Friday, April 28, 2017

अक्षय तृतीया जो इस वर्ष 28 अप्रैल को है उसका महत्व क्यों है जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी

अक्षय तृतीया जो इस वर्ष 28 अप्रैल को है उसका महत्व क्यों है जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी

-🙏 आज  ही के दिन माँ गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था ।

🙏-महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था ।

🙏-माँ अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था

🙏-द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था ।

🙏- कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था ।

🙏- कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था ।

🙏-सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था ।

🙏-ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही के दिन हुआ था ।

🙏- प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही के दिन खोला जाता है ।

🙏- बृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रह चरण के दर्शन होते है अन्यथा साल भर वो बस्त्र से ढके रहते है ।

🙏- इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था ।

🙏- अक्षय तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है

जय श्री महांकाल🙏🚩🙏🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

जानने योग्य जानकारी*

*जानने योग्य जानकारी*
शास्त्रो में बांस की लकड़ी जलाना मना है फिर भी लोग अगरबत्ती जलाते है। जो की बांस की बनी होती है। अगरबत्ती जलाने से पितृदोष लगता है।शास्त्रो में पूजन विधान में कही भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता सब जगह धुप ही लिखा हुआ मिलता है। अगरबत्ती तो केमिकल से बनाई जाती है

 आजकल लोगो को पितृ दोष बहुत होते है इसका एक कारण अगरबत्ती का जलना भी है। अस्तु

पूजा साधना करते समय बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन पर सामान्यतः हमारा ध्यान नही जाता है लेकिन पूजा साधना की द्रष्टि से ये बातें अति महत्वपूर्ण हैं |

1. गणेशजी को तुलसी का पत्र छोड़कर सब पत्र प्रिय हैं | भैरव की पूजा में तुलसी का ग्रहण नही है|
2. कुंद का पुष्प शिव को माघ महीने को छोडकर निषेध है |

3. बिना स्नान किये जो तुलसी पत्र जो तोड़ता है उसे देवता स्वीकार नही करते |

4. रविवार को दूर्वा नही तोडनी चाहिए |

5. केतकी पुष्प शिव को नही चढ़ाना चाहिए |

6. केतकी पुष्प से कार्तिक माह में विष्णु की पूजा अवश्य करें |

7. देवताओं के सामने प्रज्जवलित दीप को बुझाना नही चाहिए |

8. शालिग्राम का आवाह्न तथा विसर्जन नही होता |

9. जो मूर्ति स्थापित हो उसमे आवाहन और विसर्जन नही होता |

10. तुलसीपत्र को मध्याहोंन्त्तर ग्रहण न करें |

11. पूजा करते समय यदि गुरुदेव ,ज्येष्ठ व्यक्ति या पूज्य व्यक्ति आ जाए तो उनको उठ कर प्रणाम कर उनकी आज्ञा से शेष कर्म को समाप्त करें |

12. मिट्टी की मूर्ति का आवाहन और विसर्जन होता है और अंत में शास्त्रीयविधि से गंगा प्रवाह भी किया जाता है |

13. कमल को पांच रात ,बिल्वपत्र को दस रात और तुलसी को ग्यारह रात बाद शुद्ध करके पूजन के कार्य में लिया जा सकता है |

14. पंचामृत में यदि सब वस्तु प्राप्त न हो सके तो केवल दुग्ध से स्नान कराने मात्र से पंचामृतजन्य फल जाता है |

15. शालिग्राम पर अक्षत नही चढ़ता | लाल रंग मिश्रित चावल चढ़ाया जा सकता है |

16. हाथ में धारण किये पुष्प , तांबे के पात्र में चन्दन और चर्म पात्र में गंगाजल अपवित्र हो जाते हैं |

17. पिघला हुआ घृत और पतला चन्दन नही चढ़ाना चाहिए |

18. दीपक से दीपक को जलाने से प्राणी दरिद्र और रोगी होता है | दक्षिणाभिमुख दीपक को न रखे | देवी के बाएं और दाहिने दीपक रखें | दीपक से अगरबत्ती जलाना भी दरिद्रता का कारक होता है |

19. द्वादशी , संक्रांति , रविवार , पक्षान्त और संध्याकाळ में तुलसीपत्र न तोड़ें |

20. प्रतिदिन की पूजा में सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढाएं |

21. आसन , शयन , दान , भोजन , वस्त्र संग्रह , ,विवाद और विवाह के समयों पर छींक शुभ मानी गयी है |

22. जो मलिन वस्त्र पहनकर , मूषक आदि के काटे वस्त्र , केशादि बाल कर्तन युक्त और मुख दुर्गन्ध युक्त हो, जप आदि करता है उसे देवता नाश कर देते हैं |

23. मिट्टी , गोबर को निशा में और प्रदोषकाल में गोमूत्र को ग्रहण न करें |

24. मूर्ती स्नान में मूर्ती को अंगूठे से न रगड़े ।

25. पीपल को नित्य नमस्कार पूर्वाह्न के पश्चात् दोपहर में ही करना चाहिए | इसके बाद न करें |
26. जहाँ अपूज्यों की पूजा होती है और विद्वानों का अनादर होता है , उस स्थान पर दुर्भिक्ष , मरण , और भय उत्पन्न होता है |

27. पौष मास की शुक्ल दशमी तिथि , चैत्र की शुक्ल पंचमी और श्रावण की पूर्णिमा तिथि को लक्ष्मी प्राप्ति के लिए लक्ष्मी का पूजन करें |

28. कृष्णपक्ष में , रिक्तिका तिथि में , श्रवणादी नक्षत्र में लक्ष्मी की पूजा न करें |

29. अपराह्नकाल में , रात्रि में , कृष्ण पक्ष में , द्वादशी तिथि में और अष्टमी को लक्ष्मी का पूजन प्रारम्भ न करें |

30. मंडप के नव भाग होते हैं , वे सब बराबर-बराबर के होते हैं अर्थात् मंडप सब तरफ से चतुरासन होता है | अर्थात् टेढ़ा नही होता |

     🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻💐Hi 

ज्योतिष व शास्त्रो के अनुसार नौ आदते आपके जीवन में अवशय होनी चाईए – पढ़े और सभी को बताए

ज्योतिष व शास्त्रो के अनुसार नौ आदते आपके जीवन में अवशय होनी चाईए – पढ़े और सभी को बताए

घरेलू उपचार
१)👉::
अगर आपको कहीं पर भी थूकने की आदत है तो यह निश्चित है
कि आपको यश, सम्मान अगर मुश्किल से मिल भी जाता है तो कभी टिकेगा ही नहीं . wash basin में ही यह काम कर आया करें ! यश,मान-सम्मान में अभिवृध्दि होगी।

२)👉::
जिन लोगों को अपनी जूठी थाली या बर्तन वहीं उसी जगह पर छोड़ने की आदत होती है उनको सफलता कभी भी स्थायी रूप से नहीं मिलती.!
बहुत मेहनत करनी पड़ती है और ऐसे लोग अच्छा नाम नहीं कमा पाते.! अगर आप अपने जूठे बर्तनों को उठाकर उनकी सही जगह पर रख आते हैं तो चन्द्रमा और शनि का आप सम्मान करते हैं ! इससे मानसिक शांति बढ़ कर अड़चनें दूर होती हैं।

३)👉::
जब भी हमारे घर पर कोई भी बाहर से आये, चाहे मेहमान हो या कोई काम करने वाला, उसे स्वच्छ पानी ज़रुर पिलाएं !
ऐसा करने से हम राहु का सम्मान करते हैं.!
जो लोग बाहर से आने वाले लोगों को हमेशा स्वच्छ पानी  पिलाते हैं उनके घर में कभी भी राहु का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता.! अचानक आ पड़ने वाले कष्ट-संकट नहीं आते।

४)👉::
घर के पौधे आपके अपने परिवार के सदस्यों जैसे ही होते हैं, उन्हें भी प्यार और थोड़ी देखभाल की जरुरत होती है.!
जिस घर में सुबह-शाम पौधों को पानी दिया जाता है तो हम बुध, सूर्य और चन्द्रमा का सम्मान करते हुए परेशानियों का डटकर सामना कर पाने का सामर्थ्य आ पाता है ! परेशानियां दूर होकर सुकून आता है।
जो लोग नियमित रूप से पौधों को पानी देते हैं, उन लोगों को depression, anxiety जैसी परेशानियाँ नहीं पकड़ पातीं.!

५)👉::
जो लोग बाहर से आकर अपने चप्पल, जूते, मोज़े इधर-उधर फैंक देते हैं, उन्हें उनके शत्रु बड़ा परेशान करते हैं.!
इससे बचने के लिए अपने चप्पल-जूते करीने से लगाकर रखें, आपकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी।

६)👉::
उन लोगों का राहु और शनि खराब होगा, जो लोग जब भी अपना बिस्तर छोड़ेंगे तो उनका बिस्तर हमेशा फैला हुआ होगा, सिलवटें ज्यादा होंगी, चादर कहीं, तकिया कहीं, कम्बल कहीं ?
उसपर ऐसे लोग अपने पुराने पहने हुए कपडे़ तक फैला कर रखते हैं ! ऐसे लोगों की पूरी दिनचर्या कभी भी व्यवस्थित नहीं रहती, जिसकी वजह से वे खुद भी परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं.!
इससे बचने के लिए उठते ही स्वयं अपना बिस्तर समेट दें.! जीवन आश्चर्यजनक रूप से सुंदर होता चला जायेगा।

७)👉::
पैरों की सफाई पर हम लोगों को हर वक्त ख़ास ध्यान देना चाहिए, जो कि हम में से बहुत सारे लोग भूल जाते हैं ! नहाते समय अपने पैरों को अच्छी तरह से धोयें, कभी भी बाहर से आयें तो पांच मिनट रुक कर मुँह और पैर धोयें.!
आप खुद यह पाएंगे कि आपका चिड़चिड़ापन कम होगा, दिमाग की शक्ति बढे़गी और क्रोध
धीरे-धीरे कम होने लगेगा.! आनंद बढ़ेगा।

८)👉::
रोज़ खाली हाथ घर लौटने पर धीरे-धीरे उस घर से लक्ष्मी चली जाती है और उस घर के सदस्यों में नकारात्मक या निराशा के भाव आने लगते हैं.!
इसके विपरीत घर लौटते समय कुछ न कुछ वस्तु लेकर आएं तो उससे घर में बरकत बनी रहती है.!
उस घर में लक्ष्मी का वास होता जाता है.! हर रोज घर में कुछ न कुछ लेकर आना वृद्धि का सूचक माना गया है.!
ऐसे घर में सुख, समृद्धि और धन हमेशा बढ़ता जाता है और घर में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है.!

९)👉..
जूठन बिल्कुल न छोड़ें । ठान लें । एकदम तय कर लें। पैसों की कभी कमी नहीं होगी।
अन्यथा नौ के नौ गृहों के खराब होने का खतरा सदैव मंडराता रहेगा। कभी कुछ कभी कुछ । करने के काम पड़े रह जायेंगे और समय व पैसा कहां जायेगा पता ही नहीं चलेगा।
🙏
अच्छी बातें बाँटने से दोगुनी तो होती ही हैं
– अच्छी बातों का महत्त्व समझने वालों में आपकी इज़्जत भी बढ़ती है🙏of 

ॐ (OM) उच्चारण के 11 शारीरिक लाभ : ॐ : ओउम् तीन अक्षरों से बना है।

ॐ (OM) उच्चारण के 11 शारीरिक लाभ :
ॐ : ओउम् तीन अक्षरों से बना है।
अ उ म् ।
"अ" का अर्थ है उत्पन्न होना,
"उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास,
"म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना।
ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है।
ॐ का उच्चारण शारीरिक लाभ प्रदान करता है।
जानीए
ॐ कैसे है स्वास्थ्यवर्द्धक और अपनाएं आरोग्य के लिए ॐ के
उच्चारण का मार्ग...
● *उच्चारण की विधि*
प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ
का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर
कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार
कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप
माला से भी कर सकते हैं।
01) *ॐ और थायराॅयडः*
ॐ का उच्चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो थायरायड
ग्रंथि पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।
*02) *ॐ और घबराहटः-*
अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से
उत्तम कुछ भी नहीं।
*03) *..ॐ और तनावः-*
यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के
कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
*04) *ॐ और खून का प्रवाहः-*
यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
*5) ॐ और पाचनः-*
ॐ के उच्चारण से पाचन शक्ति तेज़ होती है।
*06) ॐ लाए स्फूर्तिः-*
इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता
है।
*07) ॐ और थकान:-*
थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
*08) .ॐ और नींदः-*
नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है।
रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चिंत
नींद आएगी।
*09) .ॐ और फेफड़े:-*
कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती
आती है।
*10) ॐ और रीढ़ की हड्डी:-*
ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से कंपन पैदा होती है। इन कंपन
से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़
जाती है।
*11) ॐ दूर करे तनावः-*
ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
आशा है आप अब कुछ समय जरुर ॐ का उच्चारण करेंगे । साथ ही
साथ इसे उन लोगों तक भी जरूर पहुंचायेगे जिनकी आपको फिक्र
है ।
अपना ख्याल रखिये, खुश रहें ।

duniya ke panch aise Jo Jan kar acha lagega

*प्रभुर्विवेकी धनवांश्च दाता*
*विद्वान् विरागी प्रमदा सुशीला ।*
*तुरङ्गमः शस्त्रनिपातधीरः*
*भूमण्डलस्याभरणानि पञ्च ॥*

विवेकी स्वामी, धनवान दानी, विद्वान विरागी, सुशील स्त्री, शस्त्रनिपात के बीच धैर्य से खडा रहनेवाला घोडा – ये पाँच भूमंडल के आभूषण हैं ।


🌹🍃🌹 *अमरवाणी विजयतेतराम्* 🌹🍃🌹

*🔔मूल श्लोकः 🔔* न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोsश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।३.४।।

*🔔मूल श्लोकः 🔔*
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोsश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।३.४।।
*🏹पदच्छेदः........*
न, कर्मणाम्, अनारम्भात्, नैष्कर्म्यम्, पुरुषः, अश्नुते।
न, च, संन्यसनात्, एव, सिद्धिम्, समधिगच्छति।।
*🌷पदार्थः...... 🌷*
पुरुषः — मनुष्यः
कर्मणाम् — क्रियाणाम्
अनारम्भात् — अनाचरणात्
नैष्कर्म्यम् — कर्मराहित्यम्
न अश्नुते — न लभते
संन्यसनात् — सर्वकर्मपरित्यागात्
सिद्धिं च — आत्मज्ञानं च
न समधिगच्छति — न सम्प्राप्नोति।
*🌻अन्वयः 🌻*
पुरुषः कर्मणाम् अनारम्भात् नैष्कर्म्यं न अश्नुते। (कर्मणाम्) संन्यसनात् एव सिद्धिं च न समधिगच्छति।
*🐚आकाङ्क्षाः🐚*
_न अश्नुते।_
किं न अश्नुते?
*नैष्कर्म्यं न अश्नुते।*
कस्मात् नैष्कर्म्यं न अश्नुते?
*अनारम्भात् नैष्कर्म्यं न अश्नुते।*
केषाम् अनारम्भात् नैष्कर्म्यं न अश्नुते?
*कर्मणाम् अनारम्भात् नैष्कर्म्यं न अश्नुते।*
कर्मणाम् अनारम्भात् कः नैष्कर्म्यं न अश्नुते?
*कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न अश्नुते।*
_न समधिगच्छति।_
कां न समधिगच्छति?
*सिद्धिं च न समधिगच्छति।*
सिद्धिं कस्मात् एव न समधिगच्छति?
*सिद्धिं (कर्मणाम्) संन्यसनात् एव न समधिगच्छति।*
*📢 तात्पर्यम्......*
मनुष्यः कर्मणः अनाचरणेन निष्कर्मतां न लभते। तथा कर्मत्यागमात्रेण आत्मज्ञानमपि न विन्दति।
*🌸 रामानुजीयमतम्.......*
नैष्कर्म्यम् = ज्ञाननिष्ठा।
*🌻व्याकरणम्.......*
▶सन्धिः
अनारम्भान्नैष्कर्म्यम् = अनारम्भात् + नैष्कर्म्यम् - अनुनासिकसन्धिः।
पुरुषोsश्नुते= पुरुषः + अश्नुते- विसर्गसन्धिः (सकारः) रेफः, उकारः गुणः पूर्वरूपं च।
संन्यसनात् = सम् + न्यसनात् - अनुस्वारः, अनुनासिकसन्धिश्च।
▶ समासः
अनारम्भात् = न आरम्भः अनारम्भः, तस्मात् - नञ् तत्पुरुषः।
▶ कृदन्तः
संन्यसनात् = सम् + नि + अस् + ल्युट्। (भावे) तस्मात्।
▶ तद्धितान्तः
नैष्कर्म्यम् = निष्कर्म + ष्यञ्। निष्कर्मणः भावः इत्यर्थः।
🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹🌷💐🌻🌹
                              *गीताप्रवेशात्*



श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि । संस्कारशौेचेन परं पुनीते शुद्धा हि बुद्धि: किल काम

श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि  यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि ।
 संस्कारशौेचेन परं पुनीते  शुद्धा हि बुद्धि: किल कामधेनुः।।

 ~  शुद्ध बुद्धि सचमुच कामधेनु है, क्योंकि वह सम्पत्ति को दोहती है,  विपत्ति को रुकाती है,  यश दिलाती है,  मलिनता धो देती है,  और संस्काररूप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है ।।

Friday, April 14, 2017

- व्यावहारिक संस्कृत शब्दावली

ॐहरिॐ
- व्यावहारिक संस्कृत शब्दावली -

  खराब मनुष्य - दुर्जन: / खलः / कापुरूष:

