वैदिक साहित्य
वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं।
'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।
आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -
वेद-ज्ञान:-
प्र.1- वेद किसे कहते है ?
उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते है।
प्र.2- वेद-ज्ञान किसने दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने दिया।
प्र.3- ईश्वर ने वेद-ज्ञान कब दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद-ज्ञान दिया।
प्र.4- ईश्वर ने वेद ज्ञान क्यों दिया ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए।
प्र.5- वेद कितने है ?
उत्तर- चार । 1-ऋग्वेद
2-यजुर्वेद
3-सामवेद
4-अथर्ववेद
प्र.6- वेदों के ब्राह्मण ।
1 - ऋग्वेद - ऐतरेय
2 - यजुर्वेद - शतपथ
3 - सामवेद - तांड्य
4 - अथर्ववेद - गोपथ
प्र.7- वेदों के उपवेद कितने है।
उत्तर - चार।
वेद उपवेद
1- ऋग्वेद - आयुर्वेद
2- यजुर्वेद - धनुर्वेद
3 -सामवेद - गंधर्ववेद
4- अथर्ववेद - अर्थवेद
प्र 8- वेदों के अंग हैं ।
उत्तर - छः ।
1 - शिक्षा
2 - कल्प
3 - निरूक्त
4 - व्याकरण
5 - छंद
6 - ज्योतिष
प्र.9- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने किन किन ऋषियो को दिया ?
उत्तर- चार ऋषियों को।
वेद ऋषि
1- ऋग्वेद - अग्नि
2 - यजुर्वेद - वायु
3 - सामवेद - आदित्य
4 - अथर्ववेद - अंगिरा
प्र.10- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों को कैसे दिया ?
उत्तर- समाधि की अवस्था में।
प्र.11- वेदों में कैसे ज्ञान है ?
उत्तर- सब सत्य विद्याओं का ज्ञान-विज्ञान।
प्र.12- वेदो के विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर- चार ।
ऋषि विषय
1- ऋग्वेद - ज्ञान
2- यजुर्वेद - कर्म
3- सामवे - उपासना
4- अथर्ववेद - विज्ञान
प्र.13- वेदों में।
ऋग्वेद में।
1- मंडल - 10
2 - अष्टक - 08
3 - सूक्त - 1028
4 - अनुवाक - 85
5 - ऋचाएं - 10589
यजुर्वेद में।
1- अध्याय - 40
2- मंत्र - 1975
सामवेद में।
1- आरचिक - 06
2 - अध्याय - 06
3- ऋचाएं - 1875
अथर्ववेद में।
1- कांड - 20
2- सूक्त - 731
3 - मंत्र - 5977
प्र.14- वेद पढ़ने का अधिकार किसको है ? उत्तर- मनुष्य-मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।
प्र.15- क्या वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है ?
उत्तर- बिलकुल भी नहीं।
प्र.16- क्या वेदों में अवतारवाद का प्रमाण है ?
उत्तर- नहीं।
प्र.17- सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?
उत्तर- ऋग्वेद।
प्र.18- वेदों की उत्पत्ति कब हुई ?
उत्तर- वेदो की उत्पत्ति सृष्टि के आदि से परमात्मा द्वारा हुई । अर्थात 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 43 हजार वर्ष पूर्व ।
प्र.19- वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र ( उपअंग ) कितने हैं और उनके लेखकों का क्या नाम है ?
उत्तर-
1- न्याय दर्शन - गौतम मुनि।
2- वैशेषिक दर्शन - कणाद मुनि।
3- योगदर्शन - पतंजलि मुनि।
4- मीमांसा दर्शन - जैमिनी मुनि।
5- सांख्य दर्शन - कपिल मुनि।
6- वेदांत दर्शन - व्यास मुनि।
प्र.20- शास्त्रों के विषय क्या है ?
उत्तर- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, मुक्ति अर्थात सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि।
प्र.21- प्रामाणिक उपनिषदे कितनी है ?
उत्तर- केवल ग्यारह।
प्र.22- उपनिषदों के नाम बतावे ?
उत्तर-
01-ईश ( ईशावास्य )
02-केन
03-कठ
04-प्रश्न
05-मुंडक
06-मांडू
07-ऐतरेय
08-तैत्तिरीय
09-छांदोग्य
10-वृहदारण्यक
11-श्वेताश्वतर ।
प्र.23- उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए है ?
उत्तर- वेदों से।
प्र.24- चार वर्ण।
उत्तर-
1- ब्राह्मण
2- क्षत्रिय
3- वैश्य
4- शूद्र
प्र.25- चार युग।
1- सतयुग - 17,28000 वर्षों का नाम ( सतयुग ) रखा है।
2- त्रेतायुग- 12,96000 वर्षों का नाम ( त्रेतायुग ) रखा है।
3- द्वापरयुग- 8,64000 वर्षों का नाम है।
4- कलयुग- 4,32000 वर्षों का नाम है।
कलयुग के 4,976 वर्षों का भोग हो चुका है अभी तक।
4,27024 वर्षों का भोग होना है।
पंच महायज्ञ
1- ब्रह्मयज्ञ
2- देवयज्ञ
3- पितृयज्ञ
4- बलिवैश्वदेवयज्ञ
5- अतिथियज्ञ
स्वर्ग - जहाँ सुख है।
नरक - जहाँ दुःख है।
!!!---: वैदिक वाङ्मय का परिचय :---!!!
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(१) ऋग्वेद की शाखा :----
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महर्षि पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की २१ शाखाएँ हैं, किन्तु पाँच ही शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं :---
(१) शाकल
(२) बाष्कल
(३) आश्वलायन
(४) शांखायन
(५) माण्डूकायन
संप्रति केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है !
ऋग्वेद के ब्राह्मण
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(१) ऐतरेय ब्राह्मण
(२) शांखायन ब्राह्मण
ऋग्वेद के आरण्यक
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(१) ऐतरेय आरण्यक
(२) शांखायन आरण्यक
ऋग्वेद के उपनिषद
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(१) ऐतरेय उपनिषद्
(२) कौषीतकि उपनिषद्
ऋग्वेद के देवता
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तिस्र एव देवताः इति नैरुक्ताः !
