हस्तलिखित पाण्डुलिपियां धर्म, दर्शन, इतिहास, साहित्य, संस्कृति के सर्वाधिक प्रामाणिक स्रोत माने जाते हैं। इसलिए ज्ञान-विज्ञान की इस अमूल्य धरोहर का संरक्षण राष्ट्रीय दायित्व बन जाता है। भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा पाण्डुलिपि संग्रह है। लगभग एक करोड़ से भी अधिक पाण्डुलिपियां भारत के विभिन्न संस्थानों, पुस्तकालयों तथा व्यक्तिगत संग्रहालयों में विद्यमान हैं। समुचित रख-रखाव तथा अपेक्षित मूल्याङ्कन के अभाव के कारण भारत की यह समृद्ध पाण्डुलिपि सम्पदा नष्ट होने के खतरे का सामना कर रही है। चिन्ता सबसे बड़ी यह है कि इन प्राचीन पाण्डुलिपियों में अधिकांश संस्कृत की कृतियाँ हैं। इसलिए संस्कृत के विद्वानों द्वारा ज्ञान विज्ञान की इस राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा करना मुख्य दायित्व हो जाता है।पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए आज आधुनिक विधियों को अपनाने की जरूरत है।जैसा कि भंडारकर शोध संस्थान, पुणे जैसी संस्थाओं में इन विधियों को अपनाया जा रहा है। इन्हें न केवल संरक्षित करने की जरूरत है,अपितु इनके विषय-वस्तु का अत्याधुनिक विधियों द्वारा स्कैन करना भी जरूरी है ताकि इन्हें जरा भी क्षति पहुँचाए बगैर इनकी सामग्री सुरक्षित रखी जा सके।दरअसल, जब भारत में मैकाले शिक्षा पद्धति लागू की गई थी तो एक षड्यंत्र के तहत केवल यूरोपीय पद्धति पर आधारित शिक्षा को भारत में लागू किया गया। इसके पीछे एक मकसद यह भी था लोगों के मन में संस्कृत भाषा के प्रति हीनभावना भरना।उस समय जब आधुनिक शिक्षा पद्धति पर प्राच्यविदों और उपयोगितावादियोंमें बहस छिड़ी तब एक बीच का रास्ता निकाला जा सकता थाजिसमें आधुनिक ज्ञान भी शामिल होता और पांडुलिपियों के माध्यम से 4000 से भी अधिक साल का संचित ज्ञान भी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संस्कृत केवल धर्म-कर्म की भाषा बन कर रह गई और अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बन गई। यही वजह है कि नई पीढ़ी के जो बच्चे हैरी पॉटर श्रृंखला के प्रति अपनी खास रुचि दिखाते हैं किन्तु पंचतंत्र जैसी रचनाओं के बारे में उदासीनऔर अनजान बने रहते हैं। जबकि पंचतंत्र की एक सुंदर कहानी के पीछे एक संदेश भी निहित था जो भारतीय शिक्षा पद्धति का सार था।पांडुलिपि संरक्षण के संबंध में हमारी लापरवाही का नतीजा ही था कि भारत में सबसे पहली बार संस्कृत सीखने वाले प्राच्यविदविलियम जोन्स को 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की केवल एक पांडुलिपि ही मिली और वह भी बांग्ला लिपि में। जब विलियम जोन्स ने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' पढ़ना शुरू किया तो अध्ययन के मध्य ही उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा कि मैं दो हजार वर्ष पुराने एक संस्कृत नाटक का अध्ययन कर रहा हूँ, इसका लेखन हमारे महान लेखक शेक्सपीयर के इतना निकट है कि ऐसा भ्रम होने लगता है कि शेक्सपीयर ने कहीं शाकुन्तलम् का अध्ययन तो नहीं किया। जोन्स का यह पत्र उस समय प्रकाशित नहीं हुआ अन्यथा यूरोप में बड़ी खलबली मच जाती। यहाँ हमें समझना होगा कि संस्कृत की महान धरोहर की उपेक्षा कर, हम 4000 साल से अधिक पुराने समयके संचित ज्ञान को खो देते हैं।