परस्त्री के साथ संबंध रखनेवाला – पारदारिक

आगे रहनेवाला – पुरश्चर: / अग्रेसर: / पुरोग: / पुरोगमः / नायक: / नेतृ / पुरोगामीन्

शिष्य का शिष्य - प्रशिष्य

दारू नशाखोर - मद्यपः

व्यभिचारी पुरुष – लम्पट: / लुब्धकः

परदेशी - वैदेशिक:

नया छात्र – शैक्षः

कदर करनेवाला - रसज्ञ: / सहृदय:

आग बुझानेवाला - अग्निशामक:

स्टेनोग्राफर – आशुलिपिक:

फासी देनेवाला - वधकः

इलाका = क्षेत्रम् / विस्तार:

इकाई – घटक:

अजब - विचित्रम्

मरनेवाला - मरणासन्न:

मरम्मत – समीकरणम्

जंजाल – व्यामोह:

मरीज – रोगी

बापदादा - पूर्वजा:

बालिग - वयस्क:

नाबालिग – किशोरावस्था

दिक्कत - काठिन्यम्

कुर्बानी - त्याग

कुली – भारिक:

कैदी - बंधक:
डॉ संध्या ठाकुर

                ।। संस्कृत - हिन्दी शब्दकोश: ।।

एतदीयः - इसका,
 तदीयः - उसका,
यदीयः - जिसका,
 परकीयः (अन्यदीयः) - दूसरे का,
 आत्मीयः (स्वकीयः, स्वीयः) - अपना।

महत् - महान्,
यावत् - जितना
 तावत् - उतना,
 कियत् - कितना,
एतावत् (इयत्) - इतना।

तत्र - वहाँ,
अत्र - यहाँ,
 कुत्र - कहाँ,
 यत्र - जहाँ,
कुत्रापि - कहीं भी,
अन्यत्र - दूसरे स्थान पर,
 सर्वत्र - सब स्थानों पर,
उभयत्र - दोनों स्थानों पर,
 अत्रैव - यहीं पर
तत्रैव - वहीं पर,
यत्र-कुत्रापि - जहाँ­ कहीं भी,

इतः - यहाँ से,
 ततः - वहाँ से,
 कुतः - कहाँ से,
 कुतश्चित् - कहीं से,
यतः - जहाँ से,
 इतस्ततः - इधर-उधर,
सर्वतः - सब ओर से,
 उभयतः - दोनों ओर से,

उपरि - ऊपर,
अधः - नीचे,
अग्रे, (पुरः, पुरस्तात्) - आगे,
पश्चात् - पीछे,
बहिः - बाहर,
 अन्तः - भीतर
उपरि-अधः - ऊपर-नीचे,

इदानीम् (सम्प्रति, अधुना) - अब / इस समय,
 तदा / तदानीम् - तब / उस समय,
कदा - कब
यदा - जब,
 सदा (सर्वदा) - हमेशा,
एकदा - एक समय
कदाचित् - कभी,
 क्व - कब
 क्वापि - कभी भी,
सद्यः - तत्काल (अतिशीघ्र)
 पुनः - फिर
 अद्य - आज
 अद्यैव - आज ही,
अद्यापि - आज भी,

श्वः - आने वाला कल
 ह्यः - बीता हुआ कल,
 परश्वः - आने वाला परसों
 परह्य: - बीता हुआ परसों
 प्रपरश्वः - आने वाला नरसों
प्रपरह्य: - बीता हुआ नरसों,

शीघ्रम् - जल्दी,
शनैः शनैः - धीरे-धीरे,
 पुनः पुनः - बार-बार,
 युगपत् - एक ही समय में,
सकृत् - एक बार
असकृत् - अनेक बार,
अनन्तरम् - इसके बाद,
कियत् कालम् - कब तक,
एतावत् कालम् - अब तक,
 तावत् कालम् - तब तक,
 यावत् कालम् - जब तक,
अद्यावधि - आज तक,

कथम् - कैसे / किस प्रकार
 इत्थम् - ऐसे / इस प्रकार,
यथा - जैसे,
 तथा - वैसे / उस प्रकार,
सर्वथा - सब तरह से,
अन्यथा - नहीं तो / अन्य प्रकार से,
 कथञ्चित्, कथमपि - किसी भी प्रकार से,
 यथा यथा - जैसे-जैसे,
 तथा-तथा - वैसे-वैसे,
यथा-कथञ्चित् - जिस किसी प्रकार से,
 तथैव - उसी प्रकार,
बहुधा / प्रायः - अक्सर।

स्वयम् - खुद,
 वस्तुतः - असल में,
कदाचित् (सम्भवतः) - शायद
, सम्यक् - अच्छी तरह,
सहसा (अकस्मात्) - अचानक,
वृथा - व्यर्थ,
समक्षम् (प्रत्यक्षम्) - सामने­
, मन्दम् - धीरे,
 च - और,
 अपि - भी
, वा / अथवा - या
, किम् - क्या,
प्रत्युत (अपितु) - बल्कि,
 यतः - चूँकि,
यत् - कि,
यदि - अगर,
तथापि - तो भी / फिर भी,

हि - क्योंकि,
 विना - बिना,
ऋते - सिवाय / के बिना,
कृते - के लिए / वास्त
सह - साथ,
 प्रभृति - से लेकर,
पर्यन्तम् - तक, (यहाँ से यहाँ तक),
ईषत् - थोडा,

न - नहीं,
मा - मत,
अलम् - बस,
 आम् - हाँ,
बाढम् - बहुत अच्छा,
 अथ किम् - और क्या ॥॥

जयतु संस्कृतम् ॥

श्रीकामाक्षिस्तोत्रम्

श्रीकामाक्षिस्तोत्रम्द्रू १॥ ‍
कारणपरचिपा काञ्चीपुरसीम्नि कामपीठगता । काचन विहरति करुणा काश्मीरस्तबककोमलाङ्गलता ॥ १॥ मू.प. आ. १ कञ्चन काञ्चीनिलयं करधृतकोदण्डबाणसृणिपाशम् । कठिनस्तनभरनम्रं कैवल्यानन्दकन्दमवलम्बे ॥ २॥ मू.प. आ. २ ऐश्वर्यमिन्दुमौलेरैकात्म्यप्रकृति काञ्चिमध्यगतम् । ऐन्दवकिशोरशेखरमैदम्पर्यं चकास्ति निगमानाम् ॥ ३॥ मू.प. आ. ७ लीये पुरहरजाये माये तव तरुणपल्लवच्छाये । चरणे चन्द्राभरणे काञ्चीशरणे नतार्तिसंहरणे ॥ ४॥ मू.प. आ. ७२ कामपरिपन्थिकामिनि कामेश्वरि कामपीठमध्यगते । कामदुघा भव कमले कामकले कामकोटि कामाक्षि ॥ ५॥ मू.प. आ. ४९ समरविजयकोटी साधकानन्दधाटी मृदुगुणपरिपेटी मुख्यकादम्बवाटी । var मृदुगुणगणपेटी मुनिनुतपरिपाटी मोहिताजाण्डकोटी परमशिववधूटी पातु मां कामकोटी ॥ ६॥ मू.प. स्तु. १०० जय जय जगदम्ब शिवे जय जय कामाक्षि जय जयाद्रिसुते । जय जय महेशदयिते जय जय चिद्गगनकौमुदीधारे ॥ ७॥ मू.प. आ. १००

कामकलाकालीस्तोत्रम्


 ॥ श्री गणेशाय नमः । महाकाल उवाच । अथ वक्ष्ये महेशानि देव्याः स्तोत्रमनुत्तमम् । यस्य स्मरणमात्रेण विघ्ना यान्ति पराङ्मुखाः ॥ १॥ विजेतुं प्रतस्थे यदा कालकस्या- सुरान् रावणो मुञ्जमालिप्रवर्हान् । तदा कामकालीं स तुष्टाव वाग्भिर्जिगीषुर्मृधे बाहुवीर्य्येण सर्वान् ॥ २॥ महावर्त्तभीमासृगब्ध्युत्थवीची- परिक्षालिता श्रान्तकन्थश्मशाने । चितिप्रज्वलद्वह्निकीलाजटाले शिवाकारशावासने सन्निषण्णाम् ॥ ३॥ महाभैरवीयोगिनीडाकिनीभिः करालाभिरापादलम्बत्कचाभिः । भ्रमन्तीभिरापीय मद्यामिषास्रान्यजस्रं समं सञ्चरन्तीं हसन्तीम् ॥ ४॥ महाकल्पकालान्तकादम्बिनी- त्विट्परिस्पर्द्धिदेहद्युतिं घोरनादाम् । स्फुरद्द्वादशादित्यकालाग्निरुद्र- ज्वलद्विद्युदोघप्रभादुर्निरीक्ष्याम् ॥ ५॥ लसन्नीलपाषाणनिर्माणवेदि- प्रभश्रोणिबिम्बां चलत्पीवरोरुम् । समुत्तुङ्गपीनायतोरोजकुम्भां कटिग्रन्थितद्वीपिकृत्त्युत्तरीयाम् ॥ ६॥ स्रवद्रक्तवल्गन्नृमुण्डावनद्धा- सृगाबद्धनक्षत्रमालैकहाराम् । मृतब्रह्मकुल्योपक्लृप्ताङ्गभूषां महाट्टाट्टहासैर्जगत् त्रासयन्तीम् ॥ ७॥ निपीताननान्तामितोद्धृत्तरक्तो- च्छलद्धारया स्नापितोरोजयुग्माम् । महादीर्घदंष्ट्रायुगन्यञ्चदञ्च- ल्ललल्लेलिहानोग्रजिह्वाग्रभागाम् ॥ ८॥ चलत्पादपद्मद्वयालम्बिमुक्त- प्रकम्पालिसुस्निग्धसम्भुग्नकेशाम् । पदन्याससम्भारभीताहिराजा- ननोद्गच्छदात्मस्तुतिव्यस्तकर्णाम् ॥ ९॥ महाभीषणां घोरविंशार्द्धवक्त्रै- स्तथासप्तविंशान्वितैर्लोचनैश्च । पुरोदक्षवामे द्विनेत्रोज्ज्वलाभ्यां तथान्यानने त्रित्रिनेत्राभिरामाम् ॥ १०॥ लसद्वीपिहर्य्यक्षफेरुप्लवङ्ग- क्रमेलर्क्षतार्क्षद्विपग्राहवाहैः । मुखैरीदृशाकारितैर्भ्राजमानां महापिङ्गलोद्यज्जटाजूटभाराम् ॥ ११॥ भुजैः सप्तविंशाङ्कितैर्वामभागे युतां दक्षिणे चापि तावद्भिरेव । क्रमाद्रत्नमालां कपालं च शुष्कं ततश्चर्मपाशं सुदीर्घं दधानाम् ॥ १२॥ ततः शक्तिखट्वाङ्गमुण्डं भुशुण्डीं धनुश्चक्रघण्टाशिशुप्रेतशैलान् । ततो नारकङ्कालबभ्रूरगोन्माद- वंशीं तथा मुद्गरं वह्निकुण्डम् ॥ १३॥ अधो डम्मरुं पारिघं भिन्दिपालं तथा मौशलं पट्टिशं प्राशमेवम् । शतघ्नीं शिवापोतकं चाथ दक्षे महारत्नमालां तथा कर्त्तुखड्गौ ॥ १४॥ चलत्तर्ज्जनीमङ्कुशं दण्डमुग्रं लसद्रत्नकुम्भं त्रिशूलं तथैव । शरान् पाशुपत्यांस्तथा पञ्च कुन्तं पुनः पारिजातं छुरीं तोमरं च ॥ १५॥ प्रसूनस्रजं डिण्डिमं गृध्रराजं ततः कोरकं मांसखण्डं श्रुवं च । फलं बीजपूराह्वयं चैव सूचीं तथा पर्शुमेवं गदां यष्टिमुग्राम् ॥ १६॥ ततो वज्रमुष्टिं कुणप्पं सुघोरं तथा लालनं धारयन्तीं भुजैस्तैः । जवापुष्परोचिष्फणीन्द्रोपक्लृप्त- क्वणन्नूपुरद्वन्द्वसक्ताङ्घ्रिपद्माम् ॥ १७॥ महापीतकुम्भीनसावद्धनद्ध स्फुरत्सर्वहस्तोज्ज्वलत्कङ्कणां च । महापाटलद्योतिदर्वीकरेन्द्रा- वसक्ताङ्गदव्यूहसंशोभमानाम् ॥ १८॥ महाधूसरत्त्विड्भुजङ्गेन्द्रक्लृप्त- स्फुरच्चारुकाटेयसूत्राभिरामाम् । चलत्पाण्डुराहीन्द्रयज्ञोपवीत- त्विडुद्भासिवक्षःस्थलोद्यत्कपाटाम् ॥ १९॥ पिषङ्गोरगेन्द्रावनद्धावशोभा- महामोहबीजाङ्गसंशोभिदेहाम् । महाचित्रिताशीविषेन्द्रोपक्लृप्त- स्फुरच्चारुताटङ्कविद्योतिकर्णाम् ॥ २०॥ वलक्षाहिराजावनद्धोर्ध्वभासि- स्फुरत्पिङ्गलोद्यज्जटाजूटभाराम् । महाशोणभोगीन्द्रनिस्यूतमूण्डो- ल्लसत्किङ्कणीजालसंशोभिमध्याम् ॥ २१॥ सदा संस्मरामीदृशों कामकालीं जयेयं सुराणां हिरण्योद्भवानाम् । स्मरेयुर्हि येऽन्येऽपि ते वै जयेयु- र्विपक्षान्मृधे नात्र सन्देहलेशः ॥ २२॥ पठिष्यन्ति ये मत्कृतं स्तोत्रराजं मुदा पूजयित्वा सदा कामकालीम् । न शोको न पापं न वा दुःखदैन्यं न मृत्युर्न रोगो न भीतिर्न चापत् ॥ २३॥ धनं दीर्घमायुः सुखं बुद्धिरोजो यशः शर्मभोगाः स्त्रियः सूनवश्च । श्रियो मङ्गलं बुद्धिरुत्साह आज्ञा लयः शर्म सर्व विद्या भवेन्मुक्तिरन्ते ॥ २४॥ ॥ इतिश्रीमहावामकेश्वरतन्त्रे कालकेयहिरण्यपुरविजये रावणकृतं कामकलाकालीभुजङ्गप्रयातस्तोत्रराजं सम्पूर्णम् ॥

kAkinyaShTottarasahasranAmastotra .. ॥ काकिन्यष्टोत्तरसहस्रनामस्तोत्र



.. kAkinyaShTottarasahasranAmastotra ..