(१) अग्नि (पृथिवी स्थानीय )
(२) इन्द्र या वायु (अन्तरिक्ष स्थानीय )
(३) सूर्य (द्यु स्थानीय )
ऋग्वेद में बहु प्रयोग छंद
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(१) गायत्री ,
(२) उष्णिक्
(३) अनुष्टुप् ,
(४) त्रिष्टुप्
(५) बृहती,
(६) जगती,
(७) पंक्ति,
ऋग्वेद के मंत्रों के तीन विभाग
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(१) प्रत्यक्षकृत मन्त्र
(२) परोक्षकृत मन्त्र
(३) आध्यात्मिक मन्त्र
ऋग्वेद का विभाजन
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(१) अष्टक क्रम :----
८ अष्टक
६४ अध्याय
२००६ वर्ग
(२) मण्डलक्रम :---
१० मण्डल
८५ अनुवाक
१०२८ सूक्त
१०५८०---१/४
!!!---: यजुर्वेद का सामान्य परिचय :--!!!
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यजुर्वेद यज्ञ कर्म के लिए उपयोगी ग्रन्थ है । गद्यात्मक भाग के "यजुः" कहा जाता है । यजुुस् की प्रधानता के कारण इसे "यजुर्वेद" कहा जाता है ।
यजुष् के अन्य अर्थः---
(१.) यजुर्यजतेः (निरुक्त--७.१२)
(यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं ।)
(२.) इज्यते अनेनेति यजुः ।
(जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं ।)
(३.) अनियताक्षरावसानो यजुः ।
(जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।)
(४.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा--२.१.३७)
(पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं ।)
(५.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः ।
(एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहेंगे ।)
इस वेद की दो परम्पराएँ हैं :--- कृष्ण और शुक्ल ।
शुक्ल यजुर्वेद में शुद्ध रूप में मन्त्र मात्र संकलित है, किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ ब्राह्मण मिश्रित है ।
शाखाएँ :---
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महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य में यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ बताई है, किन्तु उपलब्धता कम है ।
(१) शुक्ल यजुर्वेद :---
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इसकी कुल १६ शाखाएँ बताईं जाती हैं , किन्तु सम्प्रति २ ही शाखाएँ उपलब्ध हैं---
(१.) माध्यन्दिन (वाजसनेयी ) शाखा,
(२.) काण्व शाखा ।
माध्यन्दिन-शाखा के मुख्य ऋषि याज्ञवल्क्य हैं । ये मिथिला के निवासी थे । इनके पिता वाजसनि थे, अतः याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाए । उनके नाम पर इस यजुर्वेद को वाजसनेयी शाखा भी कहते हैं ।
याज्ञवल्क्य ऋषि ने आदित्य ऋषि से इसे दिन के मध्य भाग में प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन शाखा कहा गया । इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार उत्तर भारत में है ।
काण्व ऋषि के पिता बोधायन थे । काण्व के गुरु याज्ञवल्क्य ही थे । काण्व-शाखा का सर्वाधिक प्रचार महाराष्ट्र में हैं ।
(२) कृष्ण यजुर्वेद :----
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इसकी कुल ८५ शाखाएँ बताईं जाती हैं किन्तु सम्प्रति ४ शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---
(१.) तैत्तिरीय-संहिता,
(२.) मैत्रायणी -संहिता,
(३.) कठ-संहिता,
(४.) कपिष्ठल-संहिता,
शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर :---
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(१.) शुक्लयजुर्वेद
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(१.) यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र है ।
(३.) यह विशुद्ध है, अर्थात् केवल मन्त्र है, कोई मिश्रण नहीं है ।
(४.) इस ग्रन्थ की प्राप्ति आदित्य से हुई है । आदित्य शुक्ल होता है, अतः इसका नाम शुक्ल-यदुर्वेद रखा गया । शुद्धता के कारण भी इसे शुक्ल कहा गया है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है, अर्थात् विशुद्ध है ।
(२.) कृष्णयजुर्वेद
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(१.) यह ब्रह्म-सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें मन्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मण भी मिश्रित है, अतः मिश्रण के कारण कृष्ण कहा गया ।
(३.) आदित्य के प्रकाश के विपरीत होने से भी इसे कृष्ण कहा गया ।
(४.) यह अव्यवस्थित है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग है, अर्थात् विशुद्ध नहीं है, अस्वच्छ है, मिश्रित है ।
मन्त्र :---
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(१.) शुक्लयजुर्वेदः---
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शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी-शाखा में कुल---
४० अध्याय हैं,
१९७५ मन्त्र हैं ।
वाजयनेयी संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अट्ठासी हजार) हैं ।
काण्व-शाखा में भी ४० ही अध्याय हैं, किन्तु मन्त्र २०८६ हैं ।
अनुवाक---३२८ हैं ।
(२.) कृष्णयजुर्वेदः--
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तैत्तिरीय-शाखा में कुल ७ काण्ड हैं,
४४ प्रपाठक हैं,
६३१ अनुवाक हैं ।
मैत्रायणी-शाखा में कुल ४ काण्ड हैं,
५४ प्रपाठक हैं,
३१४४ मन्त्र हैं ।
काठक (कठ) संहिता में कुल ५ खण्ड हैं,
स्थानक ४० हैं,
वचन १३ हैं,
५३ उपखण्ड हैं,
८४३ अनुवाक हैं,
३०२८ मन्त्र हैं ।
कपिष्ठल अपूर्ण रूप में उपलब्ध है ।
इसमें ६ अष्टक ही उपलब्ध है ,
४८ अध्याय पर समाप्ति है ।
ब्राह्मण :---
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शुक्लयजुर्वेद ------ शतपथ ब्राह्मण
कृष्णयजुर्वेद ---- तैत्तिरीय ब्राह्मण , मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल
इन चारों संहिताओं में जो ब्राह्मण भाग हैं, वही कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण है ।
आरण्यक :---
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शुक्लयजुर्वेद---- बृहदारण्यक
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय आरण्यक
उपनिषद् :---
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शुक्लयजुर्वेद ---- ईशोपनिषद् , बृहदारण्यकोपनिषद् , प्रश्नोपनिषद् ।
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय उपनिषद् , महानारायण, मैत्रायणीय, कठोपनिषद्, श्वेताश्वरोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र :---
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शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, हिरण्यकेशी (सत्याषाढ), भारद्वाज, वैखानस, वाधुल, मानव, मैत्रायणी, वाराह ।
गृह्यसूत्र :---
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शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, वैखानस, कठ ।
धर्मसूत्र :---
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शुक्लयजुर्वेद---कोई नहीं ।
कृष्णयजुर्वेद----वसिष्ठ-सूत्र ।
शुल्वसूत्र :---
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शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन ।
कृष्णयजुर्वेद---बोधायन, आपस्तम्ब, मानव, मैत्रायणी, वाराह और वाधुल ।
!!!---: सामवेद : सामान्य परिचय :---!!!