ज्ञानविज्ञान की धरोहर स्वरूप ये पाण्डुलिपियां ताड़पत्र, भूर्जपत्र, कागज, कपड़ा,लकड़ी,चमड़े,पत्थर, मिट्टी, सोने, चाँदी, पीतल, ताम्बे, लोहे, संगमरमर, हाथीदाँत, सीप, शंख आदि पर लिखी गई होती हैं।अतः इनके परिरक्षण के उपाय भी विविध प्रकार से किए जाते हैं। क्षेत्रीय जलवायु और मौसम का प्रभाव भी पाण्डुलिपियों पर पड़ता है। दक्षिण की अधिक ऊष्ण हवा में ताड़पत्र में लिखी पुस्तकें अधिक दिनों तक सुरक्षित नहीं रह सकती हैं। किन्तु नेपाल आदि शीत प्रदेशों में दीर्घकाल तक ताड़पत्र मेंलिखी पाण्डुलिपियां संरक्षित रह सकती हैं। नेपाल में ताड़पत्रीय पुस्तकों की खोज की गई तो 11वीं शती के पूर्वकालीन हस्तलिखित ग्रन्थ आज भी संरक्षित हैं, जिनमें, सातवीं शताब्दी ईस्वी का ‘स्कन्दपुराण’, नवीं शताब्दी ई. का ‘परमेश्वरतंत्र’तथा दसवीं शताब्दी का बौद्ध ग्रंथ ‘लंकावतार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार भोजपत्र पर लिखी पुस्तकों के संरक्षण की दृष्टि से कश्मीर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना ‘धम्मपद’, चौथीशताब्दी का संस्कृत में लिखा ‘संयुक्तागमसूत्र’ एवं आठवीं शताब्दी में रचित ‘अंकगणित’ आदि पाण्डुलिपियां खोतान एवं बख्शाली से प्राप्त हुई हैं। बौद्ध पुस्तकें प्रायः स्तूपों की भीतर रहने तथा पत्थरों के बीच गढ़े रहने से बहुत दीर्घकाल तक सुरक्षित रह पाई हैं। परन्तु खुले वातावरण में रहने वाले भूर्जपत्र में लिखे ग्रन्थ 15वीं शताब्दी ई. से पूर्व के नहीं मिलते। कागज में लिखे ग्रन्थ भी प्रायः ज्यादा समय तक टिकाऊ नहीं होते किन्तु यदि उनके संरक्षण के प्रति यदि विशेष सावधानी रखी जाए तो ये ग्रन्थ भी दीर्घजीवी हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि बेबर को पांचवीं शताब्दी ई. मेंलिखे भारतीय गुप्तलिपि में लिखे चार ग्रन्थ मध्य एशिया में यारकंद से 60 मील दक्षिण में स्थित ‘कुगिअर’ नामक स्थान सेजमीन में गढ़े मिले तथा एक संस्कृत ग्रन्थ ‘कासगर’ से प्राप्त हुआ। इन सभी उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि ताड़पत्र, भूर्जपत्र और कागज की यद्यपि लम्बी आयु नहीं रहती किन्तु ग्रंथ संरक्षण के प्रति विशेष सावधानी रखी जाए तो इन्हें भी दीर्घजीवी बनाया जा सकता है।भारत के प्राचीन ग्रन्थ लेखक पाण्डुलिपि संरक्षण दृष्टि से भी विशेष जागरूक रहे थे। प्राचीन काल में पांडुलिपि संरक्षण की अनेक विधियां प्रचलित थी। उन्हीं विधियों के प्रयोग से ऋग्वेद की कुछ ऐसी पांडुलिपियाँ भी संरक्षित रहीं जो हजारों साल पहले लिखी गई थी। इसलिए बहुत से हस्तलिखित ग्रन्थों के अन्त में निम्नलिखित संस्कृत के श्लोक लिखे मिलते हैं जिनका पाण्डुलिपि संरक्षण की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व है-"जलाद् रक्षेत् स्थलाद् रक्षेत् ,रक्षेत् शिथिलबंधनात्।मूर्खहस्ते न दातव्या,एवं वदति पुस्तिका।।""उदकानिल चौरेभ्योमूषकेभ्यो हुताशनात्।कष्टेन लिखितं शास्त्रंयत्नेन परिपालयेत् ।।"-अर्थात् जल से ग्रन्थ की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि जल कागज पत्र को गला देता है, स्याही को फैला देता है या धो देता है।