॥ काकिन्यष्टोत्तरसहस्रनामस्तोत्र ॥ श्रीगणेशाय नमः । श्रीआनन्दभैरव उवाच । वद कल्याणि कामेशि त्रैलोक्यपरिपूजिते । ब्रह्माण्डानन्तनिलये कैलासशिखरोज्ज्वले ॥ १ ॥ कालिके कालरात्रिस्थे महाकालनिषेविते । शब्दब्रह्मस्वरूपे त्वं वक्तुमर्हसि सादरात् ॥ २ ॥ सहस्रनामयोगाख्यम् अष्टोत्तरमनन्तरम् । अनन्तकोटिब्रह्माण्डं सारं परममङ्गलम् ॥ ३ ॥ ज्ञानसिद्धिकरं साक्षाद् अत्यन्तानन्दवर्धनम् । सङ्केतशब्दमोक्षार्थं काकिनीश्वरसंयुतम् ॥ ४ ॥ परानन्दकरं ब्रह्म निर्वाणपदलालितम् । स्नेहादभिसुखानन्दादादौ ब्रह्म वरानने ॥ ५ ॥ इच्छामि सर्वदा मातर्जगतां सुरसुन्दरि । स्नेहानन्दरसोद्रेकसम्बन्धान् कथय द्रुतम् ॥ ६ ॥ श्रीआनन्दभैरवी उवाच ईश्वर श्रीनीलकण्ठ नागमालाविभूषितः । नागेन्द्रचित्रमालाढ्य नागाधिपरमेश्वरः ॥ ७ ॥ काकिनीश्वरयोगाढ्यं सहस्रनाम मङ्गलम् । अष्टोत्तरं वृताकारं कोटिसौदामिनीप्रभम् ॥ ८ ॥ आयुरारोग्यजननं शृणुष्वावहितो मम । अनन्तकोटिब्रह्माण्डसारं नित्यं परात्परम् ॥ ९ ॥ साधनं ब्रह्मणो ज्ञानं योगानां योगसाधनम् । सार्वज्ञगुह्यसंस्कारं संस्कारादिफलप्रदम् ॥ १० ॥ वाञ्छासिद्धिकरं साक्षान्महापातकनाशनम् । महादारिद्र्यशमनं महैश्वर्यप्रदायकम् ॥ ११ ॥ जपेद्यः प्रातरि प्रीतो मध्याह्नेऽस्तमिते रवौ । नमस्कृत्य जपेन्नाम ध्यानयोगपरायणः ॥ १२ ॥ काकिनीश्वरसंयोगं ध्यानं ध्यानगुणोदयम् । आदौ ध्यानं समाचर्य निर्मलोऽमलचेतसा ॥ १३ ॥ ध्यायेद् देवीं महाकालीं काकिनीं कालरूपिणीम् । परानन्दरसोन्मत्तां श्यामां कामदुघां पराम् ॥ १४ ॥ चतुर्भुजां खड्गचर्मवरपद्मधरां हराम् । शत्रुक्षयकरीं रत्नाऽलङ्कारकोटिमण्डिताम् ॥ १५ ॥ तरुणानन्दरसिकां पीतवस्त्रां मनोरमाम् । केयूरहारललितां ताटङ्कद्वयशोभिताम् ॥ १६ ॥ ईश्वरीं कामरत्नाख्यां काकचञ्चुपुटाननाम् । सुन्दरीं वनमालाढ्यां चारुसिंहासनस्थिताम् ॥ १७ ॥ हृत्पद्मकर्णिकामध्याकाशसौदामिनीप्रभाम् । एवं ध्यात्वा पठेन्नाममङ्गलानि पुनः पुनः ॥ १८ ॥ ईश्वरं कोटिसूर्याभं ध्यायेद्धृदयमण्डले । चतुर्भुजं वीररूपं लावण्यं भावसम्भवम् ॥ १९ ॥ श्यामं हिरण्यभूषाङ्गं चन्द्रकोटिसुशीतलम् । अभयं वरदं पद्मं महाखड्गधरं विभुम् ॥ २० ॥ किरीटिनं महाकायं स्मितहास्यं प्रकाशकम् । हृदयाम्बुजमध्यस्थं नूपुरैरुपशोभितम् ॥ २१ ॥ कोटिकालानलं दीप्तं काकिनीदक्षिणस्थितम् । एवं विचिन्त्य मनसा योगिनं परमेश्वरम् ॥ २२ ॥ ततः पठेत् सहस्राख्यं वदामि शृणु तत्प्रभो ॥ २३ ॥ अस्य श्रीकाकिनीश्वरसहस्रनामस्तोत्रस्य ब्रह्माऋषि , गायत्रीच्छन्दः , जगदीश्वर काकिनी देवता , निर्वाणयोगार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ॐ ईश्वरः काकिनीशान ईशान कमलेश्वरी । ईशः काकेश्वरीशानी ईश्वरीशः कुलेश्वरी ॥ २४ ॥ ईशमोक्षः कामधेनुः कपर्दीशः कपर्दिनी । कौलः कुलीनान्तरगा कविः काव्यप्रकाशिनी ॥ २५ ॥ कलादेशः सुकविता कारणः करुणामयी । कञ्जपत्रेक्षणः काली कामः कोलावलीश्वरी ॥ २६ ॥ किरातरूपी कैवल्या किरणः कामनाशना । कार्णाटेशः सकर्णाटी कलिकः कालिकापुटा ॥ २७ ॥ किशोरः कीशुनमिता केशवेशः कुलेश्वरी । केशकिञ्जल्ककुटिलः कामराजकुतूहला ॥ २८ ॥ करकोटिधरः कूटा क्रियाक्रूरः क्रियावती । कुम्भहा कुम्भहन्त्री च कटकच्छकलावती ॥ २९ ॥ कञ्जवक्त्रः कालमुखी कोटिसूर्यकरानना । कम्रः कलपः समृद्धिस्था कुपोऽन्तस्थः कुलाचला ॥ ३० ॥ कुणपः कौलपाकाशा स्वकान्तः कामवासिनी । सुकृतिः शाङ्करी विद्या कलकः कलनाश्रया ॥ ३१ ॥ कर्कन्धुस्थः कौलकन्या कुलीनः कन्यकाकुला । कुमारः केशरी विद्या कामहा कुलपण्डिता ॥ ३२ ॥ कल्कीशः कमनीयाङ्गी कुशलः कुशलावती । केतकीपुष्पमालाढ्यः केतकीकुसुमान्विता ॥ ३३ ॥ कुसुमानन्दमालाढ्यः कुसुमामलमालिका । कवीन्द्रः काव्यसम्भूतः काममञ्जीररञ्जिनी ॥ ३४ ॥ कुशासनस्थः कौशल्याकुलपः कल्पपादपा । कल्पवृक्षः कल्पलता विकल्पः कल्पगामिनी ॥ ३५ ॥ कठोरस्थः काचनिभा करालः कालवासिनी । कालकूटाश्रयानन्दः कर्कशाकाशवाहिनी ॥ ३६ ॥ कटधूमाकृतिच्छायो विकटासनसंस्थिता । कायधारी कूपकरी करवीरागतः कृषी ॥ ३७ ॥ कालगम्भीरनादान्ता विकलालापमानसा । प्रकृतीशः सत्प्रकृतिः प्रकृष्टः कर्षिणीश्वरी ॥ ३८ ॥ भगवान् वारुणीवर्णा विवर्णो वर्णरूपिणी । सुवर्णवर्णो हेमाभो महान् महेन्द्रपूजिता ॥ ३९ ॥ महात्मा महतीशानी महेशो मत्तगामिनी । महावीरो महावेगा महालक्ष्मीश्वरो मतिः ॥ ४० ॥ महादेवो महादेवी महानन्दो महाकला । महाकालो महाकाली महाबलो महाबला ॥ ४१ ॥ महामान्यो महामान्या महाधन्यो महाधनी । महामालो महामाला महाकाशो महाकाशा ॥ ४२ ॥ महायशो महायज्ञा महाराजो महारजा । महाविद्यो महाविद्या महामुख्यो महामखी ॥ ४३ ॥ महारात्रो महारात्रिर्महाधीरो महाशया । महाक्षेत्रो महाक्षेत्रा कुरुक्षेत्रः कुरुप्रिया ॥ ४४ ॥ महाचण्डो महोग्रा च महामत्तो महामतिः । महावेदो महावेदा महोत्साहो महोत्सवा ॥ ४५ ॥ महाकल्पो महाकल्पा महायोगो महागतिः । महाभद्रो महाभद्रा महासूक्ष्मो महाचला ॥ ४६ ॥ महावाक्यो महावाणी महायज्वा महाजवा । महामूर्तीर्महाकान्ता महाधर्मो महाधना ॥ ४७ ॥ महामहोग्रो महिषी महाभोग्यो महाप्रभा । महाक्षेमो महामाया महामाया महारमा ॥ ४८ ॥ महेन्द्रपूजिता माता विभालो मण्डलेश्वरी । महाविकालो विकला प्रतलस्थललामगा ॥ ४९ ॥ कैवल्यदाता कैवल्या कौतुकस्थो विकर्षिणी । वालाप्रतिर्वालपत्नी बलरामो वलाङ्गजा ॥ ५० ॥ अवलेशः कामवीरा प्राणेशः प्राणरक्षिणी । पञ्चमाचारगः पञ्चापञ्चमः पञ्चमीश्वरी ॥ ५१ ॥ प्रपञ्चः पञ्चरसगा निष्प्रपञ्चः कृपामयी । कामरूपी कामरूपा कामक्रोधविवर्जिता ॥ ५२ ॥ कामात्मा कामनिलया कामाख्या कामचञ्चला । कामपुष्पधरः कामा कामेशः कामपुष्पिणी ॥ ५३ ॥ महामुद्राधरो मुद्रा सन्मुद्रः काममुद्रिका । चन्द्रार्धकृतभालाभो विधुकोटिमुखाम्बुजा ॥ ५४ ॥ चन्द्रकोटिप्रभाधारी चन्द्रज्योतिःस्वरूपिणी । सूर्याभो वीरकिरणा सूर्यकोटिविभाविता ॥ ५५ ॥ मिहिरेशो मानवका अन्तर्ग्गामी निराश्रया । प्रजापतीशः कल्याणी दक्षेशः कुलरोहिणी ॥ ५६ ॥ अप्रचेताः प्रचेतस्था व्यासेशो व्यासपूजिता । काश्यपेशः काश्यपेशी भृग्वीशो भार्गवेश्वरी ॥ ५७ ॥ वशिष्ठः प्रियभावस्थो वशिष्ठबाधितापरा । पुलस्त्यपूजितो देवः पुलस्त्यचित्तसंस्थिता ॥ ५८ ॥ अगस्त्यार्च्योऽगस्त्यमाता प्रह्लादेशो वलीश्वरी । कर्दमेशः कर्दमाद्या बालको बालपूजिता ॥ ५९ ॥ मनस्थश्चान्तरिक्षस्था शब्दज्ञानी सरस्वती । रूपातीता रूपशून्या विरूपो रूपमोहिनी ॥ ६० ॥ विद्याधरेशो विद्येशी वृषस्थो वृषवाहिनी । रसज्ञो रसिकानन्दा विरसो रसवर्जिता ॥ ६१ ॥ सौनः सनत्कुमारेशी योगचर्येश्वरः प्रिया । दुर्वाशाः प्राणनिलयः साङ्ख्ययोगसमुद्भवा ॥ ६२ ॥ असङ्ख्येयो मांसभक्षा सुमांसाशी मनोरमा । नरमांसविभोक्ता च नरमांसविनोदिनी ॥ ६३ ॥ मीनवक्त्रप्रियो मीना मीनभुङ्मीनभक्षिणी । रोहिताशी मत्स्यगन्धा मत्स्यनाथो रसापहा ॥ ६४ ॥ पार्वतीप्रेमनिकरो विधिदेवाधिपूजिता । विधातृवरदो वेद्या वेदो वेदकुमारिका ॥ ६५ ॥ श्यामेशो सितवर्णा च चासितोऽसितरूपिणी । महामत्ताऽऽसवाशी च महामत्ताऽऽसवप्रिया ॥ ६६ ॥ आसवाढ्योऽमनादेवी निर्मलासवपामरा । विसत्तो मदिरामत्ता मत्तकुञ्जरगामिनी ॥ ६७ ॥ मणिमालाधरो मालामातृकेशः प्रसन्नधीः । जरामृत्युहरो गौरी गायनस्थो जरामरा ॥ ६८ ॥ सुचञ्चलोऽतिदुर्धर्षा कण्ठस्थो हृद्गता सती । अशोकः शोकरहिता मन्दरस्थो हि मन्त्रिणी ॥ ६९ ॥ मन्त्रमालाधरानन्दो मन्त्रयन्त्रप्रकाशिनी । मन्त्रार्थचैतन्यकरो मन्त्रसिद्धिप्रकाशिनी ॥ ७० ॥ मन्त्रज्ञो मन्त्रनिलया मन्त्रार्थामन्त्रमन्त्रिणी । बीजध्यानसमन्तस्था मन्त्रमालेऽतिसिद्धिदा ॥ ७१ ॥ मन्त्रवेत्ता मन्त्रसिद्धिर्मन्त्रस्थो मान्त्रिकान्तरा । बीजस्वरूपो बीजेशी बीजमालेऽति बीजिका ॥ ७२ ॥ बीजात्मा बीजनिलया बीजाढ्या बीजमालिनी । बीजध्यानो बीजयज्ञा बीजाढ्या बीजमालिनी ॥ ७३ ॥ महाबीजधरो बीजा बीजाढ्या बीजवल्लभा । मेघमाला मेघमालो वनमाली हलायुधा ॥ ७४ ॥ कृष्णाजिनधरो रौद्रा रौद्री रौद्रगणाश्रया । रौद्रप्रियो रौद्रकर्त्री रौद्रलोकप्रदः प्रभा ॥ ७५ ॥ विनाशी सर्वगानां च सर्वाणी सर्वसम्पदा । नारदेशः प्रधानेशी वारणेशो वनेश्वरी ॥ ७६ ॥ कृष्णेश्वरः केशवेशी कृष्णवर्णस्त्रिलोचना । कामेश्वरो राघवेशी बालेशी वा बाणपूजितः ॥ ७७ ॥ भवानीशो भवानी च भवेन्द्रो भववल्लभा । भवानन्दोऽतिसूक्ष्माख्या भवमूतीर्भवेश्वरी ॥ ७८ ॥ भवच्छायो भवानन्दो भवभीतिहरो वला । भाषाज्ञानीभाषमाला महाजीवोऽतिवासना ॥ ७९ ॥ लोभापदो लोभकर्त्री प्रलोभो लोभवर्धिनी । मोहातीतो मोहमाता मोहजालो महावती ॥ ८० ॥ मोहमुद्गरधारी च मोहमुद्गरधारिणी । मोहान्वितो मोहमुग्धा कामेशः कामिनीश्वरी ॥ ८१ ॥ कामलापकरोऽकामा सत्कामो कामनाशिनी । बृहन्मुखो बृहन्नेत्रा पद्माभोऽम्बुजलोचना ॥ ८२ ॥ पद्ममालः पद्ममाला श्रीदेवो देवरक्षिणी । असितोऽप्यसिता चैव आह्लादो देवमातृका ॥ ८३ ॥ नागेश्वरः शैलमाता नागेन्द्रो वै नगात्मजा । नारायणेश्वरः कीर्तिः सत्कीर्तिः कीर्तिवर्धिनी ॥ ८४ ॥ कार्तिकेशः कार्तिकी च विकर्ता गहनाश्रया । विरक्तो गरुडारूढा गरुडस्थो हि गारुडी ॥ ८५ ॥ गरुडेशो गुरुमयी गुरुदेवो गुरुप्रदा । गौराङ्गेशो गौरकन्या गङ्गेशः प्राङ्गणेश्वरी ॥ ८६ ॥ प्रतिकेशो विशाला च निरालोको निरीन्द्रिया । प्रेतबीजस्वरूपश्च प्रेताऽलङ्कारभूषिता ॥ ८७ ॥ प्रेमगेहः प्रेमहन्त्री हरीन्द्रो हरिणेक्षणा । कालेशः कालिकेशानी कौलिकेशश्च काकिनी ॥ ८८ ॥ कालमञ्जीरधारी च कालमञ्जीरमोहिनी । करालवदनः काली कैवल्यदानदः कथा ॥ ८९ ॥ कमलापालकः कुन्ती कैकेयीशः सुतः कला । कालानलः कुलज्ञा च कुलगामी कुलाश्रया ॥ ९० ॥ कुलधर्मस्थितः कौला कुलमार्गः कुलातुरा । कुलजिह्वः कुलानन्दा कृष्णः कृष्णसमुद्भवा ॥ ९१ ॥ कृष्णेशः कृष्णमहिषी काकस्थः काकचञ्चुका । कालधर्मः कालरूपा कालः कालप्रकाशिनी ॥ ९२ ॥ कालजः कालकन्या च कालेशः कालसुन्दरी । खड्गहस्तः खर्पराढ्या खरगः खरखड्गनी ॥ ९३ ॥ खलबुद्धिहरः खेला खञ्जनेशः सुखाञ्जनी । गीतप्रियो गायनस्था गणपालो गृहाश्रया ॥ ९४ ॥ गर्गप्रियो गयाप्राप्तिर्गर्गस्थो हि गभीरिणा । गारुडीशो हि गान्धर्वी गतीशो गार्हवह्निजा ॥ ९५ ॥ गणगन्धर्वगोपालो गणगन्धर्वगो गता । गभीरमानी सम्भेदो गभीरकोटिसागरा ॥ ९६ ॥ गतिस्थो गाणपत्यस्था गणनाद्यो गवा तनूः । गन्धद्वारो गन्धमाला गन्धाढ्यो गन्धनिर्गमा ॥ ९७ ॥ गन्धमोहितसर्वाङ्गो गन्धचञ्चलमोहिनी । गन्धपुष्पधूपदीपनैवेद्यादिप्रपूजिता ॥ ९८ ॥ गन्धागुरुसुकस्तूरी कुङ्कुमादिविमण्डिता । गोकुला मधुरानन्दा पुष्पगन्धान्तरस्थिता ॥ ९९ ॥ गन्धमादनसम्भूतपुष्पमाल्यविभूषितः । रत्नाद्यशेषालङ्कारमालामण्डितविग्रहः ॥ १०० ॥ स्वर्णाद्यशेषालङ्कारहारमालाविमण्डिता । करवीरा युतप्रख्यरक्तलोचनपङ्कजः ॥ १०१ ॥ जवाकोटिकोटिशत चारुलोचनपङ्कजा । घनकोटिमहानास्य पङ्कजालोलविग्रहा ॥ १०२ ॥ घर्घरध्वनिमानन्दकाव्याम्बुधिमुखाम्बुजा । घोरचित्रसर्पराज मालाकोटिशताङ्कभृत् ॥ १०३ ॥ घनघोरमहानाग चित्रमालाविभूषिता । घण्टाकोटिमहानादमानन्दलोलविग्रहः ॥ १०४ ॥ घण्टाडमरुमन्त्रादि ध्यानानन्दकराम्बुजा । घटकोटिकोटिशतसहस्रमङ्गलासना ॥ १०५ ॥ घण्टाशङ्खपद्मचक्रवराभयकराम्बुजा । घातको रिपुकोटीनां शुम्भादीनां तथा सताम् ॥ १०६ ॥ घातिनीदैत्यघोराश्च शङ्खानां सततं तथा । चार्वाकमतसङ्घातचतुराननपङ्कजः ॥ १०७ ॥ चञ्चलानन्दसर्वार्थसारवाग्वादिनीश्वरी । चन्द्रकोटिसुनिर्माल मालालम्बितकण्ठभृत् ॥ १०८ ॥ चन्द्रकोटिसमानस्य पङ्केरुहमनोहरा । चन्द्रज्योत्स्नायुतप्रख्यहारभूषितमस्तकः ॥ १०९ ॥ चन्द्रबिम्बसहस्राभायुतभूषितमस्तकः । चारुचन्द्रकान्तमणिमणिहारायुताङ्गभृत् ॥ ११० ॥ चन्दनागुरुकस्तूरी कुङ्कुमासक्तमालिनी । चण्डमुण्डमहामुण्डायुतनिर्मलमाल्यभृत् ॥ १११ ॥ चण्डमुण्डघोरमुण्डनिर्माणकुलमालिनी । चण्डाट्टहासघोराढ्यवदनाम्भोजचञ्चलः ॥ ११२ ॥ चलत्खञ्जननेत्राम्भोरुहमोहितशङ्करा । चलदम्भोजनयनानन्दपुष्पकरमोहितः ॥ ११३ ॥ चलदिन्दुभाषमाणावग्रहखेदचन्द्रिका । चन्द्रार्धकोटिकिरणचूडामण्डलमण्डितः ॥ ११४ ॥ चन्द्रचूडाम्भोजमाला उत्तमाङ्गविमण्डितः । चलदर्कसहस्रान्त रत्नहारविभूषितः ॥ ११५ ॥ चलदर्ककोटिशतमुखाम्भोजतपोज्ज्वला । चारुरत्नासनाम्भोजचन्द्रिकामध्यसंस्थितः ॥ ११६ ॥ चारुद्वादशपत्रादि कर्णिकासुप्रकाशिका । चमत्कारगटङ्कारधुनर्बाणकराम्बुजः ॥ ११७ ॥ चतुर्थवेदगाथादि स्तुतिकोटिसुसिद्धिदा । चलदम्बुजनेत्रार्कवह्निचन्द्रत्रयान्वितः ॥ ११८ ॥ चलत्सहस्रसङ्ख्यात पङ्कजादिप्रकाशिका । चमत्काराट्टहासास्य स्मितपङ्कजराजयः ॥ ११९ ॥ चमत्कारमहाघोरसाट्टाट्टहासशोभिता । छायासहस्रसंसारशीतलानिलशीतलः ॥ १२० ॥ छदपद्मप्रभामानसिंहासनसमास्थिता । छलत्कोटिदैत्यराजमुण्डमालाविभूषितः ॥ १२१ ॥ छिन्नादिकोटिमन्त्रार्थज्ञानचैतन्यकारिणी । चित्रमार्गमहाध्वान्तग्रन्थिसम्भेदकारकः ॥ १२२ ॥ अस्त्रकास्त्रादिब्रह्मास्त्रसहस्रकोटिधारिणी । अजामांसादिसद्भक्षरसामोदप्रवाहगः ॥ १२३ ॥ छेदनादिमहोग्रास्त्रे भुजवामप्रकाशिनी । जयाख्यादिमहासाम ज्ञानार्थस्य प्रकाशकः ॥ १२४ ॥ जायागणहृदम्भोज बुद्धिज्ञानप्रकाशिनी । जनार्दनप्रेमभाव महाधनसुखप्रदः ॥ १२५ ॥ जगदीशकुलानन्दसिन्धुपङ्कजवासिनी । जीवनास्थादिजनकः परमानन्दयोगिनाम् ॥ १२६ ॥ जननी योगशास्त्राणां भक्तानां पादपद्मयोः । रुक्षपवननिर्वातमहोल्कापातकारुणः ॥ १२७ ॥ झर्झरीमधुरी वीणा वेणुशङ्खप्रवादिनी । झनत्कारौघसंहारकरदण्डविशानधृक् ॥ १२८ ॥ झर्झरीनायिकार्य्यादिकराम्भोजनिषेविता । टङ्कारभावसंहारमहाजागरवेशधृक् ॥ १२९ ॥ टङ्कासिपाशुपातास्त्रचर्मकार्मुकधारिणी । टलनानलसङ्घट्टपट्टाम्बरविभूषितः ॥ १३० ॥ टुल्टुनी किङ्किणी कोटि विचित्रध्वनिगामिनी । ठं ठं ठं मनुमूलान्तः स्वप्रकाशप्रबोधकः ॥ १३१ ॥ ठं ठं ठं प्रखराह्लादनादसंवादवादिनी । ठं ठं ठं कूर्मपृष्ठस्थः कामचाकारभासनः ॥ १३२ ॥ ठं ठं ठं बीजवह्निस्थ हातुकभ्रूविभूषिता । डामरप्रखराह्लादसिद्धिविद्याप्रकाशकः ॥ १३३ ॥ डिण्डिमध्वानमधुरवाणीसम्मुखपङ्कजा । डं डं डं खरकृत्यादि मारणान्तःप्रकाशिका ॥ १३४ ॥ ढक्कारवाद्यभूपूरतारसप्तस्वराश्रयः । ढौं ढौं ढौं ढौकढक्कलं वह्निजायामनुप्रियः ॥ १३५ ॥ ढं ढं ढं ढौं ढ ढं ढ कृत्येत्थाहेति वासिनी । तारकब्रह्ममन्त्रस्थः श्रीपादपद्मभावकः ॥ १३६ ॥ तारिण्यादिमहामन्त्र सिद्धिसर्वार्थसिद्धिदा । तन्त्रमन्त्रमहायन्त्र वेदयोगसुसारवित् ॥ १३७ ॥ तालवेतालदैतालश्रीतालादिसुसिद्धदा । तरुकल्पलतापुष्पकलबीजप्रकाशकः ॥ १३८ ॥ डिन्तिडीतालहिन्तालतुलसीकुलवृक्षजा । अकारकूटविन्द्विन्दुमालामण्डितविग्रहः ॥ १३९ ॥ स्थातृप्रस्थप्रथागाथास्थूलस्थित्यन्तसंहरा । दरीकुञ्जहेममालावनमालादिभूषितः ॥ १४० ॥ दारिद्र्यदुःखदहनकालानलशतोपमः । दशसाहस्रवक्त्राम्भोरुहशोभितविग्रहः ॥ १४१ ॥ पाशाभयवराह्लादधनधर्मादिवर्धिनी । धर्मकोटिशतोल्लाससिद्धिऋद्धिसमृद्धिदा ॥ १४२ ॥ ध्यानयोगज्ञानयोगमन्त्रयोगफलप्रदा । नामकोटिशतानन्तसुकीर्तिगुणमोहनः ॥ १४३ ॥ निमित्तफलसद्भावभावाभावविवर्जिता । परमानन्दपदवी दानलोलपदाम्बुजः ॥ १४४ ॥ प्रतिष्ठासुनिवृत्तादि समाधिफलसाधिनी । फेरवीगणसन्मानवसुसिद्धिप्रदायकः ॥ १४५ ॥ फेत्कारीकुलतन्त्रादि फलसिद्धिस्वरूपिणी । वराङ्गनाकोटिकोटिकराम्भोजनिसेविता ॥ १४६ ॥ वरदानज्ञानदान मोक्षदातिचञ्चला । भैरवानन्दनाथाख्य शतकोटिमुदान्वितः ॥ १४७ ॥ भावसिद्धिक्रियासिद्धि साष्टाङ्गसिद्धिदायिनी । मकारपञ्चकाह्लादमहामोदशरीरधृक् ॥ १४८ ॥ मदिरादिपञ्चतत्त्वनिर्वाणज्ञानदायिनी । यजमानक्रियायोगविभागफलदायकः ॥ १४९ ॥ यशः सहस्रकोटिस्थ गुणगायनतत्परा । रणमध्यस्थकालाग्नि क्रोधधारसुविग्रहः ॥ १५० ॥ काकिनीशाकिनीशक्तियोगादि काकिनीकला । लक्षणायुतकोटीन्दुललाटतिलकान्वितः ॥ १५१ ॥ लाक्षाबन्धूकसिन्दूरवर्णलावण्यलालिता । वातायुतसहस्राङ्गघूर्णायमानभूधरः ॥ १५२ ॥ विवस्वत्प्रेमभक्तिस्थ चरणद्वन्द्वनिर्मला । श्रीसीतापतिशुद्धाङ्ग व्याप्तेन्द्रनीलसन्निभः ॥ १५३ ॥ शीतनीलाशतानन्दसागरप्रेमभक्तिदा । षट्पङ्केरुहदेवादिस्वप्रकाशप्रबोधिनी ॥ १५४ ॥ महोमीस्थषडाधारप्रसन्नहृदयाम्बुजा । श्यामप्रेमकलाबन्धसर्वाङ्गकुलनायकः ॥ १५५ ॥ संसारसारशास्त्रादि सम्बन्धसुन्दराश्रया । ह्सौः प्रेतमहाबीजमालाचित्रितकण्ठधृक् ॥ १५६ ॥ हकारवामकर्णाढ्य चन्द्रबिन्दुविभूषिता । लयसृष्टिस्थितिक्षेत्रपानपालकनामधृक् ॥ १५७ ॥ लक्ष्मीलक्षजपानन्दसिद्धिसिद्धान्तवर्णिनी । क्षुन्निवृत्तिक्षपारक्षा क्षुधाक्षोभनिवारकः ॥ १५८ ॥ क्षत्रियादिकुरुक्षेत्रारुणाक्षिप्तत्रिलोचना । अनन्त इतिहासस्थ आज्ञागामी च ईश्वरी ॥ १५९ ॥ उमेश उटकन्येशी ऋद्धिस्थहृस्थगोमुखी । गकारेश्वरसंयुक्त त्रिकुण्डदेवतारिणी ॥ १६० ॥ ऐणाचीशप्रियानन्द ऐरावतकुलेश्वरी । ओढ्रपुष्पानन्तदीप्त ओढ्रपुष्पानखाग्रका ॥ १६१ ॥ एहृत्यशतकोटिस्थ औ दीर्घप्रणवाश्रया । अङ्गस्थाङ्गदेवस्था अर्यस्थश्चार्यमेश्वरी ॥ १६२ ॥ मातृकावर्णनिलयः सर्वमातृकलान्विता । मातृकामन्त्रजालस्थः प्रसन्नगुणदायिनी ॥ १६३ ॥ अत्युत्कटपथिप्रज्ञा गुणमातृपदे स्थिता । स्थावरानन्ददेवेशो विसर्गान्तरगामिनी ॥ १६४ ॥ अकलङ्को निष्कलङ्को निराधारो निराश्रया । निराश्रयो निराधारो निर्बीजो बीजयोगिनी ॥ १६५ ॥ निःशङ्को निस्पृहानन्दो सिन्धूरत्नावलिप्रभा । आकाशस्थः खेचरी च स्वर्गदाता शिवेश्वरी ॥ १६६ ॥ सूक्ष्मातिसूक्ष्मात्वैर्ज्ञेया दारापदुःखहारिणी । नानादेशसमुद्भूतो नानालङ्कारलङ्कृता ॥ १६७ ॥ नवीनाख्यो नूतनस्थ नयनाब्जनिवासिनी । विषयाख्यविषानन्दा विषयाशी विषापहा ॥ १६८ ॥ विषयातीतभावस्थो विषयानन्दघातिनी । विषयच्छेदनास्त्रस्थो विषयज्ञाननाशिनी ॥ १६९ ॥ संसारछेदकच्छायो भवच्छायो भवान्तका । संसारार्थप्रवर्तश्च संसारपरिवर्तिका ॥ १७० ॥ संसारमोहहन्ता च संसारार्णवतारिणी । संसारघटकश्रीदासंसारध्वान्तमोहिनी ॥ १७१ ॥ पञ्चतत्त्वस्वरूपश्च पञ्चतत्त्वप्रबोधिनी । पार्थिवः पृथिवीशानी पृथुपूज्यः पुरातनी ॥ १७२ ॥ वरुणेशो वारुणा च वारिदेशो जलोद्यमा । मरुस्थो जीवनस्था च जलभुग्जलवाहना ॥ १७३ ॥ तेजः कान्तः प्रोज्ज्वलस्था तेजोराशेस्तु तेजसी । तेजस्थस्तेजसो माला तेजः कीर्तिः स्वरश्मिगा ॥ १७४ ॥ पवनेशश्चानिलस्था परमात्मा निनान्तरा । वायुपूरककारी च वायुकुम्भकवर्धिनी ॥ १७५ ॥ वायुच्छिद्रकरो वाता वायुनिर्गममुद्रिका । कुम्भकस्थो रेचकस्था पूरकस्थातिपूरिणी ॥ १७६ ॥ वाय्वाकाशाधाररूपी वायुसञ्चारकारिणी । वायुसिद्धिकरो दात्री वायुयोगी च वायुगा ॥ १७७ ॥ आकाशप्रकरो ब्राह्मी आकाशान्तर्गतद्रिगा । आकाशकुम्भकानन्दो गगनाह्लादवर्धिनी ॥ १७८ ॥ गगनाच्छन्नदेहस्थो गगनाभेदकारिणी । गगनादिमहासिद्धो गगनग्रन्थिभेदिनी ॥ १७९ ॥ कलकर्मा महाकाली कालयोगी च कालिका । कालछत्रः कालहत्या कालदेवो हि कालिका ॥ १८० ॥ कालब्रह्मस्वरूपश्च कालितत्त्वार्थरक्षिणी । दिगम्बरो दिक्पतिस्था दिगात्मा दिगिभास्वरा ॥ १८१ ॥ दिक्पालस्थो दिक्प्रसन्ना दिग्वलो दिक्कुलेश्वरी । दिगघोरो दिग्वसना दिग्वीरा दिक्पतीश्वरी ॥ १८२ ॥ आत्मार्थो व्यापितत्त्वज्ञ आत्मज्ञानी च सात्मिका । आत्मीयश्चात्मबीजस्था चान्तरात्मात्ममोहिनी ॥ १८३ ॥ आत्मसञ्ज्ञानकारी च आत्मानन्दस्वरूपिणी । आत्मयज्ञो महात्मज्ञा महात्मात्मप्रकाशिनी ॥ १८४ ॥ आत्मविकारहन्ता च विद्यात्मीयादिदेवता । मनोयोगकरो दुर्गा मनः प्रत्यक्ष ईश्वरी ॥ १८५ ॥ मनोभवनिहन्ता च मनोभवविवर्धिनी । मनश्चान्तरीक्षयोगो निराकारगुणोदया ॥ १८६ ॥ मनोनिराकारयोगी मनोयोगेन्द्रसाक्षिणी । मनःप्रतिष्ठो मनसा मानशङ्का मनोगतिः ॥ १८७ ॥ नवद्रव्यनिगूढार्थो नरेन्द्रविनिवारिणी । नवीनगुणकर्मादिसाकारः खगगामिनी ॥ १८८ ॥ अत्युन्मत्ता महावाणी वायवीशो महानिला । सर्वपापापहन्ता च सर्वव्याधिनिवारिणी ॥ १८९ ॥ द्वारदेवीश्वरी प्रीतिः प्रलयाग्निः करालिनी । भूषण्डगणतातश्च भूःषण्डरुधिरप्रदा ॥ १९० ॥ काकावलीशः सर्वेशी काकपुच्छधरो जया । अजितेशो जितानन्दा वीरभद्रः प्रभावती ॥ १९१ ॥ अन्तर्नाडीगतप्राणो वैशेषिकगुणोदया । रत्ननिर्मितपीठस्थः सिंहस्था रथगामिनी ॥ १९२ ॥ कुलकोटीश्वराचार्यो वासुदेवनिषेविता । आधारविरहज्ञानी सर्वाधारस्वरूपिणी ॥ १९३ ॥ सर्वज्ञः सर्वविज्ञाना मार्तण्डो यश इल्वला । इन्द्रेशो विन्ध्यशैलेशी वारणेशः प्रकाशिनी ॥ १९४ ॥ अनन्तभुजराजेन्द्रो अनन्ताक्षरनाशिनी । आशीर्वादस्तु वरदोऽनुग्रहोऽनुग्रहक्रिया ॥ १९५ ॥ प्रेतासनसमासीनो मेरुकुञ्जनिवासिनी । मणिमन्दिरमध्यस्थो मणिपीठनिवासिनी ॥ १९६ ॥ सर्वप्रहरणः प्रेतो विधिविद्याप्रकाशिनी । प्रचण्डनयनानन्दो मञ्जीरकलरञ्जिनी ॥ १९७ ॥ कलमञ्जीरपादाब्जो बलमृत्युपरायणा । कुलमालाव्यापिताङ्गः कुलेन्द्रः कुलपण्डिता ॥ १९८ ॥ बालिकेशो रुद्रचण्डा बालेन्द्राः प्राणबालिका । कुमारीशः काममाता मन्दिरेशः स्वमन्दिरा ॥ १९९ ॥ अकालजननीनाथो विदग्धात्मा प्रियङ्करी । वेदाद्यो वेदजननी वैराग्यस्थो विरागदा ॥ २०० ॥ स्मितहास्यास्यकमलः स्मितहास्यविमोहिनी । दन्तुरेशो दन्तुरु च दन्तीशो दर्शनप्रभा ॥ २०१ ॥ दिग्दन्तो हि दिग्दशना भ्रष्टभुक् चर्वणप्रिया । मांसप्रधाना भोक्ता च प्रधानमांसभक्षिणी ॥ २०२ ॥ मत्स्यमांसमहामुद्रा रजोरुधिरभुक्प्रिया । सुरामांसमहामीनमुद्रामैथुनसुप्रिया ॥ २०३ ॥ कुलद्रव्यप्रियानन्दो मद्यादिकुलसिद्धिदा । हृत्कण्ठभ्रूसहस्रारभेदनोऽन्ते विभेदिनी ॥ २०४ ॥ प्रसन्नहृदयाम्भोजः प्रसन्नहृदयाम्बुजा । प्रसन्नवरदानाढ्यः प्रसन्नवरदायिनी ॥ २०५ ॥ प्रेमभक्तिप्रकाशाढ्यः प्रेमानन्दप्रकाशिनी ॥ २०६ ॥ प्रभाकरफलोदयः परमसूक्ष्मपुरप्रिया । प्रभातरविरश्मिगः प्रथमभानुशोभान्विता । प्रचण्डरिपुमन्मथः प्रचलितेन्दुदेहोद्गतः । प्रभापटलपाटलप्रचयधर्मपुञ्जाचीता ॥ २०७ ॥ सुरेन्द्रगणपूजितः सुरवरेशसम्पूजिता । सुरेन्द्रकुल सेवितो नरपतीन्द्रसंसेविता । गणेन्द्र गणनायको गणपतीन्द्र देवात्मजा । भवार्णवर्गतारको जलधिकर्णधारप्रिया ॥ २०८ ॥ सुरासुरकुलोद्भवः सुररिपुप्रसिद्धिस्थिता सुरारिगणघातकः सुरगणेन्द्रसंसिद्धिदा । अभीप्सितफलप्रदः सुरवरादिसिद्धिप्रदा प्रियाङ्गज कुलार्थदः सुतधनापवर्गप्रदा ॥ २०९ ॥ शिवस्वशिवकाकिनी हरहरा च भीमस्वना क्षितीश इषुरक्षका समनदर्पहन्तोदया । गुणेश्वर उमापती हृदयपद्मभेदी गतिः क्षपाकरललाटधृक् स्वसुखमार्गसन्दायिनी ॥ २१० ॥ श्मशानतटनिष्पट प्रचटहासकालङ्कृता हठत्शठमनस्तटे सुरकपाटसंछेदकः । स्मराननविवर्धनः प्रियवसन्तसम्बायवी विराजितमुखाम्बुजः कमलमञ्जसिंहासना ॥ २११ ॥ भवो भवपतिप्रभाभवः कविश्च भाव्यासुरैः क्रियेश्वर ईलावती तरुणगाहितारावती । मुनीन्द्रमनुसिद्धिदः सुरमुनीन्द्रसिद्धायुषी मुरारिहरदेहगस्त्रिभुवना विनाशक्रिया ॥ २१२ ॥ द्विकः कनककाकिनी कनकतुङ्गकीलालकः कमलाकुलः कुलकलार्कमालामला । सुभक्त तमसाधकप्रकृतियोगयोग्यार्चितो विवेकगतमानसः प्रभुपरादिहस्ताचीता ॥ २१३ ॥ त्वमेव कुलनायकः प्रलययोगविद्येश्वरी प्रचण्डगणगो नगाभुवनदर्पहारी हरा । चराचरसहस्रगः सकलरूपमध्यस्थितः स्वनामगुणपूरकः स्वगुणनामसम्पूरणी ॥ २१४ ॥ इति ते कथितं नाथ सहस्रनाम मङ्गलम् । अत्यद्भुतं परानन्दरससिद्धान्तदायकम् ॥ २१५ ॥ मातृकामन्त्रघटितं सर्वसिद्धान्तसागरम् । सिद्धविद्यामहोल्लास मानन्दगुणसाधनम् ॥ २१६ ॥ दुर्लभं सर्वलोकेषु यामले तत्प्रकाशितम् । तव स्नेहरसामोदमोहितानन्दभैरव ॥ २१७ ॥ कुत्रापि नापि कथितं स्वसिद्ध हानिशङ्कया । सर्वादियोग सिद्धान्तसिद्धये भुक्तिमुक्तये ॥ २१८ ॥ प्रेमाह्लादरसेनैव दुर्लभं तत्प्रकाशितम् । येन विज्ञातमात्रेण भवेद्छ्रीभैरवेश्वरः ॥ २१९ ॥ एतन्नाम शुभफलं वक्तुं न च समर्थकः । कोटिवर्षशतैनापि यत्फलं लभते नरः ॥ २२० ॥ तत्फलं योगिनामेक क्षणाल्लभ्यं भवार्णवे । यः पठेत् प्रातरुत्थाय दुर्गग्रहनिवरणात् ॥ २२१ ॥ दुष्टेन्द्रियभयेनापि महाभयनिवारणात् । ध्यात्वा नाम जपेन्नित्यं मध्याह्ने च विशेषतः ॥ २२२ ॥ सन्ध्यायां रात्रियोगे च साधयेन्नामसाधनम् । योगाभ्यासे ग्रन्थिभेदे योगध्याननिरूपणे ॥ २२३ ॥ पठनाद् योगसिद्धिः स्याद् ग्रन्थिभेदो दिने दिने । योगज्ञानप्रसिद्धिः स्याद् योगः स्यादेकचित्ततः ॥ २२४ ॥ देहस्थ देववश्याय महामोहप्रशान्तये । स्तम्भनायारिसैन्यानां प्रत्यहं प्रपठेच्छुचिः ॥ २२५ ॥ भक्तिभावेन पाठेन सर्वकर्मसु सुक्षमः । स्तम्भयेत् परसैन्यानि वारैकपाठमात्रतः ॥ २२६ ॥ वारत्रयप्रपठनाद् वशयेद् भुवनत्रयम् । वारत्रयं तु प्रपठेद् यो मूर्खः पण्डितोऽपि वा ॥ २२७ ॥ शान्तिमाप्नोति परमां विद्यां भुवनमोहिनीम् । प्रतिष्ठाञ्च ततः प्राप्य मोक्षनिर्वाणमाप्नुयात् ॥ २२८ ॥ विनाशयेदरीञ्छीघ्रं चतुर्वारप्रपाठने । पञ्चावृत्तिप्रपाठेन शत्रुमुच्चाटयेत् क्षणात् ॥ २२९ ॥ षडावृत्या साधकेन्द्रः शत्रूणां नाशको भवेत् । आकर्षयेत् परद्रव्यं सप्तवारं पठेद् यदि ॥ २३० ॥ एवं क्रमगतं ध्यात्वा यः पठेदतिभक्तितः । स भवेद् योगिनीनाथो महाकल्पद्रुमोपमः ॥ २३१ ॥ ग्रन्थिभेदसमर्थः स्यान्मासमात्रं पठेद् यदि । दूरदर्शी महावीरो बलवान् पण्डितेश्वरः ॥ २३२ ॥ महाज्ञानी लोकनाथो भवत्येव न संशयः । मासैकेन समर्थः स्यान्निर्वाणमोक्षसिद्धिभाक् ॥ २३३ ॥ प्रपठेद् योगसिद्ध्यर्थं भावकः परमप्रियः । शून्यागारे भूमिगर्तमण्डपे शून्यदेशके ॥ २३४ ॥ गङ्गागर्भे महारण्ये चैकान्ते निर्जनेऽपि वा । दुर्भिक्षवर्जिते देशे सर्वोपद्रववर्जिते ॥ २३५ ॥ श्मशाने प्रान्तरेऽश्वत्थमूले वटतरुस्थले । इष्टकामयगेहे वा यत्र लोको न वर्तते ॥ २३६ ॥ तत्र तत्रानन्दरूपी महापीठस्थलेऽपि च । दृढासनस्थः प्रजपेन्नाममङ्गलमुत्तमम् ॥ २३७ ॥ ध्यानधारणशुद्धाङ्गो न्यासपूजापरायणः । ध्यात्वा स्तौति प्रभाते च मृत्युजेता भवेद् ध्रुवम् ॥ २३८ ॥ अष्टाङ्गसिद्धिमाप्नोति चामरत्वमवाप्नुयात् । गुरुदेवमहामन्त्रभक्तो भवति निश्चितम् ॥ २३९ ॥ शरीरे तस्य दुःखानि न भवन्ति कुवृद्धयः । दुष्टग्रहाः पलायन्ते तं दृष्ट्वा योगिनं परम् ॥ २४० ॥ यः पठेत् सततं मन्त्री तस्य हस्तेऽष्टसिद्धयः । तस्य हृत्पद्मलिङ्गस्था देवाः सिद्ध्यन्ति चापराः ॥ २४१ ॥ युगकोटिसहस्राणि चिरायुर्योगिराड् भवेत् । शुद्धशीलो निराकारो ब्रह्मा विष्णुः शिवः स च । स नित्यः कार्यसिद्धश्च स जीवन्मुक्तिमाप्नुयात् ॥ २४२ ॥ ॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने ईश्वरशक्तिकाकिन्यष्टोत्तर सहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम्