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वैदिक वाङ्मय में सामवेद का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गीता (१०.२२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं के लिए सामवेद कहा है---"वेदानां सामवेदोSस्मि ।"
इस वेद का महत्त्व इस बात से अधिक है कि सामवेद को द्यु कहा गया है, जबकि ऋग्वेद को पृथिवी कहा है---"साम वा असौ द्युलोकः, ऋगयम् भूलोकः ।" (ताण्ड्य-ब्राह्मण--४.३.५)
सामवेद वेदों का सार है । सारे वेदों का रस या सार सामवेद ही है ---"सर्वेषामं वा एष वेदानां रसो यत् साम ।" (शतपथ---१२.८.३.२३) (गोपथ-ब्राह्मण--२.५.७)
सामवेद के लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है---"गीतिषु सामाख्या ।" (पूर्वमीमांसा--२.१.३६)
ऋग्वेद और सामवेद का अभिन्न सम्बन्ध हैं ।
सामवेद के बिना यज्ञ नहीं होता---"नासामा यज्ञो भवति ।" (शतपथ--१.४.१.१)
जो पुरुष "साम" को जानता है, वही वेद के रहस्य को जान पाता है---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम् ।" (बृहद्देवता)
"साम" का शाब्दिक अर्थ है---देवों को प्रसन्न करने वाला गान ।
सामवेद का प्रकाश आदित्य ऋषि के हृदय में हुआ ।
आचार्य सायण के अनुसार ऋग्वेद के गाए जाने वाले मन्त्रों को "साम" कहते हैं---"ऋच्यध्यूढं साम ।" अर्थात् ऋचाओं पर ही साम आश्रित है ।
सामवेद उपासना का वेद है ।
(१.) सामवेद के प्रमुख ऋषि---आदित्य,
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि ।" (शतपथ--१०.५.१.५)
(२.) सामवेद के गायक ऋत्विज्---उद्गाता,
(३.) सामवेद के देवता---आदित्य ।
सामवेद की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । यह सूर्य-पुत्र है । इसमें सूर्य की शक्ति है---"सूर्यात् सामवेदः अजायत ।" (शतपथ---११.५.८.३)
(४.) ऋषि व्यास ने सामवेद का अध्ययन कराया---जैमिनि को ।
जैमिनि ने सामवेद की शिक्षा अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को दी ।
सामवेद का विस्तार इसी सुकर्मा ऋषि ने की थी । सुकर्मा के दो शिष्य थे---हिरण्यनाभ कौशल्य औ पौष्यञ्जि ।
हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था । कृत ने सामवेद के २४ प्रकार के गान स्वरों का प्रवर्तन किया था ।
कृत के बहुत से आनुयायी हुए । इनके अनुयायी सामवेदी आचार्यों को "कार्त" कहा जाता है----
"चतुर्विंशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिताः ।
स्मृतास्ते प्राच्यसामानः कार्ता नामेह सामगाः ।" (मत्स्यपुराणः---४९.६७)
(५.) शाखाएँ---
ऋषि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की १००० हजार शाखाएँ थीं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य) ।
सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएँ समुपलब्ध है---
(क) कौथुम,
(ख) राणायणीय,
(ग) जैमिनीय,
कौथुम शाखा के अनुसार सामवेद के दो भाग हैं---(क) पूर्वार्चिक , (२.) उत्तरार्चिक ।
(क) पूर्वार्चिकः----
इसमें कुल चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय, (ख) ऐन्द्र, (ग) पावमान (घ) आरण्य-काण्ड ।
परिशिष्ट के रूप में १० मन्त्र महानाम्नी आर्चिक हैं ।
पूर्वार्चिक में ६ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र ६५० हैं ।
प्रपाठकों में अध्याय है, अध्यायों में खण्ड हैं , जिन्हें "दशति" कहा जाता है, खण्डों में मन्त्र हैं ।
इसके प्रपाठकों के विभिन्न नाम हैं । जिसमें जिस देवता की प्रधानता है, उसका वही नाम है । जैसे---
(क) प्रथम प्रपाठक का नाम--"आग्नेय-पर्व" हैं, क्योंकि इसमें अग्नि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । इसके देवता अग्नि ही है । इसमें कुल ११४ मन्त्र हैं ।
(ख) द्वितीय से चतुर्थ प्रपाठक का नाम---"ऐन्द्र-पर्व" है, क्योंकि इनमें इन्द्र की स्तुतियाँ की गईं हैं । इसके देवता इन्द्र ही है । इसमें ३५२ मन्त्र हैं ।
(ग) पञ्चम प्रपाठक का नाम ----"पवमान-पर्व" है, क्योंकि इसमें सोम की स्तुति की गई है । इसके देवता सोम ही है । इसमें कुल ११९ मन्त्र हैं ।
(घ) षष्ठ प्रपाठक का नाम---"अरण्यपर्व" है, क्योंकि इसमें अरण्यगान के ही मन्त्र है । इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम हैं । इसमें कुल ५५ मन्त्र हैं ।
(ङ) महानाम्नी आर्चिक---यह परिशिष्ट हैं । इसके देवता इन्द्र हैं । इसमें कुल १० मन्त्र हैं ।