स्थल यानी खुले स्थान पर धूल, मिट्टी ग्रन्थ को भ्रष्ट कर देती है। दीमक, कीड़े-मकोड़े आदि ग्रन्थ को चटकर जाते हैं। नमी और आग से भी ग्रन्थ को हानि पहुँचती है। चूहों तथा चोरों से भी मूल्यवान ग्रन्थ की रक्षा की जानी चाहिए। इस प्रकार लेखक द्वारा जीवन भर साधना करने के बाद लिखा गया शास्त्र-ग्रन्थ मूर्खतावश अथवा लापरवाही के कारण पल भर में नष्ट हो जाता है।सन् 2003 में भारत सरकार द्वारा स्थापित ‘राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन’ के अस्तित्व में आने से अब पाण्डुलिपियों के संरक्षण का कार्य अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया जाने लगा है।आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी के नवीनातिनवीन तकनीकों से पाण्डुलिपियों की रक्षा करना तथा उनकी उपयोगिता को जन सामान्य तक पहुँचाना अब पहले की अपेक्षा सरल और सहजहो गया है। मिशनने इस संबंध में द्विमुखी योजना को प्रारम्भ किया है-1- मूल पाण्डुलिपियों का निवारणात्मक एवं उपचारात्मक संरक्षण तथा2- सांख्यिकीकरण की आधुनिक प्रक्रिया द्वारा पाण्डुलिपियों का संरक्षण।सन् 2011 में पाण्डुलिपि मिशन ने अपने नई दिल्ली स्थित मुख्यालय में प्रायः निष्क्रिय संरक्षण प्रयोगशाला को सुप्रशिक्षित संरक्षकों की सहायता से पुनः सक्रिय किया है तथा संरक्षण से सम्बन्धित आधुनिक तकनीक के प्रयोग को लोकप्रिय एवं व्यावहारिक रूप देने के लिए अपनी वेबसाइट पर ‘अभिलेखीय सामग्री के सांख्यिकीकरण हेतु दिशा निर्देश’ भी जारी किये हैंजिनका मुख्य उद्देश्य है भविष्य के लिए पाण्डुलिपि संरक्षण हेतु जनमानस को जागरूक करना तथा नई सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से पाण्डुलिपियों का संरक्षण एवं परिरक्षण करना। मिशन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए चार प्रयोगात्मक माध्यम निर्धारित किए हैं-
18 पुराणों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय 18 mahapurans all maha purans hindi.shrimad bhagwatall maha purans hindi.shrimad bhagwat.all sanskrit ki jankari , sabhi sanskrit
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Bharat mein Sanskrit Gurukul kaafi mahatvapurn
Bharat mein Sanskrit Gurukul kaafi mahatvapurn hain, kyunki yeh paramparik Sanskrit shikshan aur Hindu dharmik sanskriti ko sambhalne aur a...
-
१८ पुराण के नाम और उनका महत्त्व महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित 18 पुराणों के बारें में पुराण अठारह हैं। मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं...
-
स्वस्तिवाचन स्वस्तिवाचन (स्वस्तयन) मन्त्र और अर्थ-- हमारे देश की यह प्राचीन परंपरा रही है कि जब कभी भी हम कोई कार्य प्रारंभ करते है, तो उस...
-
आख्यानपरक लेखन आख्यायिका का अर्थ की विशेषताएँ बताइए आख्यानपरक लेखन की विशेषताएं बताइए आख्यान meaningआख्यान आख्यान शब्द आरंभ से ही सामान्यत: कथा अथवा कहानी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। तारानाथकृत " वाचस्पत्यम् ...
No comments:
Post a Comment