कल्याणवृष्टिस्तवः

कल्याणवृष्टिस्तवः । ॥

 कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभि- र्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गलदीपिकाभिः । सेवाभिरम्ब तव पादसरोजमूले नाकारि किं मनसि भाग्यवतां जनानाम् ॥ १॥ एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्ते त्वद्वन्दनेषु सलिलस्थगिते च नेत्रे । सान्निध्यमुद्यदरुणायुतसोदरस्य त्वद्विग्रहस्य परया सुधयाप्लुतस्य ॥ २॥ ईशात्वनामकलुषाः कति वा न सन्ति ब्रह्मादयः प्रतिभवं प्रलयाभिभूताः । एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्ते यः पादयोस्तव सकृत्प्रणतिं करोति ॥ ३॥ लब्ध्वा सकृत्त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं कारुण्यकन्दलितकान्तिभरं कटाक्षम् । कन्दर्पकोटिसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः संमोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयेऽपि ॥ ४॥ ह्रींकारमेव तव नाम गृणन्ति वेदा मातस्त्रिकोणनिलये त्रिपुरे त्रिनेत्रे । त्वत्संस्मृतौ यमभटाभिभवं विहाय दीव्यन्ति नन्दनवने सह लोकपालैः ॥ ५॥ हन्तुः पुरामधिगलं परिपीयमानः क्रूरः कथं न भविता गरलस्यवेगः । नाश्वासनाय यदि मातरिदं तवार्धं देवस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥ ६॥ सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूते देवि त्वदङ्घ्रिसरसीरुहयोः प्रणामः । किं च स्फुरन्मुकुटमुज्ज्वलमातपत्रं द्वे चामरे च महतीं वसुधां ददाति ॥ ७॥ कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनेषु कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः । आलोकय त्रिपुरसुन्दरि मामनाथं त्वय्येव भक्तिभरितं त्वयि बद्धतृष्णम् ॥ ८॥ हन्तेतरेष्वपि मनांसि निधाय चान्ये भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतेषु । त्वामेव देवि मनसा समनुस्मरामि त्वामेव नौमि शरणं जननि त्वमेव ॥ ९॥ लक्ष्येषु सत्स्वपि कटाक्षनिरीक्षणाना- मालोकय त्रिपुरसुन्दरि मां कदाचित् । नूनं मया तु सदृशः करुणैकपात्रं जातो जनिष्यति जनो न च जायते वा ॥ १०॥ ह्रींह्रीमिति प्रतिदिनं जपतां तवाख्यां किं नाम दुर्लभमिहत्रिपुराधिवासे । मालाकिरीटमदवारणमाननीया तान्सेवते वसुमती स्वयमेव लक्ष्मीः ॥ ११॥ सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदाननिरतानि सरोरुहाक्षि । त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १२॥ कल्पोपसंहृतिषु कल्पितताण्डवस्य देवस्य खण्डपरशोः परभैरवस्य । पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा सा साक्षिणी विजयते तव मूर्तिरेका ॥ १३॥ लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं तेजः परं बहुलकुङ्कुम पङ्कशोणम् । भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं मध्ये त्रिकोणनिलयं परमामृतार्द्रम् ॥ १४॥ ह्रींकारमेव तव नाम तदेव रूपं त्वन्नाम दुर्लभमिह त्रिपुरे गृणन्ति । त्वत्तेजसा परिणतं वियदादिभूतं सौख्यं तनोति सरसीरुहसम्भवादेः ॥ १५॥ ह्रींकारत्रयसम्पुटेन महता मन्त्रेण सन्दीपितं स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरो मातर्जपेन्मन्त्रवित् । तस्य क्षोणिभुजो भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥ १६॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ कल्याणवृष्टिस्तवः सम्पूर्णः ॥कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभि- र्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गलदीपिकाभिः । सेवाभिरम्ब तव पादसरोजमूले नाकारि किं मनसि भाग्यवतां जनानाम् ॥ १॥ एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्ते त्वद्वन्दनेषु सलिलस्थगिते च नेत्रे । सान्निध्यमुद्यदरुणायुतसोदरस्य त्वद्विग्रहस्य परया सुधयाप्लुतस्य ॥ २॥ ईशात्वनामकलुषाः कति वा न सन्ति ब्रह्मादयः प्रतिभवं प्रलयाभिभूताः । एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्ते यः पादयोस्तव सकृत्प्रणतिं करोति ॥ ३॥ लब्ध्वा सकृत्त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं कारुण्यकन्दलितकान्तिभरं कटाक्षम् । कन्दर्पकोटिसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः संमोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयेऽपि ॥ ४॥ ह्रींकारमेव तव नाम गृणन्ति वेदा मातस्त्रिकोणनिलये त्रिपुरे त्रिनेत्रे । त्वत्संस्मृतौ यमभटाभिभवं विहाय दीव्यन्ति नन्दनवने सह लोकपालैः ॥ ५॥ हन्तुः पुरामधिगलं परिपीयमानः क्रूरः कथं न भविता गरलस्यवेगः । नाश्वासनाय यदि मातरिदं तवार्धं देवस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥ ६॥ सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूते देवि त्वदङ्घ्रिसरसीरुहयोः प्रणामः । किं च स्फुरन्मुकुटमुज्ज्वलमातपत्रं द्वे चामरे च महतीं वसुधां ददाति ॥ ७॥ कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनेषु कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः । आलोकय त्रिपुरसुन्दरि मामनाथं त्वय्येव भक्तिभरितं त्वयि बद्धतृष्णम् ॥ ८॥ हन्तेतरेष्वपि मनांसि निधाय चान्ये भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतेषु । त्वामेव देवि मनसा समनुस्मरामि त्वामेव नौमि शरणं जननि त्वमेव ॥ ९॥ लक्ष्येषु सत्स्वपि कटाक्षनिरीक्षणाना- मालोकय त्रिपुरसुन्दरि मां कदाचित् । नूनं मया तु सदृशः करुणैकपात्रं जातो जनिष्यति जनो न च जायते वा ॥ १०॥ ह्रींह्रीमिति प्रतिदिनं जपतां तवाख्यां किं नाम दुर्लभमिहत्रिपुराधिवासे । मालाकिरीटमदवारणमाननीया तान्सेवते वसुमती स्वयमेव लक्ष्मीः ॥ ११॥ सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदाननिरतानि सरोरुहाक्षि । त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १२॥ कल्पोपसंहृतिषु कल्पितताण्डवस्य देवस्य खण्डपरशोः परभैरवस्य । पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा सा साक्षिणी विजयते तव मूर्तिरेका ॥ १३॥ लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं तेजः परं बहुलकुङ्कुम पङ्कशोणम् । भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं मध्ये त्रिकोणनिलयं परमामृतार्द्रम् ॥ १४॥ ह्रींकारमेव तव नाम तदेव रूपं त्वन्नाम दुर्लभमिह त्रिपुरे गृणन्ति । त्वत्तेजसा परिणतं वियदादिभूतं सौख्यं तनोति सरसीरुहसम्भवादेः ॥ १५॥ ह्रींकारत्रयसम्पुटेन महता मन्त्रेण सन्दीपितं स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरो मातर्जपेन्मन्त्रवित् । तस्य क्षोणिभुजो भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥ १६॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ कल्याणवृष्टिस्तवः सम्पूर्णः ॥

Wednesday, April 12, 2017

हम सब हनुमान चालीसा पढते हैं, सब रटा रटाया। hanuman chalisha ka arth

हम सब हनुमान चालीसा पढते हैं, सब रटा रटाया।

क्या हमे चालीसा पढते समय पता भी होता है कि हम हनुमानजी से क्या कह रहे हैं या क्या मांग रहे हैं?

बस रटा रटाया बोलते जाते हैं। आनंद और फल शायद तभी मिलेगा जब हमें इसका मतलब भी पता हो।

तो लीजिए पेश है श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित!!
       
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श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
📯《अर्थ》→ गुरु महाराज के चरण.कमलों की धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला हे।★
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बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।★
📯《अर्थ》→ हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन.करता हूँ। आप तो जानते ही हैं, कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सदबुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का नाश कर दीजिए।★
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जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥1॥★
📯《अर्थ 》→ श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों,स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।★
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राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥★
📯《अर्थ》→ हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नही है।★
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महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥★
📯《अर्थ》→ हे महावीर बजरंग बली! आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालो के साथी, सहायक है।★
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कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥★
📯《अर्थ》→ आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।★
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हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे, काँधे मूँज जनेऊ साजै॥5॥★
📯《अर्थ》→ आपके हाथ मे बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।★
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शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥★
📯《अर्थ 》→ हे शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन! आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर मे वन्दना होती है।★
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विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥★
📯《अर्थ 》→ आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम काज करने के लिए आतुर रहते है।★
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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥★
📯《अर्थ 》→ आप श्री राम चरित सुनने मे आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय मे बसे रहते है।★
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सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा॥9॥★
📯《अर्थ》→ आपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके.लंका को जलाया।★
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भीम रुप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥★
📯《अर्थ 》→ आपने विकराल रुप धारण करके.राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उदेश्यों को सफल कराया।★
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लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥★
📯《अर्थ 》→ आपने संजीवनी बुटी लाकर लक्ष्मणजी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।★
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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥★
📯《अर्थ 》→ श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा की तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।★
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥13॥★
📯《अर्थ 》→ श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से.लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।★
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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद,सारद सहित अहीसा॥14॥★
📯《अर्थ》→श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।★
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जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥15॥★
📯《अर्थ 》→ यमराज,कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।★
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तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥★
📯《अर्थ 》→ आपनें सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।★
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तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥17॥★
📯《अर्थ 》→ आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।★
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जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥★
📯《अर्थ 》→ जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है की उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझ कर निगल लिया।★
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥★
📯《अर्थ 》→ आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुँह मे रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नही है।★
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दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥★
📯《अर्थ 》→ संसार मे जितने भी कठिन से कठिन  काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।★
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राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥21॥★
📯《अर्थ 》→ श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप.रखवाले है, जिसमे आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नही मिलता अर्थात आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।★
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू.को डरना॥22॥★
📯《अर्थ 》→ जो भी आपकी शरण मे आते है, उस सभी को आन्नद प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक. है, तो फिर किसी का डर नही रहता।★
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आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक ते काँपै॥23॥★
📯《अर्थ. 》→ आपके सिवाय आपके वेग को कोई नही रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक काँप जाते है।★
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भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥★
📯《अर्थ 》→ जहाँ महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहाँ भूत, पिशाच पास भी नही फटक सकते।★
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नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा॥25॥★
📯《अर्थ 》→ वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है,और सब पीड़ा मिट जाती है।★
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संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥★
📯《अर्थ 》→ हे हनुमान जी! विचार करने मे, कर्म करने मे और बोलने मे, जिनका ध्यान आपमे रहता है, उनको सब संकटो से आप छुड़ाते है।★
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सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥ 27॥★
📯《अर्थ 》→ तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यो को आपने सहज मे कर दिया।★
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और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥★
📯《अर्थ 》→ जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन मे कोई सीमा नही होती।★
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चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥★
📯《अर्थ 》→ चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग मे आपका यश फैला हुआ है, जगत मे आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।★
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साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥★
📯《अर्थ 》→ हे श्री राम के दुलारे ! आप.सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।★
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥३१॥★
📯《अर्थ 》→ आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।★
1.) अणिमा → जिससे साधक किसी को दिखाई नही पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ मे प्रवेश कर.जाता है।★
2.) महिमा → जिसमे योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।★
3.) गरिमा → जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।★
4.) लघिमा → जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।★
5.) प्राप्ति → जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।★
6.) प्राकाम्य → जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी मे समा सकता है, आकाश मे उड़ सकता है।★
7.) ईशित्व → जिससे सब पर शासन का सामर्थय हो जाता है।★
8.)वशित्व → जिससे दूसरो को वश मे किया जाता है।★
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राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥★
📯《अर्थ 》→ आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण मे रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।★
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तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥★
📯《अर्थ 》→ आपका भजन करने से श्री राम.जी प्राप्त होते है, और जन्म जन्मांतर के दुःख दूर होते है।★
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अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥★
📯《अर्थ 》→ अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलायेंगे।★
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और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥★
📯《अर्थ 》→ हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नही रहती।★
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संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥★
📯《अर्थ 》→ हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।★
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जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥★
📯《अर्थ 》→ हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझपर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।★
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जो सत बार पाठ कर कोई, छुटहि बँदि महा सुख होई॥38॥★
📯《अर्थ 》→ जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छुट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा।★
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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥★
📯《अर्थ 》→ भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।★
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तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥40॥★
📯《अर्थ 》→ हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है।इसलिए आप उसके हृदय मे निवास कीजिए।★
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पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥★
📯《अर्थ 》→ हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनन्द मंगलो के स्वरुप है। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय मे निवास कीजिए।★
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सीता राम दुत हनुमान जी को समर्पित