इस प्रकार कुल मिलाकर पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र हुए ।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम से पञ्चम प्रपाठक तक के मन्त्रों का गान गाँवों में हो सकता है । इसलिए इन्हें "ग्रामगान" कहते हैं ।
सामगान के चार प्रकार होते हैं---
(क) ग्रामगेय गान--इसे "प्रकृतिगान" और "वेयगान" भी कहते हैं । यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता था ।
(ख) आरण्यगान या आरण्यक गेयगान---यह वनों या पवित्र स्थानों पर गाया जाता था । इसे "रहस्यगान" भी कहते हैं ।
(ग) उहगान---"ऊह" का अर्थ है---विचारपूर्वक विन्यास । यह सोमयाग या विशेष धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था ।
(घ) उह्यगान या रहस्यगान---रहस्यात्मक होने के कारण यह सार्वजनिक स्थानों पर नहीं गाया जाता था ।
(ख) उत्तरार्चिक----
इसमें कुल २१ अध्याय और ९ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र १२२५ हैं । इसमें कुल ४०० सूक्त हैं ।
पूर्वार्चिक में ऋचाओं का छन्द देवताओं के अनुसार है, जबकि उत्तरार्चिक में यज्ञों के अनुसार है ।
पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र है, जबकि उत्तार्चिक में १२२५ मन्त्र हैं । दोनों मिलाकर १८७५ हुए ।
पूर्वार्चिक के २६७ मन्त्रों की आवृत्ति उत्तरार्चिक में हुई है । १५०४ मन्त्र ऋग्वेद से आगत है ।
साममवेदस्थ सामगान मन्त्रों के ५ भाग हैं----
(क) प्रस्ताव---इसका गान "प्रस्तोता" नामक ऋत्विक् करता है । यह "हूँ ओग्नाइ" से प्रारम्भ होता है ।
(ख) उद्गीथ---इसे साम का प्रधान ऋत्विक् उद्गाता गाता है । यह "ओम्" से प्रारम्भ होता है ।
(ग) प्रतिहार----इसका गान "प्रतिहर्ता" नामक ऋत्विक् करता है । यह दो मन्त्रों को जोडने वाली कडी है । अन्त में "ओम्" बोला जाता है ।
(घ) उपद्रव----इसका गान उद्गाता ही करता है ।
(ङ) निधन----इसका गान तीनों ऋत्विक करते हैं---प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ।
(६.) सामवेद के कुल मन्त्र----१८७५ हैं ।
ऋग्वेद से आगत मन्त्र हैं--१७७१
सामवेद के अपने मन्त्र हैं--१०४ = १८७५
ऋग्वेद से संकलित १७७१ मन्त्रों में से भी २६७ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
सामवेद के अपने १०४ मन्त्रों में से भी ५ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
इस प्रकार पुनरुक्त मन्त्रों की संख्या २७२ है ।
सारांशतः---
सामवेद में ऋग्वेदीय मन्त्र १५०४ + पुनरुक्त २६७ कुल हुए= १७७१
सामवेद के अपने मन्त्र--९९ + पुनरुक्त ५, इस प्रकार कुल हुए= १०४
दोनों को मिलाकर कुल मन्त्र हुए--- १७७१ + १०४ = १८७५
सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद के ८ वें और ९ वें मण्डल के हैं ।
८ वें मण्डल से ४५० मन्त्र लिए गए हैं,
९ वें मण्डल से ६४५ मन्त्र लिए गए हैं ।
१ वें मण्डल से २३७ मन्त्र लिए गए हैं ।
१० वें मण्डल से ११० मन्त्र लिए गए हैं ।
सामवेद में कुल अक्षर ४००० * ३६ = १,४४,००० (एक लाख, चौवालीस हजार( हैं ।
सामवेद के ४५० मन्त्रों का गान नहीं हो सकता , अर्थात् ये गेय नहीं है ।
कौथुम शाखा में कुल मन्त्र १८७५ हैं, जबकि जैमिनीय शाखा में १६८७ मन्त्र ही है ।
इस प्रकार जैमिनीय-शाखा में १८८ मन्त्र कम है ।
जैमिनीय शाखा में गानों के ३६८१ प्रकार हैं, जबकि कौथुमीय में केवल २७२२ ही हैं , अर्थात् जैमिनीय-शाखा में ९५९ गान-प्रकार अधिक हैं ।
जैमिनीय-शाखा की संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र सभी उपलब्ध हैं, किन्तु कौथुमीय के नहीं ।
ब्राह्मणः--
पञ्चविंश (ताण्ड्य) महाब्राह्मण , षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, वंश, जैमिनीय, तलवकार ।
आरण्यक कोई नहीं ।
उपनिषद्---छान्दोग्य, केनोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र---खादिर, लाट्यायन, द्राह्यायण ।
गृह्यसूत्र----खादिर, गोभिल, गौतम ।
धर्मसूत्र---गौतम ।
शुल्वसूत्र कोई नहीं ।
सामवेद से तीन प्रमुख शिक्षाएँ मिलती हैं---
(क) समत्व की भावना जागृत करना ।
(ख) समन्वय की भावना । पति-पत्नी को एकत्रित करना। समाज को एकत्रित करना । सबको मिलाना । किसी को अलग नहीं करना ।
(ग) साम प्राण है । जीवन में प्राणशक्ति का बडा महत्त्व है । प्राणी इसी से जीता है ।
!!!---: अथर्ववेद एक सामान्य परिचय :---!!!
