकाशित है।

वस्तुतः यह ग्रन्थ नाट्यसंविधान तथा रससिद्धान्त की मौलिक संहिता है। इसकी मान्यता इतनी अधिक है कि इसके वाक्य 'भरतसूत्र' कहे जाते हैं। सदियों से इसे आर्ष सम्मान प्राप्त है। इस ग्रंथ में मूलत: १२,००० पद्य तथा कुछ गद्यांश भी था, इसी कारण इसे 'द्वादशसाहस्री संहिता' कहा जाता है। परन्तु कालक्रमानुसार इसका संक्षिप्त संस्करण प्रचलित हो चला जिसका आयाम छह हजार पद्यों का रहा और यह संक्षिप्त संहिता 'षटसाहस्री' कहलाई। भरतमुनि उभय संहिता के प्रणेता माने जाते हैं और प्राचीन टीकाकारों द्वारा उनका 'द्वादश साहस्रीकार' तथा 'षट्साहस्रीकार' की उपाधि से परामर्श यत्र तत्र किया गया है। जिस तरह आज उपलब्ध चाणक्य नीति का आधार वृद्ध चाणक्य और स्मृतियों का आधार क्रमशः वृद्ध वसिष्ठ, वृद्ध मनु आदि माना जाता है, उसी तरह वृद्ध भरत का भी उल्लेख मिलता है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वसिष्ठ, मनु, चाणक्य, भरत आदि दो दो व्यक्ति हो गए, परन्तु इस सन्दर्भ में 'वृद्ध' का तात्पर्य परिपूर्ण संहिताकार से है।

अध्याय अध्याय का नाम
अध्याय १ नाट्य
अध्याय २ नाट्यमण्डप
अध्याय ३ रङ्गपूजा
अध्याय ४ ताण्डव
अध्याय ५ पूर्वरङ्ग
अध्याय ६ रस
अध्याय ७ भाव
अध्याय ८ उपाङ्ग
अध्याय ९ अङ्ग
अध्याय १० चारीविधान
अध्याय ११ मण्डलविधान
अध्याय १२ गतिप्रचार
अध्याय १३ करयुक्तिधर्मीव्यञ्जक
अध्याय १४ छन्दोविधान
अध्याय १५ छन्दोविचितिः
अध्याय १६ काव्यलक्षण
अध्याय १७ काकुस्वरव्यञ्जन
अध्याय १८ दशरूपनिरूपण
अध्याय १९ सन्धिनिरूपण
अध्याय २० वृत्तिविकल्पन
अध्याय २१ आहार्याभिनय
अध्याय २२ सामान्याभिनय
अध्याय २३ नेपथ्य
अध्याय २४ पुंस्त्र्युपचार
अध्याय २५ चित्राभिनय
अध्याय २६ विकृतिविकल्प
अध्याय २७ सिद्धिव्यञ्जक
अध्याय २८ जातिविकल्‍प
अध्याय २९ ततातोद्यविधान
अध्याय ३० सुषिरातोद्यलक्षण
अध्याय ३१ ताल
अध्याय ३२ 
अध्याय ३३ गुणदोषविचार
अध्याय ३४ प्रकृति
अध्याय ३५ भूमिकाविकल्प
अध्याय ३६ नाट्यशाप
अध्याय ३७ गुह्यतत्त्वकथन

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