Monday, April 10, 2017

भगवान महावीर के सिद्धान्त ॥महावीरजयंती की हार्दिक शुभकामनाएं॥आज भी प्रासंगिक हैं भगवान महावीर के सिद्धान्त ॥

आज भी प्रासंगिक हैं भगवान महावीर के सिद्धान्त
॥महावीरजयंती की हार्दिक शुभकामनाएं॥




🎁महावीर की दृष्टि में दुनिया की सभी आत्माएं एक-सी हैं इसलिए हमें दूसरों के प्रति वही व्यवहार करना चाहिए जो हमें स्वयं को दूसरों से पसंद हो। 'जीयो और जीने दो' का यह सिद्धांत भगवान महावीर का विश्व प्रसिद्ध सिद्धांत है। वर्तमान काल में पूरे विश्व में जो अशांति, असमानता, भ्रष्टाचार और आतंकमय हिंसक वातावरण छाया हुआ है उनके निर्मूलन हेतु भगवान महावीर के सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक हैं।🎁
आज चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्म जयंती की पावन तिथि है। लगभग ढाई हजार वर्ष पहले 599 ई. पू. वैशाली के गणतांत्रिक राज्य कुण्डलपुर में लिच्छिवी वंश के महाराज श्री सिद्धार्थ और माता त्रिशला देवी के यहां भगवान महावीर का जन्म हुआ था। बचपन में भगवान महावीर का नाम ‘वर्धमान था। ‘वर्धमान’ ने कठोर तपस्या द्वारा अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ‘जिन’ अर्थात् विजेता कहलाए। उनका यह कठोर तप पराक्रम के सामान माना गया, जिस कारण उनको ‘महावीर’ कहा जाने लगा और उनके अनुयायी जैन कहलाए।
मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले भगवान महावीर का जन्म जिस युग में हुआ उस समय समाज हिंसा, पशुबलि, जात-पात के भेद-भाव आदि अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयों और धार्मिक कुरीतियों से संत्रस्त था। तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक हैं। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। भगवान महावीर ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया का सही मार्गदर्शन करते हुए जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो इस प्रकार हैं - अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय (अचौर्य) और ब्रह्मचर्य। सर्वोदयी तीर्थ के प्रणेता महावीर स्वामी के जीवन दर्शन में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं हैं। उन्होंने जनकल्याण हेतु चार तीर्थों- साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका की रचना की। इन सर्वोदयी तीर्थों में भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। महावीर की दृष्टि में दुनिया की सभी आत्माएं एक-सी हैं इसलिए हमें दूसरों के प्रति वही व्यवहार करना चाहिए जो हमें स्वयं को दूसरों से पसंद हो। 'जीयो और जीने दो' का यह सिद्धांत भगवान महावीर का विश्व प्रसिद्ध सिद्धांत है। महावीर जी ने अपने उपदेशों द्वारा समाज का कल्याण किया उनकी शिक्षाओं में मुख्य बातें थी कि सत्य का पालन करो, अहिंसा को अपनाओ, जिओ और जीने दो। इसके अतिरिक्त उन्होंने पांच महाव्रत, पांच अणुव्रत, पांच समिति, तथा छ: आवश्यक नियमों का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया‚ जो जैन धर्म के प्रमुख आधार हुए ।
आज भी प्रासंगिक हैं भगवान महावीर के सिद्धान्त
भगवान महावीर ने विश्व मानवता को जो पांच सिद्धांत सिखाए उन पर यदि व्यावहारिक धरातल पर आचरण किया जाए तो मनुष्य को समृद्ध जीवन और आंतरिक शांति की स्वयमेव प्राप्ति हो जाती है। उनमें से पहला सिद्धांत है अहिंसा। अहिंसा का सिद्धांत कहता है कि किसी भी परिस्थिति में हिंसा से दूर रहना चाहिए। दूसरा सिद्धांत है सत्य। सत्य के सिद्धांत के अनुसार, लोगों को हमेशा सत्य बोलना चाहिए। तीसरा सिद्धांत है अस्तेय। अस्तेय का पालन करने वाले लोग चोरी नहीं करते आत्मसंयम से रहते हैं और केवल वही लेते हैं जो उन्हें परिश्रम द्वारा प्राप्त होता है। चौथा सिद्धांत है ब्रह्मचर्य। इस सिद्धांत के अन्तर्गत पवित्रता और इन्द्रियसंयम की आवश्यकता है। पांचवां सिद्धांत है अपरिग्रह। अपरिग्रह का सिद्धांत कम साधनों में अधिक संतुष्टि पर बल देता है। अपरिग्रह का पालन करने से मनुष्य में आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के संग्रह की इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं।
वर्तमान काल में पूरे विश्व में जो अशांति, असमानता, भ्रष्टाचार और आतंकमय हिंसक वातावरण छाया हुआ है उनके निर्मूलन हेतु भगवान महावीर के सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक हैं। महावीर की अहिंसा केवल शारीरिक वध को ही हिंसा नहीं मानती है, अपितु मन में किसी के प्रति बुरा विचार उत्पन्न होना और दूसरों के प्रति घृणा तथा वैमनस्य की भावना पैदा करना भी हिंसा है। जब मानव का मन ही निर्मल नहीं होगा तो अहिंसा की पालना नहीं हो सकेगी। वर्तमान युग में 'समाजवाद', ‘स्वराज’ या ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे वोट जुटाने वाले लोक लुभावन नारे तब तक सार्थक नहीं हो सकते जब तक समाज में राजनेताओं के लिए अलग और आम जनता के लिए अलग आचार संहिता बनी रहेगी। एक ओर राजनेताओं और धनबलियों के पास अथाह पैसा और दूसरी ओर दो समय की रोटी को तरसते साधनहीन बहुसंख्यक समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता और असमानता की खाई को केवल भगवान महावीर का 'अपरिग्रह' का सिद्धांत ही भर सकता है।
समस्त देशवासियों को भगवान महावीर की जन्म जयंती के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं।

🏹🏹🏹🏹🏹🏹कभी सोचा है की प्रभु 🏹🏹श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?

🏹🏹🏹🏹🏹🏹कभी सोचा है की प्रभु 🏹🏹श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?
नहीं तो जानिये-
1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,
2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,
3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,
4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,
5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |
6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,
7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,
8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,
9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,
10- अनरण्य से पृथु हुए,
11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,
12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,
13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,
14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,
15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,
16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,
17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,
18- भरत के पुत्र असित हुए,
19- असित के पुत्र सगर हुए,
20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,
21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,
22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,
23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |
24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |
25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,
26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,
27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,
28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,
29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,
30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,
31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,
32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,
33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,
34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,
35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,
36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,
37- अज के पुत्र दशरथ हुए,
38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ | शेयर करे ताकि हर हिंदू इस जानकारी को जाने..



🏹रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्य🏹

1:~मानस में राम शब्द = 1443 बार आया है।
2:~मानस में सीता शब्द = 147 बार आया है।
3:~मानस में जानकी शब्द = 69 बार आया है।
4:~मानस में बैदेही शब्द = 51 बार आया है।
5:~मानस में बड़भागी शब्द = 58 बार आया है।
6:~मानस में कोटि शब्द = 125 बार आया है।
7:~मानस में एक बार शब्द = 18 बार आया है।
8:~मानस में मन्दिर शब्द = 35 बार आया है।
9:~मानस में मरम शब्द = 40 बार आया है।

10:~लंका में राम जी = 111 दिन रहे।
11:~लंका में सीताजी = 435 दिन रहीं।
12:~मानस में श्लोक संख्या = 27 है।
13:~मानस में चोपाई संख्या = 4608 है।
14:~मानस में दोहा संख्या = 1074 है।
15:~मानस में सोरठा संख्या = 207 है।
16:~मानस में छन्द संख्या = 86 है।

17:~सुग्रीव में बल था = 10000 हाथियों का।
18:~सीता रानी बनीं = 33वर्ष की उम्र में।
19:~मानस रचना के समय तुलसीदास की उम्र = 77 वर्ष थी।
20:~पुष्पक विमान की चाल = 400 मील/घण्टा थी।
21:~रामादल व रावण दल का युद्ध = 87 दिन चला।
22:~राम रावण युद्ध = 32 दिन चला।
23:~सेतु निर्माण = 5 दिन में हुआ।

24:~नलनील के पिता = विश्वकर्मा जी हैं।
25:~त्रिजटा के पिता = विभीषण हैं।

26:~विश्वामित्र राम को ले गए =10 दिन के लिए।
27:~राम ने रावण को सबसे पहले मारा था = 6 वर्ष की उम्र में।
28:~रावण को जिन्दा किया = सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।
यह जानकारी  महीनों के परिश्रम केबाद आपके सम्मुख प्रस्तुत है ।
तीन आस्तिक हिंदू को भेज कर धर्म लाभ कमाये
जय श्री राम
🙏�  जय श्री राम   🙏

|| सप्तशती विवेचन || durga sapsati

|| सप्तशती विवेचन ||

मेरुतंत्र में व्यास द्वारा कथित तीनो चरित्रों की अलग अलग सप्तसतियों (सप्त शक्तियों ) का वर्णन है । इन सप्तशक्तियों के 700 प्रयोगों के कारण ही व्यास जी ने सप्तशती नाम से वर्णन किया है । सात कल्पों में अलग अलग शक्रादि देवों ने अलग अलग स्वरूपों व विधानों की उपासना की है ।

महाविद्येत्यादि सप्तशक्तियः ब्रह्मणः स्तुताः ।
तस्मात्सप्तसतीत्येव प्रोक्ता व्यासेन धीमताः ।।
एवम् सप्तशतम् तत्र प्रयोगाः  प्रकीर्तिताः ।
तस्मात्सप्तशतीत्येवं व्यासेन प्रकीर्तिताः ।।
 ( मेरुतंत्र तन्त्रे )

      !! प्रथम चरित्र !!

महाविद्येत्यादि सत्यं सप्तकल्पे तथादिमे। ब्रह्मेन्द्र गुरु शुक्रणाम् विष्णु रूद्र सुरद्विषाम् ।
उपास्या देवता जातस्ताश्चात्र ब्रह्मणास्तुताः । तस्मात् सप्तशतीत्येवं व्यासेन परी कीर्त्तिताः  ।।

ब्रह्मा ,इंद्र ,गुरु,शुक्र,विष्णु,रूद्र,असुर इन सातों द्वारा भगवती की उपासना की गयी , उनकी अलग अलग आराध्या होने से उनकी सात शक्तियाँ कहलायीं । प्रथम चरित्र में इन्ही शक्तियों का वर्णन है ।

   !! मध्यम चरित्र !!
लक्ष्म्यादि सप्तशक्तियां प्रकट रूप से हैं तथा काल्यादि सप्तशक्तियाँ गुप्तरूप से कही गयी हैं ।

लक्ष्मी , ललिता, काली दुर्गा,गायत्र्यरुन्धती सरस्वती इति । तथा काली तारा , छिन्नमस्ता , सुमुखी , भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जेति, सप्तसतीनां मंत्रा गुप्तरूपेण कथिताः । तस्मात्सप्तसतीति नाम ।

लक्ष्मी,ललिता, काली,दुर्गा,गायत्री,अरुन्धती सरस्वती, ये सात सतियाँ ( शक्तियाँ ) प्रकट रूप से मध्यम चरित्र की हैं । तथा काली , तारा , छिन्नमस्ता , सुमुखी , ( मातङ्गी ) भुवनेश्वरी , बाला , कुब्जिका, ये सात सतियाँ अप्रकट रूप से कही गयी हैं ।

उपास्या दक्षिणमार्गे लक्ष्म्याद्या सप्तशक्तयः ।

लक्ष्म्यादि की पूजा दक्षिण मार्ग से तथा काली तारा छिन्नमस्ता मातङ्गी , कुब्जिका का पूजन वाममार्ग से करें ।

!! उत्तर चरित्र !!

तृतीय चरित्रे ब्रह्मयाद्याश्चामुण्डान्ताः सप्त तथा नन्दा शताक्षी शाकम्भरी भीमा रक्तदन्तिका दुर्गाभ्रामरयः सत्यः सप्तसंख्या नाम इत्यादि मेरु तन्त्रे स्पष्टम् ।
ब्राह्मी,माहेश्वरी,कौमारी,वैष्णवी , वाराही,नारसिंही, ऐन्द्री ये सात शक्तियाँ प्रकट रूप से हैं । नन्दा , शताक्षी , शाकम्भरी,भीमा, रक्तदन्तिका , दुर्गा, भ्रामरी ये सात सतियाँ ( शक्तियाँ) गुप्त रूप से हैं ।
वेदव्यास जी के मत को मेरुतंत्र में स्पष्ट किया है कि प्रत्येक चरित्र में यह प्रकट अप्रकट रूप से सात सात सतियाँ ( शक्तियाँ ) हैं इसलिये इसका नाम सप्तसती है । एवम् 700 श्लोकों के 700 प्रयोगों के आधार पर सप्तशती नाम प्रसिद्द है । 700 मन्त्र प्रयोग , मन्त्र विभाग , तथा उवाच संख्या सहित हैं अथवा कुछ अन्य समाविष्ट होने चाहिए यह शोध का विषय है ।

प्राचीन पांडुलिपियों में मन्त्रों के बिना विभाग किये दुर्गापाठ के ग्रन्थ हैं । जिनके श्लोक संख्या में 582-593 करीब है ।
कात्यायनी मत से एक उवाच के बाद के तथा दूसरे उवाच से पहले के मन्त्र के विभाग करके मन्त्र संख्या बढ़ा दी गयी है। नमस्तस्यै आदि मन्त्रों के भी विभाग करके 700 श्लोकों की गणना पूरी कर दी गयी है ।

गुप्तवती टीका में भी श्लोकों के खण्ड किये गए हैं लेकिन मन्त्र का विभाग वहीं पर किया गया है जहाँ मन्त्र का अर्थ यथार्थ बैठता है । जबकी कात्यायनी मत की प्रचलित पुस्तकों में अर्थ आगे पीछे हो जाता है। गुप्तवती टीका व अन्य टीकाओं में जैसे तैसे 700 श्लोकों की गणना पूरी की गयी है ।

वैवस्वतेन्तरे प्राप्ते इत्यारभ्य च सप्त तु ।
शक्तयः प्रोक्तः स्वयं  देव्यास्तस्मात्सप्तसती स्मृता ।
सप्तशत्यास्तु सप्तत्वं वेद्ययहं सर्वमेव हि ।
अतः यह स्तोत्र 'दुर्गासप्तसती' न होकर 'दुर्गाशप्तसती' कहलाने लगा।

सप्तशती पर जो टीकाएँ प्रचलित हैं, उनमें राक्षस उवाच , महिषासुर उवाच , शुम्भ उवाच , निशुम्भ उवाच,, मन्त्री उवाच को हटाकर ग्रन्थ स्वीकार किया गया है। उवाचों को भी श्लोक संख्या में जोड़कर 700 श्लोक बना दिए गए हैं ।
जबकि अन्य प्रतिलिपियों भी हैं जिनमें राक्षस उवाच , महिषासुर उवाच आदि हैं एवम् उनमें श्लोक संख्या इनके बिना उवाच जोड़े 700,720,765 होते हैं ।
किसी प्रतिलिपि में चौथे अध्याय के चार रक्षामंत्र हटा दिए हैं तथा मध्यम चरित्र से हटाकर कवच में जोड़ कर 75 श्लोक दे दिए हैं । किसी प्रति में 12वें 13वें अध्याय में मूर्ति रहस्य आदि के श्लोक दे दिए हैं तथा वैश्यसुरथ वर प्रदान श्लोक चरित्र से हटा दिए हैं ।
किसी प्रति में उवाच आदि को श्लोक  संख्या न मान 850 से ज्यादा श्लोक दे दिए , उनमें शुम्भ उवाच , मधुकैटभ उवाच, महिषासुर उवाचादि है ।