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अथर्ववेद का अर्थ--अथर्वों का वेद,
वेदों में अन्यतम अथर्ववेद एक महती विशिष्टता से युक्त है ।
अथर्ववेद का अर्थ---अथर्वों का वेद (ज्ञान), और अङ्गिरों का ज्ञान अर्थात् अभिचार मन्त्रों से सम्बन्धित ज्ञान ।
(१.) अथर्वन्--- स्थिरता से युक्त योग । निरुक्त (११.१८) के अनुसार "थर्व" धातु से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है---गति या चेष्टा । अतः "अथर्वन्" शब्द का अर्थ है--स्थिरता । इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोSथर्वणवन्तः । थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः ।" निरुक्त (११.१८)
(२.) गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार---समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद वह जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश हो ।
प्राचीन काल में अथर्वन् शब्द पुरोहितों का द्योतक था ।
अन्य नाम
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अथर्वाङ्गिरस्,
अाङ्गिरसवेद,
ब्रह्मवेद,
भृग्वाङ्गिरोवेद,
क्षत्रवेद,
भैषज्य वेद,
छन्दो वेद,
महीवेद
मुख्य ऋषि---अङ्गिरा,
ऋत्विक्---ब्रह्मा
प्रजापति ब्रह्म ने इस वेद का ज्ञान सर्वप्रथम अङ्गिरा ऋषि को दिया ।
शाखाएँ
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ऋषि पतञ्जलि ने महाभाष्य में इस वेद की ९ शाखाएँ बताईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार है---
(१.) पैप्लाद,
(२.) तौद,(स्तौद)
(३.) मौद,
(४.) शौनकीय,
(५.) जाजल,
(६.) जलद,
(७.) ब्रह्मवद,
(८.) देवदर्श,
(९.) चारणवैद्य ।
इनमें से सम्प्रति केवल २ शाखाएँ ही उपलब्ध हैः--शौनकीय और पैप्लाद । शेष मुस्लिम आक्रान्ताओं न नष्ट कर दी । आजकल सम्पूर्ण भारत वर्ष में शौनकीय-शाखा ही प्रचलित है और यही अथर्ववेद है ।
(१.) शौनकीय-शाखा
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काण्ड---२०,
सूक्त---७३०,
मन्त्र---५९८७,
(२.) पैप्लाद -शाखा---
यह अपूर्ण है । इसका प्रचलन पतञ्जलि के समय था ।
उपवेद---अर्थर्वेद
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गोपथ-ब्राह्मण (१.१.१०) में इसके पाँच उपवेदों का वर्णन हुआ है---
सर्पवेद,
पिशाचवेद,
असुरवेद,
इतिहासवेद,
पुराणवेद ।
शतपथ-ब्राह्मण (१३.४.३.९) में भी इन उपवेदों का नाम आया है---
सर्पविद्यावेद,
देवजनविद्यावेद, (रक्षोवेद या राक्षसवेद),
मायावेद (असुरवेद या जादुविद्यावेद),
इतिहासवेद ,
पुराणवेद
ऋषि व्यास ने इसका ज्ञान सुमन्तु को दिया
ब्राह्मण---गोपथ-ब्राह्मण
आरण्यक---कोई नहीं
उपनिषद्---मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्
श्रौतसूत्र---वैतान
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गृह्यसूत्र---कौशिक,
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धर्मसूत्र---कोई नहीं ।
शुल्वसूत्र---कोई नहीं ।
अथर्वा ऋषि महान् वैज्ञानिक थे ।
ऋग्वेद - सबसे प्राचीन वेद - ज्ञान हेतु लगभग १० हजार मंत्र। इसमें देवताओं के गुणों का वर्णन और प्रकाश के लिए मन्त्र हैं - सभी कविता-छन्द रूप में।
सामवेद - उपासना में गाने के लिये १९७५ संगीतमय मंत्र।
यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये ३७५० गद्यात्मक मन्त्र हैं।
अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये ७२६० कवितामयी मन्त्र हैं।
वेदों को अपौरुषेय (जिसे कोई व्यक्ति न कर सकता हो, यानि ईश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। अन्य आर्य ग्रंथों को स्मृति कहते हैं, यानि वेदज्ञ मनुष्यों की वेदानुगत बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रन्थ। वेद के समग्र भाग को मन्त्र संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद के रूप में भी जाना जाता है। इनमे प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कहलाती है जो लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ श्रोत माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्व बना हुआ है।
वेदों को समझना प्राचीन काल में भारतीय और बाद में विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः उपांगों की व्यवस्था थी। शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन के बाद ही प्राचीन काल में वेदाध्ययन पूर्ण माना जाता था | प्राचीन काल के ब्रह्मा, वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा चतुर्वेदभाष्य "माधवीय वेदार्थदीपिका" बहुत मान्य है। यूरोप के विद्वानों का वेदों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही है। अतः वे इसमें लोगों, जगहों, पहाड़ों, नदियों के नाम ढूँढते रहते हैं - लेकिन ये भारतीय परंपरा और गुरुओं की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता। अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर विद्वानों में असहमति बनी रही है।
वेद का हिंदी भाष्य
कालक्रम संपादित करें
मुख्य लेख वैदिक सभ्यता