दुर्गासप्तशती सभी प्रान्तों में अलग अलग भाषा में पायी जाती है उनमें मन्त्रों के पाठ्यक्रम में व संख्या में भेद पाया जाता है । " श्री अविनाश चन्द्र मुखोपाध्याय " ने बंगला लिपि में जो संस्करण निकाला उसमें 313 पाठ भेदों का उल्लेख है, साथ ही 33 अन्य श्लोक बढ़ाये जो अब सप्तशती से निकाल दिए है ।
कात्यायनी तन्त्र की , गुप्तवती की , गौड़ पादिय भाष्य की , नागोजी भट्ट की , गोविन्द की चारों प्रणालियों में 108 मन्त्रों में भेद है ।
कोई 580 तो कोई 582 श्लोक तो कोई एक हजार श्लोक की पाण्डुलिपि का दावा करते हैं ।

ब्राह्मण ग्रन्थ व कात्यायनी तंत्रानुसार 587 मूल श्लोक हैं तथा विभाग करने पर 700 श्लोक हैं ।
किशनगढ़ की एक बहुत प्राचीन पाण्डुलिपि में 700 श्लोकों के 700 स्वर्ण चित्र थे जिसका अब वर्षों से पता नही है ।

कोटा में मौजूद हैं सोने से लिखी अनूठी
दुर्गासप्तशती पांडुलिपी

कोटा में स्वर्ण और भोजपत्र पर रक्तचंदन
से लिखी देश की दुर्लभ दुर्गासप्तशती की
पांडुलिपियां हैं। ये संस्कृत भाषा में हाथ से
लिखी हुई हैं, जो नयापुरा स्थित प्राच्य
विद्या प्रतिष्ठान के संग्रह में हैं। कोटा
निवासी संस्कृत रिसर्चर घनश्याम चंद्र
उपाध्याय ने अपने शोध विषय श्री
दुर्गासप्तशती का समालोचनात्मक अध्ययन में
देश के 16 संस्थानों में विषिष्ठ पांडुलिपियों
का अध्ययन किया हैं। जिनमें कोटा की ये
पांडुलिपियां मिली हैं। उपाध्याय मोहनलाल
सुखाड़िया विवि से रिसर्च कर रहे हैं। उन्होंने
देश के अलग-अलग राज्यों की 176 पांडुलिपियों
का अध्ययन किया है। उन्होंने बताया कि
कोटा में मिली ये पांडुलिपियां देश में अन्य
कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं। प्राचीनता की दृष्टि
से भी ये राष्ट्रीय धरोहर हैं।

एक पाण्डुलिपि का जिक्र श्रीकृष्ण जुगनू जी ने भी किया था तब मैंने उस पोस्ट में कमेंट करके पूछा था कि इसमें कितने श्लोक हैं । उनका उत्तर प्राप्त नही हुआ था ।

येन केन प्रकारेण विद्वानों ने मन्त्र विभागनुसार सर्वसम्मति से 700 श्लोक , उपलब्ध साहित्य से बना लिए । चाहे एक श्लोक के दो श्लोक बनें या एक श्लोक के तीन श्लोक ।

चाहे जितने श्लोकों का ग्रन्थ हो हमारे लिए तो भगवती के समान है ।

Friday, April 7, 2017

*भागवत गीता की सही होती बातें* *गीता 📜 में लिखी ये 10 भयंकर बातें कलयुग में हो रही हैं सच,...*👇


*भागवत गीता की सही होती बातें* 👌

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*गीता 📜 में लिखी ये 10 भयंकर बातें कलयुग में हो रही हैं सच,👇
 

1.ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन् नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥
 

इस श्लोक का अर्थ है कि *कलयुग में धर्म, स्वच्छता, सत्यवादिता, स्मृति, शारीरक शक्ति, दया भाव और जीवन की अवधि दिन-ब-दिन घटती जाएगी.*
 

2.वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥
 

इस गीता के श्लोक का अर्थ है की *कलयुग में वही व्यक्ति गुणी माना जायेगा जिसके पास ज्यादा धन है. न्याय और कानून सिर्फ एक शक्ति के आधार पे होगा !*  
 

3.  दाम्पत्येऽभिरुचि  र्हेतुः मायैव  व्यावहारिके ।
 स्त्रीत्वे  पुंस्त्वे च हि रतिः विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥

 
इस श्लोक का अर्थ है कि *कलयुग में स्त्री-पुरुष बिना विवाह के केवल रूचि के अनुसार ही रहेंगे.*
*व्यापार की सफलता के लिए मनुष्य छल करेगा और ब्राह्मण सिर्फ नाम के होंगे.*
 

4. लिङ्‌गं एवाश्रमख्यातौ अन्योन्यापत्ति कारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः ॥

 
इस श्लोक का अर्थ है कि
*घूस देने वाले व्यक्ति ही न्याय पा सकेंगे और जो धन नहीं खर्च पायेगा उसे न्याय के लिए दर-दर की ठोकरे खानी होंगी. स्वार्थी और चालाक लोगों को कलयुग में विद्वान माना जायेगा.*
 

5. क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव संतप्स्यन्ते च चिन्तया ।
त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम.
 

*कलयुग में लोग कई तरह की चिंताओं में घिरे रहेंगे. लोगों को कई तरह की चिंताए सताएंगी और बाद में मनुष्य की उम्र घटकर सिर्फ 20-30 साल की रह जाएगी.*

 
6. दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम् ।
उदरंभरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥
 

*लोग दूर के नदी-तालाबों और पहाड़ों को तीर्थ स्थान की तरह जायेंगे लेकिन अपनी ही माता पिता का अनादर करेंगे. सर पे बड़े बाल रखना खूबसूरती मानी जाएगी और लोग पेट भरने के लिए हर तरह के बुरे काम करेंगे.*
 

7. अनावृष्ट्या  विनङ्‌क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः । शीतवातातपप्रावृड् हिमैरन्योन्यतः  प्रजाः ॥
 

इस श्लोक का अर्थ है कि
*कलयुग में बारिश नहीं पड़ेगी और हर जगह सूखा होगा.मौसम बहुत विचित्र अंदाज़ ले लेगा. कभी तो भीषण सर्दी होगी तो कभी असहनीय गर्मी. कभी आंधी तो कभी बाढ़ आएगी और इन्ही परिस्तिथियों से लोग परेशान रहेंगे.*
 

8. अनाढ्यतैव असाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥

 
*कलयुग में जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होगा उसे लोग अपवित्र, बेकार और अधर्मी मानेंगे. विवाह के नाम पे सिर्फ समझौता होगा और लोग स्नान को ही शरीर का शुद्धिकरण समझेंगे.*
 

9. दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम् ।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिः आकीर्णे क्षितिमण्डले ॥

 
*लोग सिर्फ दूसरो के सामने अच्छा दिखने के लिए धर्म-कर्म के काम करेंगे. कलयुग में दिखावा बहुत होगा और पृथ्वी पे भृष्ट लोग भारी मात्रा में होंगे. लोग सत्ता या शक्ति हासिल करने के लिए किसी को मारने से भी पीछे नहीं हटेंगे.*
 

10. आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम् ।
शाकमूलामिषक्षौद्र फलपुष्पाष्टिभोजनाः ॥
 

*पृथ्वी के लोग अत्यधिक कर और सूखे के वजह से घर छोड़ पहाड़ों पे रहने के लिए मजबूर हो जायेंगे. कलयुग में ऐसा वक़्त आएगा जब लोग पत्ते, मांस, फूल और जंगली शहद जैसी चीज़ें खाने को मजबूर होंगे.*
   

गीता में श्री कृष्णा द्वारा लिखी ये बातें इस कलयुग में सच होती दिखाई दे रही है. आपसे अनुरोध है कि इस जानकारी को ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ शेयर कीजिये ताकि हर भारतीय को पता चले कि हिन्दू धर्म कितना पुराना है.
हमें गर्व है कि श्री कृष्ण जैसे अवतारों ने पृथ्वी पे आकर कलयुग की भविष्यवाणी इतनी पहले ही कर दी थी, लेकिन फिर भी आज का मनुष्य अभी तक कोई सबक नहीं ले पाया.

            *🙏 जय श्री कृष्ण🙏*

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Thursday, April 6, 2017

॥ कल्किस्तवः ॥

॥ कल्किस्तवः ॥ 

श्रीगणेशाय नमः । राजान ऊचुः । गद्यानि । जय जय निजमायया कल्पिताशेषविशेषकल्पनापरिणामजलाप्लुतलोकत्रयोपकारणमाकलयमनुमनिशम्य पूरितमविजनाविजनाविर्भूतमहामीनशरीर त्वं निजकृतधर्मसेतुसंरक्षणकृतावतारः ॥ १॥ पुनरिह जलधिमथनादृतदेवदानवगणानां मन्दराचलानयनव्याकुलितानां साहाय्येनादृतचित्तः । पर्वतोद्धरणामृतप्राशनरचनावतारः कूर्माकारः प्रसीद परेश त्वं दीननृपाणाम् ॥ २॥ पुनरिह दितिजबलपरिलंघितवासवसूदनादृत जितभुवनपराक्रमहिरण्याक्षनिधन पृथिव्युद्धरणसङ्कल्पाभिनिवेशेन धृतकोलावतार पाहि नः ॥ ३॥ पुनरिह त्रिभुवनजयिनो महाबलपराक्रमस्य हिरण्यकश्यपोरर्दितानां देववराणां भयभीतानां कल्याणाय दितिसुतवधप्रेप्सुर्ब्रह्मणो वरदानादवध्यस्त न शस्त्रास्त्रारात्रिदिवास्वर्गमर्त्यपातालतले देवगन्धर्वकिन्नरनरनागैरिति विचिन्त्य नरहरिरूपेण नखाग्रभिन्नोरुं दष्टदन्तच्छदं त्यक्तासुं कृतवानसि ॥ ४॥ पुनरिह त्रिजगज्जयिनो बलेः सत्रे शक्रानुजो बटुवामनो दैत्यसंमोहनाय त्रिपदभूमियाञ्चाच्छलेन विश्वकायस्तदुत्सृष्टजलसंस्पर्शविवृद्धमनोऽभिलाषस्त्वं भूतले बलेर्दौवारिकत्वमङ्गीकृतमुचितं दानफलम् ॥ ५॥ पुनरिह हैहयादिनृपाणाममितबलपराक्रमाणां नानामदोल्लंघितमर्यादावर्त्मनां निधनाय भृगुवंशजो जामदग्न्यः पितृहोमधेनुहरणप्रवृद्धमन्युवशात् त्रिःसप्तकृत्वो निःक्षत्रियां पृथिवीं कृतवानसि परशुरामावतारः ॥ ६॥ पुनरिह पुलस्त्यवंशावतंसस्य विश्रवसः पुत्रस्य निशाचरस्य रावणस्य लोकत्रयतापनस्य निधनमुररीकृत्य रविकुलजातदशरथात्मजो विश्वामित्रादस्त्राण्युपलभ्य वने सीताहरणवशात्प्रवृद्धमन्युनाऽम्बुधिंवानरैर्निबध्य सगणं दशकन्धरं हतवानसि रामावतारः ॥ ७॥ पुनरिह यदुकुलजलधिकलानिधिः सकलसुरगणसेवितपादारविन्दद्वन्द्वो विविधदानवदैत्यदलनलोकत्रयदुरिततापनो वसुदेवात्मजो कृष्णावतारो बलभद्रस्त्वमसि ॥ ८॥ पुनरिह विधिकृतवेदधर्मानुष्ठानविहितनानादर्शनसंघृणः संसारकर्मत्यागविधिना ब्रह्माभासविलासचातुरीं प्रकृतिविमाननामसम्पादयन् बुद्धावतारस्त्वमसि ॥ ९॥ अधुना कलिकुलनाशावतारो बौद्धपाषण्डम्लेंच्छादीनां च वेदधर्मसेतुपरिपालनाय कृतावतारः कल्किरूपेणास्मान् स्त्रीत्वनिरयादुद्धृतवानसि तवानुकम्पां किमिह कथयाम् ॥ १०॥ क्व ते ब्रह्मादीनामविजितविलासावतरणं क्व नः कामवामाकलितमृगतृष्णार्तमनसाम् सुदुष्प्राप्यं युष्मच्चरणजलजालोकनमिदं कृपापारावारः प्रमुदितदृशाऽऽश्वासय निजान् ॥ ११॥ इति श्रीकल्किपुराणेऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयांशे नृपकृतकल्किस्तव सम्पूर्णः ॥

॥ कर्पूरादिस्तोत्रम् ॥ ॐ श्रीगुरवे नमः । ॐ नमः परमदेवतायै ॥

॥ कर्पूरादिस्तोत्रम् ॥
 ॐ श्रीगुरवे नमः । ॐ नमः परमदेवतायै ॥
॥ कर्पूरादिस्तोत्रम् ॥ ॐ श्रीगुरवे नमः । ॐ नमः परमदेवतायै ॥ श्रीकर्पूरादिस्तोत्रम् कर्पूरं मधमान्त्यस्वरपरिरहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं बीजं ते मातरेतत्त्रिपुरहरवधु त्रिःकृतं ये जपन्ति । तेषां गद्यानि पद्यानि च मुकुहुहरादुल्लसन्त्येव वाचः स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधरुरुचिरुचिरे सर्वसिद्धिं गतानाम्॥ १॥ ईशान सेन्दुवामश्रवणपरिगतो बीजमन्यन्महेशि द्वन्द्वं ते मन्दचेता यदि जपति जनो वारूमेकं कदाचित् । जित्वा वाचामधीशं धनमपि चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षीवृन्दं चन्द्रार्धचूडे प्रभवति स महाघोरबालावतंसे॥ २॥ ईशो वैश्वानरस्थः शशधरविलसद् वामनेत्रेण युक्तो बीजं ते द्वन्द्वमन्यद् विगलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति । द्वेष्टारं घ्नन्ति ते च त्रिभुवनमपि ते वश्यभावं नयन्ति सृक्कद्वन्दास्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे त्र्यक्षरेति॥ ३॥ ऊर्ध्वे वामे कृपाणं करकमलतले छिन्नमुण्डं तथाधः सव्ये चाभीर्वरं च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिके च । जप्त्वैतन्नाम ये वा तव मनुविभवं भावयन्त्येतदम्ब तेषामष्टौ करस्था: प्रकटितरदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य॥ ४॥ वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुरतिललितं तत्त्रयं कूर्चयुग्मं लज्जाद्वन्द्वं च पश्चात् स्मितमुखि तदधष्ठद्वयं योजयित्वा । मातर्ये ये जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्तः स्वरूपं ते लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरूपा भवन्ति॥ ५॥ प्रत्येकं वा द्वयं वा त्रयमपि च परं बीजमत्यन्तगुह्यं त्वन्नाम्ना योजयित्वा सकलमपि सदा भावयन्तो जपन्ति । तेषां नेत्रारविन्दे विहरति कमला वक्त्रशुभ्रांशुबिम्बे वाग्देवी देवि मुण्डस्त्रगतिशयलसत्कण्ठि पीनस्तनाढ्ये॥ ६॥ गतासूनां बाहुप्रकरकृतकञ्चीपरिलसन्नितम्बां दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिणयनां । श्मशानस्ते तल्पे शवहृदि महाकालसुरतप्रयुक्तां त्वां ध्यायन् जननि जडचेता अपि कविः ॥ ७॥ शिवाभिर्घोराभिः शवनिवहमुण्डास्थिकरैः परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम् ।प्रविष्टां । संतुष्टामुपरिसुरतेनातियुवतीं सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि च न तेषां परिभवः ॥ ८॥ वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो न धाता नापीशो हरिरपि न ते वेत्ति परमम् । तथापि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माकममिते तदेतत्क्षन्तव्यं न खलु पशुरोषः समुचितः ॥ ९॥ समन्तादापीनस्तनजघनधृघौवनवतीरतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम् । विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः समस्ताः सिद्धौघा भुवि चिरतरं जीवति कविः ॥ १०॥ समाः सुस्थीभूतो जपति विपरीतां यदि सदा विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम् । तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः कराम्भोजे वश्या पुरहस्वधू सिद्धिनिवहाः ॥ ११॥ प्रसूते संसारं जननि भवती पालयति च समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च । अतस्त्वं धातासि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिरपि महेशोऽपि प्रायः सकलमपि किं स्तौमि भवतीम् ॥ १२॥ अनेके सेवन्ते भवदधिकगीवार्णनिवहान् विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् । समाराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविबुधैः प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरससमहानन्दनिरताम् ॥ १३॥ धरत्रि कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् । प्रसन्नां त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः ॥ १४॥ श्मशानस्थः सुस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः सहस्रं त्वकार्णां निजगलितवीर्येण कुसुमम् । जपंस्त्वत्प्रयेकं मनुमपि तव ध्याननिरतो महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ॥ १५॥ गृहे संमार्ज्यन्या परिगलितविर्यं हि चिकुरं समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने । समुच्चार्य प्रमेणा मनुमपि सकृत्कालि सततं गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ॥ १६॥ स्वपुष्पैराकीर्णं कुसुमधनुषो मन्दिरमहो पुरो ध्यायन्ध्यायन् यदि जपति भक्तस्तव मनुम् । स गन्धर्वश्रेणीपतिरपि कवित्वामृतनदीनदीनः पर्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ॥ १७॥ त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम् । समासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो जनो यो ध्यायेत्त्वामयि जननि स स्यात् स्मरहरः ॥ १८॥ सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं चोष्ट्त्रं मैशं नरमहिषयोश्छागमपि वा । बलिम् ते पूजायामयि वितरतां मर्त्यवसतां सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ॥ १९॥ वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो दिवा मातर्युष्मच्चरणयुगलध्याननिपुणः । परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं जपेल्लक्षं स स्यात् स्मरहरसमानः क्षितितले ॥ २०॥ इदं स्तोत्रं मातस्तव मनुसमुद्धारणजनुः स्वरूपाख्यं पादाम्बुजयुगलपूजाविधियुतम् । निशार्धं वा पूजासमयमधि वा यस्तु पठति प्रलापस्तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः ॥ २१॥ कुरङ्गाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः । रिपुः कारागारं कलयति च तं केलिकलया चिरं जीवन्मुक्तः प्रभवति स भक्तः प्रतिजनुः ॥ २२॥ इति श्रीमन्महाकालिविरचितं श्रीमद्दक्षिणकालिकायाः स्वरूपाख्यं स्तोत्रं समाप्तम्

This is d best interpretation I have read about *Rama* and *Ramayana*

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 The Interpretation of *Ramayana*
As a *Philosophy of Life*..