वेद सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं। संहिता की तारीख लगभग 1700-1100 ईसा पूर्व, और "सर्कल-वैदिक" ग्रंथों के साथ-साथ संहिताओं की प्रतिदेय, सी की तिथि।[1] 1000-500 ईसा पूर्व, जिसके परिणामस्वरूप एक वैदिक अवधि होती है, जो मध्य 2 से लेकर मध्य 1000 ई.पू. तक फैली हुई है, या देर कांस्य युग और लोहे की आयु है। वेदिक काल, मंत्र ग्रंथों की रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है, पूरे उत्तरी भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण के अर्थों के साथ मंत्र संहिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है, और बुद्ध और पाणिनी की उम्र में इसका अंत पहुंचता है महाजनपदों का उदय (पुरातात्विक रूप से, उत्तरी काली पॉलिश वेयर)। माइकल विज़ेल सी का एक समय अवधि देता है 1500 से सी 500-400 ईसा पूर्व विट्ज़ेल ने 14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के निकट पूर्वी मिटनी सामग्री के लिए विशेष संदर्भ में ऋग्वेद की अवधि के लिए इंडो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलालेख दिया था। उन्होंने 150 ईसा पूर्व (पतंजलि) को सभी वैदिक संस्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एंटी क्वीन के रूप में, और 1200 ईसा पूर्व (प्रारंभिक आयरन आयु) अथर्ववेद के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया।
वैदिक काल में ग्रंथों का संचरण मौखिक परंपरा द्वारा किया गया था, विस्तृत नैमनिक तकनीकों की सहायता से परिशुद्धता से संरक्षित किया गया था। मौर्य काल में बौद्ध धर्म के उदय के बाद वैदिक समय के बाद साहित्यिक परंपरा का पता लगाया जा सकता है, शायद 1 शताब्दी ईसा पूर्व के यजुर्वेद के कन्वा पाठ में सबसे पहले; हालांकि संचरण की मौखिक परंपरा सक्रिय रहा। विज़ेल ने 1 सहस्त्राब्दी बीसीई के अंत में लिखित वैदिक ग्रंथों की संभावना का सुझाव दिया। कुछ विद्वान जैसे जैक गूडी कहते हैं कि "वेद एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं", इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य संस्कृतियों जैसे विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के संचरित संस्करणों में विसंगतियों की तुलना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते हुए, उस पर ध्यान देते हुए वैदिक साहित्य बहुत सुसंगत और विशाल है जिसे लिखी बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना दिया गया था। हालांकि, गौडी कहते हैं, वैदिक ग्रंथों की एक लिखित और मौखिक परंपरा दोनों में शामिल होने की संभावना है, इसे "साक्षरता समाज के समानांतर उत्पादों" कहते हैं।
पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं। पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी से ऋग्वेद पांडुलिपि है; हालांकि, नेपाल में कई पुरानी वेद पांडुलिपियां हैं जो 11 वीं शताब्दी के बाद से हैं।
प्राचीन विश्वविद्यालय संपादित करें
वेदों, वैदिक अनुष्ठान और उसके सहायक विज्ञान वेदंगा नामक थे, प्राचीन विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा थे जैसे तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला।
वेद-भाष्यकार संपादित करें
प्राचीन काल में माना जाता है कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को वेदों का ज्ञान मिला जिसके बाद सात ऋषियों (सप्तर्षि) को ये ज्ञान मिला - इसका उल्लेख गीता में हुआ है। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके पुत्र बादरायण और पौत्र व्यास और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था। व्यास ऋषि ने गीता में कई बार वेदों (श्रुति ग्रंथों) का ज़िक्र किया है। अध्याय 2 में कृष्ण, अर्जुन से ये कहते हैं कि वेदों की अलंकारमयी भाषा के बदले उनके वचन आसान लगेंगे।[2] प्राचीन काल में ही निरूक्त, निघण्टु तथा मनुस्मृति को वेदों की व्याख्या मानते हैं।
मध्यकाल में सायणाचार्य को वेदों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार वेदों के भाष्य या अनुवाद में देवी-देवता, इतिहास और कथाओं का उल्लेख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे।
आधुनिक काल में राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज और दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज लगभग एक ही समय में (1860) वेदों के सबसे बड़े प्रचारक बने। इनके अतिरिक्त शंकर पाण्डुरंग ने सायण भाष्य के अलावे अथर्ववेद का चार जिल्दों में प्रकाशन किया। लोकमान्य तिलक ने ओरायन और द आर्कटिक होम इन वेदाज़ नामक दो ग्रंथ वैदिक साहित्य की समीक्षा के रूप में लिखे। बालकृष्ण दीक्षित ने सन् १८७७ में कलकत्ते से सामवेद पर अपने ज्ञान का प्रकाशन कराया। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने सातारा में चारों वेदों की संहिता का श्रमपूर्वक प्रकाशन कराया। तिलक विद्यापीठ, पुणे से पाँच जिल्दों में प्रकाशित ऋग्वेद के सायण भाष्य के प्रकाशन को भी प्रामाणिक माना जाता है।
वैदिक संहिताओं के अनुवाद में रमेशचंद्र दत्त बंगाल से, रामगोविन्द त्रिवेदी एवं जयदेव वेदालंकार के हिन्दी में एवं श्रीधर पाठक का मराठी में कार्य भी लोगों को वेदों के बारे में जानकारी प्रदान करता रहा है। इसके बाद गायत्री तपोभूमि के श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी वेदों के भाष्य प्रकाशित किये हैं - इनके भाष्य सायणाधारित हैं।
विदेशी प्रयास संपादित करें
सत्रहवीं सदी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के भाई दारा शूकोह ने कुछ उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया (सिर्र ए अकबर,سرّ اکبر महान रहस्य) जो पहले फ्रांसिसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुईं। यूरोप में इसके बाद वैदिक और संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। मैक्स मूलर जैसे यूरोपीय विद्वान ने भी संस्कृत और वैदिक साहित्य पर बहुत अध्ययन किया है। लेकिन यूरोप के विद्वानों का ध्यान हिन्द आर्य भाषा परिवार के सिद्धांत को बनाने और उसको सिद्ध करने में ही लगी हुई है। शब्दों की समानता को लेकर बने इस सिद्धांत में ऐतिहासिक तथ्य और काल निर्धारण को तोड़-मरोड़ करना ही पड़ता है। इस कारण से वेदों की रचना का समय १८००-१००० इस्वी ईसा पूर्व माना जाता है जो संस्कृत साहित्य और हिन्दू सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन आर्य जातियों के प्रयाण के सिद्धांत के तहत और भाषागत दृष्टि से यही काल इन ग्रंथों की रचना का मान लिया जाता है।
वेदों का काल संपादित करें
वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए 2017(चैत्रशुक्ल/तपाःशुक्ल1) को 1,97,29,49,118 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदौंको संरक्षित करने अथवा अच्छि तरहसे समझनेके लिये वेदौंसे ही वेदांगौंको आविस्कार कीया गया।
[26/04 10:02 pm] +91 81680 24568: अभिषेक तिवारी
1)कादम्बरी के मंगलाचरण में किसकी स्तुति की गई है?त्रिगुणात्मक ब्रह्म की
2)बाणभट्ट के अनुसार सज्जन पुरुष श्रेष्ठ वचनों से किसके समान मन हरण करते हैं?मणि नूपुरों सदृश
3)वात्स्यायन वंश में कौन ब्राह्मण हुए?कुबेर
4)शूद्रक की सभा में शुक लेकर कौन आया?चांडाल कन्या
5)शुक का क्या नाम था?वैशम्पायन
6)वैशम्पायन को घोंसले से नीचे किसने गिराया था?शबर सेनापति ने
7)इस घटना के समय उसके पिता की क्या अवस्था थी?अतिवृद्ध
8)वैशम्पायन को किसने उठाया?हारीत ने
9)वैशम्पायन को किस आश्रम में लाया गया?जाबालि ऋषि के
10)आश्रम किसका था?जाबालि ऋषि का
11)हारीत कौन था?जाबालि का पुत्र
12)जाबालि के पुत्र का नाम क्या है?हारीत
13)वैशम्पायन जब आश्रम में लाया गया तब कौन सी ऋतु थी?ग्रीष्म
14)शूद्रक की राजधानी का क्या नाम है?विदिशा
15)कादम्बरी के प्रारम्भ में कितने श्लोक है।20, 13 में कथा प्रशंसा
16)शुक किस वृक्ष पर रहता था?सेमल के पेड़ पर अपने पिता के साथ जिसकी माँ जन्म के समय ही स्वर्ग सिधार गयीं थी।
17)वृक्ष किस सरोवर के निकट था?पम्पा पद्म सरोवर
18)शबर किस अवस्था का था?युवावस्था
19)शुक शबर की दृष्टि से कैसे बचा?तमाम बृक्षकी जड़ों में छिपकर।जो मानो द्वितीय पिता की गोद हो।
20)शबर के चले जाने पर शुक को किसकी अनुभूति हुई?प्यास की
21)वेशम्पायन को किसने पानी पिलाया?हारीत ने
22)बाणभट्ट ने अपने गुरु का क्या नाम बताया है?भर्तु(भत्सु)
23)कुबेर ने सरलता से किसे जीत लिया था?स्वर्ग को
24)कुबेर के पिता का क्या नाम था?वात्स्यायन
25)बाणभट्ट का वंश किससे प्रारम्भ होता है?दधीच तथा सरस्वती के पुत्र सारस्वत के चचेरे भाई वत्स से।
26)प्राचीनतम गद्य का उदाहरण कहां मिलता है?कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय सहिंता में
27)घटिका शतक उपाधि किसे दी गई है?अम्बिकादत्त व्यास
28)बाण के पूर्वजों का निवास कहां था?प्रीतिकूट नामक ग्राम
29)कुबेर का समय क्या निश्चित किया गया है?450---430
30)प्रीतिकूट किस नदी के तट पर था?हिरन्यवाह या शोणनाद
31)कादम्बरी की कथा कहाँ से ली गई है?गुणाढ्य की बृहत्त कथा
32)तारापीड की राजधानी का क्या नाम है?उज्जयिनी
33)उनकी पत्नी का क्या नाम था?विलासवती
34)गद्यकाव्य के कितने भेद हैं?2,कथा आख्यायिका
35)कुबेर के कितने पुत्र थे?4
36)बाण के पिता कितने भाई थे?11
37)बाण की बहन का क्या नाम था?मालती
38)हर्षवर्धन का काल क्या है?606--648
39)हर्षवर्धन के समय कौन विदेशी भारत भ्रमण पर आया?ह्वेनसांग
40)बाण की पत्नी किसकी बहन थी?मयू रभट्ट
41)सूर्यशतकं किसकी रचना है?मयूर भट्ट
42)ह्वेनशांग किस काल में में भारत में रहा?(629--645)
43)वेशम्पायन की माता का क्या नाम है?मनोरमा
44)कादम्बरी का शाब्दिक अर्थ क्या है?मदिरा
45)चन्द्रापीड की सेविका का क्या नाम है?पत्रलेखा
46)चन्द्रापीड के घोड़े का क्या नाम है?इंद्रायुध
47)पत्रलेखा पूर्वजन्म में कौन थी?रोहिणी
48)इंद्रायुध पूर्वजन्म में कौन था?पुण्डरीक का मित्र कपिंजल
49)शुकनास की पत्नी का क्या नाम है?मनोरमा