‘ *Ra* ’ means *light*, ‘ *Ma* ’ means *within me*, *in my heart*. 
So, 
*Rama* means the *Light Within Me*..

*Rama* was born to *Dasharath & Kousalya*.

*Dasharath* means ‘ *Ten Chariots* ’..
The ten chariots symbolize the *five sense organs*( *Gnanendriya* ) & *five organs of action*( *Karmendriya* ) ..

*Kousalya* means ‘ *Skill* ’..

*The skillful rider of the ten chariots can give birth to Ram*..

When the ten chariots are used skillfully,
*Radiance* is born within..

*Rama* was born in *Ayodhya*.
*Ayodhya* means ‘ *a place where no war can happen* ’..

When There Is No Conflict In Our Mind, Then The Radiance Can Dawn..

The *Ramayana* is not just a story which happened long ago..
It has a *philosophical*, *spiritual significance* and a *deep truth* in it..

It is said that the *Ramayana is happening in our Own Body*.

Our *Soul* is *Rama*, 
Our *Mind* is *Sita*, 
Our *Breath* or *Life-Force* ( *Prana*) is *Hanuman*, 
Our *Awareness* is *Laxmana* and 
Our *Ego* is *Ravana*..

When the *Mind* (Sita),is stolen by the *Ego* (Ravana), then the *Soul* (Rama) gets *Restless*..

Now the *SOUL* (Rama) cannot reach the *Mind* (Sita) on its own.. 
It has to take the help of the *Breath – the Prana* (Hanuman) by Being In *Awareness*(Laxmana)

With the help of the *Prana* (Hanuman), & *Awareness*(Laxmana),
The *Mind* (Sita) got reunited with The *Soul* (Rama) and The *Ego* (Ravana) *died/ vanished*..

*In reality Ramayana is an eternal phenomenon happening all the time*..

🙏🏻 *Happy Ramanavami*🙏🏻

Monday, April 3, 2017

(पद्मपुराण उत्तर0 112/26)

(पद्मपुराण उत्तर0 112/26)
 
*प्रजाभ्यः पुण्यपापानां राजा षश्ठांशमुद्धरेत्।*
*शिष्याद् गुरुः स्त्रियो भर्त्ता पिता पुत्रात्तथैव च।।* (पद्मपुराण उत्तर0 112/26)

 राजा प्रजा के, गुरु शिष्य के , पति पत्नी के तथा पिता पुत्र के पुण्य -पाप का छठा अंश प्राप्त कर लेता है । अतः पाप कर्म से बचना चाहिए । मंगलमय सुप्रभात आनन्द दायी हो जय श्री कृष्ण...

॥ कनक धारास्तोत्र ॥

॥ कनक धारास्तोत्र ॥

॥ कनक धारास्तोत्र ॥ अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् । अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥ १॥ मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि । माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसंभवायाः ॥ २॥ आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दं आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् । आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥ ३॥ बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति । कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥ ४॥ कालाम्बुदाळिललितोरसि कैटभारेः धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव । मातुस्समस्तजगतां महनीयमूर्तिः भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥ ५॥ प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावात् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन । मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥ ६॥ विश्वामरेन्द्रपदवीभ्रमदानदक्षं आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि । ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धम् इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥ ७॥ इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते । दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥ ८॥ दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारां अस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे । दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥ ९॥ गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति । सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थिता या तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥ १०॥ श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै । शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ ११॥ नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै । नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥ १२॥ नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै । नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥ १३॥ नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै । नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥ १४॥ नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै । नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ १५॥ सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि । त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥ १६॥ यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः । संतनोति वचनाङ्गमानसैः त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥ १७॥ सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवळतमांशुकगन्धमाल्यशोभे । भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥ १८॥ दिग्घस्तिभिः कनककुंभमुखावसृष्ट स्वर्वाहिनी विमलचारुजलाप्लुताङ्गीम् । प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥ १९॥ कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः । अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥ २०॥ देवि प्रसीद जगदीश्वरि लोकमातः कल्यानगात्रि कमलेक्षणजीवनाथे । दारिद्र्यभीतिहृदयं शरणागतं माम् आलोकय प्रतिदिनं सदयैरपाङ्गैः ॥ २१॥ स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् । गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥ २२॥ ॥ इति श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत श्री कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

Saturday, April 1, 2017

एकश्लोकि रामायणम् ॥

एकश्लोकि रामायणम् ॥ आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् । वालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं पश्चाद्रावणकुंभकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ॥ ॥ एकश्लोकि रामायणं सम्पूर्णम् ॥
एकश्लोकि रामायणम् ॥ आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् । वालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं पश्चाद्रावणकुंभकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ॥ ॥ एकश्लोकि रामायणं सम्पूर्णम् ॥

॥ एकश्लोकी भागवतम् ॥ ek sholok bhagwat in Sanskrit

॥ एकश्लोकी भागवतम् ॥ ek sholok bhagwat in Sanskrit
 आदौ देवकिदेविगर्भजननं गोपीगृहे वर्धनम् मायापूतनजीवितापहरणं गोवर्धनोद्धारणम् । कंसच्छेदनकौरवादिहननं कुंतीसुतां पालनम् एतद्भागवतं पुराणकथितं श्रीकृष्णलीलामृतम् । इति श्रीभागवतसूत्र ॥

एकदन्तशरणागतिस्तोत्रम्

एकदन्तशरणागतिस्तोत्रम्

एकदन्तशरणागतिस्तोत्रम् ॥ श्रीगणेशाय नमः । देवर्षय ऊचुः । सदात्मरूपं सकलादिभूतममायिनं सोऽहमचिन्त्यबोधम् । अनादिमध्यान्तविहीनमेकं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १॥ अनन्तचिद्रूपमयं गणेशमभेदभेदादिविहीनमाद्यम् । हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २॥ समाधिसंस्थं हृदि योगिनां यं प्रकाशरूपेण विभातमेतम् । सदा निरालम्बसमाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ३॥ स्वबिम्बभावेन विलासयुक्तां प्रत्यक्षमायां विविधस्वरूपाम् । स्ववीर्यकं तत्र ददाति यो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ४॥ त्वदीयवीर्येण समर्थभूतस्वमायया संरचितं च विश्वम् । तुरीयकं ह्यात्मप्रतीतिसंज्ञं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ५॥ स्वदीयसत्ताधरमेकदन्तं गुणेश्वरं यं गुणबोधितारम् । भजन्तमत्यन्तमजं त्रिसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ६॥ ततस्वया प्रेरितनादकेन सुषुप्तिसंज्ञं रचितं जगद्वै । समानरूपं ह्युभयत्रसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ७॥ तदेव विश्वं कृपया प्रभूतं द्विभावमादौ तमसा विभान्तम् । अनेकरूपं च तथैकभूतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ८॥ ततस्त्वया प्रेरितकेन सृष्टं बभूव सूक्ष्मं जगदेकसंस्थम् । सुसात्विकं स्वप्नमनन्तमाद्यं तमेकदन्तं शरण व्रजामः ॥ ९॥ तदेव स्वप्नं तपसा गणेश सुसिद्धरूपं विविधं बभूव । सदैकरूपं कृपया च तेऽद्य तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १०॥ त्वदाज्ञया तेन त्वया हृदिस्थं तथा सुसृष्टं जगदंशरूपम् । विभिन्नजाग्रन्मयमप्रमेयं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ११॥ तदेव जाग्रद्रजसा विभातं विलोकितं त्वत्कृपया स्मृतेन । बभूव भिन्नं च सदैकरूपं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १२॥ सदेव सृष्ट्वा प्रकृतिस्वभावात्तदन्तरे त्वं च विभासि नित्यम् । धियः प्रदाता गणनाथ एकस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १३॥ त्वदाज्ञया भान्ति ग्रहाश्च सर्वे प्रकाशरूपाणि विभान्ति खे वै ॥ भ्रमन्ति नित्यं स्वविहारकार्यास्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १४॥ त्वदाज्ञया सृष्टिकरो विधाता त्वदाज्ञया पालक एव विष्णुः । त्वदाज्ञया संहरको हरोऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १५॥ यदाज्ञया भूमिजलेऽत्र संस्थे यदाज्ञयापः प्रवहन्ति नद्यः । स्वतीर्थसंस्थश्च कृतः समुद्रस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः॥ १६॥ यदाज्ञया देवगणा दिविस्था ददन्ति वै कर्मफलानि नित्यम् । यदाज्ञया शैलगणाः स्थिरा वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १७॥ यदाज्ञया शेषधराधरो वै यदाज्ञया मोहप्रदश्च कामः । यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १८॥ यदाज्ञया वाति विभाति वायुर्यदाज्ञयाग्निर्जठरादिसंस्थः । यदाज्ञयेदं सचराचरं च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १९॥ यदन्तरे संस्थितमेकदन्तस्तदाज्ञया सर्वमिदं विभाति । अनन्तरूपं हृदि बोधकं यस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २०॥ सुयोगिनो योगबलेन साध्यं प्रकुर्वते कः स्तवनेन स्तौति । अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २१॥ गृत्समद उवाच । एवं स्तुत्वा गणेशानं देवाः समुनयः प्रभुम् ॥ तूष्णीम्भावं प्रपद्यैव ननृतुर्हर्षसंयुताः ॥ २२॥ स तानुवाच प्रीतात्मा देवर्षीणां स्तवेन वै ॥ एकदन्तो महाभागो देवर्षीन् भक्तवत्सलः ॥ २३॥ एकदन्त उवाच । स्तोत्रेणाऽहं प्रसन्नोऽस्मि सुराः सर्षिगणाः किल । वरदं भो वृणुत वो दास्यामि मनसीप्सितम् ॥ २४॥ भवत्कृतं मदीयं यत्स्तोत्रं प्रीतिप्रदं च तत् । भविष्यति न सन्देहः सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ २५॥ यं यमिच्छति तं तं वै दास्यामि स्तोत्रपाठतः । पुत्रपौत्रादिकं सर्वं कलत्रं धनधान्यकम् ॥ २६ । गजाश्वादिकमत्यन्तं राज्यभोगादिकं ध्रुवम् । भुक्तिं मुक्तिं च योगं वै लभते शान्तिदायकम् ॥ २७॥ मारणोच्चाटनादीनि राज्यबन्धादिकं च यत् । पठतां श्रृण्वतां नॄणां भवेच्च बन्धहीनताम् ॥ २८॥ एकविंशतिवारं यः श्लोकानेवैकविंशतीन् । पठेच्च हृदि मां स्मृत्वा दिनानि त्वेकविंशतिः ॥ २९॥ न तस्य दुर्लभं किञ्चित्रिषु लोकेषु वै भवेत् । असाध्यं साधयेन्मर्त्यः सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ३०॥ नित्यं यः पठति स्तोत्रं ब्रह्मभूतः स वै नरः । तस्य दर्शनतः सर्वे देवाः पूता भवन्ति च ॥ ३१॥ इति श्रीमुद्गलपुराणे एकदन्तशरणागतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् । 

एकदंतगणेशस्तोत्रम् all Sanskrit stotra

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एकदंतगणेशस्तोत्रम् ॥ श्रीगणेशाय नमः । मदासुरं सुशान्तं वै दृष्ट्वा विष्णुमुखाः सुराः । भृग्वादयश्च मुनय एकदन्तं समाययुः ॥ १॥ प्रणम्य तं प्रपूज्यादौ पुनस्तं नेमुरादरात् । तुष्टुवुर्हर्षसंयुक्ता एकदन्तं गणेश्वरम् ॥ २॥ देवर्षय ऊचुः सदात्मरूपं सकलादि-भूतममायिनं सोऽहमचिन्त्यबोधम् । अनादि-मध्यान्त-विहीनमेकं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ३॥ अनन्त-चिद्रूप-मयं गणेशं ह्यभेद-भेदादि-विहीनमाद्यम् । हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ४॥ विश्वादिभूतं हृदि योगिनां वै प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम् । सदा निरालम्ब-समाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ५॥ स्वबिम्बभावेन विलासयुक्तं बिन्दुस्वरूपा रचिता स्वमाया । तस्यां स्ववीर्यं प्रददाति यो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ६॥ त्वदीय-वीर्येण समर्थभूता माया तया संरचितं च विश्वम् । नादात्मकं ह्यात्मतया प्रतीतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ७॥ त्वदीय-सत्ताधरमेकदन्तं गणेशमेकं त्रयबोधितारम् । सेवन्त आपुस्तमजं त्रिसंस्थास्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ८॥ ततस्त्वया प्रेरित एव नादस्तेनेदमेवं रचितं जगद्वै । आनन्दरूपं समभावसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ९॥ तदेव विश्वं कृपया तवैव सम्भूतमाद्यं तमसा विभातम् । अनेकरूपं ह्यजमेकभूतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १०॥ ततस्त्वया प्रेरितमेव तेन सृष्टं सुसूक्ष्मं जगदेकसंस्थम् । सत्त्वात्मकं श्वेतमनन्तमाद्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ११॥ तदेव स्वप्नं तपसा गणेशं संसिद्धिरूपं विविधं वभूव । सदेकरूपं कृपया तवाऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १२॥ सम्प्रेरितं तच्च त्वया हृदिस्थं तथा सुसृष्टं जगदंशरूपम् । तेनैव जाग्रन्मयमप्रमेयं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १३॥ जाग्रत्स्वरूपं रजसा विभातं विलोकितं तत्कृपया यदैव । तदा विभिन्नं भवदेकरूपं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १४॥ एवं च सृष्ट्वा प्रकृतिस्वभावात्तदन्तरे त्वं च विभासि नित्यम् । बुद्धिप्रदाता गणनाथ एकस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १५॥ त्वदाज्ञया भान्ति ग्रहाश्च सर्वे नक्षत्ररूपाणि विभान्ति खे वै । आधारहीनानि त्वया धृतानि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १६॥ त्वदाज्ञया सृष्टिकरो विधाता त्वदाज्ञया पालक एव विष्णुः । त्वदाज्ञया संहरको हरोऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १७॥ यदाज्ञया भूर्जलमध्यसंस्था यदाज्ञयाऽपः प्रवहन्ति नद्यः । सीमां सदा रक्षति वै समुद्रस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १८॥ यदाज्ञया देवगणो दिविस्थो ददाति वै कर्मफलानि नित्यम् । यदाज्ञया शैलगणोऽचलो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १९॥ यदाज्ञया शेष इलाधरो वै यदाज्ञया मोहप्रदश्च कामः । यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २०॥ यदाज्ञया वाति विभाति वायुर्यदाज्ञयाऽग्निर्जठरादिसंस्थः । यदाज्ञया वै सचराऽचरं च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २१॥ सर्वान्तरे संस्थितमेकगूढं यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति । अनन्तरूपं हृदि बोधकं वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २२॥ यं योगिनो योगबलेन साध्यं कुर्वन्ति तं कः स्तवनेन स्तौति । अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २३॥ गृत्समद उवाच एवं स्तुत्वा च प्रह्लाद देवाः समुनयश्च वै । तूष्णीं भावं प्रपद्यैव ननृतुर्हर्षसंयुताः ॥ २४॥ स तानुवाच प्रीतात्मा ह्येकदन्तः स्तवेन वै । जगाद तान् महाभागान् देवर्षीन् भक्तवत्सलः ॥ २५॥ एकदन्त उवाच प्रसन्नोऽस्मि च स्तोत्रेण सुराः सर्षिगणाः किल । वृणुध्वं वरदोऽहं वो दास्यामि मनसीप्सितम् ॥ २६॥ भवत्कृतं मदीयं वै स्तोत्रं प्रीतिप्रदं मम । भविष्यति न सन्देहः सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ २७॥ यं यमिच्छति तं तं वै दास्यामि स्तोत्रपाठतः । पुत्र-पौत्रादिकं सर्वं लभते धन-धान्यकम् ॥ २८॥ गजाश्वादिकमत्यन्तं राज्यभोगं लभेद् ध्रुवम् । भुक्तिं मुक्तिं च योगं वै लभते शान्तिदायकम् ॥ २९॥ मारणोच्चाटनादीनि राज्यबन्धादिकं च यत् । पठतां शृण्वतां नृणां भवेच्च बन्धहीनता ॥ ३०॥ एकविंशतिवारं च श्लोकांश्चैवैकविंशतिम् । पठते नित्यमेवं च दिनानि त्वेकविंशतिम् ॥ ३१॥ न तस्य दुर्लभं किंचित् त्रिषु लोकेषु वै भवेत् । असाध्यं साधयेन् मर्त्यः सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ३२॥ नित्यं यः पठते स्तोत्रं ब्रह्मभूतः स वै नरः । तस्य दर्शनतः सर्वे देवाः पूता भवन्ति वै ॥ ३३॥ एवं तस्य वचः श्रुत्वा प्रहृष्टा देवतर्षयः । ऊचुः करपुटाः सर्वे भक्तियुक्ता गजाननम् ॥ ३४॥ ॥ इती श्री'एकदन्तस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।

 इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें। 1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना । 2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो ग...