50)कादम्बरी के माता पिता का क्या नाम है?मदिरा और चित्ररथ
51)कादम्बरी के अनुचर का क्या नाम है?केयूरक
52)बाण के लिए वाणी वाणों बभूव किसने कहा है?गोवर्धनाचार्य
53)पुण्डरीक के माता पिता का क्या नाम है?लक्ष्मी और श्वेतकेतु
54)सोडढल ने बाण के लिए क्या कहा है?बाणः कविनामिह चक्रवर्ती
56)पत्रलेखा किसकी पुत्री है?कुलुताधिपति
57)बाणस्तु पंचानन किसने कहा है?श्रीचंद्रदेव
58)महाश्वेता की सहचरी का नाम क्या है?तरलिका
59)विदिशा किस नदी के किनारे स्थित है?वेत्रवती
60)समुद्र मंथन में लक्ष्मी सहित कितने रत्न निकले थे?14
1. वेत्रवती नदी किस नगरी में स्थित थी? – विदिशा में
2. काव्यप्रकाश में उल्लिखित 'अनलंकृती' किसका विशेषण है? – शब्दार्थ का
3. मम्मट के अनुसार काव्य कितने प्रकार का होता है? – तीन
4. रघुवंश महाकाव्य किसकी स्तुति से प्रारम्भ होता है? – शिव-पार्वती की
5. भास द्वारा लिखित उपलब्ध नाटकों की संख्या कितनी है? – तेरह
6. किस नियम से ग्, द्, ब् हो जाते हैं क्, त्, प्? – ग्रिम नियम
7. लेट् लकार किस संस्युत में प्रयुक्त हुआ है? – वैदिक
8. काव्यप्रकाश में 'तात्पर्यार्थोsपि केषुचित्' में किसके मत का संकेत है? – मीमांसक
9. मम्मट के अनुसार उत्तमकाव्य क्या होता है? – ध्वनि
10. किस अलंकार में उपनाम-पक्ष उपमेय-पक्ष का निगरण कर लेता है? – अतिशयोक्ति
11. भूत एवं भावी घटनाओं की सूचना देने वाला नाट्यप्रयोग कौन-सा है? – विष्कम्भक
12. श्रृंगार रस में कौन सी वृत्ति का प्रयोग होता है? – कैशिकी
13. ध्वन्यालोक में 'काव्यस्यात्मा स एवार्थ:' से अभिप्राय है? – प्रतीयमान अर्थ
14. रसनिष्पत्ति के प्रसंग में भुक्तिवादी आचार्य कौन से हैं? – भट्टनायक
15. काव्यशास्त्रियों में कौन आचार्य मम्मट हैं? – समन्वयवादी
16. सन्धि कहाँ आवश्यक नहीं मानी जाती? – वाक्य में
17. 'मनोरथ:' में सन्धि-विच्छेद क्या होगा? – मन: + रथ:
18. 'विद्वान + लिखति– में सन्धि क्या होगी? – विद्वाल्लिखति
19. 'हिंत मनोहारि व दुर्लभ: वच:' सूक्ति किस काव्य की है? – किरातार्जुनीयम्
20. कौन-सा समास नित्य नपुंसकलिंग एकवचन में प्रयुक्त होता है? – द्विगु
21. 'समानाधिकरण तत्पुरुष' समास का नाम क्या है? – कर्मधारय
22. संस्कृत में 'कारकों' की संख्या कितनी मानी गई है? – छ:
23. 'रुच्यर्थानां प्रीयमाण:' यह सूत्र किस विभक्ति का विधायक है? – चतुर्थी
24. 'श्रीमद्भगवद्गीता' के द्वितीय अध्याय का नाम क्या है? – सांख्ययोग
25. 'नीलो घट:' में गुण-गुणी का कौन-सा सम्बन्ध है? – समवाय सम्बन्ध
26. 'न्यायशास्त्र' में प्रमेयों की संख्या कितनी मानी गई है? – बारह
27. 'सांख्य' के अनुसार इन्द्रियों की उत्पत्ति कहां से होती है? – अहंकार से
28. केवल 'जाति' में शब्द का संकेतग्रह मानने वाले मतवादी कौन हैं? – मीमांसक
29. 'अपोह' को शब्दार्थ मानने वाले मतवादी कौन हैं? – बौद्ध
30. मम्मट द्वारा उपादानलक्षणा के उदाहरण 'गौरनुबन्ध्य:' में किस आचार्य के मत का खण्डन किया गया है? –
31. रसनिष्पत्ति के सन्दर्भ में 'साधारणी-करण' का सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया है? – भट्टनायक ने
32. शब्दगत एवं अर्थगत बीस गुणों के प्रतिपादक आचार्य कौन हैं? – वामन
33. अंगश्लेष को अर्थालंकारों में परिगणित करने वाले आचार्य कौन हैं? – रुय्यक
34. प्रस्तुत में अप्रस्तुत की सम्भावना होने पर अलंकार क्या होता है? – उत्प्रेक्षा
35. किस प्रकार के काव्य को एक 'देशानुकारि' कहा गया है? – खण्डकाव्य
36. अधोलिखित में से कौन सा काव्य अर्वाचीन है? – सीताचरितम्
37. नाट्य में जहाँ प्रस्तुत भावी कथावस्तु की अन्योक्तिमय सूचना दी जाती है वह क्या होता है? – पताकास्थानक
38. रूपक में भूत अथवा भावी घटनाओं की सूचना जहाँ मध्यम पात्रों द्वारा दी जाती है वह क्या होता है? – विष्कम्भक
39. आचार्य धनञ्चय ने दशरूपक में नागानन्द के नायक जीमूतवाहन को क्या माना है? – धीरोदात्त
40. 'प्रसन्नराघव' नाटक के रचयिता कौन हैं? – जयदेव
41. 'अभिज्ञानशाकुन्तल' के चतुर्थ अंक में 'लोकोनियम्यत इवात्मदशान्तरेषु' पघांश में अलंकार कौन सा है? – उत्प्रेक्षा
42. 'मेघदूत' में यक्ष 'वक्र: पन्था यदपि भवत:' आदि कहकर मेघ से किस नगरी में जाने का अनुरोध करता है? – उज्जयिनी
43. पूर्वमेघ में विन्ध्याचल की तलहटी में बिखरी हुई किस नदी का वर्णन है? – रेवा
44. 'सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ति' किसकी उक्ति है? – भर्तृहरि
45. 'मृच्छकटिकम्' प्रकरण के प्रथम अंक का नाम क्या है? – अलड्कारन्यास
46. 'शिवराजविजय' गद्यकाव्य का आरम्भ कहां से होता है? – सूर्योदय वर्णन से
47. 'भामिनीविलास' काव्य के रचयिता कौन हैं? – जगन्नाथ
48. किरातार्जुनीय महाकाव्य के प्रथम सर्ग में प्राय: प्रयुक्त छन्द कौन सा है? – वंशस्थ
49. सर्वप्रथम 'पञ्चतन्त्र' का सम्पादन किस विदेशी विद्वान ने किया? – हर्टेल
50. संस्कृत साहित्य में हास्य-व्यंग्य का सर्वश्रेष्ठ रचनाकार किसे माना जाता है? – दामोदर.
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